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Magazine - Year 1986 - Version 2

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प्राण विद्युत के भले-बुरे उपयोग - 1

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First 30 32 Last
यह विश्व-ब्रह्मांड शक्तियों का भण्डार है। इसमें प्रकृति परक और चेतना परक शक्तियों के भण्डार भरे पड़े हैं। वे अपने ढंग से अपना काम करते रहते हैं और उन्हीं के आधार पर सृष्टि -सन्तुलन बना रहता है। एक ओर जहाँ सर्दी में पतझड़ होता है वहीं बसन्त से उसकी पूर्ति हो जाती है। ग्रीष्म से घात-पात और कुएँ, तालाब सूख जाते हैं, तो वर्षा के आगमन पर उस क्षति की पूर्ति भी भली-भाँति हो जाती है। दिन की तपन को रात्रि शान्त कर देती है और रात्रि की निस्तब्धता को दिनमान मिटा कर रहता है। पापी अपनी दुष्प्रवृत्तियों का दण्ड भोगते हैं और पुण्यात्माओं के लिए सुख-शांति का मार्ग खुला रहता है। आलसी अनगढ़ स्थिति में पड़े रहते हैं और पुरुषार्थी प्रगति-पथ पर आगे बढ़ते हैं। जन्म दर की बढ़ोतरी को मृत्यु की कैंची काट-छांट करती और धरती पर उतना ही बोझ रहने देती है, जितनी कि उसमें वहन करने की क्षमता है।

यह प्रकृति का सामान्य क्रम हुआ, जिसे भौतिक विज्ञान के सहारे जाना जा सकता है और समझा जा सकता है कि प्रत्यक्ष पदार्थों के पीछे सूक्ष्म शक्तियों का कितना बड़ा हाथ है। अनन्त अन्तरिक्ष में अधर लटके हुये- घूमते और चलते ग्रह-तारकों को उनकी धुरी और कक्षा में बिना कुछ सेकेंडों की भूल-चूक हुये कौन सम्भालता है? इस आश्चर्य का समाधान उनकी गुरुत्वाकर्षण शक्ति के प्रवाह और पकड़ स्तर को समझने से मिलता है। यदि ऐसा न होता, तो ब्रह्मांड के सदस्य परस्पर टकरा जाते और किसी ऐसे गर्त में जा गिरते जहाँ से उनका वापस लौटना सम्भव न होता। जल, थल और वायु का त्रिवर्ग अपने को घुलाता-मिलाता अठखेलियाँ करता और इस धरती की सुन्दरता तथा सजीवता को अक्षुण्ण रखता है। जहाँ अड़चन आ जाती है, वहाँ उसे तूफान, भूकम्प, ज्वालामुखी आदि अपने आघातों से ठीक कर देते हैं। नेत्रों से दीख पड़ने वाले तथा अन्य इन्द्रियों उपकरणों से अनुभव में आने वाले प्रायः सभी पदार्थ ताप, शब्द और ध्वनि की सूक्ष्मता के स्थल परिचय हैं। यह प्रकृति कौतुक है, जिसे हम पदार्थ विज्ञान के आधार पर समझते और उसमें से जितना हस्तगत हो सकता है, उसका लाभ उठाते हैं।

दूसरा अदृश्य जगत चेतना का है। जिस प्रकार दृश्यमान शरीर और अदृश्य प्राण के समन्वय से मानवी सत्ता कार्यरत रहती है। ठीक उसी प्रकार इस निखिल ब्रह्मांड में दृश्यमान अनुभव गम्य पदार्थ सत्ता है। उसकी पूरक आत्म चेतना है, जो प्राण रूप में जीवधारियों को कठपुतली की तरह नचाती है। शरीर में से प्राण निकल जाय, तो वह तेजी से सड़ने लगेगा। उसी प्रकार यदि इस दृश्य जगत में से अदृश्य चेतना न रहे, या गड़बड़ा जाय, व्यतिक्रम करने लगे , तो समझना चाहिए कि महा प्रलय, खण्ड प्रलय अथवा भयंकर उथल-पुथल का कोई विग्रह खड़ा हुआ। विश्व-चेतना न स्वयं गड़बड़ाती है और न सम्बद्ध क्षेत्र को गड़बड़ाने देती है। जहाँ भी व्यतिक्रम खड़ा होता है, वहीं उसे ठोक-पीटकर व्यवस्थित करती है।

प्राण चेतना का अपना स्वतन्त्र विज्ञान है। उसका स्वरूप, स्वभाव एवं वर्चस्व आत्म विज्ञान द्वारा जाना जा सकता है। उस प्रवाह में से जो उपयोगी है, उसे पकड़ा और खींचा जा सकता है। परब्रह्म इसी सत्ता को कहते हैं। वह स्वयं में क्रमबद्ध है और सृष्टि क्रम का तारतम्य बिठाये रहती है। उसका अनुनय विनय से सम्बन्ध नहीं है। नियमों को समझने और उनके अनुकूलन से ही ब्राह्मी सत्ता का अनुग्रह-अनुदान प्राप्त किया जा सकता है। उसकी न्यूनाधिकता व्यक्ति की पात्रता एवं प्रतिभा पर निर्भर है। ब्रह्म चेतना का भी एक चुम्बकीय क्षेत्र है। ठीक वैसा ही, जैसा कि ग्रह नक्षत्रों का चुम्बकत्व होता है।

पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र की सुस्थिरता ही अपनी दुनिया को सुव्यवस्थित और सुनियोजित बनाये हुए है। आवश्यकता इस बात की है कि हम उसके क्रम स्वरूप और नियम को समझें, उसके उपयोगी अंश को ग्रहण कर सकने योग्य अपने को बनावें। यह प्रयोजन ज्ञान, कर्म और भक्ति की तात्विक प्रक्रिया का अवलम्बन करके पूरा किया जा सकता है।

परम सत्ता की ब्रह्मांडीय चेतना को समझने और पकड़ने के लिए कहीं दूर जाने की आवश्यकता नहीं है। उसे अपने ही काय कलेवर के अंतर्गत ओत-प्रोत पाया जा सकता है और उस महासागर में से अपने उपयोग का वैभव हथियाया जा सकता है। परमात्मा अत्यन्त विशाल है, परब्रह्म की परिधि अत्यन्त विस्तृत है। बुद्धि के लिए अगम्य भी, पर उसका छोटा मॉडल आत्म चेतना के रूप में अपेक्षाकृत अधिक सरलता से समझा जा सकता है।

ब्रह्मांड की- उसके एक घटक सौर मण्डल की विधा को छोटे परमाणु में भी उसी रूप में काम करते हुये देखा जा सकता है। परमाणु सामान्यतः अदृश्य धूल कण हैं, पर उसकी एक छोटी-सी इकाई का विस्फोट कर सकने पर इतनी प्रचण्ड ऊर्जा प्रकट होते देख सकते हैं, कि उसकी विभीषिका का अनुमान लगाने भर से रोमाँच होने लगे। विराट ब्रह्म का लघुतम घटक परमाणु है। इसी प्रकार परब्रह्म परमात्मा का प्रतिनिधित्व काय कलेवर में समाहित आत्मा करती है। आत्मा पूर्ण भी है और अपूर्ण भी। अपूर्ण इस अर्थ में कि उस जैसी अगणित कोशाओं से यह निखिल ब्रह्मांड भरा पड़ा है। उसका अंशधर तो अपूर्ण ही माना जायेगा। पूर्ण इस अर्थ में कि उसमें बीज रूप से वह सब कुछ विद्यमान है, जो इस विराट् में है। छोटे-से बीज में विशालकाय वृक्ष की समूची सत्ता भरी रहती है। वीर्य कण में एक मनुष्य की समूची सत्ता विद्यमान पाई जाती है। एक आत्मा में भी परमात्मा का समूचा वैभव विद्यमान रहता है। आवश्यकता उस प्रसुप्त को जागृत करने भर की है। तप और योग का साधनाभ्यास इसी उद्देश्य के लिए किया जाता है। इसका उद्देश्य आत्मोत्कर्ष भी हो सकता है और भौतिक क्षेत्र में अपनी विशिष्टता का, विभूति-वैभव का चमत्कारी परिचय देना भी। आत्मोत्कर्ष क्षेत्र में स्वर्ग और मुक्ति का समावेश है। साँसारिक चमत्कार प्रस्तुत कर सकने की क्षमता को ऋद्धि-सिद्धि कहते हैं।

चेतना का ऊर्ध्वलोक भी है, मध्यम भी और कनिष्ठ भी। इसी को स्वः लोक, भुवः लोक और भूः लोक कहते हैं। ऊर्ध्व चेता अपनी चेतना का परब्रह्म के साथ घुला लेते हैं। ईंधन आग के साथ लिपटकर स्वयं भी अग्निरूप हो जाता है। लकड़ी के साधारण टुकड़े में अग्नि तत्व के सारे गुणों का समावेश हो जाता है और वह स्थिति के अनुरूप दावानल-बड़वानल का रूप धारण कर सकता है। ऐसी ही चेतनाएँ देवर्षि , बह्मर्षि, महर्षि आदि नामों से जानी जाती हैं। वे प्रायः वही प्रयोजन पूरा करती हैं, जो परमसत्ता को अभीष्ट है। इन्हें पार्षद या जीवन मुक्त भी सकते हैं।

जिन्हें दृश्यमान साकार विराट् ब्रह्म से प्रीति है, वे लोकमंगल में, जन-कल्याण में निरत रहते हैं। इसमें उन्हें दुहरा लाभ मिलता है। प्रथम, अन्तराल में सत् प्रवृत्तियों का सम्वर्धन, कषाय-कल्मषों का निराकरण। दूसरा, पुण्य परमार्थ के पराक्रम से अनेकानेकों का विदित और अविदित हित-साधन। पुण्य फल से सुख-शांति की अभिवृद्धि और प्रगति की सुनिश्चित सम्भावना का शास्त्रकारों ने वर्णन किया है। लोकसेवी पुण्यात्मा अपने कर्तृत्व का, प्रतिफल हाथों हाथ प्राप्त करते हैं। आत्म-सन्तोष, लोक-सम्मान और कठिन प्रयोजनों को सरल बनाने वाली दैवी अनुग्रह उन्हें मिलता है। इन्हीं आधारों को अपना कर लोग महापुरुष, देवमानव बनते हैं। लोकनायक और अनुकरणीय अभिनन्दनीय अग्रगामी ऐसे ही लोगों को कहा जाता है। इतिहासकार उनकी गुण-गाथाएँ गाते-लिखते नहीं थकते। दोनों ही उच्चकोटि की भूमिकाएँ हैं, जिनमें से प्रथम को दैवी और दूसरी को मानवी कहते हैं। इन्हीं को निराकार- साकार उपासना भी कहा गया है।

तीसरी भूमिका वह है, जिसे नियमन, निरोध एवं प्रतिरोध कह सकते हैं। यही है- प्रताड़ता भी। इसे वाममार्ग या तन्त्र मार्ग कहते हैं। इसमें किन्हीं अनाचारों को रोका जा सकता है, अनाचारी प्रवाह को रोका जा सकता है। तन्त्र का सारा विधान-विज्ञान इसी उपक्रम से भर पड़ा है। यों कई अविवेकी इसका लोभ एवं द्वेष वश दुरुपयोग भी करते हैं और निर्दोषों को सताकर अपनी दुष्टता का परिचय भी देते हैं, पर इसमें विज्ञान का कोई दोष नहीं। दोष व्यक्ति का है। लाठी के सहारे चलने में सुगमता भी होती है और दुरुपयोग करके किसी का सिर भी फोड़ा जा सकता है। तन्त्र का पिछले दिनों अनर्थ मूलक उपयोग ही अधिक हुआ है, इसलिए वह बदनाम भी अधिक है।

तन्त्र में मानवी चेतना की विद्युत शक्ति ही काम करती है। शरीर और प्राण का सम्मिलित उत्पादन वैसा ही शक्तिशाली होता है, जैसा कारतूस में भरी हुई बारूद और गोली का तालमेल। तन्त्र का प्रयोग हर कोई नहीं कर सकता और न वह हर किसी पर सफल हो सकता है। बिजली धातुओं में होकर प्रवाहित होती है, जनरेटर द्वारा उत्पन्न की जाती है। उसी प्रकार तन्त्र शक्ति का उत्पादन और प्रयोग कठिन तो है, किन्तु असाध्य या असम्भव नहीं।

आमतौर से तान्त्रिक प्रयोग अनाचार या अनाचारियों के विरुद्ध किये जाते हैं। यह भी राजदण्ड की तरह आत्मदण्ड की एक प्रक्रिया है, जिसमें दोषी ही प्रताड़ित होने चाहिए, द्वेष या लोभ के लिए इस शक्ति का प्रयोग तो सर्वथा अनुचित है, पर जिनकी दाढ़ में खून का चस्का लग जाता है, वे आतंकवादियों की तरह इस प्रकार के प्रयोग अपना प्रत्यक्ष लाभ और अहंकार का पोषण हुआ अनुभव करते हैं।

मानवी काय-कलेवर में विद्युत शक्ति की उपस्थिति सर्वमान्य है। बिजली अनेक उत्तम उपयोगों में भी काम आती है और उसके झटके भर से किसी का प्राण हरण भी हो सकता है। सामान्य हानि पहुँचाना तो और भी सरल है। विशेषतया व्यक्तिगत प्रयोजनों में तो उसकी परिधि सीमित होती है, इसलिए आघात भी जल्दी लगता है। मारण, मोहन, उच्चाटन, स्तम्भन आदि के प्रयोग व्यक्तियों द्वारा व्यक्तियों पर ही किये जाते हैं, पर वे बन तभी पड़ते हैं, जब योगाभ्यास की भाँति तन्त्र शक्ति के उपार्जन में प्रचण्ड परिश्रम कर लिया जाय, अन्यथा डराने-धमकाने का छद्म तो लोक-व्यवहार में भी प्रयुक्त होता रहता है। तन्त्र के लिए इससे बढ़ा-बढ़ा आधार चाहिए।

योगी योगाग्नि में अपना शरीर स्वयं जला लेते हैं और आवश्यकता पड़ने पर दूसरों को भी शाप देकर भस्म या अहित कर सकते हैं। यह विद्युत शक्ति जीवितों में तो होती ही है, वह मृतकों में भी भूत-पिशाच के रूप में बनी रहती है और ब्रह्मराक्षस बनकर पीछा करती है। उस प्रकार के आक्रमण उसे तोड़-मरोड़कर रख सकते हैं, जिस पर कि उसका प्रकार हुआ है।

मिश्र के पिरामिडों में से एक तूतन खामन की कब्र को खोदने वाले अनेक अनुसन्धान कर्त्ताओं में से प्रायः सभी बेमौत मरे थे। दुर्वासा की क्षमता शाप प्रधान थी। भस्मासुर ने भी यह कौशल प्राप्त कर लिया था। सुरसा, ताड़का, सूर्पणखा, पूतना आदि नारियों को भी यह शक्ति प्राप्त थी। दमयन्ती ने व्याघ्र को भस्म किया था और शृंगी के शाप-प्रहार से परीक्षित को तक्षक ने डसा था।

विज्ञान सदा एक रस रहता है। उसके सिद्धान्त और प्रभावों का प्रतिपादन सदा अविच्छिन्न बना रहता है। आदिम विज्ञान भी अपनी मौलिक गरिमा सदा बनाये रहता है। उसके द्वारा जहाँ अपना और दूसरों का हित साधन होता है, वहाँ तन्त्र पक्ष को अपना कर भयंकर कृत्य भी हो सकते हैं। इसकी चपेट में व्यक्ति भी आ सकते हैं और प्रयास भी। किसी के शरीर को अपंग-अल्पजीवी बना देने की तरह उसके व्यवसाय, कारोबार, परिवार में भी ऐसा व्यवधान डाला जा सकता है, जिससे लाभ के लिए किये गये प्रयास हानिकारक सिद्ध होते चलें।

व्यक्तिगत तान्त्रिक प्रयोगों में प्रतिपक्षी की बुद्धि भ्रमित होती और हिम्मत टूटती है। सही सोचने और सही कदम उठाने की प्रक्रिया भी गड़बड़ा जाती है। अनिद्रा जैसे रोग घेरते हैं। तनाव की उत्तेजना छायी रहती है। ऐंठन होती है और डरावने स्वप्न आते हैं- यह प्रारम्भिक लक्षण हैं। तन्त्र प्रयोगों से आहत व्यक्ति की चोटें यदि हलकी हैं, तो वह बहुत समय तक उस पीड़ा को सहता और धीरे-धीरे गलत-घुलता रहता है, किन्तु यदि आक्रमण तीव्र हुआ, तो वह समग्र अनिष्ट कर सकता है।

सत्संग और कुसंग का जैसा प्रभाव होता है, वैसा ही मानवी विद्युत से उच्चस्तरीय एवं अनिष्टतम हो सकता है। कालिदास, वरदराज की तरह उसे विद्वान, भीम घटोत्कच की तरह बलवान, कर्ण-सुदामा की तरह धन-वान भी बनाया जा सकता है। किन्तु प्रयोग यदि अनिष्ट के निमित्त हुआ है तो उसका प्रभाव ऐसा हो सकता है जिससे अच्छा-खासा व्यक्ति अपंग, असहाय की तरह कष्ट भोगे और यत्र-तत्र ठोकरें खाता फिरे। यह शक्ति की प्रकृति का परिचय है। चाकू साग काट सकने के भी काम आ सकता है और गला काटने के लिए भी, सदुपयोग और दुरुपयोग कर्ता के अधीन है। इसमें शक्ति माध्यमों पर दोषारोपण नहीं किया जा सकता।

प्राचीन काल में महाभारत जैसे युद्धों में जिन दिव्य अस्त्रों का प्रयोग हुआ था, वे धातु विनिर्मित ही नहीं वरन् मानवी विद्युत द्वारा विनिर्मित दिव्य आयुध ही थे जो वर्तमान मृत्यु किरण, लेसर किरणों की तरह प्रतिपक्षी पर छोड़े जाते थे और निष्णातों द्वारा उन्हें मन्त्र बल से निरस्त भी किया जाता था। उनकी समता लौहकारों द्वारा विनिर्मित अस्त्र-शस्त्र नहीं कर सकते थे। कालपाश, नागपाश आदि ऐसे ही दिव्य आग्नेयास्त्र थे जो प्रत्यक्ष दृष्टिगोचर न होते हुए भी लक्ष्य को बेधकर हटते थे।

यह प्रयोग व्यक्तिगत लक्ष्य को रखकर नहीं अपितु किसी योजना को असफल बनाने के लिए भी हो सकते हैं। इन्हीं दिनों अमेरिका के चार अन्तरिक्ष यान लगातार ब्रह्मांड में प्रवेश करने में असफल रहे हैं। हो सकता है कि इन असफलताओं के पीछे कहीं कोई मानवी विद्युत एवं तन्त्रधारा काम कर रही हो। कुछ वर्ष पूर्व ‘स्काइलैब” उपग्रह का गिरना भी ऐसा ही अनिष्ट विधा में सम्मिलित किया जा सकता है।

अमेरिका के अन्तरिक्ष यानों के चैलेन्जर अन्तरिक्ष शटल के दुर्घटनाग्रस्त होकर सभी सात व्यक्तियों के वायुमंडल में जलने के बाद नासा के दो अन्तरिक्षीय अभियान भी ऐसी ही ट्रेजेडी के शिकार हुए हैं। नासा की क्षमता व कार्य प्रणाली पर एक प्रश्न चिन्ह लग गया है। सम्भव है कोई दैवी शक्ति नहीं चाहती हो कि अणु आयुधों की दौड़, अन्तरिक्ष में मनुष्य का संहार प्रयोजनों हेतु आवागमन बन्द हो। चेरनोबिल रिएक्टर (रूस) में विगत 28 अप्रैल को हुई दुर्घटना जिसमें हजारों व्यक्तियों के मरने के साथ रेडियोधर्मिता के सारे वातावरण में संव्याप्त होने की सम्भावना ने विश्व को दहला दिया है। इस रेडियोधर्मिता के दूरगामी परिणाम हिरोशिमा काण्ड से भी भयंकर होने की सम्भावना है। किन्तु यह चेरनोविल अकेला नहीं है। यदि स्वतः दहन की नौबत आ ही जाय तो अमेरिका में 101, कनाडा में 15, अमेरिका में 52, भारत में 6, ब्रिटेन में 37, फांस में 44, प. जर्मनी में 20, चीन में 2 एवं जापान में ऐसे 32 रिएक्टर हैं जो सारी पृथ्वी को क्षण भर में नष्ट कर सकते हैं। परोक्ष सत्ता नहीं चाहती कि विक्षिप्त मनुष्य के हाथों यह आत्मघाती तलवार सौंपी जाय। यह इस खबर से स्पष्ट होता है जो अभी-अभी अमेरिका से आई है, जिसमें वहाँ के 5600 उच्च पदस्थ वैज्ञानिकों, जिनमें पन्द्रह नोबेल पुरस्कार विजेता भी शामिल हैं, ने रोनाल्ड रीगन की स्टार वार योजना (एस. डी. आय.) से अपने हाथ खींचकर असहयोग करने तथा विश्व भर के वैज्ञानिकों से साथ देने की अपील की है। हो सकता है कि यह भी दैवी चेतना का परोक्ष कार्य हो जो वैज्ञानिकों की बदलती मनःस्थिति के रूप में सामने आई है।

अगले दिनों व्यक्तित्वों और प्रयासों की वर्तमान स्थिति को मोड़ने, मरोड़ने में सम्भव है अध्यात्म प्रयोगों की कोई बड़ी भूमिका हो। विनाशकारी और लाभदायक प्रयोजनों में आत्म शक्ति उतना बड़ा काम कर सकती है जो प्रत्यक्ष उपायों और उपकरणों से सम्भव नहीं। ( अगले अंक में जारी )

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