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Magazine - Year 1984 - Version 2

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वर्चस् की सिद्धि एवं युग समस्याओं का समाधान

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मनुष्य समाज में विविध प्रकार के मनुष्यों के बीच रहता है और पारस्परिक सम्पर्क से उसकी जीवन यात्रा सहज रूप में चलती रहती है। सान्निध्य सम्पर्क में कभी-कभी ऐसे व्यक्ति आ जाते हैं जिनके प्रति अत्यधिक आकर्षण की अनुभूति होती है। कभी-कभी कुछ व्यक्तियों के समीप आकर लगता है, इनसे जितना दूर रहा जा सके उतना ही हित साधन होगा। एक ही प्रजाति के, पर भिन्न रंग रूपों बनावट वाले व्यक्तियों के प्रति ये द्विधर्मी प्रतिक्रियाएँ क्यों होती हैं, इस सन्दर्भ में वैज्ञानिकों का कहना है कि पदार्थों की तरह चेतना का भी अपना प्रभाव क्षेत्र होता है। यह आभा मण्डल के रूप में सूक्ष्मीकृत कणों से विनिर्मित कवच की तरह काया के चारों ओर संव्याप्त रहता है। विचारणा एवं भावना के स्तर के अनुरूप इस आभा मण्डल में आकर्षण-विकर्षण के गुण धर्म आ जाते हैं। मनःस्थिति का- अन्तरंग का जो छाया चित्र मानवी काया के आस-पास बनता है, उसे सूक्ष्मदर्शी ब्रह्मवेत्ता समझ पाने में भली-भाँति सक्षम होते हैं।

अध्यात्मविदों का मत है कि चेतना का सूक्ष्मीकरण प्रत्यक्षतः यदि देखना हो तो उसे मानवी जैव चुम्बकत्व के कारण बनने वाले आभा मण्डल में देखा जा सकता है। जिस स्तर की जीव चेतना होगी, जितना ही उसमें श्रेष्ठता- उच्चस्तरीय भाव सम्वेदनाओं का समावेश होगा, उतना ही प्रकाशवान, विस्तृत किरण मण्डल, आरा या तेजोवलय के रूप में मनुष्य के चारों ओर संव्याप्त देखा जा सकेगा।

देवताओं के चित्रों के चारों ओर प्रकाश मण्डल चित्रित किया जाता है। विशेषतः चेहरे के आस-पास एक गोला प्रतीक रूप में बनाया जाता है जो बताता है कि देव-स्तर जो भी प्राप्त कर लेता है, इसका जैव-चुम्बकत्व उतना ही प्रबल-सघन होता है। ज्ञानेंद्रियों का जमघट तथा मस्तिष्क का विद्युत भण्डार एक ही जगह है इसीलिये प्रतीक रूप में चेहरे को ही तेजोवलय के प्रत्यक्षीकरण हेतु प्रधानता दी जाती रही है। जो बात देवताओं पर लागू होती है, वही मनुष्यों पर भी लागू होती है। जो नर पशु स्तर त्यागकर देव मानवों जैसे गुणों से अभिपूरित होता है, उसकी प्रभाव सामर्थ्य भी वैसी हो जाती है।

मानव का यह जैव चुम्बकत्व जो सूक्ष्म प्रकाश मण्डल के रूप में अवस्थित होता है, साधना क्षेत्र में तेजोवलय- ओजस के रूप में जाना जाता है। थियॉसाफी वाले इसे “ईथरीक डबल” कहते हैं एवं प्लाज्मा से विनिर्मित मानते हैं। शरीर की विद्युत सम्पदा यों तो पूरे शरीर से निस्सृत होती रहती है। परन्तु चेहरे, आंखों, उंगलियों एवं जननेंद्रियों के पास इसकी मात्रा सर्वाधिक होती है। मानव की सूक्ष्मीकृत ऊर्जा की तरह यह एक महत्वपूर्ण झाँकी है जिसके माध्यम से साधक की मनःस्थिति, रोगी होने की भावी संभावनाओं एवं भाव सम्वेदनाओं की गहराई को पढ़ा जा सकता है। समीपवर्ती वातावरण एवं साथी सहचर तेजोवलय के स्तर के अनुरूप ही प्रभावित होते देखे जाते हैं। कई बार यह वलय इतना प्रखर तेजस्वी होता है कि समीपवर्ती क्षेत्र को अपने प्रभाव से अनुप्राणित कर देता है। उस परिधि में प्रवेश करने वाले व्यक्ति भी उस प्रवाह में बहते हुए देखे जाते हैं। ऋषि-तपस्वियों के आश्रम में सिंह-गाय का एक साथ पानी पीने का सतयुगी उदाहरण इसी तथ्य की पुष्टि करता है।

विज्ञान क्षेत्र में पिछले दिनों ‘ह्यूमन आरा’ के मापन हेतु किर्लियन एवं शेर्लियन फोटोग्राफी के प्रयोगों के उपरान्त सूक्ष्म आभा मण्डल सम्बन्धी एक नयी विद्या विकसित हो गयी है जिसे ‘एरोबायोलॉजी’ नाम दिया गया है। वैज्ञानिकों के अनुसार सामान्य अवस्था में मनुष्य के कन्धे से 6 फुट ऊपर तक चारों ओर घेरे एक अण्डाकार गोला होता है जिसे ‘प्लम’ कहते हैं। विशेष फिल्टर्स युक्त कैमरों के माध्यम से न इन आंखों से न देखे जा सकने वाले इस प्रकाश मण्डल का अंकन किया जा सकता है एवं इसका विश्लेषण कर यह जाना जा सकता है कि उस समय विशेष में व्यक्ति की मनःस्थिति कैसी है एवं भावनाओं का स्तर कैसा है? शरीर की ऊष्मा के इस विकिरण का मापन वैज्ञानिक तो रोग निदान, शल्य क्रिया में सफलता की सम्भावनाएँ, एवं मनोशारीरिक विश्लेषण हेतु करते हैं किन्तु अध्यात्म वेत्ता इसका विश्लेषण कर अन्तः की भाषा पढ़ लेते हैं एवं व्यक्ति के विधेयात्मक- निषेधात्मक प्रवाहों के अनुरूप परामर्श-साधना मार्गदर्शन दे पाने में भी समर्थ होते हैं।

एकोबायोलॉजी की इस विधा को सबसे पहले ब्रिटिश दार्शनिक डा. हैरोल्ड लेविस ने खोजा। एक एकोनॉटिक रिसर्च सेन्टर में हवाई जहाज के आर-पार बहने वाली हवा का शेर्लियन फोटोग्राफी के माध्यम से विश्लेषण चल रहा था। संयोग से वे भी वहीं उपस्थित थे। प्रदर्शन के दौरान एक कर्मचारी का हाथ कैमरे के सामने आने से फिल्म में हाथ की काली छाया के चारों ओर धुएँ के समान भूरे रंग के छल्ले दिखाई दिए। चूंकि इस फोटोग्राफी में उच्च वोल्टेज के ऊर्जा स्रोत का प्रयोग नहीं किया जाता अतः हानि की प्रत्यक्ष संभावना न देख उन्होंने चेहरे व शरीर को भी इस माध्यम से फोटोग्राफ किया। तभी से उनके शोध प्रयास इस दिशा में आगे बढ़ते चले गए एवं अंततः वे आभा मंडल का छायांकन कर उसका विश्लेषण करने में सफल हो गए।

वैसे आज से साठ वर्ष पूर्व एशिया के उतक मनोनिक एलेक्जेण्डर गुरविच ने यह मत व्यक्त किया था कि सभी जीवित कोशिकाएँ एक अदृश्य विकिरण ऊर्जा अपने चारों ओर छोड़ती है। इसे उन्होंने माइटोजेनिक रेडिएशन नाम दिया था। रूस में ही नोवोसी बर्स्क की साइबेरियन साइन्स सिटी के तीन वैज्ञानिकों ने 1968-69 में गुरविच के प्रयोगों को दुहराकर इस सिद्धान्त को पुनर्जीवित किया एवं कुछ तथ्य प्रतिपादित किए। ब्लायल काज्नाचेयेव, साइमन शूरीन एवं लुडमिला मिखाइलोवा नामक तीनों वैज्ञानिकों ने कहा कि हर जीवकोश विद्युत चुम्बकीय धाराओं के रूप में सिग्नल्स बाहर भेजने म समर्थ होता है जो अल्ट्रा वायलेट तरंग दैर्ध्य स्तर की होती हैं। कुछ वर्षों बाद मास्को यूनिवर्सिटी के बायोफिजिक्स विभाग के प्रमुख डा. बोरिस तार्सोव ने अपने प्रयोगों में पाया कि शरीर की चयापचयिक गतिविधियों के अतिरिक्त जैव रासायनिक परिवर्तनों को भी इस विधि से मापा जा सकता है।

जीवन के इलेक्ट्रो डायनेमिक सिद्धान्त के प्रवर्तक माने जाने वाले येल यूनिवर्सिटी के डा. हैराल्ड वर एवं लियोनार्ड रैबिट्ज से 1970 के दशक में एक महत्वपूर्ण खोज इस दिशा में की। उन्होंने शरीर के चारों ओर के विकिरण को एल. फील्ड (लाइफ फील्ड) नाम दिया और कहा कि यह न केवल अर्न्तस्थिति के मीटर के रूप में काम करती है अपितु जीवित प्रोटाप्लाजम की वृद्धि एवं रोगी कोशिकाओं की मरम्मत आदि में भी अपनी भूमिका निभाती है। उन्होंने कहा है कि मनुष्य के चारों ओर की यह एल. फील्ड पृथ्वी के जैव चुम्बकत्व, ग्रह नक्षत्रों के आकर्षण-विकर्षण बल एवं सौर स्फोट गतिविधियों से भी प्रभावित होती है। मनोरोगियों में, अपराधी वृत्ति वालों में एवं श्रेष्ठ कार्य करने वाले सदा व्यस्त व्यक्तियों में यह एल. फील्ड भिन्न-भिन्न प्रकार की होती है। इसके माध्यम से व्यक्ति के अंतःक्षेत्र को बहिरंग जीवन में खोल कर देखा जा सकता है एवं वास्तविकता की जानकारी ली जा सकती है। इसके अलावा हाई वोल्टेज फोटोग्राफी का प्रयोग कर विकिरण का खतरा उठाते हुए प्रभा मण्डल का मापन संभव है। इसमें किर्लीयन फोटोग्राफी, इलेक्ट्रोग्राफी रेडिएशन फील्ड फोटोग्राफी आते हैं। इनके प्रवक्ताओं का मत है कि बीमारी होने से काफी पूर्व इस फोटोग्राफी द्वारा यह जाना जा सकता है कि इसकी संभावनाएँ कितनी प्रतिशत हैं। मद्धिम, धुँधले, प्रकाशवान ऑरा के मापन द्वारा उनका वर्गीकरण भी भली-भाँति सम्भव है। कौन निषेधात्मक प्रवृत्ति का है एवं नैराश्य का शिकार होकर आत्महन्ता स्थिति का रोगी बनेगा एवं कौन विधेयात्मक चिन्तन के सहारे अपनी जीवनी शक्ति का आश्रय लेते हुए मनोबल के सहारे अपनी नाव खे ले जायेगा, यह पूर्वानुमान भी ऑरा के इस विश्लेषण से संभव है।

वैज्ञानिकों द्वारा कायिक ऊर्जा- “आर्गेन एनर्जी” सम्बन्धी किया गया यह सारा शोध जंजाल एक बिन्दु विशेष पर तथ्यान्वेषियों को ले जाता है। वह यह कि हर व्यक्ति ऊर्जा का अक्षय भाण्डागार है। वह निरर्थक चिन्तन अथवा कामोपभोग में नष्ट होती रहती है। किन्तु जब इसका रूपांतरण किया जाता है तो कायिक आणविक संरचना विघटन के स्थान पर नियोजन में परिवर्तित हो व्यक्ति को ओजस्-वर्चस् सम्पन्न बना देती है। विद्युत शरीर सक्रिय हो जाता है एवं जैव चुम्बकत्व का विकिरण शरीर के चारों ओर प्रखर तेजयुक्त घेरा बनाकर एक आभा मण्डल बना देता है जिसकी चेतना जितनी सूक्ष्म होती है, वलयाकार में बना घेरा उतना ही प्रकाशवान होता है। अंतः का भाव मंडल ही आभा मंडल का निर्माण करता है। साधना पराक्रम द्वारा इस भाव मंडल को ही प्रखर शक्तिशाली बनाया जाता है। इस माध्यम से वे सभी मानवेत्तर पुरुषार्थ सम्पन्न किए जा सकते हैं जो सामान्य व्यक्ति के लिए असम्भव माने जाते हैं। जैन मत के प्रतिपादक तीर्थांकर महावीर ने इसी आधार पर लेक्ष्या के सिद्धान्त को जन्म दिया था जिसका पूरा ढाँचा ही पुद्गल (सूक्ष्माणु) प्राण ऊर्जा एवं भाव मण्डल पर आधारित है।

वैज्ञानिकों के प्रयास कायिक ऊर्जा के स्रोतों का पता लगाने एवं उसे मापने की दिशा में रुके नहीं हैं। नार्वे के डा. लेड रीच ने पहली बार अपने ‘आयन एकुमुलेटर’ यंत्र में मात्र दो-तीन छोटे उपकरण जुटाकर जब मानवी काया से विस्तृत पीले रंग की तेज रोशनी को पकड़ा, अंकित किया, तभी से उनके प्रयास इस दिशा में सतत् चल रहे हैं। रूस के युवा वैज्ञानिक विक्टर इन्युशिन ने इस “आर्गेन एनर्जी” को टोबी स्कोप यंत्र के द्वारा पहली बार मापा था एवं त्वचा प्रतिरोध तथा शेर्लियन फोटोग्राफी के माध्यम से बायोप्लाजमा के विकिरण को अंकित कर यह प्रतिपादित किया था कि जीवकोशों की विद्युत का समुच्चय ही बाहर प्रतिबिम्बित होता है। जापान के इन्स्टीट्यूट ऑफ रिलीजीयस फिलॉसफी एवं साइकोलॉजी के निदेशक डा. हिरोशी मोटीयामा ने एक्युपक्चर सिद्धांत पर ही ‘साय’ एवं ‘की’ एनर्जी का प्रतिपादन किया तथा एक विशेष यंत्र इलेक्ट्रोमीटर के माध्यम से उंगलियों के पोरों, चेहरों तथा होठों पर विशिष्ट विद्युतप्रवाह को मापा है। इसी की अल्पाधिक मात्रा के आधार पर वे ओजस् का शरीर में संचय एवं काया से उसका निस्सृत होना मानते हैं। उन्होंने पाया कि शरीर में विभिन्न मेरीडियन से प्रवाहित धारा प्रवाह भिन्न-भिन्न होता है। जब भी इसमें व्यतिरेक आता है, रुग्णता की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। वे कहते हैं कि बायोप्लाज्मा के रूप में आर्गेन एनर्जी ही प्रवाहित होती है एवं यही विशेष फोटोग्राफी द्वारा ‘ऑरा’ के रूप में तथा अन्य विशेष यन्त्रों से विद्युत उद्भव के रूप में मापी जाती है।

विद्युतप्रवाह के अतिरिक्त एरोबायोलॉजी में वैज्ञानिकों ने थर्मोविजन कैमरे के माध्यम से शरीर से निस्सृत ऊष्मा को भी मापा है एवं पाया है कि ताप ऊर्जा भी चमकदार रंग मिश्रित प्रवाह के रूप में काया के ऊर्ध्व केन्द्र मस्तिष्क से निस्सृत होती है। “मेडिकल फिजिक्स” पुस्तक में बायोफिजीसिस्ट डा. क्लार्क ने थर्मोग्राफी के माध्यम से ऊष्मा विकिरण को मापने का एक सफल प्रयास किया है। इस पद्धति के आधार पर शरीर में विद्यमान ऊर्जा, किसी प्रकार की न्यूनता एवं बायोफीडबैक द्वारा उसकी पूर्ति की व्यवस्था का एक समग्र तंत्र स्टैनफोर्ड यूनिवर्सिटी में बनाया गया है।

व्यवहार विज्ञान के विशारद ऊष्मा मापन एवं जैव चुम्बकत्व मापन का विश्लेषण कुछ अलग ढंग से करते हैं। वे कहते हैं कि जैसे लोहे का चुम्बक या विद्युत द्वारा उत्पन्न किया गया चुम्बकीय बल आकर्षण विकर्षण करता है वैसे ही ये आकर्षण-विकर्षण की प्रतिक्रियाएँ होती हों, ऐसी बात नहीं है। यह तो मात्र एकाँगी स्थूल पक्ष है जो भौतिकी का प्राथमिक ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी जानता है। उनके अनुसार मानवी तेजोवलय का विद्युत मण्डल अति सूक्ष्म स्तर का होता है एवं इसका प्रभाव क्षेत्र समीपस्थ एवं सम्बन्धित व्यक्तियों पर ही नहीं, एक व्यापक क्षेत्र पर पड़ता है। जितना भी कुछ मापा जा सका है वह तो उसकी एक झलक झांकी भर है। जो शेष है, वह असीम सामर्थ्य सम्पन्न है, प्रसुप्त स्थिति में पड़ा रहता है।

अध्यात्म वेत्ता इस मत से सम्मति व्यक्त करते हुए कहत हैं कि साधना की, सूक्ष्मीकरण की तप साधना की प्रतिक्रिया ओजस्, तेजस् वर्चस् की वृद्धि के रूप में होती है। ऐसे ऋषि कल्प महामानव गिने चुने होते हैं लेकिन उनके मौन होते हुए भी दृष्टिपात का, वाणी के द्वारा सत्परामर्श सत्संग का लाभ एक विशाल समुदाय को मिलता है। ओजस के क्षेत्र को रोकने के लिये वे तप-पुरुषार्थ हेतु एकाकी मौन साधना का अवलम्बन लेते हैं। जो भी इस सम्पर्क सान्निध्य की लपेट में आता है, उसे यह तेजोवलय बदलने- प्रभावित करने में सफल होता है। महामानवों के आश्रमों में, सिद्ध पीठों में जो प्रभाव सामर्थ्य रहती है, उसके मूल में यह प्रकाश पुंज- तेजोवलय ही काम करती है जो उनके वहां प्रत्यक्ष रूप में न रहने पर भी बनी रहती है। प्रत्यक्षतः आशीर्वचन-दर्शन, चरण-स्पर्श में छिपे सत्परिणामों के पीछे भी इस आभा मण्डल की ही भूमिका होती है। ऐसे तेजस् सम्पन्न व्यक्ति चिरायु होते हैं क्योंकि उनका छोड़ा हुआ प्रभाव चिरस्थायी होता है। विद्वत्जन कहते हैं- ‘तेजसां हि न वयः समीक्ष्यते’ अर्थात्- “तेजस्वियों की आयु नहीं देखी जाती, वे अमर होते हैं।”

प्रसंग सूक्ष्मीकरण साधना के संदर्भ में यह चल रहा है कि युग समस्याओं के समाधान हेतु जिस तप-सामर्थ्य की आवश्यकता है, वह कैसे उपलब्ध हो? निरन्तर बढ़ते विग्रहों- पारस्परिक विलगाव- ईर्ष्या-द्वेष के दावानल से जूझती मानव-जाति को उबारने हेतु जिस स्तर का पुरुषार्थ अभीष्ट है, वह कैसे सम्पन्न हो? उत्तर एक ही है- बहिर्मुखी पक्ष को तिलांजलि देकर युग ऋषि द्वारा यह भूमिका निभाते हुए स्वयं को अन्तर्मुखी साधना में नियोजित किया जाना एवं सीमित समुदाय से ऊँचा उठ कर सारी वसुधा के हित साधन हेतु खपा देना। आज की परिस्थितियों में जो अनिवार्य था वही गुरुदेव ने किया है। उनकी एकाकी सूक्ष्मीकरण साधना का स्तर बहुत ऊँचा है। प्रत्यक्ष दर्शन न हो पाने का अभाव खलता तो है पर जो फलदायी परिणतियां उस तप साधना की होंगी, उसकी तुलना में वह तुच्छ है। आभा मण्डल के बहुलीकरण की समष्टि में संव्याप्त होने की यह युग साधना ऋषि तंत्र की विधि व्यवस्था का ही एक है। जो उनके जीवन क्रम से भली-भांति अवगत है, वे जानते हैं कि पूर्व में भी वे ऐसा एकाकी साधनाक्रम वे एक-एक वर्ष के लिये चार बार सम्पन्न कर चुके हैं। प्रस्तुत संकल्प बड़ी विकट घड़ियों में युग सन्धि की विषम बेला में लिया गया है। सभी परिजन इस युग साधना में सहभागी हैं। हमें यह विश्वास रखना चाहिए कि भविष्य निश्चित ही उज्ज्वल होगा। उनकी भविष्य वाणियाँ समय की कसौटी पर खरी उतरेंगी।

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