
शब्द ब्रह्म की सिद्धि
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मुख से शब्द का उच्चारण न हो तो चेहरा कितना ही सुन्दर क्यों न हो, उसका कुछ महत्व नहीं रह जाता। गूँगा व्यक्ति संकेतों के बल पर कुछ काम चलाऊ इशारे भले ही करले मनोभावों का आदान-प्रदान करने में किसी प्रकार समर्थ नहीं हो सकता। वाणी भावनाओं का परिवहन करती है। दूसरा क्या कहता है इसे समझती है और स्वयं क्या कहना चाहते हैं इसका प्रकटीकरण करती है। सूरदास अन्धे थे तो भी वाणी की दृष्टि से मुखर होने के कारण सूर सागर लिख सके। नेत्रों की उपयोगिता अपने लिए जानकारियां एकत्रित कर देने के लिए है, पर वाणी का महत्व उससे अधिक है। उसके माध्यम से पढ़ा और पढ़ाया जा सकता है। स्वामी दयानन्द के गुरु विरजानन्द नेत्रहीन थे तो भी वे चारों वेदों के ज्ञाता और उद्भट विद्वान थे। मनुष्य की काया में पाँच ज्ञानेंद्रियां हैं। इन्हें पाँच देवता कहते हैं। इनमें वाणी प्रमुख है। उसे सरस्वती कहा जाता है। सब इन्द्रियाँ एक ओर, और वाणी एक तुला पर रखी जा सकती है।
यह सामान्य व्यवहार की बात हुई। अध्यात्म प्रयोजनों में भी वाणी की महिमा अगाध बताई गई है। सत्संग उसी के माध्यम से होता है। मंत्र धारण की माध्यम जिह्वा ही है। प्रत्यक्ष ब्रह्मा के दो स्वरूप हैं। एक शब्द ब्रह्म दूसरा नाद ब्रह्म। वार्तालाप में शब्द ब्रह्म का प्रयोग होता है। संगीत में- गीत वाद्य में नाद ब्रह्म का प्रयोग है। मंत्र शब्द ब्रह्म है। सत्संग शब्द ब्रह्म है। शिक्षा का समस्त प्रयोजन इसी माध्यम से होता है। योगाभ्यास ने नादयोग से परब्रह्म की परावाणी इसी माध्यम से सुनी जाती है। देवताओं की वाणी नाद माध्यम से ही प्रकट होती है। शिव का डमरू, कृष्ण की वंशी, नारद का तमूरा, चैतन्य की खरताल, मीरा के मजीरा, सरस्वती के सितार यह सभी दिव्य वाणी बोलते थे। कोकिल, भ्रमर आदि वाणी के माध्यम से ही प्रख्यात हुए हैं। जन-मानस को उद्वेलित करने में वाणी का ही प्रयोग होता है। इसे वशीकरण मंत्र कहा गया है। मीठे वचनों की तुलना वशीकरण मंत्र से की गई है। इसमें सहस्र तलवारें भी सन्निहित हैं। द्रौपदी के मुख से आठ अक्षर कडुए निकले थे कि उतने भर से महाभारत खड़ा हो गया और अक्षौहिणी सेना का सफाया हो गया।
सामान्य क्रिया-कलाप से लेकर आध्यात्मिक एवं उच्चस्तरीय प्रयोजनों में वाणी के माध्यम से व्यक्ति ज्ञानवान तो बनता ही है, शक्तिवान भी बनता है। वाणी में शक्ति की भी अवधारणा है। वचन देने और वचन निभाने में जीवन निछावर कर दिये जाते हैं। कन्यादान बागदान ही है। संकल्प करके राजा हरिश्चन्द्र ने अपना राज्य और स्त्री बच्चे दान कर दिये थे। “भुज उठाय प्रण कीन्ह।” राम ने असुर कुल का संहार करने में कितना बड़ा जोखिम उठाया, क्या नहीं किया। गुरु दीक्षा में गुरु अपनी शक्ति हस्तान्तरित करता है और गुरु दक्षिणा में शिष्य अपनी जीवन सम्पदा निछावर कर देता है। वाणी से विनोद, आक्रोश, स्नेह, समर्पण सब कुछ है। उतना करते ही मनुष्य की मूर्खता, विद्वता तत्काल प्रकट होती है। मित्रता और शत्रुता दोनों ही रंग बदलती हैं। जिह्वा से बढ़कर मनुष्य के पास दैवी वरदान और कुछ है ही नहीं। यह छिन गई हो तो समझना चाहिए कि जीवन का भयंकर अभिशाप है। गूँगा व्यक्ति न अपने मन की कह सकता है और न दूसरे की समझ सकता है। इस एक ही अभाव में सारे अभाव सन्निहित हैं। जिसे दिव्य वाणी मिली है उसे सब कुछ मिला है। इसलिए उसे मधुवती कहा गया है। जिह्वा को परिष्कृत करना सरस्वती की साधना कही जाती है।
शाप और वरदान इसी के द्वारा दिये जाते हैं। संयम में अस्वाद और मौन दो को उच्चस्तरीय साधना बताया है। आहार के संयम से आरोग्य, और दीर्घ जीवन दोनों मिलते हैं। मौन धारण का अभ्यास समस्त तपों में उच्चकोटि का है। एकाग्रता और एकात्मता दोनों की साधनाएँ मौन धारण से बनी हैं। जिसने जिह्वा की यह दोनों साधनाएं कर लीं समझना चाहिए कि उसका इन्द्रिय संयम समग्र हो गया। जिसका इन्द्रिय संयम पर्ण हो गया वह सच्चे अर्थों में तपस्वी है। तपस्वी की वाणी अमोघ होती है। वह शब्द वेध- बोलता है। बैखरी वाणी रोकने पर मध्यमा परा और पश्यन्ती वाणियाँ भी वशवर्ती हो जाती हैं। उसमें मन्त्र सिद्ध होते हैं। उसके दिये हुये वरदान सफल होते हैं।
नाद ब्रह्म का सिद्ध पुरुष परमात्मा की वाणी सुनता है। दूर श्रवण और दूर विचार प्रेरणा नाद योग की सिद्धियाँ हैं। विचारों को पढ़ना इसी माध्यम से होता है। मंत्र में स्वर प्राण है। केवल अक्षर मंत्र नहीं है। सस्वर पाठ करने को ही मंत्र पाठ कहते हैं। सामगान को सिद्धियों का स्रोत कहा गया है। सामगान सहित गाये हुए मंत्र नाद ब्रह्म बनते हैं। मंत्र का जो फल एवं माहात्म्य बताया गया है वह सस्वर उच्चारण का है। स्वर विहीन मंत्र उच्चारण कर्ता के लिए घातक बताया गया है।
उद्गाता जिन मंत्रों का भजन एवं गायन करते हैं उनके फल यथावत् प्राप्त होते हैं। रोग निवारण, मानसिक संशोधन, वातावरण परिष्कार एवं अदृश्य जगत पर अधिकार यह प्रतिफल जिन मंत्रों के बताये गये हैं वे यजन और स्वर से संयुक्त होने पर ही होते हैं।
भगवान मनु ने कहा है- “महा यज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियर्त तनुः।” अर्थात्- यज्ञ और महायज्ञ का आश्रय लेने पर मनुष्य शरीर ब्राह्मण बनता है। इसके अभाव में याचक मात्र बनकर रह जाता है। अध्वर्यु वह है जिसने मंत्रों को सिद्ध किया है। सिद्ध मंत्र अनायास नहीं हो जाता उसे सस्वर प्रवीण पारंगत करना पड़ता है। सिद्ध पुरुषार्थ ग्रहण किया हुआ और उसके संरक्षण में अभ्यास किया हुआ फलित होता है। माली के संरक्षण में फूलने फलने वाले उद्यान की तरह मंत्र की सफलता भी सिद्ध पुरुष के संरक्षण में होती है।
मन्त्र का शुद्ध उच्चारण, तपश्चर्या पूर्वक संयम साधना, गुरु के संरक्षण, अटूट श्रद्धा यह सभी बातें जिस साधना में जुड़ जाती हैं। उसकी सफलता असंदिग्ध होती है जो ऐसे ही उलटे सीधे अक्षर दुहराते रहते हैं जिन्हें शास्त्र विधि का ज्ञान नहीं है, जो मर्यादा पालन नहीं करते, जो व्रत धारण नहीं करते उनके मन्त्र सफल नहीं होते।
मंत्र को शब्द वेध कहा गया है। जैसे शब्द वेध बाण निशाने पर लगाकर चलाने वाले के पास वापस लौट आता है उसी प्रकार सिद्ध किया हुआ मन्त्र लक्ष वेध करता है और फिर सशब्द स्थिति में प्रयुक्तों के शरीर में प्रवेश कर जाता है उसका भण्डार कभी खाली नहीं होगा।
पुस्तक में लिखे हुये शब्दों को याद कर लेना मंत्र नहीं है। उन्हें अक्षरों की पंक्ति कहना चाहिए। उसे याद कर लेना कविता याद कर लेने के समान है। ऐसे मंत्र का प्रयोग कौतूहल मनोरंजन के समान हैं। मंत्र को साधना और विचार और स्वर के साथ सिद्ध करना होता है। इसके लिए प्रवीण पारंगत का संरक्षण चाहिए। जो इन बातों की अपेक्षा करते हैं। स्वेच्छाचार बरतते उनके मंत्र हास्यास्पद बनकर रह जाते हैं। वैसा फल नहीं मिलता जैसा कि शास्त्रों में लिखा हुआ है। (क्रमशः)