Magazine - Year 1984 - Version 2
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Language: HINDI
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शरीर रहते निष्क्रियता अपनाने का क्या प्रयोजन?
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शरीर और आत्मा का चोली दामन जैसा साथ है। आत्मा को इसमें रहने का स्वेच्छा आकर्षण होता है। इसलिए गर्भकाल कष्ट, मृत्यु कष्ट जैसी अनेकों यातनाएँ सहते और आये दिन संघर्ष करने का कष्ट रहते हुए भी वह उसी में बार-बार निवास करने के लिए मचलती है। कहने को जन्म-मरण की व्यथा पर क्षोभ प्रकट करते हुए भी विज्ञजन इसी को धारण करने के लिए लौट पड़ते हैं। कितने ही जीवन मुक्त इसके लिए बाधित किये जाते हैं। भगवान के पार्षद सदा रिवर्स फोर्स में उनके समीप ही नहीं बैठे रहते वरन् समय की आवश्यकताएँ पूरी करने के लिए समय-समय पर मार्गदर्शकों की भूमिका निभाने के लिए लौटते हैं। आत्मा अमर है, अदृश्य है तो भी उसका परिचय इस शरीर से ही मिलता है। इन्हीं विशेषताओं के कारण वही आत्मा को परम प्रिय है। उसे सजाने सुविधाओं के अम्बार लगाने में वह चूकता भी नहीं। यहाँ तक कि कुकर्मरत होकर भावी दुष्परिणामों को जानते हुए भी उसे सन्तोष देने, प्रसन्न करने के लिए वैसा ही कुछ करता है, जैसा कि स्नेह दुलार भरे अभिभावक अपने इकलौते बेटे की मनमर्जी-हठधर्मी पूरी करने के लिए करते रहते हैं। संक्षेप में यही है शरीर और आत्मा का मध्यवर्ती संपर्क सूत्र और सघन सहयोग का सार संक्षेप।
अपने को भी यह शरीर लेकर जन्मना पड़ा और जो कुछ भी भला-बुरा बन पड़ा है- सो इसी के माध्यम से सम्पन्न किया है। इसे निरोग और दीर्घजीवी रखने के लिए ईमानदारी और सतर्कता के साथ प्रयत्न किया है। सदा इसे सृष्टा की अमानत माना और उसमें सन्निहित क्षमताओं को उभारते हुए श्रेष्ठतम सदुपयोग का ध्यान रखा है। आत्म-उत्कर्ष और लोक-मंगल के विभिन्न जो प्रयास बन पढ़े हैं उसके पीछे प्रेरणा तो चेतना में से ही उभरी है पर श्रम तो शरीर को ही करना पड़ता है। इसलिए इस अनन्य सेवक और परम सहयोगी शरीर के प्रति हमारा घनिष्ठ मैत्री भाव है। इसके प्रति असीम स्नेह और सम्मान भी। इसे सार्थक और श्रेयाधिकारी बनाने के लिए कुछ उठा नहीं रखा है। जीवन को निरर्थक मानने, उसे भारभूत समझने की भूल कभी भी नहीं की। मल-मूत्र की गठरी इसे कोई भी क्यों न कहता रहे झंझटों से निपटने के लिए मरने की प्रतीक्षा अन्य कोई भले ही करता रहे, पर अपने मन में ऐसे विचार कभी भी नहीं उठे। न मरने की जल्दी पड़ी और न इसे भारभूत समझकर ऐसे ही खीजते-खिजाते दिन गुजारे। समय के एक-एक क्षण का सदुपयोग करने की बात हर समय ध्यान में रही। सोचा जाता रहा कि सृष्टा की सर्वोत्तम कलाकृति का अनुदान मिला है तो इसी जीवन का श्रेष्ठतम सदुपयोग क्यों न कर लिया जाय। गिनी-चुनी साँसें मिलती हैं। इनका सदुपयोग करने में ही बुद्धिमानी है। जब बुद्धि मिल ही गई तो जीवन की हर इकाई का हर साँस का श्रेष्ठतम प्रयोग करने में क्यों चूका जाय? यही चिन्तन सिर पर सदा छाया रहा, फलतः समय कदाचित ही कभी निरर्थक गया हो। शरीर को नित्यकर्म और आवश्यक क्षणिक विश्राम के उपरान्त कदाचित् ही कभी खाली रहने दिया गया हो। इसका सन्तोष है।
यों जन्म कितने ही लिये हैं और अभी कितने ही और लेने पड़ेंगे पर जहाँ तक स्मरण आता है, इतने लम्बे समय तक- इतनी समझदारी के साथ अन्य शरीरों का इतना महत्वपूर्ण सदुपयोग नहीं बन पड़ा। ऐसी दशा में कृतज्ञता का तकाजा है कि मात्र रूखी रोटी खाकर उतना कठिन सेवा धर्म निबाहने वाले शरीर का भरा-पूरा अहसान माना जाय और उसे सदा सर्वदा साथ रखने और काम देने- काम लेने के बहाने मैत्री धर्म का लम्बे समय तक निर्वाह किया जाय।
इस स्थिर विचारधारा के रहते हुए हमें इन दिनों कुछ ऐसे कदम उठाने पड़ रहें हैं जो उपरोक्त प्रतिपादन से लगभग ठीक उल्टे पड़ते हैं। नये निर्धारणों के अनुसार अब इस शरीर का लोकोपयोगी प्रयोग घटते-घटते समाप्त हो जायेगा और वह नित्य कर्म जैसे कुछ सीमित कार्यों में ही प्रयुक्त होता दीख पड़ेगा। लोकोपयोगी सेवा कार्यों में निरंतर संलग्न रहने का अभ्यस्त शरीर भविष्य में निष्क्रिय जैसी स्थिति में समय गुजारे इसमें औरों को आश्चर्य और अपनों को असमंजस हो सकता है। इसमें समाज को उपयोगी सेवा कार्यों से वंचित होना पड़ेगा और जन-कल्याण की दृष्टि से अभी बहुत कुछ करने की जो स्थिति थी उसमें कमी पड़ सकती है। कम से कम प्रत्यक्षतः तो स्पष्ट ही ऐसा दीखता है। अब तक जो बन पड़ा है शरीर से ही बना है। अस्तु सहज ही यह आशा की जा सकती है कि भविष्य में भी जब तक यह काम देगा, पिछले दिनों जितने भी महत्वपूर्ण काम करेगा। परिपक्वता बढ़ जाने के कारण यों आशा तो और भी अधिक की जा सकती है। इतने उपयोगी शरीर तन्त्र को इतने आड़े समय में इस प्रकार स्वेच्छापूर्वक जाम कर दिया जाय, यह सामान्य रीति से समक्ष में आने वाली बात नहीं है।
ईश्वरेच्छा से तो कुछ भी हो सकता है। मरण सभी का निश्चित है। कभी कोई पक्षघात आदि से भी असमर्थ हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में सन्तोष कर लिया जाता और विधि का विधान समझकर किसी प्रकार मन समझा लिया जाता है। संसार चक्र ऐसा ही है जिनमें कभी किसी के बिना काम नहीं रुका। अवतार, ऋषि, देव मानव इस धरती पर आये और बड़े महत्वपूर्ण कार्य करते रहे पर जब चले गये तो कुछ समय ही उनका अभाव खटका। बाद में ढर्रा अपने ढंग से चलने लगा। किसी के रहने न रहने से इतनी बड़ी दुनिया का गतिचक्र रुकता नहीं है। पर यह होता विवशता पूर्वक। जाने वाले बुलाये गये हैं। अपने आप मैदान छोड़ भागने वालों को पलायनवादी कहा और धिक्कारा जाता है। मिलिटरी में तो ऐसे समर्थ सेवारतों के भाग खड़े होने पर कोर्टमार्शल तक होता है। यह बातें ध्यान में न रही हों सो बात नहीं। फिर क्या कारण हुआ कि गतिविधियाँ काम करने का निश्चय बन पड़ा।
इस नये निश्चय में कई वर्षों की कई प्रकार की हानियाँ दृष्टिगोचर हो सकती हैं। सर्वप्रथम अपने को- जिसने आजीवन एक से एक बढ़कर कठिन और महत्वपूर्ण काम करने की आदत डाली और प्रसन्नता अनुभव की हो उसको समर्थ रहते निष्क्रिय हो बैठना कितना कठिन पड़ेगा। कितना मन मारना पड़ेगा। इसे कोई मुक्त भोगी ही समझ सकता है। निष्क्रिय पड़े लोहे को जंग खा जाती है। प्रकृति के नियम सब पर एक समान लागू होते हैं। निठल्लापन चढ़ते ही हाथ-पैर जकड़ सकते हैं, ऊब चढ़ सकती है और भारभूत जिन्दगी जल्दी समाप्त हो सकती है।
द्वितीय वह वर्ष आता है जो हमें लोक सेवक की दृष्टि से देखता है। उसे आघात लगेगा- स्थूल दृष्टि से करनी और कथनी में अन्तर देखकर अपने द्वारा हर किसी को युग धर्म निभाने के समय निकालने के उपदेश दिये जाते रहे हैं। लाखों ने उन्हें अपनाया भी है। तथाकथित भजनानंदी लोगों को कुटिया छोड़कर प्रव्रज्या पर निकल पड़ने की प्रेरणा मिली है। जिनके पास जो समय बचता है, उसे उसने जन-कल्याण में लगाने का नया व्रत लिया है औरों को ऐसा उपदेश देने के उपरान्त स्वयं एकान्त सेवी बन जाना, हर किसी को अटपटा लगेगा। सामने न सही पीठ पीछे तो लोग इसमें करनी और कथनी का अन्तर देखेंगे ही और जो मन में है, उसे प्रकट भी करेंगे। इस प्रकार प्रशंसा निन्दा में बदलेगी। कहने वाले इसे समाज के साथ विश्वासघात भी कहेंगे। जिनके पास है और वे दें नहीं तो कृपण या निष्ठुर कहे जाते हैं, ऐसा लाँछन अपने ऊपर भी तो लग सकता है। संचित प्रशंसा और प्रतिष्ठा पर इस कारण हरताल फिर और कालिख पुत सकती है।
तीसरा वर्ग वह है कि जो कन्धे से कन्धा और कदम से कदम मिलाकर साथ देता और साथ चलता रहा है। इस वर्ग में से जो अधिक साहसी हैं, वे प्रथम पंक्ति में आकर जीवनदानी बने हैं। शान्ति-कुँज, ब्रह्मवर्चस् एवं गायत्री तपोभूमि में रह रहे हैं। सन्त और ब्राह्मण की जीवनचर्या जिनने अपनाई है। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह और बारह घण्टे जमकर काम करने का जिसमें ऋषि-मुनियों जैसा जीवनक्रम अपनाया है। ऐसे परिवार 200 से भी अधिक हैं। फिर ऐसे परिवार दो हजार हैं जो मनुष्य हरिद्वार तो नहीं बुलाये गये पर अपने-अपने कार्यक्षेत्रों में रहकर काम करने के लिए नियुक्त कर दिये गये हैं। प्रज्ञा पीठों का संचालन प्रायः ऐसे ही लोग कर रहें है। वरिष्ठ प्रज्ञा पुत्रों की परिव्राजक भूमिका निरन्तर निभा रहे हैं।
समाज सेवा से जिनका कोई प्रत्यक्ष सम्बन्ध नहीं हैं, जो व्यक्तिगत जीवन तक ही सीमित हैं, जो पत्रिकाओं के- साहित्य के माध्यम से प्रकाश प्राप्त करते रहते हैं जो पत्र-व्यवहार द्वारा गुत्थियों को सुलझाने और सुखी समुन्नत बनने के लिए प्रकाश प्राप्त करते रहते हैं, उनकी संख्या भी कम नहीं है। जिनका सहज स्नेह है वे ऐसे ही जब मन में उमंग उठती है तब हरिद्वार अकारण भी दौड़ पड़ते हैं। तीर्थयात्रा पर्यटन के बहाने परिवार को लेकर हजारों लाखों हर वर्ष आते हैं। ठहरने की सुविधा शहर में होते हुए भी ढेरों मार्ग-व्यय और आने-जाने का झंझट उठाते हुए भी शान्ति-कुँज पहुँचते हैं, ठहरते हैं। इस समुदाय में हैरानियों से राहत पाने के इच्छुक ही नहीं, उत्साहवर्धक प्रगति पर प्राप्त करने के उत्सुक ही नहीं- ऐसे लोगों की भी कमी नहीं है, जिनका सहज स्नेह है। यह स्नेह ही उन्हें ढेरों पैसा और समय खर्च करके दर्शन करने का नाम लेकर एक बार नहीं बार-बार आने को विवश करता रहता है। इनकी सहज और सघन आत्मीयता सहज ही जानी और छलकती झलकी देखी जा सकती है।
इस समुदाय को जब विदित होगा कि निष्क्रियता ही नहीं अपनाई गई, मिल-जुल कर और बोलना बात करना तक बन्द कर दिया गया तो निश्चय ही उन्हें चोट लगेगी। जो लोग हमें प्रेम, बटोरने और लुटाने वाला मानते रहे हैं, उन्हें नीरस, निष्ठुर कहते भी देर न लगेगी। इसमें उनका कसूर भी नहीं है। जो आंखों के सामने प्रत्यक्ष देखा जा रहा है उसे झुठलाया भी कैसे जाय?
हरिद्वार से शान्ति-कुँज जाने वाले ताँगे-रिक्शे वाले तक यह कहते सुने गये हैं कि गुरुजी अब समाधि ले रहे हैं तो हरिद्वार के इस सबसे अधिक चहल-पहल वाले आश्रम में भी सन्नाटा छा जायेगा। अब वे मिलेंगे-दिखेंगे ही नहीं तो दर्शनार्थियों- शिविरार्थियों की भीड़ क्यों आयेगी। हमारी भी रोजी-रोटी में कटौती होगी और आश्रम की शोभा महत्ता भी घट जायेगी। ईर्ष्यालुओं को भी अच्छा नहीं लग रहा है। वे तरह-तरह की नुक्ताचीनी करते रहने का एक बहाना तो बना जाते थे। अब बहाना भी न रहेगा तो चुहल-बाजों का एक प्रसंग भी हाथ से चला जायेगा। अब किसी और को भड़ास निकालने के लिए तलाशना पड़ेगा।
अनेकों ने अध्यात्म की सजीव प्रतिमा के रूप में हमें समझा है और उस तत्वज्ञान को अपनाये जाने का वास्तविक स्वरूप क्या हो सकता है, उसे समझने-समझाने के लिए एक जीवन्त उदाहरण सामने पाया है। “साधना से सिद्धि” के सिद्धान्त पर जिन्हें अनेकों सन्देह थे, जो फलश्रुतियों को प्रत्यक्ष की कसौटी पर खरा उतरते नहीं देखते थे, उन्हें ऋद्धि-सिद्धियों की बात कपोल-कल्पना भर लगती थी, ऐसे निराशा, उदास, दुःखी, असन्तुष्ट, अन्यमनस्क और अविश्वास की ओर चल पड़े लोगों में से अनेकों ने अपने विचार बदले हैं। प्रत्यक्ष परिणति देखकर उनके डगमगाते हुए पैर रुके हैं। अब जब कि वह प्रत्यक्ष प्रकाश भी बुझने जा रहा है तो अपना और किसी दूसरे का कब किस प्रकार वह विश्वास और साहस प्राप्त कर सकेगा जो पिछले दिनों करता रहा है।
ऐसे-ऐसे अनेकों आक्षेप, असमंजस इस नये निर्णय से उठते हैं। विगत बसन्त पर्व से यह नया निर्णय घोषित होने के उपरान्त फरवरी, मार्च, अप्रैल महीनों में जितने भी प्रज्ञा परिजन बसन्त सत्रों में अथवा सहानुभूतिवश शांति-कुँज आये हैं, उन सबके चेहरों पर इस असमंजस को उभरता देखा गया है। उचित समझा गया कि उकसा निराकरण समय रहते कर दिया जाय। विपन्न मनोदिशा में न स्वयं ही रहना चाहिए और न दूसरों को रहने देना चाहिए। यह उचित है। यह लेखमाला विशेष रूप से इसी निराकरण हेतु लिखी गई है।