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Magazine - Year 1986 - Version 2

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प्रत्याहार साधना का स्वरूप और उद्देश्य

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प्रत्याहार का अर्थ है प्रतिरोध। जीवन प्रक्रिया के हर क्षेत्र में इसकी भी आवश्यकता पड़ती है। मलीनता लोक प्रवाह का एक प्रचलन है। शरीर में भीतर से पसीना निकलता है और बाहर से धूलि जमती है। कपड़े अभी धुले हुये पहने थे अभी धूलि धक्कड़ से मैले होने लगते हैं। कमरे की बुहारी लगाते देर नहीं हुई कि खिड़कियों, जंगलों में से उड़ते हुये गन्दगी के कण कमरे में प्रवेश करने लगते हैं और कुछ ही समय में मैल की परत जम जाती है। दाँत रात में साफ किये थे दूसरे दिन फिर बदबू आने लगती है। स्वच्छता को स्थिर न रहने देने के लिए अस्वच्छता का दौर हमेशा चलता रहता है। हेमन्त में पेड़ों के पत्ते गिरते हैं और वे ओस से सड़कर धूलि में सनकर समूचे उद्यान को गन्दा कर देते हैं।

इस प्रकृति परम्परा को प्रयत्नपूर्वक बुहारना हटाना पड़ता है। यदि ऐसा न किया जाय तो सर्वत्र गन्दगी का ढेर लग जाय। मरते रहने वाले पशु-पक्षियों के अस्थि पंजर अच्छे-खासे वनों को दुर्गन्धित कर दें। वन्य पशु-पक्षी हरीतिमा को चट कर डालें। हिंस्र प्राणियों की बढ़ोतरी चल पड़े तो एक भी शाकाहारी पशु जीवित न बचने पाये। प्रकृति की गन्दगी को मनुष्य सुधारता है मल-मूत्र की गन्दगी को खाद में बदल कर उपयोगी फसल उगता है। यही है मनुष्य की सौंदर्य दृष्टि जिसके अनुसार मलीनता को ढकने और सौंदर्य को उजागर करने का प्रयत्न चलता रहता है। सत्यं, शिवं, सुन्दरम् में से प्रथम मनुष्य का सरल उपक्रम सौंदर्य अपनाना होता है। सौंदर्य अपनाने का तात्पर्य होता है गन्दगी को हटाना। जो इस कार्य में तत्परता बरत सकेगा। वही सौंदर्य का आनन्द ले सकेगा।

बच्चा जन्म से ही गन्दगी में लिपटा हुआ आता है और शरीर छोड़ते ही गन्दगी का उद्भव करने लगता है। यदि मेरे शरीर को कुछ देर ऐसे ही पड़े रहने दिया जाय तो वह फूलने सड़ने लगेगा। और भीतर से ही कृमि कीटक उत्पन्न होकर उसे खा पी कर साफ कर देंगे। कौए, कुत्ते उस गन्दगी को साफ करने के लिए दौड़ पड़ेंगे। माली न हो तो बगीचा झाड़-झंखाड़ मात्र बनकर रह जायगा वही है जो उसे काट-छांट कर खाद पानी देकर सौंदर्य से भरपूर बनाता है।

हमारे मन की भी यह स्थिति है। उसमें पूर्व जन्मों के कुसंस्कारों से प्रेरित दुर्भाव उठते रहते हैं। समाज में सब ओर हेय प्रवृत्तियों का ही प्रचलन है। सज्जनता बड़ी कठिनाई से ढूंढ़ने पर जहाँ-तहाँ मिलती है। घर परिवार पड़ौसी मित्र, स्वजन सम्बन्धी भी अपने मतलब की ताक में रहते हैं और ऐसा परामर्श देते हैं, जिससे अधिक वैभव उपार्जित हो और उन्हें भी उसका लाभ मिले। सचाई, ईमानदारी, पुण्य-परोपकार की बात चलने पर तो वे सभी प्रसन्न होते और विरोध करते हैं।

संसार के प्रचलन की भाँति ही हमारी मानसिक संरचना है। सभी इन्द्रियाँ अपने-अपने विषयभोग माँगती हैं। सीमित नहीं असीमित। भले ही इसके लिए अनीति अपनानी पड़े और अपराधी तक बनना पड़े। स्वादेन्द्रिय और जननेन्द्रिय तो मर्यादाओं का उल्लंघन करने के लिए सदा उद्यत रहती है।

मन की अपनी दुष्प्रवृत्तियां हैं। क्रिया आरम्भ होने से पहले विचार मन में उठते हैं। उन्हीं बीजों से कर्म कुकर्मों के अंकुर फूटते हैं। इसलिए कुकर्म बन पड़ने के उपरान्त बदनामी या दण्ड सहने अथवा प्रायश्चित करने की अपेक्षा यह अच्छा है कि विष वृक्ष का जैसे ही जहां से भी अंकुर उठे उसे वहीं कुचल दिया जाय। तात्पर्य यह है कि कुविचारों के उदय होते ही उनके विरुद्ध संघर्ष छेड़ दिया जाय। इस संघर्ष के लिए पहले से ही उतनी मजबूत किलेबन्दी या सैन्द व्यवस्था जुटा ली जाय कि शत्रु को बढ़ने और फूलने-फलने का- जीतने का अवसर न आने पाये।

यथा मन में काम वासना के विचार अक्सर उठते हों तो उस कार्य को क्रियान्वित करने की हानियाँ पर उदाहरणों पर विचार किया जाय। साथ ही ब्रह्मचर्य पालन करने पर शारीरिक, मानसिक, आत्मिक प्रगति के फलितार्थों की लम्बी शृंखला बनाई जाय। साथ ही हनुमान, शंकराचार्य, विवेकानन्द, दयानन्द आदि को हस्तगत हुई उपलब्धियों की सचित्र रूपरेखा मानस पटल पर अंकित की जाय। इस प्रकार दोनों पक्षों द्वारा प्रस्तुत किये गये तर्कों-लाभों हानियों को सुनाते समझते हुये निष्पक्ष न्यायाधीश की तरह निर्णय करना चाहिए कि किसे निरस्त किया जाय और किसे प्रश्रय दिया जाय।

इसी प्रकार लोभ, मोह, अहंकार आदि की लिप्साएं मन में उठती हैं, और उन्हें रोक-टोक का व्यवधान आड़े न आये। खुली छूट मिले तो वे कार्य रूप में प्रकट हुये बिना नहीं रह सकतीं। ऐसी स्थिति आने से पहले ही अनौचित्य के विरोध और औचित्य के समर्थन में इतना गोला बारूद इकट्ठा कर लेना चाहिए कि अवाँछनीयता का उत्साह ठण्डा पड़ जाय उसकी हिम्मत पश्त हो जाय।

ईर्ष्या द्वेष, क्रोध, आतुरता, भय, चिन्ता निराशा जैसे मनोविकार भी स्वभाव का अंग बन जाने पर उद्दण्ड हो जाते हैं कि रोके नहीं रुकते और अपना अनर्थकारी प्रभाव दिखा कर रहते हैं। ऐसी स्थिति आने से पूर्व ही सतर्क होने और कुविचारों के विरुद्ध संघर्ष छेड़ने की आवश्यकता है। इसमें आलस्य वश देरी नहीं करनी चाहिए अन्यथा अवाँछनीयता की चढ़ बनेगी और वह ऐसा कुछ कर गुजरेगी जिसके लिए पीछे पछताना ही पड़े।

अनुचित विचारों के पक्ष में तात्कालिक लाभों का सबसे बड़ा तर्क है और उदाहरण यह है कि वैसा ही अनौचित्य असंख्यों लोग अपनाते हैं साथ ही हितैषी बन कर वैसी ही सलाह देने आ जाते हैं। इतने बड़े परिकर के विरुद्ध जो मोर्चाबन्दी करनी है उसके साथ अनेकों तर्क, तथ्य, प्रमाण तथा उदाहरण होने चाहिए। इन्हें तत्काल एकत्रित नहीं किया जा सकता और न इतना प्रबल बनाया जा सकता है कि डटकर ले सके। इसलिए उस योजना को लगातार चिन्तन के उपरान्त इस प्रकार क्रमबद्ध प्रशिक्षित बना लेना चाहिए कि बिगुल बजते ही मोर्चे पर आ डटे और शत्रु को परास्त करके रहे।

प्रत्याहार इसी को कहा गया है। इसमें प्रतिपक्ष को पछाड़ना पड़ता है। यह लड़ाई विचार क्षेत्र में होती है। पानी फूट पड़ने से पहले ही छेद बन्द करना पड़ता है। आक्रमण हो जाने से पहले ही ऐसा प्रबन्ध करना पड़ता है कि अनर्थ को हावी हो जाने का अवसर न मिलने पाये।

इस तैयारी के लिए स्वाध्याय की आवश्यकता पड़ती है। साथ ही चिन्तन-मनन की भी। अनौचित्य की हानियों को जितने विस्तार सहित सोचा जा सके। उन्हें अपनाने पर जिन्हें जो संकट सहना पड़ा है। उसका चित्र इतना स्पष्ट होना चाहिए कि उस दिशा में कदम बढ़ाना आग से खेलने के समान भयावह प्रतीत होने लगे। ठीक यही बात औचित्य के समर्थन के लिए भी है। चतुर वकील जिस पर अपना पक्ष प्रतिपादित करते हैं और इसके लिए कानून की पुस्तकों को बारीकी से उलटते हैं इसी का अनुकरण हमारे अन्तराल में विद्यमान औचित्य के समर्थन के लिए भी है। चतुर वकील जिस पर अपना पक्ष प्रतिपादित करते हैं और इसके लिए कानून की पुस्तकों को बारीकी से उलटते हैं उसी का अनुकरण हमारे अन्तराल में विद्यमान औचित्य को भी मिलना चाहिए। तर्कों से भी अधिक उदाहरणों की आवश्यकता पड़ती है। हो सकता है कि समीप के आज के जैसे उदाहरण न मिलें या कम मिलें पर इतिहास के पृष्ठ उलटने पर महामानवों के व्यक्तित्व और कर्तृत्व उनको ऐसे मिल सकते हैं जो हमारी सदाशयता का- आत्मा की पुकार का- न्याय नीति का समर्थन कर सकें।

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