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Magazine - Year 1984 - Version 2

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तपश्चर्या से आत्म-शक्ति का उद्भव

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अरविन्द ने विलायत से लौटते ही अंग्रेजों को भगाने के लिए जो उपाय सम्भव थे, वे सभी किये। पर बात बनती न दिखाई पड़ी। राजाओं को संगठित करके, विद्यार्थियों की सेवा बनाकर, बनपार्टी गठित करके उनने देख लिया कि इतनी सशक्त सरकार के सामने यह छुटपुट प्रयत्न सफल न हो सकेंगे। इसके लिए समान स्तर की सामर्थ्य टक्कर लेने के लिए चाहिए। गान्धीजी के सत्याग्रह जैसा समय उन दिनों सम्भव नहीं था। ऐसी दशा में उनने आत्म-शक्ति उत्पन्न करने और उसके द्वारा वातावरण गरम करने का काम हाथ में लिया। अंग्रेजों की पकड़ से अलग हटकर वे पांडिचेरी चले गये और एकान्तवास- मौन साधना सहित विशिष्ट तप करने लगे।

लोगों की दृष्टि में वह पलायनवाद भी हो सकता था पर वस्तुतः वैसा था नहीं। सूक्ष्म दर्शियों के अनुसार उसके द्वारा अदृश्य स्तर की प्रचण्ड ऊर्जा उत्पन्न हुई। वातावरण गरम हुआ और एक ही समय में देश के अन्दर इतने महापुरुष उत्पन्न हुए, जिसकी इतिहास में अन्यत्र कहीं भी तुलना नहीं मिलती। राजनैतिक नेता कहीं भी उत्पन्न हो सकते हैं और कोई भी हो सकते हैं किन्तु महापुरुष हर दृष्टि से उच्चस्तरीय होते हैं। उनका व्यक्तित्व कहीं अधिक ऊँचा होता है इसलिए जन-मानस को उल्लसित आन्दोलित करने की क्षमता भी उन्हीं में होती है। दो हजार वर्ष की गुलामी में बहुत कुछ गँवा बैठने वाले देश को ऐसे ही कर्णधारों की आवश्यकता थी। वे एक नहीं अनेकों एक ही समय में उत्पन्न हुए। प्रचण्ड ग्रीष्म में उठते चक्रवातों की तरह। फलतः अरविन्द का वह संकल्प कालान्तर में ठीक प्रकार सम्पन्न हुआ जिसे वे अन्य उपायों से पूरा कर सकने में समर्थ न हो पा रहे थे।

यहाँ आत्मबल की महिमा स्पष्ट है और साथ ही यह भी प्रकट है कि उत्पादन कथा वार्ता कहने सुनने या जंत्र, मन्त्रों की हथफेरी करने में भी नहीं होता। देवता सस्ती वाहवाही सुनकर या छोटी-मोटी भेंट पूजा पाकर वशवर्ती हो जाते हैं और तथाकथित भक्तजनों की मनोकामना बिना उचित अनुचित का विचार किये तत्काल पूरी करने लगते हैं, यह मान्यता आदि से अन्त तक गलत है। देव शक्तियाँ व्यक्तित्व की पवित्रता एवं प्रखरता परख कर सदय होती हैं और कुछ देने से पूर्व पूरी तरह इस बात की जाँच पड़ताल करती हैं कि आकांक्षा का उद्देश्य क्या है? यदि वह उच्चस्तरीय पारमार्थिक हुआ तो ही तालमेल बैठता है अन्यथा भौतिक कामनाएँ मुफ्त में पूरी कराने के षड़यंत्रों को वे तिरस्कारपूर्वक निरस्त कर देती हैं। इसलिए आत्म-शक्ति के उपार्जन के तत्वज्ञान और विधि-विधान रहस्य समझने वाले समझते हैं कि उसके लिए जीवन को तपाकर खरे सोने जैसा बनाने वाली तपश्चर्या ही एकमात्र उपाय है। उससे बच निकलने का कोई शार्टकट नहीं।

पूजा पत्री की विधि-व्यवस्था आरम्भिक छात्रों का अभ्यास आरम्भ कराने वाले उपचार हैं। बड़े कामों के लिए बड़े अस्त्र-शस्त्र, उपाय-पराक्रम अपनाने पड़ते हैं। तपश्चर्या को इसके लिए आवश्यक माना गया है। यदि बात ऐसी न होती तो उस कष्ट साध्य काम में कोई हाथ न डालता। सभी पूजा पत्री की छुटपुट खेल खिलवाड़ करके देवताओं को बरगलाने, फुसलाने और उनकी जेब काट लेने में सहज ही समर्थ हो गये होते। तब मन्दिरों के पुजारी, कर्मकाण्डी पण्डित और भजन-पूजन में निरत बाबा लोग सचमुच ही सिद्ध पुरुष होते। पर देखा यह गया है कि उनमें से एक भी ऐसा नहीं होता जिससे सस्ते उपचारों से बहुमूल्य उपलब्धियाँ प्राप्त होने जैसा कोई प्रमाण परिचय उपलब्ध हो सके।

अध्यात्म विज्ञान के इतिहास में उच्चस्तरीय उपलब्धियों के लिए तप साधना ही एकमात्र विधान उपचार है। वह सुविधा भरी- विलासी रीति-नीति अपनाकर सम्पादित नहीं की जा सकती। एकाग्रता और एकात्मता संपादित करने के लिए बहुमुखी डडडडब्राहाचरों में प्रचार प्रयोजनों में भी निरत नहीं रहा जा सकता। उससे शक्तियाँ बिखरती हैं। फलतः केन्द्रीकरण का वह प्रयोजन पूरा नहीं होता जो सूर्य किरणों की आतिशी शीशे पर केन्द्रित करने की तरह अग्नि उत्पादन जैसी प्रचण्डता उत्पन्न कर सके। अठारह पुराण लिखते समय व्यास उत्तराखण्ड की गुफाओं में वसोधरा शिखर के पास चले गये। साथ में लेखन कार्य की सहायता करने के लिए गणेश जी इस शर्त पर रहे कि एक शब्द भी बोले बिना सर्वथा मौन रहेंगे। इतना महत्वपूर्ण कार्य इससे कम में सम्भव भी नहीं हो सकता था।

भारतीय स्वाधीनता संग्राम के दिनों महर्षि रमण का मौन तप चलता रहा। इसके अतिरिक्त भी हिमालय में अनेकों उच्चस्तरीय आत्माओं की विशिष्ट तपश्चर्याएँ इसी निमित्त चली। राजनेताओं द्वारा संचालित आंदोलनों को सफल बनाने में इस अदृश्य सूत्र संचालन का कितना बड़ा योगदान रहा इसका स्थूल दृष्टि से अनुमान न लग सकेगा किन्तु सूक्ष्मदर्शी तथ्यान्वेषी उन रहस्यों पर पूरी तरह विश्वास करते हैं।

जितना बड़ा कार्य उतना बड़ा उपाय उपचार के सिद्धान्त को ध्यान में रखते हुए इस बार की विशिष्ट तपश्चर्या वातावरण के प्रवाह को बदलने सुधारने के लिए की गई है। इसलिए उसका स्तर और स्वरूप कठिन है। आरम्भिक दिनों में जो काम कन्धे पर आया था वह भी लोक-मानस को परिष्कृत करने, जागृत आत्माओं को एक संगठन सूत्र में पिरोने और रचनात्मक गतिविधियों का उत्साह उभारने का था। इसके लिए वक्ता, संगठन, गायक एवं प्रचार साधन जुटाने से काम चलने वाला न था। इतने भर से काम चल जाया करे तो इसकी व्यवस्था सम्पन्न लोग अपनी जेब से अथवा दूसरों से माँग-जाँचकर आसानी से पूर्ण कर लिया करते और अब तक स्थिति को बदलकर कुछ से कुछ बना लिया गया होता। कइयों ने पूरे जोर-शोर से ये प्रयत्न किये भी हैं। प्रचारात्मक साधनों के अम्बार भी जुटाये हैं पर उनके बलबूते कुछ ऐसा न बन पड़ा जिसका कारगर प्रभाव हो सके। वस्तुस्थिति को समझने वाले निर्देशक ने सर्वप्रथम एक ही काम सौंपा। चौबीस साल की गायत्री महापुरश्चरण साधना शृंखला का। पिछले तीस वर्षा में जो कुछ बन पड़ा उसमें उसका श्रेय है। कमाई की वह हुण्डी ही अब तक काम देवी रही। अपना, व्यक्ति विशेष का, समाज का, संस्कृति का यदि कुछ भला अपने द्वारा बन बड़ा तो इसमें इस चौबीस वर्ष के संचित भण्डार को खर्च किये जाने की बात ही समझी जा सकती है। उस समय भी मात्र जप संख्या ही पूरी नहीं की गई थी वरन् साथ ही कितने ही अनुबन्ध-अनुशासन एवं व्रत पालन भी जुड़े हुए थे।

जप संख्या तो ज्यों-त्यों करके कोई भी खाली समय वाला पूरी कर सकता है पर विलासी एवं अस्त-व्यस्त जीवनचर्या अपनाने वाला कोई व्यक्ति उतनी भर चिन्ह पूजा से कोई बड़ा काम नहीं कर सकता। साथ में तपश्चर्या के कठोर विधान भी जुड़े रहने चाहिए जो स्थूल, सूक्ष्म और कारण तीनों ही शरीरों को तपाते और हर दृष्टि से समर्थ बनाते हैं। संचित कषाय-कल्मष भी आत्मिक प्रगति के मार्ग में बहुत बड़े व्यवधान होते हैं। उनका निवारण एवं निराकरण भी इसी भट्टी में प्रवेश करने से बन पड़ता है। जमीन में से निकालते समय लोहा मिट्टी मिला कच्चा होता है। अन्य धातुएँ भी ऐसी ही अनगढ़ स्थिति में होती हैं। उन्हें भट्टी में डालकर तपाया और प्रयोग के उपयुक्त शुद्ध बनाया जाता है। रस शास्त्री बहुमूल्य रस भस्में बनाने के लिए कई-कई अग्नि संस्कार करते हैं। कुम्हार के पास बर्तन पकाने के लिए उन्हें आँवे में तपाने के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं। मनुष्यों पर भी यही नियम लागू होते हैं। ऋषि मुनियों की सेवा साधना, धर्म धारणा तो प्रकट है ही, साथ ही वे अपने लक्ष्य की पूर्ति के लिए आवश्यक शक्ति अर्जित करने के लिए तपश्चर्या भी समय-समय पर अपनाते रहते थे। यह प्रक्रिया अपने-अपने ढंग से हर महत्वपूर्ण व्यक्ति को सम्पन्न करनी पड़ी है, करनी पड़ेगी। क्योंकि ईश्वरप्रदत्त शक्तियों का उन्नयन, परिपोषण इसके बिना हो नहीं सकता। व्यक्तित्व में पवित्रता, प्रखरता और परिपक्वता न हो तो कहने योग्य- सराहने योग्य सफलताएँ प्राप्त कर सकने का सुयोग ही नहीं बनता। कुचक्र छद्म और आतंक के बलबूते उपार्जित की गई सफलताएँ जादू के तमाशे में हथेली पर सरसों जमाने जैसे चमत्कार दिखाकर तिरोहित हो जाती हैं। बिना जड़ का नकली पेड़ कब तक टिकेगा और किस प्रकार फूलेगा-फलेगा।

तपश्चर्या के मौलिक सिद्धान्त हैं- संयम और सदुपयोग। इन्द्रिय संयम से, पेट ठीक रहने से स्वास्थ्य नहीं बिगड़ता। ब्रह्मचर्य पालन से मनोबल का भण्डार चुकने नहीं पाता। अर्थ संयम से, नीति की कमाई से औसत भारती स्तर का निर्वाह करना पड़ता है, फलतः न दरिद्रता फटकती है और न बेईमानी की आवश्यकता पड़ती है। समय संयम से व्यस्त दिनचर्या बनाकर चलना पड़ता है और श्रम तथा मनोयोग को निर्धारित सत्प्रयोजनों में लगाये रहना पड़ता है। फलतः कुकर्मों के लिए समय ही नहीं बचता। जो बन पड़ता है, श्रेष्ठ और सार्थक ही होता है। विचार संयम से एकात्मता सधती है। आस्तिकता, आध्यात्मिकता और धार्मिकता का दृष्टिकोण विकसित होता है। भक्तियोग, ज्ञानयोग, कर्मयोग की साधना सहज सधती रहती है। संयम का अर्थ है- बचत। चारों प्रकार का संयम बरतने पर मनुष्य के पास इतनी अधिक सामर्थ्य बच रहती है, जिसे निर्वाह परिवार के अतिरिक्त महान प्रयोजनों में प्रचुर मात्रा में भली प्रकार लगाया जाता रहे। संयमशीलों को वासना, तृष्णा और अहंता की खाई पाटने में मरना खपना नहीं पड़ता इसलिए सदुद्देश्यों की दिशा में कदम बढ़ाने की आवश्यकता पड़ने पर व्यस्तता, अभावग्रस्तता, चिन्ता, समस्या आदि के बहाने नहीं गढ़ने पड़ते। स्वार्थ-परमार्थ साथ-साथ सधते रहते हैं और हँसती-हँसाती हलकी-फुलकी जिन्दगी जीने का सहज अवसर मिल जाता है। इसी मार्ग पर अब से 60 वर्ष पूर्व मार्गदर्शक ने चलना सिखाया था। वह क्रम अनवरत रूप से चलता रहा। जब भी कोष चुकता और पैर लड़खड़ाता दीखा तभी हिमालय के वातावरण में बैटरी चार्ज करने के लिए बुलाया जाता रहा। विगत तीस वर्षों में एक-एक वर्ष के लिए एकान्तवास ओर विशेष साधना उपक्रम के लिए जाना पड़ा है। इसका उद्देश्य एक ही था। तपश्चर्या के उत्साह और पुरुषार्थ में- श्रद्धा और विश्वास में कहीं कोई कमी न पड़ने पाये। जहाँ कमी पड़ रही हो उसकी भरपाई होती रहे। भगीरथ शिला- गंगोत्री में की गई साधना से धरती पर ज्ञान गंगा की- प्रज्ञा अभियान की- अवतरण की क्षमता एवं दिशा मिली। एक बार उत्तर काशी के परशुराम आश्रम में वह कुल्हाड़ा उपलब्ध हुआ जिसके सहारे व्यापक अवाँछनीयता के प्रति लोक-मानस में विक्षोभ एवं आक्रोश उत्पन्न किया जा सके। पौराणिक परशुराम ने धरती पर से अनेक आततायियों के अनेकों बार सिर काटे थे। अपना सिर काटना- “ब्रेन वाशिंग” है। विचार क्रान्ति एवं प्रज्ञा अभियान में सृजनात्मक ही नहीं सुधारात्मक प्रयोजन भी सम्मिलित हैं। यह दोनों ही उद्देश्य जिस प्रकार, जितने व्यापक क्षेत्र में जितनी सफलता के साथ सम्पन्न होते रहे हैं, उसमें न शक्ति कौशल है, न साधनों का चमत्कार, परिस्थितियों का संयोग यह मात्र तपश्चर्या की सामर्थ्य से ही सम्पन्न हो सका।

यह जीवनचर्या के अद्यावधि भूतकाल का विवरण हुआ। वर्तमान में इसी दिशा में एक बड़ी छलाँग लगाने के लिए उस शक्ति ने निर्देश किया है, जिस सूत्रधार के इशारों पर कठपुतली की तरह नाचते हुए समूचा जीवन गुजर गया। अब हमें तपश्चर्या की एक नवीन उच्चस्तरीय कक्षा में प्रवेश करना पड़ेगा। इसी की हलचल ऊहापोह एवं प्रतिक्रिया के सम्बन्ध में चल रही चर्चाओं का इन पंक्तियों में समाधान किया जा रहा है। सर्वसाधारण को इतना ही पता है कि हमें एकान्तवास करेंगे। किसी से मिलेंगे-जुलेंगें नहीं। यह जानकारी सर्वथा अधूरी है। क्योंकि जिस व्यक्ति के रोम-रोम में कर्मठता, पुरुषार्थ-परायणता नियमितता, व्यवस्था भरी पड़ी हो वह इस प्रकार का निरर्थक और निष्क्रिय जीवन जी ही नहीं सकता, जैसा कि समझा जा रहा है। एकान्तवास में हमें पहले की अपेक्षा अधिक श्रम करना पड़ेगा। अधिक व्यस्त रहना पड़ेगा तथा लोगों से न मिलने की विद्या अपनाने पर भी इतनों से, ऐसों से संपर्क सूत्र जोड़ना पड़ेगा जिनके साथ बैठने में ढेरों का ढेरों समय चला जाता है पर मन नहीं भरता। फिर एकान्त कहाँ हुआ? न मिलने की बात कहाँ बन पड़ी? मात्र कार्य शैली में ही राई रत्ती परिवर्तन हुआ। मिलने-जुलने वालों का वर्ग एवं विषय भर बदला। ऐसी दशा में अकर्मण्य और पलायनवाद का दोष ऊपर कहाँ लदा? तपस्वी सदा ऐसी ही रीति-नीति अपनाते हैं। वे निष्क्रिय दीखते भर हैं, वस्तुतः अत्यधिक व्यस्त रहते हैं। लट्टू जब पूरे वेग से घूमता है तब स्थिर खड़ा भर दीखता है। उसके घूमने का पता तो तब चलता है, जब चाल धीमी पड़ती है और बैलेन्स लड़खड़ाने पर ओधा गिरने लगता है।

आइन्स्टीन जिन दिनों अत्यधिक महत्वपूर्ण अणु अनुसन्धान में लगे थे उन दिनों उनकी जीवनचर्या में विशेष प्रकार का परिवर्तन किया गया था। वे भव्य भवन में एकाकी रहते थे। सभी साधन सुविधाएँ उसमें उपलब्ध थीं। साहित्य, प्रयोग उपकरण एवं सेवक सहायक भी। वे सभी दूर रखे जाते थे ताकि एकान्त में एकाग्रतापूर्वक बन पड़ने वाले चिन्तन में कोई व्यवधान उत्पन्न न हो। वे जब तक चाहते नितान्त एकान्त में सर्वथा एकाकी रहते। कोई उनके कार्य में तनिक भी विक्षेप नहीं कर सकता था। जब वे चाहते घण्टी बजाकर नौकर बुलाते और सभी वस्तु या व्यक्ति प्राप्त कर लेते। मिलने वाले मात्र कार्ड जमा करा जाते और जब कभी उन्हें बुलाया जाता तब की महीनों प्रतीक्षा करते। घनिष्ठता बताकर कोई भी उनके कार्य में विक्षेप नहीं कर सकता था। इतना प्रबन्ध बन पड़ने पर ही उनके लिए यह सम्भव हुआ कि संसार को आश्चर्यचकित कर देने वाली मनुष्य जाति को महान अनुदान देने वाली उपलब्धियाँ प्रस्तुत कर सके। यदि यारबासो से घिरे रहते, उथले कार्यों में रस लेकर समय गुजारते तो अन्यान्यों की तरह वे भी बहुमूल्य जीवन का कोई कहने लायक लाभ न उठा पाते।

प्राचीन काल के ऋषि तपस्वियों की जीवनचर्या ठीक इसी प्रकार की थी। उनके सामने आत्म विज्ञान से सम्बन्धित अगणित अनुसन्धान कार्य थे। उनमें तन्मयतापूर्वक अपना कार्य कर सकने के लिए वे कोलाहल रहित स्थान निर्धारित करते थे और पूरी तन्मयता के साथ निर्धारित प्रयोजनों में लगे रहते थे।

अपने सामने भी प्रायः इसी स्तर के नये कार्य करने के लिए रख दिये गये। ये बहुत वजनदार है, साथ ही बहुत महत्वपूर्ण भी। इनमें से एक है- विश्वव्यापी सर्वनाशी विभीषिकाओं को निरस्त कर सकने योग्य आत्मशक्ति उत्पन्न करना। दूसरा है- सृजन शिल्पियों को जिस प्रेरणा और क्षमता के बिना कुछ करते-धरते नहीं बन पड़ रहा हैं उसकी पूर्ति करना। तीसरा है- नवयुग के लिए जिन सत्प्रवृत्तियों का सूत्र संचालन होना है, उनका ताना-बाना बुनना और ढाँचा खड़ा करना। यह तीनों ही कार्य ऐसे हैं जो अकेले स्थूल शरीर से नहीं बन सकते। उसकी सीमा और सामर्थ्य अति न्यून है। इन्द्रिय सामर्थ्य थोड़े दायरे में काम कर सकती है और सीमित वजन उठा सकती है। हाड़-माँस के पिण्ड में बोलने, सोचने, चलने, करने कमाने, पचाने की बहुत थोड़ी सामर्थ्य है। उतने भर से सीमित काम हो सकता है। सीमित कार्य से शरीर यात्रा चल सकती है और समीपवर्ती सम्बद्ध लोगों का यत्किंचित् भला हो सकता है। अधिक व्यापक और अधिक बड़े कामों के लिए सूक्ष्म और कारण शरीरों के विकसित किये जाने की आवश्यकता पड़ती है। तीनों जब समान रूप में सामर्थ्यवान और गतिशील होते हैं। तब कहीं इतने बड़े काम बन सकते हैं। जिनके करने की इन दिनों आवश्यकता पड़ गई है।

रामकृष्ण परमहंस के सामने यही स्थिति आई थी। उन्हें व्यापक काम करने के लिए बुलाया गया। योजना के अनुसार उनने अपनी क्षमता विवेकानन्द को सौंप दी तथा उनके कार्यक्षेत्र की सरल और सफल बनाने के लिए आवश्यक ताना-बाना बुन देने का कार्य सम्भाला। इतना बड़ा काम वे मात्र स्थूल शीरी के सहारे कर नहीं पा रहे थे। सो उनने उसे निःसंकोच छोड़ भी दिया। बैलेन्स से अधिक वरदान देते रहने के कारण उन पर ऋण भी चढ़ गया था। उसकी पूर्ति के बिना गाड़ी रुकती। इसलिए स्वेच्छापूर्वक कैंसर का रोग भी ओढ़ लिया। इस प्रकार ऋण मुक्त होकर विवेकानन्द के माध्यम से उस कार्य में जुट गये जिसे करने के लिये उनकी निर्देशक सत्ता ने उन्हें संकेत किया था। प्रत्यक्षतः रामकृष्ण तिरोहित हो गये। उनका अभाव खटका, शोक भी बना। पर हुआ वह जो श्रेयस्कर था। दिवंगत होने के उपरान्त उनकी सामर्थ्य हजार गुनी अधिक बढ़ गई। इसके सहारे उनने देश एवं विश्व में अनेकानेक सत्प्रवृत्तियों का सम्वर्धन किया। जीवन काल से वे भक्तजनों को थोड़ा बहुत आशीर्वाद देते रहे और एक विवेकानन्द को अपना संग्रह सौंपने में समर्थ हुए। पर जब उन्हें सूक्ष्म और कारण शरीर से काम करने का अवसर मिल गया तो उनसे उत्तरी क्षेत्रों में इतना अधिक काम किया जा सका जिसका लेखा-जोखा ले सकना सामान्य स्तर की जाँच पड़ताल से समझ सकना सम्भव नहीं।

ईसा की जीवनचर्या भी ऐसी है। वे जीवन भर में बहुत दौड़ धूप के उपरान्त मात्र 13 शिष्य बना सके। देखा कि स्थूल शरीर की क्षमता से उतना बड़ा काम न हो सकेगा जितना वे चाहते हैं, ऐसी दशा में यही उपयुक्त समझा कि सूक्ष्म शरीर का अवलम्बन कर संसार भर में ईसाई मिशन फैला दिया जाय। ऐसे परिवर्तनों के समय महापुरुष पिछला हिसाब-किताब साफ करने के लिए कष्टसाध्य मृत्यु का वरण करते हैं। ईसा का क्रूस पर चढ़ना, सुकरात का विष पीना, कृष्ण के तीर लगना, पाण्डवों का हिमालय में गलना, गाँधी का गोली खाना, आद्य शंकराचार्य को भगन्दर होना यह बताता है कि अगले महान प्रयोजनों के लिए जिन्हें स्थूल से सूक्ष्म में प्रवेश करना होता है, वे उपलब्ध शरीर का इस प्रकार अन्त करते हैं, जिसे बलिदान स्तर का- प्रेरणा प्रदान करने वाला और अपने चलते समय का पवित्रता, प्रखरता प्रदान करने वाला कहा जा सके।

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