
अन्तर्सत्ता का प्रचण्ड सूक्ष्मीकरण पुरुषार्थ
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सूक्ष्म जगत की संरचना वैज्ञानिकों के लिये उतनी ही बड़ी चुनौती है जितनी कि मानवी काया के अविज्ञात रहस्यमय क्रिया-कलाप। प्रसिद्ध खगोल वैज्ञानिक फ्रेड व्हाइल के अनुसार परमाणु जो पदार्थ की एक इकाई है, इतने सूक्ष्म होते हैं कि दस अरब परमाणुओं को यदि एक के ऊपर एक सीधी रेखा में खड़ा कर दिया जाये तब वे मनुष्य की ऊँचाई के बराबर होंगे। एक वयस्क मनुष्य में सात घात सत्ताईस शून्य जितने सूक्ष्मतम घटक परमाणु होते हैं एवं प्रत्येक के अन्दर एक नाभिक होती है जो परमाणु के अन्दर दस खरबवें भाग के बराबर स्थान घेरती है।
मानवी इन्द्रियाँ एक मर्यादा से मर्यादा से बंधी हुई हैं। वे निश्चित लंबाई व आवृत्ति की तरंगें देख या सुन पाती हैं। इससे सूक्ष्म स्थिति के लिये वैज्ञानिक सूक्ष्मदर्शी यंत्रों का सहारा लेते हैं। इलेक्ट्रान माइक्रोस्कोप जैसे यंत्रों के बावजूद अभी भी सूक्ष्मतम घटकों को देखा जा सकना सम्भव नहीं हुआ है। ये तथ्य बताते हैं कि सूक्ष्म जगत कितना विलक्षण, विराट एवं विचार जगत से परे है। योगी-ऋषि आत्मसत्ता का सूक्ष्मीकरण कर जीवनमुक्त स्थिति में ही इस परोक्ष सत्ता से- समष्टि चेतना से स्वयं को एकाकार कर लेते हैं एवं उन क्रिया-कलापों को देख पाने, उनमें भाग ले पाने में सक्षम हो पाते हैं जो भविष्य के गर्भ में विकास को पाने की स्थिति में होते हैं। इसी कारण उन्हें दृष्टा सूक्ष्म दृष्टि सम्पन्न महामानव कहा जाता है। ऐसी स्थिति में उनकी सत्ता बहुगुणित हो जाती है और अनेकानेक भूमिकाएँ एक ही समय में एक साथ निभा पाने में समर्थ हो पाती है।
सूक्ष्म की सामर्थ्य को चेतना के परिप्रेक्ष्य में समझने से पूर्व जड़ जगत में देखे तो विस्मित होकर रह जाना पड़ता है। रेत का छोटा-सा कण आंखों से देखने पर नगण्य मूल्य का होता है। लेकिन जब इसे अणु व परमाणु के रूप में विखंडित कर लिया जाता है तो तुच्छ से घटक में महान शक्ति छिपी पाते हैं। यह इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि परमाणु ऊर्जा के दोहन में मात्र उसका एक लाखवां भाग प्रयुक्त होता है। जो शक्ति निस्सृत होती है, वह असीम होती है। इस सन्दर्भ में यूरेनियम धातु का उदाहरण महत्वपूर्ण है। रेडियो किरणें छोड़ने वाली यह बहुमूल्य धातु शोधन उपचार के उपरान्त बहुत शक्तिशाली बन जाती है। इस धातु का एक घन फुट टुकड़ा भार में लगभग आधा टन होता है। जब इसके परमाणुओं पर न्यूट्रान कणों की बौछार की जाती है तो नाभिकीय विखण्डन प्रक्रिया से शक्तिशाली ध्वंस करने में समर्थ परमाणु बम तैयार होता है इस ऊर्जा का प्रयोग सारे भूमण्डल को नष्ट करने हेतु भी हो सकता है जबकि विधेयात्मक सुनियोजन कर इसकी एक पौण्ड मात्रा इतनी ऊर्जा पैदा कर सकती है जो 30 लाख पौण्ड कोयले को जलाने पर प्राप्त होती है।
मनुष्य की अन्तर्सत्ता की तुलना इस यूरेनियम धातु से की जा सकती है जिस पर ब्राह्मी सत्ता की किरणों की वर्षा होने पर वह सूक्ष्मीकृत- विखण्डित होती चली जाती है एवं विराट् शक्ति का पुँज बन जाती है। दृश्य मान पदार्थ व ऊर्जा का भेद मात्र अवस्था का ही भेद है। इन्द्रियातीत स्थिति में योग साधनाजन्य ऊर्जा दृश्यमान काया का ही परिवर्तित रूप है जो तेजस्, वर्चस् के रूप में बहुमूल्य निधि की भूमिका निभाती देखी जाति है। “अणोरणीयान महतो महीयान” का श्रुति वचन इसी तथ्य का साक्षी है कि लघुतम से घटक में महानतम संभावनाएँ छिपी पड़ी हैं। इसीलिये श्रुति में ऋषि कह बैठते हैं-
“यो सावसौ पुरुषः “सोऽहमस्मि”
अर्थात्- “सूर्य में जो परम पुरुष है, वह मैं हूँ। सूर्य में अर्थात् ब्राह्मी चेतना के विराट् समुच्चय में जो आध्यात्मिक तत्व हैं, वही मुझ में भी हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से हम दोनों एक हैं, कही कोई भेद नहीं है।”
प्रसंग सूक्ष्मीकरण साधना का है। इस संदर्भ में मानवी काया का नहीं, चेतन सत्ता की गरिमा का महत्व है। जड़ पदार्थों पर लागू सूक्ष्मीकरण सिद्धान्त जब चेतना क्षेत्र में प्रयुक्त होता है तो उसकी चमत्कारी परिणतियाँ देखने में आती हैं। सुगठित अंग अथवा गौरवर्ण काया मनुष्य की महत्ता नहीं बढ़ाते, उसकी ज्ञान गरिमा एवं भाव संवेदना की प्रखरता ही उसे आत्मिक दृष्टि से ऊँचा उठाते हैं। ज्ञान को मस्तिष्क रूपी खरल में जितना घोटा जाता है, साधना, स्वाध्याय-सत्संग द्वारा जितना प्रखर बनाया जाता है, उतना ही वह सूक्ष्मतम बनते हुए मस्तिष्क कोष्ठों में सम्पादित होता जाता व मनुष्य को प्रज्ञावान बनाता है। यही ज्ञान की पूँजी जन्म-जन्मांतरों के लिये फिक्सड डिपॉजिट का काम करती है। आगामी जन्मों लोकोत्तर जीवन, वर्तमान जीवन में सूक्ष्म स्थिति में अनेकों महत्वपूर्ण कार्यों हेतु यही ज्ञान-निधि महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है। अल्पायु में विशेष प्रतिभा (‘प्रोडिगी’) के जितने उदाहरण मिलते हैं, उनमें स्थूल मस्तिष्क की संरचना-विशिष्टता को नहीं, मन की सूक्ष्म परतों में निहित ज्ञान की पूर्व जन्मों में अर्जित सम्पदा को महत्ता दी जानी चाहिए। आइन्स्टीन, हाइजेन वर्ग, रवीन्द्रनाथ ठाकुर, सी. वी. रमन, जगदीश चन्द्र बसु प्रभृति प्रतिभाशाली व्यक्तित्व एक जन्म की अकेले को नहीं, जन्म-जन्मांतरों की ज्ञान साधना की उपज होते हैं। विधाता का नियम है कि वह पूर्वजन्मों की घटनाक्रमों की स्थूल मस्तिष्क को विस्मृति करा देता है। लेकिन अपवाद रूप में आग के शोलों के रूप में कुछ महापुरुषों में जब-जब मस्तिष्कीय भाण्डागार का अपवाद रूप में प्रस्फुटन होता है, वहाँ भौतिकविद् स्तम्भित होकर रह जाते हैं। वे स्थूल मस्तिष्क में उन विशेषताओं को ढूंढ़ते हैं जो वहाँ है ही नहीं, वे तो चेतना की गहन सूक्ष्म परतों में निहित होती हैं। जब खोजा ही गलत जाएगा, तो मिलेगा क्या? सूक्ष्म चेतना के इस स्वरूप पर अनुसंधान किए बिना मानवी विलक्षणताओं एवं सामर्थ्य के विस्तारों पर प्रकाश पड़ने वाला है नहीं?
भाव संवेदनाएँ आस्था केन्द्र के गहन अंतराल से उद्भुत होती हैं। वे चेतना के सबसे गहरे धरातल से उपजी होने के कारण विचारणा से सूक्ष्मतम होती हैं। इनकी संरचना के विषय में वैज्ञानिक अनभिज्ञ हैं। किन्तु भावनाओं की प्रतिक्रिया को शरीर के क्रिया-कलापों एवं बहिरंग में अनायास ही देखा जा सकता है। भावना के रसायन शास्त्र को प्रतीक रूप में कुछ अंतःस्रावी रसों, न्यूरो ह्यूमरल स्रावों के रूप में रक्त में, नर्व-सिनेप्सों में उभरा देखा जा सकता है। प्रसन्नता एवं दुःख के आंसुओं के स्वरूप को सीटी स्कैन, इकोएनसेफेलो ग्राफी, न्यूरोकेमीस्ट्री, न्यूरोहिस्टो पैथालॉजी से नहीं जाना जा सकता। यौन उन्माद कामोत्तेजना एवं नारी का माता के रूप में ममतामय रूप कहाँ व कैसे विभाजन रेखा पार करता है, इसे स्नायु रसायन शास्त्र नहीं समझा सकता। सूक्ष्म की महत्ता की यह झलक-झांकी भर है, जिसे अनुभूत भर किया जा सकता है पर चर्म-चक्षुओं से देखा नहीं जा सकता।
सूक्ष्मीकरण अध्यात्म विधा की एक ऐसी प्रक्रिया है जिसे ऋषि-मुनिगण समय-समय पर अपनाते रहे हैं। इसे अन्तर्मुखी साधना कहा जा सकता है जो युग समस्याओं के परिप्रेक्ष्य में समष्टि चेतना को मथने के लिये सम्पादित की जाती है। यह साधना रई की भूमिका निभाती है जो महाकाल के इशारे पर युग ऋषियों द्वारा सम्पन्न की जाती है। प्रत्यक्ष में तो कुछ दृष्टिगोचर नहीं होता लेकिन इससे परोक्ष वातावरण बनता है एवं परमाणु विखण्डन की पूर्व भूमिका बनती है। चेतना के समुद्र का यह मंथन नियन्ता की विधि-व्यवस्था का ही एक अंग है, जिसे सम्पन्न करने के लिये ऋषि आत्माएँ स्वयं आगे आती हैं।
आज की विषम परिस्थितियों में उस प्रचण्ड तप पुरुषार्थ की अप्रतिम भूमिका है। चारों ओर अनास्था के दावानल में जलती मानव जाति को त्राण दिलाने हेतु ऋषि परम्परा के नूतन संस्करण के रूप में युग ऋषि का जो साधना क्रम चल रहा है वह ऐसी ही प्रक्रिया का एक अंग है। इसमें सहभागी बनने हेतु जन्मी जागृतात्माएँ जो भूमिकाएँ निभाएंगी, वह समय के दृश्य पटल पर शीघ्र ही परिलक्षित होगा।