
ज्योतिर्विज्ञान अन्तरिक्ष भौतिकी से समन्वित हो।
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जिस भू-भाग पर हम रहते हैं उसका विस्तार लगभग सत्रह करोड़ वर्ग मील है एवं उसका तीन चौथाई हिस्सा पानी से ढका है। मात्र जल से भरा हुआ कुल क्षेत्र 13 करोड़ 16 लाख वर्ग मील पड़ता है। अन्तरिक्ष का विस्तार असीम है। जैसे-जैसे ऊपर की ओर बढ़ते हैं अन्तरिक्ष की परिधि उसी अनुपात में बढ़ती प्रतीत होती है। प्रकृति की सम्पदाएँ जितनी पृथ्वी के गर्भ और उससे जुड़े वातावरण में सिमटी है उसकी तुलना में अन्तरिक्ष में कही अधिक परिमाण में सन्निहित हैं। अस्तु विस्तार की दृष्टि से ही नहीं वरन् भौतिक सम्पदा की दृष्टि से भी अन्तरिक्ष पृथ्वी की अपेक्षा कहीं अधिक सम्पन्न है।
ऐसी स्थिति में अन्तरिक्ष विज्ञान का महत्व भू-विज्ञान की तुलना में कही अधिक बढ़ जाता है। जल और थल की तरह मनुष्य यदि चाहे तो अन्तरिक्षीय खोज में एक और कड़ी जोड़कर ग्रहों की गति और स्थिति से पृथ्वी के वातावरण तथा प्राणि जगत को जो किस प्रकार अनुकूलताएं और प्रतिकूलताएँ सहनी पड़ती हैं, इस जानकारी से लाभान्वित हो सकता है। प्राचीन काल में ज्योतिर्विज्ञान आज के भौतिक विज्ञान की भांति ही सुविकसित था। ग्रहों की गतिविधियाँ तथा उनकी सूक्ष्म प्रतिक्रियाओं के बारे में जानकारी ऋषिगणों को भली प्रकार उपलब्ध रहती थी। फलतः वे अनुकूलताओं से लाभ उठाने तथा प्रतिकूलताओं से बचने का मार्ग निकाल लेते थे। मनुष्य जाति ने ज्ञान-विज्ञान की अनेक शाखा विकसित करके प्रगति पथ पर बढ़ चलने में अप्रतिम सफलता पाई है। अन्य विज्ञान की धाराएं सामयिक, सीमित और सम्बद्ध लोगों कसे प्रभावित करती हैं पर ग्रहों की सामर्थ्य अधिक प्रचंड और क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है। ऐसी दशा में उनके साथ जुड़े हुए सम्बन्ध सूत्रों और आदान-प्रदान के सम्बन्ध में मनुष्य की जानकारी भी विशद होनी चाहिए।
भौतिक विज्ञान ने अन्तरिक्ष का महत्व समझा है। सर्वविदित है कि वायु एवं जल की अथाह सम्पदा आकाश के पोले ईथर में भरी हैं। विज्ञान के ज्ञाता इस तथ्य से परिचित हैं कि बिजली रेडियो, लैसर आदि की तरंगें आकाश में संव्याप्त होती हैं। ध्वनि, ताप, प्रकाश आदि की तरंगें आकाश में प्रवाहित होती हैं तथा अंतर्ग्रही अनुदान भी उसी क्षेत्र में मिलते हैं। अदृश्य जगत की सम्पदा सूक्ष्म अन्तरिक्ष में ही समाहित है। विचार तरंगें इसी परिसर में परिभ्रमण करती रहती हैं। ऐसे अनेकानेक आधार हैं जिनसे स्पष्ट है कि भूमण्डल की तुलना में अन्तरिक्ष में विद्यमान साधन सम्पदा का महत्व और स्तर असंख्य गुना अधिक है।
अध्यात्म वेत्ता अनादि काल से ही अपनी गतिविधियों को अन्तरिक्ष पर केन्द्रीभूत रखे रहे हैं। उनकी सामर्थ्यों का उत्पादन क्षेत्र अदृश्य जगत- सूक्ष्म जगत रहा है। ऋद्धि-सिद्धियाँ और आध्यात्मिक विभूतियाँ दिखाई तो प्रत्यक्ष रूप में पड़ती हैं, किन्तु इनका उपार्जन परोक्ष जगत से ही संभव हो पाता है। मानवी अन्तराल में तो उसकी बीज सत्ता भर विद्यमान है परन्तु वह सुविकसित होने और विभूतियों को करतलगत करने में अदृश्य सूक्ष्म जगत का ही अवलम्बन लेती है। साधना की तो जाती है अन्तराल में, पर उसका प्रतिफल दैवी शक्तियों का सहयोग लेने पर ही मिलता है।
वैज्ञानिकों को लेसर से लेकर मृत्यु किरणों तक एक से बढ़कर एक शक्तियाँ आज आकाश से ही उपलब्ध हो रही हैं, जो सृजन अथवा ध्वंस का- दोनों का ही उद्देश्य पूरी करती रह सकती हैं। इन्हें युद्ध आदि में प्रयुक्त कर अणु विस्फोट जैसी विभीषिका उत्पन्न की जा सकती है। सदुपयोग द्वारा सुविधा सम्वर्धन हेतु बहुमूल्य उपलब्धियां भी प्राप्त की जा सकती हैं। इन दिनों रेडियो, तार, टेलीफोन, टेलीविजन आदि संचार यंत्रों में छोटे-छोटे उपग्रहों से अनेक देशों में काम लिया जा रहा है जो पूर्णतया सफल रहा है। यह पद्धति सरल और सस्ती भी पड़ रही है। अब मौसम में इच्छानुकूल हेर-फेर की बात भी सोची जा रही है। ऋतुओं पर नियंत्रण कर गर्मी-सर्दी बढ़ा लेने, इच्छानुकूल क्षेत्र में वर्षा कराने के प्रयोग परीक्षण भी चल रहे हैं। यदि ये सफल रहे तो मानवी सुविधा सम्वर्धन में भारी प्रगति हो सकती है। इस विपुल ऊर्जा के सर्वसुलभ होने के साथ-साथ समुद्र की लहरों से सीधे बिजली बना लेने और उसके खारे जल को मीठा कर लेने में भी कोई विशेष कठिनाई नहीं होगी। इस स्वप्न को साकार करने में वैज्ञानिक प्रतिभाएँ जी-जान से लगी हुई हैं। उन्हें सफलता भी मिली है। लेकिन उज्ज्वल सपनों के साथ जुड़ा हुआ एक निराशाजनक पक्ष भी है। वह है- आविष्कारों एवं तकनीकी विकास से उत्पन्न होने वाले प्रदूषण संकट का। इस दृष्टि से पिछली प्रगति अधिक महँगी पड़ी है।
विषाक्तता बढ़ने से आकाश में प्रदूषण इतना बढ़ गया है जिसके रहते मनुष्यों और प्राणियों को दुर्बलता और रुग्णता का अभिशाप सहते अकाल मृत्यु के मुँह में चले जाने के अतिरिक्त कोई चारा न रहेगा। अंतर्ग्रही असंतुलनों में भी वृद्धि हुई है। प्रकृति प्रकोप इन्हीं दिनों अधिक परिमाण में दृष्टिगोचर हो रहे हैं। पृथ्वी अन्य ग्रहों के प्रभावों से निश्चित ही प्रभावित होती है। सौर मण्डल के चक्र में बँधी होने के कारण पृथ्वी का वातावरण भी अन्यान्य ग्रहों पर प्रभाव डालता है। अस्तु असंतुलनों और प्रकृति विपदाओं में मनुष्य द्वारा प्रदूषित पृथ्वी के वातावरण का भी सहयोग हो सकता है, ऐसा पर्यावरण विशेषज्ञ मानने लगे हैं।
विषाक्तता के परिशोधन का कोई कारगर उपाय नहीं सूझ रहा। “किंकर्तव्यविमूढ़” की भाँति वैज्ञानिक यह सोच रहे हैं कि संव्याप्त आणविक एवं अन्यान्य कचरे को अनन्त अन्तरिक्ष के किसी सूदूर कोने में फेंककर छुट्टी पा ली जाये। यह युक्ति मनुष्य के लिए कोई हानिकारक प्रभाव उत्पन्न नहीं करेगी, यह संदिग्ध है। अन्तरिक्षीय क्षेत्र में बढ़ते हुए तकनीकी कदमों के साथ बढ़ते उपग्रहों की संख्या भी भावी विभीषिकाओं का एक निराशाजनक पहलू प्रस्तुत करती है, जिसे नजर अन्दाज नहीं किया जा सकता।
भौतिक विज्ञान तथा उसका तकनीकी ज्ञान प्राचीन काल में इतना सुविकसित न था। पर जिन उपलब्धियों के लिए अन्तरिक्ष विज्ञानी प्रयत्नशील हैं वे सारे प्रयोजन ज्योतिर्विज्ञान द्वारा गणना के माध्यम से पूरे कर लिए जाते थे। अन्तरिक्ष के अन्तराल में ग्रह, नक्षत्रों की स्थिति, अनुदान तथा उनके हानिकारक प्रभावों की जानकारी ज्योतिर्विज्ञान देता था। आत्म-विज्ञान उनसे लाभ उठाने- प्रतिकूलताओं से सुरक्षा उपचार की विधि व्यवस्था जुटाता था। अतीत की खोई हुई इस महान विधा ज्योतिर्विज्ञान की विलुप्त कड़ियों को ढूंढ़ने की पुनः आवश्यकता है। इस विज्ञान की पुनर्प्रतिष्ठा हो सके तो विज्ञान से कदम से कदम मिलाकर चलते हुए- बिना किसी क्षति के अन्तरिक्ष जगत से एक से बढ़कर एक भौतिक एवं अन्यान्य अनुदानों के रूप में लाभान्वित हो सकना संभव है।