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Magazine - Year 1984 - Version 2

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Language: HINDI
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अप्रत्यक्ष घाटे के पीछे परोक्ष लाभ ही लाभ है।

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आद्य शंकराचार्य, सन्त ज्ञानेश्वर, विवेकानंद, रामतीर्थ चारों स्वस्थ, मनोबल-सम्पन्न और तपस्वी होते हुए भी तीस वर्ष से कुछ ही अधिक समय जिये और शरीर त्याग गये। यह सामान्य घटनाऐं नहीं हैं। इनके पीछे कुछ विशेष रहस्य और कारण हैं। उनने देखा कि समय की माँग जितना करने की है, उतना स्थूल शरीर की परिधि में बाँधे रहने पर ठीक तरह बन नहीं पड़ रहा है। इसलिए सूक्ष्म शरीर को सक्रिय बनाया जाय। इस आधार पर कहीं अधिक व्यापक क्षेत्र में- कही अधिक काम हो सकता है। हाथ, पैर, आँख, जीभ वाला शरीर दिन भर में एक छोटी नियत मात्रा में ही काम कर सकता है। उसके भोजन, विश्राम, स्वच्छता, नित्यकर्म परिजन-परिकर जैसे सम्बद्ध प्रयोजन में ही ढेरों श्रम, समय खर्च हो जाता है। जो बचता है, वह अन्यान्यों की तुलना में भले ही अधिक हो पर आत्मा की शक्ति तथा समय की आवश्यकता को देखते हुए प्रायः कम ही पड़ता है। इस असन्तोष-असमंजस को दूर करने के लिए उन्होंने उच्चस्तरीय शरीरों को वरीयता देने के लिए स्थूल शरीर का परित्याग करना ही उचित समझा। यह आपत्तिकालीन निर्णय थे। सामान्य तथा स्थूल शरीर के डडडडड डडडडड मात्रा में सूक्ष्म और कारण शरीर को भी जागृत और सक्रिय रखा जा सकता है। कौन क्या करे? उसका निर्णय उसके स्वयं के विवेक और परिस्थितियों के तकाजे पर निर्भर है।

स्वामी रामतीर्थ ने दिवाली के दिन गंगा में जल समाधि ली। इससे एक दिन पूर्व उनने “मौत के नाम खत” नामक एक लम्बा लेख लिखा है। उसे ध्यानपूर्वक पढ़ने से उस मनःस्थिति और परिस्थिति का पता चलता है- जिसमें उन्हें ऐसा कदम उठाया पड़ा। वे लिखते हैं- ”ऐ मौत तू जल्दी आ ताकि इस बन्धन रूपी काया से निकल कर स्वच्छंद पवन में हाथ लहरा सकूँ, समुद्र की तरह लहरा सकूँ। दूरी और क्षेत्र का बन्धन न रहे। दृश्य शरीर को जो मानापमान सहना पड़ता है और दूसरी आवश्यकता जुटाने में जो समय खर्च करना पड़ता है, वह न करना पड़े। मैं बहुत कुछ करना चाहता हूँ। बड़ा और व्यापक बनना चाहता हूँ। पर यह शरीर बाधा पहुँचाता और सीमित रहने के लिए ही विवश करता है सो ए मौत! तू जल्दी आ। झंझट से छुड़ा और असीम के अंशधर जैसा पुरुषार्थ करने में समर्थ बना।

लगभग इन्हीं से मिलते-जुलते विचार उपरोक्त अन्यान्यों के रहे होंगे। योगाग्नि से शरीर का अन्त करने वालों की कितनी ही गाथाएँ हैं। उन्हें आत्महत्या नहीं कहा जा सकता। फिर आज जो असह्य वेदना होने की स्थिति में आत्महत्या को भी मनुष्य के मौलिक अधिकारों में सम्मिलित करने की माँग उठ रही है। गाँधी जी ने आश्रम के बछड़े की मृत्यु वेदना देखकर उसे शान्ति से मरने के लिए जहर की सुई लगवा दी थी। जापान में भी वैसा प्रचलन कुछ समय पूर्व तक रहा है। जो हो, यहाँ उपरोक्त महामानवों की उस स्थिति पर प्रकाश डाला गया है, जिसमें उनने सूक्ष्म शरीर को प्रमुखता दी और जल्दी उसके उपलब्ध न होते देख कर काया को तिलाँजलि तक दे दी।

यहाँ उपरोक्त कदम का समर्थन नहीं किया जा रहा है, वरन् सूक्ष्म शरीर सत्ता और महत्ता की तुलना में स्थूल शरीर को नगण्य ठहराने जाने की चर्चा है। सभी जानते हैं कि मन वायु वेग से चलता है, वह क्षण भर में कहीं से कहीं पहुंचता है। प्राण ऊर्जा के भण्डार से भरा होने के कारण वह इतना काम कर सकता है, जो शरीर धारियों के लिए अति कठिन है। योगाभ्यास के अधिकाँश विधि-विधान सूक्ष्म और कारण शरीर को समुन्नत बनाने और ऋद्धि-सिद्धियों के अधिष्ठाता बनने के लिए ही विनिर्मित हुए हैं।

पंचकोश, षट्चक्र, उपत्यिकाएँ, ग्रन्थियाँ, इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना जैसी सूक्ष्म नाड़ियां, कुण्डलिनी, सहस्रार, ब्रह्मरंध्र आदि दिव्य केन्द्रों को देवताओं का निवास ओर प्रसुप्त विभूतियों का भण्डार माना गया है। जिस अतीन्द्रिय क्षमताओं के आश्चर्यजनक क्रिया-कलापों का कहा डडडडडडडडडडड अब जोरों से हो रहा है और परामनोविज्ञान के- “मैटाफिजिक्स” के अंतर्गत जिनका सारगर्भित अनुसंधान चल रहा है, उन सबका धरातल सूक्ष्म शरीर में है। भूत-प्रेतों से लेकर देवी देवताओं तक वायुभूत काया में निवास करते ओर अपने-अपने ढंग से वे कार्य करते हैं जो शरीरधारी मनुष्य के लिए सम्भव नहीं। अष्ट-सिद्धियों में अणिमा, महिमा, लघिमा आदि का वर्णन है। हल्का, भारी, अदृश्य आदि हो जाना, परकाया प्रवेश द्वारा अपनी सामर्थ्य से अन्य शरीर धारी को प्रभावित करना जैसे अनेकों कार्य इसी क्षेत्र में आते हैं। अदृश्य सहायकों की चर्चा अनेक प्रामाणिक संदर्भों में होती रहती है। यह सूक्ष्म शरीर धारी आत्माएँ ही हैं। उच्चस्तरीय होने पर वे ही देवता जैसी भूमिकाएँ सम्पन्न करती हैं।

विक्रमादित्य के पास पाँच वीर थे। शंकरजी के साथ रहने पर वे वीरभद्र कहलाये। अलादीन के चिराग से जिन जिन फरिश्तों का सम्बन्ध जोड़ा गया है, वे भी कुछ रहे होंगे। सुकरात के साथ एक आत्मा रहती थी जिसे वे ‘डैमन’ कहते थे और हर महत्वपूर्ण कार्य वे उसकी सलाह से ही करते थे। सुषुप्ति और तुरीयावस्था में सूक्ष्म शरीर अधिक सक्रिय रहता है और ऐसे पूर्वाभासों का- दूर दृश्यों का पता लगाकर लाता है जो सामान्य बुद्धि और शक्ति में सर्वथा बाहर होती है। नारद का सूक्ष्म शरीर हो लोक-लोकान्तर में भ्रमण करता था। बात की बात में विष्णुलोक- शिवलोक- स्वर्ग और नरक कहीं भी जा पहुंचता था। छाया पुरुष सिद्धि में अपनी ही सूक्ष्म शरीर को साधना बल से जागृत करके एक नया समर्थ सहयोगी सृजा जाता है। भैरव आदि की सिद्धि किन्हीं समर्थ आत्माओं के साथ सहयोग भरी घनिष्ठता प्राप्त कर लेना ही है। यह अदृश्य सहायकों का क्षेत्र है। ऐसी आत्माएँ आवश्यकतानुसार व्यक्ति विशेष की भी उद्देश्य पूर्ण सहायता करती हैं। विशेषतया उनमें से जो उच्चस्तरीय हैं, वे वातावरण की प्रतिकूलता को अनुकूलता में बदलने, दिव्य प्रेरणाएँ देने, सत्प्रयोजनों की सफलता में हाथ बँटाने जैसे कार्यों में लगी रहती हैं। दिव्य आत्माएं ही जन संपर्क में आने वाले देवता हैं। अन्य तान्त्रिक दृष्टि से अग्नि, सूर्य, इन्द्र, वरुण अन्तरिक्ष आदि को ही देवता कहा गया है। कहीं-कहीं, भगवान को भी अग्नि इन्द्र आदि के नाम से संबोधित किया गया है।

चर्चा सूक्ष्मीकरण प्रसंग की, की जा रही थी। अपने कदम इसी दिशा में बढ़ने हैं। इसके लिए आवश्यक है कि स्थूल काया को शिथिल किया जाए। आद्य शंकराचार्य ने जब शास्त्रार्थ में प्रवीणता प्राप्त करने के लिए राजा के शरीर में परकाया प्रवेश किया था तब उन्होंने अपने पुराने शरीर को उतने समय के लिए सुरक्षित रखने की व्यवस्था कर दी थी। दोनों शरीरों में समान सक्रियता सम्भव नहीं। जागृति बढ़ेगी तो सुषुप्ति न रहेगी। सुषुप्ति बढ़ेगी तो जागृति को शिथिल होना पड़ेगा।

सूक्ष्म शरीर यों मानो तो एक ही गयाडडडडड है, पर उसके भेद-उपभेद कितने ही हैं। पाँच कोश, इसी वर्ग विभाजन में आते हैं। अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, यह पाँच सूक्ष्म शरीर एक ही कार्य में अवस्थिति पाँच देवता माने गये हैं। और वे पाँचों, एक ही समय में पाँच अलग-अलग स्थानों से पाँच प्रकार काम कर सकते हैं। अर्थात् एक स्थूल शरीर धारी विशेष स्थिति में पाँच सूक्ष्म शरीरों द्वारा पाँच गुने काम हाथ में ले सकता है। साथ ही उनका स्तर भी कहीं अधिक ऊँचा रख सकता है।

हमें सूक्ष्म शरीर को अभीष्ट स्तर तक जगा सकने में सफलता मिली तो अनेकानेक विशिष्ट व्यक्तियों की सहायता सम्भव हो सकती है। साथ ही एक ही समय में अनेकों सत्प्रयोजनों को उभारने और सफल बनाने के लिए उपयुक्त वातावरण बनाना भी सम्भव हो सकता है। स्थूल शरीर का एक नियत कलेवर होता है और नियम स्थान। किन्तु सूक्ष्म शरीर पर इस प्रकार के बन्धन नहीं हैं। प्रेतात्माएं सूक्ष्म शरीर धारी होती हैं। दृश्य-अदृश्य रूप में कहीं भी रह सकती हैं। हमें भी जितनी सूक्ष्मीकरण में सफलता मिलेगी, हिमालय, शान्तिकुश अथवा अन्यत्र कहीं भी रहने न रहने की क्षमता हस्तगत हो जायेगी।

यदि ऐसा बन पड़ता है तो जो स्नेही, सहयोगी हमारे द्वारा लोकहित का अधिक कार्य सम्पन्न होते देखना चाहते हैं उन्हें निराश नहीं, अधिक उपलब्धि पर अधिक प्रसन्नता ही होगी। जो लोग व्यक्ति सान्निध्य की भावनात्मक अपेक्षा करते हैं, उनको भी तब कोई कठिनाई न होगी। हमारे हिमालय वासी गुरुदेव सूक्ष्म शरीर से हमारा निरन्तर मार्ग-दर्शन करते हैं। उनका प्रत्यक्ष साक्षात्कार तो जीवन भर में तीन बार ही हुआ है, पर परोक्ष सान्निध्य का अभाव कभी नहीं खटका। यदि वैसी विशेषता न हो तो घर-पड़ौस में रहने वाले भी निरर्थक और भारभूत सिद्ध हो सकते हैं। गान्धी और बुद्ध की आत्माओं ने लाखों करोड़ों को झकझोर कर कहीं से कहीं उछाल दिया था जबकि असमर्थ मनोबल वाले अपने बीबी बच्चों तक को कुमार्ग से रोकने में सफल नहीं हो पाते। पास या सामने रहना तनिक भी महत्व की बात नहीं। सिर में रहने वाले जुएँ, खाट के खटमल, घर में चूहे क्या कुछ काम आते हैं। मक्खी-मच्छर साथ ही रहते हैं, पर उनसे सिवाय हैरानी के और किसी को क्या मिलता है। चोर, लफंगे मुहल्ले पड़ौस में बसते और दिन में कई बार आंखों के सामने गुजरते हैं तो भी कुछ प्रसन्नता नहीं होती। उलटे चिन्ता ही बनी रहती है। इसके विपरीत दूरवर्ती चंदन वृक्ष अपने घर तक शीतल, सुगन्धित पवन पहुँचाते हैं। परदेश में नौकरी करने वाले, शरीर से दूर रहने पर भी परिवार को प्यार करते और पैसा भेजते हैं। इस दूरी में भी निकटता देखी जा सकती है। भगवान अदृश्य है तो भी हम सब का पूरा-पूरा ध्यान रखता है हवा दीखती नहीं तो भी नाक मार्ग से शरीर के कण-कण में पहुंचती और जीवन सम्पदा प्रदान करती है दूरवर्ती सूर्य-चन्द्र अपने-अपने ढंग के अनुदान घर बैठे ही पहुँचाते रहते हैं।

यह सब उनसे कहा जा रहा है, जो हमारे आँख से ओझल होने पर स्नेह-सहयोग न मिल सकने की बात सोचते हैं। उन्हें सूक्ष्म का- परोक्ष का भी महत्व समझना चाहिए। शरीर प्रत्यक्ष और प्राण परोक्ष है। तो भी हम प्राण का सान्निध्य अनुभव करते और उसी के सहारे जीवित तक रहते हैं। एकांतवासी होने या वार्ता न करने पर भी सम्बन्ध टूटते कहाँ हैं। हम जब जिस सुदृढ़ शृंखला में मजबूती के साथ बँधे या बाँधे गये हैं, वह ऐसी नहीं है कि बच्चे धागे की तरह जरा सा आघात लगते ही बिखर जाय। ऐसी तो स्वार्थियों की मित्रता होती है जो मतलब निकलने तक ही टिकती है। प्रज्ञा परिजनों की आत्मीयता किसी भी ओर से इतनी कमजोर नहीं है, जो दीखने पर जिये और ओझल होते ही सिमट कर कहीं से कहीं चली जाय। ऐसा तोताचश्मी तो दलाल और बटमार ही दिखाते हैं।

अपना और परिजनों का मध्यवर्ती रिश्ता आदर्शों और उद्देश्यों पर अवलम्बित है। वे जब तक यथास्थान बने रहेंगे तब तक किसी को भी निकटती या दूरी के कारण किसी प्रकार की गड़बड़ी होने की आशंका नहीं करनी चाहिए। वरन् स्तर उठने ओर क्षमता बढ़ने की हालत में पहले की अपेक्षा आदान-प्रदान में और भी अधिक भाव सम्वेदनाओं का समावेश होगा। न समाज को हानि पहुँचेगी, न निकटस्थ, व्यक्तियों में से किसी को, वरन् सबको सब प्रकार का लाभ ही होगा। हमें असुविधाओं कस सामना करना पड़ेगा, अब की अपेक्षा अधिक कष्ट साध्य जीवन जीना पड़ेगा। तो भी बदले में जो मिलना है, उसे देखते हुए इतनी कीमत चुकाने में आनाकानी की नहीं जा सकती।

प्रज्ञा अभियान के कार्यकर्ताओं और कार्यक्रमों का निश्चय ही उसके उपरान्त बल मिलेगा। सुस्ती और लापरवाही का माहौल इसलिए भी रहता है कि बड़ों के रहते उन पर निर्भरता रहती है। पर जब के सामने नहीं होते तो समझदारी में जिम्मेदारी बढ़ती है। नासमझों की बात दूसरी है। उनके सामने रहकर लाठी दिखाकर भी कोई कुछ नहीं करा लेता फिर पीछे तो करने वाले ही क्या हैं? किन्तु जहाँ सदाशयता जीवित है, वहाँ ऐसी कोई बात नहीं है। मथुरा में हरिद्वार चले आने के उपरान्त वहाँ का कार्य घट नहीं वरन् बढ़ ही गया है। जब-जब हम हिमालय गये हैं, तब तब लौटकर आने पर कुछ बिगाड़ नहीं हुआ वरन् बनाव ही पाय। मिशन के पीछे दैवी शक्तियाँ काम करती हैं और परिजनों में श्रद्धा-सद्भावना ये दोनों जब तक जीवित हैं जब तक किसी को भी यह भ्रम तथा अहंकार नहीं करना चाहिए कि अमुक अमुक के न रहने पर काम को क्षति पहुँचेगी। वृक्षों के फल टूटते रहते हैं। उनकी स्थान पूर्ति के लिए दूसरे फिर न जाने कहाँ से आकर उस गई शोभा सम्पदा को फिर से बना देते हैं। मरने की तरह जन्मने का भी क्रम इस संसार में विद्यमान है। फिर हम तो अभी मर भी नहीं रहे हैं। स्थूल या सूक्ष्म शरीर में युग सन्धि की अवधि में सन् 2000 तक हम अपनी स्थिति बनाये रहेंगे ताकि नव सृजन पर विश्वास रखने वाला हर व्यक्ति यह अनुभव करता रहे कि वह अकेला नहीं है। उसके पीछे-पीछे कोई बलिष्ठ सत्ता चल रही है। प्रेरणा प्रकार ही नहीं आवश्यक आच्छादन भी प्रस्तुत कर रही है। हमें कभी शिकायत नहीं हुई कि इतनी जिम्मेदारियों को हम अकेले वहन कर रहे हैं। आत्मविश्वास और आत्म सन्तोष से लोक समर्थन और जन सहयोग खींच बुलाया है। इसके साथ ही दैवी अनुग्रह की अनायास ही अजस्र वर्षा होती रही है। उसके लिए पल्ला पसारने-नाक रगड़ने की तनिक भी आवश्यकता नहीं पड़ी। पात्रता का अनुग्रह अयाचित ही बरसता रहा है। जिनकी भावनाएँ उच्चस्तरीय होंगी, उनमें से प्रत्येक को वह सब कुछ मिलेगा, जिसके सहारे सफलता के उच्च स्तर तक पहुँच सके।

यह पंक्तियां समर्थ सहचरों के लिए लिखी गई हैं और उकसाया गया है कि उचित मूल्य पर विभूतियाँ खरीदने की बात सोचें। हीरा और सोने के आभूषण मुफ्त नहीं बंटते। पंचामृत तुलसी पत्र ही प्रसाद में मिलता है। माला घुमाने और अगरबत्ती जलाने की कीमत पर किसी की मनोकामनाएँ पूरी करने वाले देवी देवता अभी जन्मे नहीं हैं। अभी महंगाई का समय है। सम्भव है कभी सस्ता जमाना आये और रामनाम जपने भर से पराया माल अपना हो चले ऐसा कुछ जुगाड़ बैठे। बैंक कर्ज देते समय हैसियत पूछती और यह जाँचती है कि पैसा किस लिये माँगा जा रहा है। किस काम में खर्च होगा देवताओं के यहाँ ऐसा बैंक नहीं है, जिसमें पत्र पुष्पों की कीमत पर दर्शन झाँकी करने भर से कोई निहाल हो सके। संसार क्षेत्र की भाँति ही अध्यात्म क्षेत्र में भी खरीद फरोख्त का सिलसिला चलता है इस यथार्थवादिता को जितनी जल्दी समझा जा सके उतना ही अच्छा है। अब तक जिनने भी देवताओं या सिद्ध पुरुषों से कुछ कहने लायक पाया है उसे आत्म परिशोधन की तपश्चर्या और लोकमंगल के लिए भाव भरे अनुदान प्रस्तुत करने की योग साधन द्वारा ही उपलब्ध किया है। हमें भी इसी राह पर चलते हुए कुछ मिला। अन्य सभी के लिए यही खुला राजमार्ग है। “शार्टकट” खोजने की जल्दी किसी को भी नहीं करनी चाहिए। सिर पर हाथ रख कर कुण्डलिनी जगाने वाले आंखें बन्द करके भगवान का दर्शन, कराने वाले, मन्त्र-तन्त्र के बदले ऋषि-सिद्धियाँ प्राप्त कराने वाले, रिश्वत खुशामद से देवताओं को बरगलाने फुसलाने की तिकड़में जितनी जल्दी समाप्त हो सके, उतना ही उत्तम है। इनमें जालसाजी के अतिरिक्त वास्तविकता का नामोनिशान भी नहीं है। हाथ बँटाने और पारितोषिक पाने की नीति ही सही है।

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