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Magazine - Year 1984 - Version 2

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आभामण्डल रूपी विद्युत सम्पदा का सुनियोजन-सदुपयोग

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चेतन प्रकृति एवं मनुष्य सहित अन्य जीवधारियों के बीच सृष्टि ने एक ऐसी विधि-व्यवस्था विनिर्मित की है, जिसे परस्पर अन्योन्याश्रित अनुशासन नाम दिया जा सकता है। सारा जीव जगत न केवल अपने दैनन्दिन क्रिया-कलापों अपितु विकास हेतु उस प्राण सम्पदा से जुड़ा हुआ है जो समष्टि रूप में उसके चारों ओर विद्यमान है। मानव, पादप-वृक्ष-वनस्पति, जीव-जन्तु सभी इस चक्र में एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। यह पर्यावरण चक्र ही जीव-जगत की सुनियोजित कार्यपद्धति के लिये उत्तरदायी माना जाता है।

इस व्यवस्था में कहीं भी तनिक व्यतिरेक आने पर मानव द्वारा उसमें छेड़छाड़ किये जाने पर परिणतियाँ विषम होती हैं। मनुष्य को आधि-व्याधियों से जूझना पड़ता है। पर्यावरण संतुलन अस्त-व्यस्त हो जाता है। अन्ततः आकाश के पोले ईथर भाण्डागार में भरी ये प्राण सम्पदा है क्या? एवं किस प्रकार जीवधारियों को प्रभावित करती है, इस पर वैज्ञानिकों ने भी गहराई से अनुसंधान किया है एवं अपना अभिमत व्यक्त किया है।

जीवधारी जिस वातावरण में रहते हैं, वह कितनी विपुल ऊर्जा सम्पदा अपने अंतराल में छिपाये हुए है, इसकी सहज ही कल्पना नहीं होती। हम निरन्तर बाह्य वातावरण से श्वास खींचते व छोड़ते रहते हैं। प्राणवायु रूपी आक्सीजन यदि थोड़ी देर न मिले तो जीना दूभर हो जाय। सारे शरीर की गंदगी अन्यान्य मार्गों के अतिरिक्त कार्बनडाइ आक्साइड के रूप में प्रश्वास द्वारा एक व्यक्ति के द्वारा हर मिनट 15 से 20 बार छोड़ी जाती है। मोटे रूप में यही व्यक्ति का पर्यावरण से आदान-प्रदान क्रम माना जाता है। तनिक गहराई से देखें तो पाते हैं कि हर जीवधारी एक समर्थ एवं सशक्त विद्युत मण्डल से घिरा हुआ है। आयनोस्फियर की सबसे निचली परत पृथ्वी से साठ किलोमीटर दूरी पर है। दोनों के मध्य स्थित इस आयन मण्डल में लगभग 5 वोल्ट प्रति मीटर के औसत से विद्युत का दबाव बना हुआ है। हर व्यक्ति को घेरे एक सूक्ष्म विद्युत रूपी कवच प्राण ऊर्जा का समुच्चय है एवं यही शरीरगत गतिविधियों एवं मस्तिष्कीय क्रिया-कलापों पर अपना सर्वाधिक प्रभाव डालता है।

विद्युत आवेश धन व ऋण दो में बँटा होता है। मनुष्य के लिए ऋण विद्युतधारी आयन्स की मात्रा का अधिक-कम होना ही बहुत बड़े परिवर्तन का कारण बन जाता है। ये ऋण आयन्स श्वास से भी अंदर जाते हैं एवं त्वचा से भी। कुछ वैज्ञानिकों के अनुसार प्रकाश की गति के समकक्ष चलने वाले फोटान्स के समरूप न्यूट्रोनो कण- माइण्डान्स भी सूक्ष्म रूप से बिना किसी प्रतिरोध के शरीर एवं मस्तिष्क के विद्युत मण्डल से आदान-प्रदान करते रहते हैं।

सबसे पहले बर्कले विश्वविद्यालय (कैलीफोर्निया) के अलवर्ट पाल क्रूगर ने आज से कुछ वर्ष पूर्व यह प्रतिपादित किया था कि शरीर व मस्तिष्क में सूक्ष्म रक्त स्रावों की वृद्धि तथा स्फूर्ति एवं सक्रियता के लिये ऋण आयनों का वायुमंडल में होना अत्यधिक आवश्यक है। यह प्रभाव पूरी तरह इन आवेशित कणों की मात्रा पर निर्भर है। धन आवेशित कणों का जब बाहुल्य होता है, व्यक्ति तनावग्रस्त हो जाता है, चिड़चिड़ापन, थकान एवं एकाग्रता में कमी नजर आती है। जैसे ही वातावरण में ऋण कण बढ़ा दिये जाते हैं, तनाव क्रमशः कम होने लगता है एवं व्यक्ति की चैतन्यता स्फूर्ति में वृद्धि आ जाती है।

मनुष्य के चारों ओर जन्म के बाद गर्भावस्था से बाहर आते ही ऋण आयन का घेरा बन जाता है एवं अन्त तक यही उसे प्राण का शक्ति पुँज बनाते हुए जीवन शक्ति उसमें फूँकता रहता है। जैसा कि सभी जानते हैं कि गर्भ में स्थित भ्रूण के लिये विधाता ने ऐसी व्यवस्था कर रखी है ताकि वह रज्जु से जुड़कर माँ से पोषण पाने के अतिरिक्त “एम्नियाटिक द्रव्य रूपी” अपने कवच से भी रासायनिक आदान-प्रदान करता रहे। यह थैली न केवल ‘शॉक एक्जार्बर’ की भूमिका निभाती है, वरन् इसमें विद्यमान विद्युत कण, एंजाइम्स आदि का भ्रूण से आदान-प्रदान क्रम बराबर चलता रहता है। गर्भकाल के समापन के तुरन्त बाद अत्यधिक प्रतिकूलताओं से भरे, विद्युतविभवयुक्त वातावरण में उसका आगमन होता है यहाँ उसे ऋण आयन का यह गोला सुरक्षा प्रदान करता है। प्रकारांतर से इस विद्युत पुंज को थियॉसाफी के मत से वायटल बॉडी कह सकते हैं। भारतीय अध्यात्म मतानुसार इसे प्राणमय कोश का बहिरंग में अभिव्यक्त होने वाला रूप माना जा सकता है।

वैज्ञानिक मतानुसार स्वच्छ वायु में प्रति घन सेण्टीमीटर 1500 से 4000 आयन्स होते हैं। चूंकि पृथ्वी का आवेश ऋण प्रधान है, इस वायु कवच में भी ऋण-धन का अनुपात 90 : 10 का होता है। प्रदूषण रहित नैसर्गिक वायुमण्डल, हरीतिमा- स्वच्छ झरनों से युक्त स्थानों पर ऋण आयन्स अधिक होते हैं। ऐसे वातावरण में रहने वाले व्यक्तियों की जीवनी शक्ति, मनोबल अधिक होने से रोग-शोक इन्हें नहीं सताते एवं ये सदैव स्वास्थ्य लाभ कर विधेयात्मक चिन्तन में लीन होते देखे जाते हैं। औद्योगीकरण, जनसंख्या का बाहुल्य, निर्वानीकरण एवं प्रदूषण से ऋण आयन्स घटते चले जाते हैं। धन आयनों की मात्रा अधिक होने से श्वास से ली जाने वाली वायु भी विकारयुक्त होती है। ऐसे स्थानों पर मनोविकारों, असाध्य रोगों का बाहुल्य होता देखा जाता है। आत्म-हत्या, आक्रामक वृत्ति एवं अपराधों को जन्म देने में ऋण आयनों की कमी प्रधान हो सकती है। चूंकि ये सीधे मानवी काया एवं मस्तिष्कीय विद्युत प्रवाहों पर प्रभाव डालते हैं, मनुष्य के दैनन्दिन क्रिया-कलाप इनकी कमी व धन आयनों की बढ़ोत्तरी से निरन्तर प्रभावित होते हैं।

वैज्ञानिकों ने शिथिलता, बेचैनी तनाव आदि मिटाने के लिये उपरोक्त सिद्धान्त के आधार पर “ऋण आयन जेनरेटर” बनाए हैं, जो निरन्तर वायु को शुद्ध कर मनुष्य के आसपास ऋण आवेश का कवच विनिर्मित करते रहते हैं। ये जनरेटर चालू होते ही 3500 ऋण एवं 100 घन आयन्स प्रति घन सेंटीमीटर पैदा करते हैं एवं बंद होने पर लगभग 5-6 घण्टे तक 550 ऋण व 500 धन आयन्स का अनुपात आसपास के वातावरण में बनाये रखते हैं। तुलनात्मक दृष्टि से जब अध्ययन किया गया कि नैसर्गिक वातावरण की तुलना में विनिर्मित कणों में स्वास्थ्यवर्धक- प्रफुल्लता बढ़ाने वाले गुण नहीं थे। एयर कंडीशनर का प्रयोग भी जहां-जहां होता देखा गया वहां इन आयन्स की मात्रा शून्य के बराबर पायी गयी। यही कारण है कि अब वैज्ञानिक भी सेनीटोरियम, बड़े-बड़े निर्णय लेने वाले अधिकारियों के कार्यालयों आदि के आसपास कृत्रिम झरने, फव्वारे आदि लगाकर, हरीतिमा को स्थान देते हैं।

मात्र परिस्थितियाँ ही मानव के आयन मण्डल का निर्धारण नहीं करती। यह भी पाया गया है कि किन्हीं-किन्हीं व्यक्तियों में मन के बेचैन, अस्त-व्यस्त, तनावग्रस्त होने पर उनके आसपास का विद्युत मण्डल ही बदल गया। ऋण आयनों का स्थान धन आयनों ने ले लिया। इसके लिए उन्हें एक इलेक्ट्रान भर से मुक्ति पानी होती है। रोगग्रस्त व्यक्तियों एवं प्रारम्भिक लक्षणों का विश्लेषण करने वाले चिकित्सकों का कहना है कि मन की विचार तरंगों के अनुरूप ही बाहर का आयन मण्डल और शुद्ध भाषा में कहे तो आभा मण्डल बदलता रहता है। न्यूयार्क विश्वविद्यालय के डा. फ्रैंक हॉकिन्शायर एवं राकफेलर विश्वविद्यालय के डॉ. जोनाथन चैरी ने विश्लेषण कर पाया है कि तनाव, थकान, एकाग्रता में कमी, असमय चिड़चिड़ापन जैसी मनःस्थिति जैसे-जैसे रोगी के अंदर विकसित होने लगती हैं, उसका आयन मण्डल अपना आवेश खोकर धनात्मक होने लगता है। कई रोगियों में तो इस विश्लेषण के आधार पर ही इन मनोविकारों की जिनके सम्बन्ध में रोगी बहुधा मौन देखे जाते हैं तथा भावी प्रतिक्रियाओं की पहले से भविष्यवाणी की जा सकती है।

वैज्ञानिकों का कथन है कि केन्द्रीय स्नायु संस्थान की क्रिया प्रणाली बड़ी वैचित्र्य पूर्ण है। पुरुषों से स्वचालित संस्थान (ए. एन. एस.) में ऋण आयनों को धन में बदलने के अवसर अधिक पाए जाते हैं, इसी कारण वे रोगी भी जल्दी होते हैं। इसमें परिस्थितियों का क्रम, मन-मस्तिष्क की बनावट का अधिक हाथ होता है। इनकी तुलना में स्त्रियां भावुक होते हुए भी दृढ़ स्वचालित संस्थान होने के नाते कम रोगी होती देखी जाती हैं। उनका विद्युत कवच भी पुरुषों की तुलना में ऋण आवेशों से अधिक भरा होता है। भावनात्मक उद्वेगजन्य शारीरिक रोग, इसी कारण उन्होंने स्त्रियों में कम पाये।

मनःस्थितिजन्य आयन्स के प्रभाव एवं पर्यावरण से उत्पन्न होने वाले रोग कारक आयन्स की प्रतिक्रियाओं को जानने के बाद एक विलक्षण प्रसंग की चर्चा भी यहाँ अभीष्ट हो जाती है, जिसकी आज पश्चिम में बड़ी चर्चा है। ‘इलविण्ड्स’ (बुरी हवाओं का बहना) के रूप में मौसम में होने वाले परिवर्तनों का वर्णन इन दिनों समाचारों की सुर्खी में है। पर्यावरण विशेषज्ञों का कथन है कि नमी से भरी तेज पूरबी हवाएँ कभी-कभी वातावरण में अनायास ही धनात्मक आयन्स का अनुपात बढ़ा देती है। ‘वेदरिंग’ नामक पुस्तक में स्टीफन रोजेन लिखते हैं कि जब ये हवाएं संव्याप्त प्रदूषण एवं पर्यावरण असंतुलन के कारण बहती हैं तो क्षय रोगियों में प्रसुप्त रोग के उभर आने, मिर्गी का दौरा आने के अवसर बढ़ जाते हैं। वातावरण के प्रभाव के कारण तनाव एवं चिड़चिड़ापन व्यक्तियों में बढ़ते देखा जाता है जिससे आत्महत्या, आक्रामक वृत्ति, दमा, हार्ट अटैक, स्ट्रोक जैसे घटनाक्रम घटने का अनुपात उन क्षेत्रों में बढ़ जाता है। दक्षिणी हवाएँ रक्त का थक्का जमने का समय कम कर देती हैं जिससे शरीर में कही भी अनायास रक्त स्राव एवं लकवे का प्रकोप हो सकता है। ऐसा उनके साथ घटते अधिक देखा जाता है जिनके आसपास ऋण आवेश की मात्रा पूर्व से ही क्रम हो। स्विट्जरलैंड, बवेरिया जैसे आल्पस पर्वत की तलहटी में बसे क्षेत्रों में इस हवा को “फोहेन” नाम दिया गया है। वहाँ जब ये हवा बहती है सड़क पर दुर्घटनाएँ अनायास ही बढ़ जाती हैं। लोग घरों में रहना पसंद करने लगते हैं जब तक कि हवा का प्रभाव समाप्त न हो जाय।

अब सभी इस अभिमत को मानने लगे हैं कि रोगों का कारण जानने के लिये विस्तृत सूक्ष्म पर्यवेक्षण अनिवार्य है। इससे भावी घातक व्याधियों से बचना भी संभव है एवं वाँछित आयन मण्डल विकसित कर नैसर्गिक जीवन क्रम अपनाकर जीवनीशक्ति का बढ़ाया जाना भी शक्य है। व्यवहार विज्ञानी एवं प्रख्यात स्नायु विशेषज्ञ इस सम्बन्ध में पूर्वार्त्त दर्शन में वर्णित साधना उपक्रमों की चर्चा करते हुए कहते हैं कि इनके माध्यम से अपने बहिरंग वातावरण को ऋण आवेशयुक्त बनाना संभव है।

इसमें कोई सन्देह नहीं कि योगसाधना के द्वारा प्राण ऊर्जा का सम्वर्धन भली प्रकार सम्भव है। इसके लिये उचित वातावरण मिल सके तो ठीक, नहीं तो आत्मशोधन एवं साधना प्रक्रिया द्वारा भी मनःस्थिति द्वारा ऐसी परिस्थितियाँ विनिर्मित की जा सकती हैं। विज्ञान का यह स्थूल पक्ष तो इस दिशा में संकेत भर देता है। इससे आगे की- शरीर की ‘सटलर’ जानकारी एवं उसे उपकरण मानकर विद्यमान ऊर्जा सम्पादन का सदुपयोग- सुनियोजन योग शास्त्रों में वर्णित है। इस ज्ञान का लाभ उठाया जा सके तो वह सब कुछ अर्जित कर सकना संभव है जिसे ऋद्धि-सिद्धियों के रूप में वर्णित किया जाता है।

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