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Magazine - Year 1986 - Version 2

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Language: HINDI
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गायत्री की महान महत्ता

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देव संस्कृति को गायत्री महामन्त्र का उद्गम माना गया है। पुराणों में कथा है कि सृष्टि के आदि में जब ब्रह्माजी को विश्व-ब्रह्मांड की संरचना का काम सौंपा गया तो वे विचारने लगे कि मैं एकाकी उस महान कार्य को सम्पन्न करूं, न उनका ज्ञान अनुभव है और न साधन-उपकरण, फिर सौंपा हुआ कार्य कैसे पूरा हो?

असमंजस को दूर करने के लिए आकाश से आकाशवाणी हुई कि इन उपलब्धियों के लिए तप करना चाहिए तप शब्द से क्या तात्पर्य है, यह वे न समझ सके, तो दूसरी बार बताया गया कि गायत्री मन्त्र के अवगाहन को ‘तप’ कहते हैं। अगली जिज्ञासा के उत्तर में उन्हें गायत्री मन्त्र के 24 अक्षर बताये गये। उसके साथ तीन व्याहृतियां लगी हुई थीं। आदेशानुसार ब्रह्माजी गायत्री उपासना करने लगे। इसके पश्चात समयानुसार उन्हें ज्ञान और विज्ञान के रूप में दो उपलब्धियाँ हस्तगत हुईं। ज्ञान पक्ष को ‘गायत्री’ और विज्ञान पक्ष को ‘सावित्री’ कहा गया। गायत्री चेतना हुई और सावित्री प्रकृति। प्रकृति से पदार्थ बना और उसे गतिशील रखने वाली चेतना का इस विश्व-व्यवस्था में समावेश हुआ।

प्राणी बने। उनके शरीर पंच तत्वों से बने और उन सब में चेतना का प्रादुर्भाव हुआ। अन्य जीवों में साधारण चेतना थी, किन्तु मनुष्य में पाँच प्राणों से मिली आत्म चेतना। इस प्रकार जड़ और चेतना का ढाँचा बनकर खड़ा हो गया। अन्य प्राणी तो प्रकृति पदार्थों से अपना निर्वाह करने लगे, पर मनुष्य को उचित अनुचित का निर्णय करने के लिए विशिष्ट ज्ञान की आवश्यकता पड़ी। ब्रह्मा जी ने इस प्रयोजन के निमित्त चार मुखों से चार वेदों के व्याख्यान किये। वेदों में कर्तव्य का- उचित-अनुचित का ज्ञान भी था और प्रकृति वस्तुओं का उपयुक्त उपयोग करके प्रगति साधनों की उपलब्धि का विज्ञान भी।

वेद दुरुह थे। उनकी विवेचना क्रमशः अन्यान्य ग्रन्थों में होती गई। उपनिषदें , ब्राह्मण ग्रन्थ, सूत्र, स्मृतियाँ, दर्शन आदि का विकास उन्हीं वेदों की सरल सुबोध विवेचना के रूप में हुआ, जिन्हें गायत्री के चार पुत्र माना जाता है। यह चार वेद ही ब्रह्मा जी के चार मुख हैं। इस प्रकार धर्म शास्त्रों का समग्र ढाँचा बन गया। यह सभी एक वृक्ष के शाखा-पल्लव हैं। इन्हें ज्ञान-विज्ञान का भाण्डागार, उद्गम केन्द्र कह सकते हैं। ऐसे हैं यह गायत्री के चार पुत्र। प्रकारान्तर से भारतीय संस्कृति का, ज्ञान-विज्ञान का समग्र ढाँचा इसी एक महामन्त्र के प्रसार विस्तार के रूप में खड़ा हुआ है। इस महा समुद्र में से जिसे जिस स्तर के मणि-मुक्तकों की आवश्यकता होती है, वे उन्हें उसी के अनुपात में उपलब्ध कर सकते हैं।

इन विद्याओं के विस्तार ने ही इस भारत भूमि को “स्वर्गादपि गरीयसी” कहलाने का सौभाग्य प्रदान किया और इस तत्व ज्ञान का अवगाहन करने वाले मनीषियों की 33 कोटि गणना को धरती निवासी देव मानव के रूप में समस्त संसार में प्रख्यात किया। इन्हीं विशेषताओं, विभूतियों के कारण इस देव-भूमि को चक्रवर्ती , शासक, जगद्गुरु एवं स्वर्ण सम्पदाओं का स्वामी बनाया। उपलब्ध ज्ञान-चेतना से हमारे महान पूर्वज स्वयं ही लाभान्वित नहीं हुए, वरन् संसार के प्रत्येक क्षेत्र में जहां जिस प्रकार की आवश्यकता समझी, वहाँ उस प्रकार के अनुदान देकर उन्हें ऊँचा उठाया, आगे बढ़ाया। पुरातत्व शोधों से यह तथ्य प्रकट होता है कि भारत ने समस्त विश्व को अजस्र अनुदान प्रदान किये। उन अनुग्रहों के लिए समस्त विश्व उनका सदा ऋणी रहेगा। प्रकारान्तर से यह सम्पदा गायत्री के रत्न भण्डार से ही विकसित हुई, जिसका समस्त संसार ने लाभ उठाया।

पुरातन काल में मानवी काया में से देव-संस्कृति और देव-सम्पदा उपलब्ध करने का एक ही आधार था गायत्री मन्त्र। उसके दक्षिणमार्गी प्रयोग करके देवत्व विकसित हुआ और वाममार्गी तन्त्र-उपचारों से, दैत्य प्रकृति चमत्कारों से साधन सम्पन्न बढ़े। दिति की- अदिति की सन्तानें देव और दैत्य हुईं। दिति गायत्री का अदिति सावित्री का ही नाम है। दोनों ही प्रजापति ब्रह्मा की पत्नियाँ थीं।

इन महाविधाओं का आगे चलकर विशेष विस्तार होता गया। कालान्तर में वे एक से दो और दो से नौ हो गईं। इन्हीं को नव दुर्गायें कहते हैं। नवग्रहों में भी इनका देव आरोपण है। विश्वामित्र ने राम-लक्ष्मण को यज्ञ रक्षा के बहाने अपने आश्रम में ले जाकर बला और अतिबला विद्यायें सिखाई थीं। बला अर्थात् ‘सावित्री’ अतिबला अर्थात् ‘गायत्री’। बला के प्रताप से समुद्र सेतु बाँधा गया और लंकादहन हुआ। अतिबला के प्रताप से रामराज्य की स्थापना हुई। बला के बलबूते शिव धनुष तोड़ा गया और अतिबला के माध्यम से शक्ति रूपा सीता को प्राप्त किया गया। इसी प्रकार अन्य अवतार भी गायत्री का अवलम्बन लेते रहे हैं। देवताओं ने भी उसी को माध्यम बनाया। ऋषि उसी के उपासक रहे।

भूः भुवः स्वः की तीन व्याहृतियां ब्रह्मा, विष्णु, महेश बनीं। इन्हीं से सरस्वती, लक्ष्मी और काली का प्रादुर्भाव हुआ। आगे का देव परिवार इन्हीं की शाखायें, प्रशाखायें हैं। ‘षट्शास्त्रों’ पर्ड्दशनों का प्रादुर्भाव भी इन्हीं से हुआ। समुद्र मन्थन का उपाख्यान भी इसी प्रकरण के साथ जुड़ता है।

गायत्री के चौबीस अक्षर 24 अवतार, 24 देवता, 24 ऋषि माने गये हैं। दत्तात्रेय के 24 गुरु भी यही हैं।

शरीर में 24 प्रमुख शक्ति केन्द्र माने गये हैं। मस्तिष्क में 24 शक्ति केन्द्र। गायत्री उपासना में जिन चौबीस अक्षरों का उच्चारण किया जाता है, उनसे इन सभी केन्द्रों में मन्थन जैसी हलचल मचती है और वे प्रसुप्त स्थिति से जागृत हो अपने-अपने चमत्कार दिखाने लगते हैं। उन्हीं को ऋद्धि-सिद्धियों के नाम से जाना जाता है।

स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर- यह आत्मा के ऊपर चढ़े हुये तीन आवरण हैं, उन्हें तीन व्याहृतियां समझा जा सकता है। ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग में इन्हीं तीनों की विवेचना हुई हैं। आकाश, पाताल और भू-भाग यही तीन हैं। उत्पादन, अभिवर्धन और परिवर्तन भी इन तीनों को कह सकते हैं। उपासना, साधना और आराधना का विज्ञान भी इन तीन व्याहृतियों के साथ जुड़ा हुआ है।

गायत्री को अमृत कल्पवृक्ष और पारस कहा गया है। कल्पवृक्ष वह जिसकी छाया में बैठने से सभी मनोकामनायें पूर्ण हों। अमृत वह जिसे पीकर अमर बना जाय। पारस वह जो स्पर्श मात्र से लौह जैसी सस्ती धातु को स्वर्णवत् बहुमूल्य बना दें। यह तीनों वस्तुयें कहाँ हैं? या कहाँ हो सकती हैं? यह पता नहीं। यह अलंकारिक हैं। कल्पवृक्ष नाम इसलिए दिया गया है कि अनावश्यक कामनाओं का समापन हो जाता है। जो उपयुक्त कामनायें हैं, उन्हें तो मनुष्य अपने भुजबल और बुद्धिबल के सहारे सहज पूरा करता रह सकता है। अमर शरीर तो नहीं हो सकता। अवतारी तक अमर नहीं हुये। जो जन्मा है उसे मरना भी पड़ेगा, पर जिसका यश विद्यमान है उसे अमर ही समझना चाहिए। ऋषि अमर हैं, महामानव अमर हैं। यही बात पारस के बारे में कही जा सकती है। साधारण और हेय परिस्थितियों में जन्मे, रहे व्यक्ति जिस ज्ञान के सहारे प्रगति के उच्च शिखर तक पहुँचे। कायाकल्प जैसी स्थिति प्राप्त कर सके उस तत्वज्ञान को पारस काया कल्प कहा जाय तो तनिक भी अत्युक्ति न होगी।

गायत्री की प्रतिमा नव यौवना नारी के रूप में की गयी है और साथ ही उसे माता के रूप में मान्यता मिली है। इसका तात्पर्य नारी की श्रेष्ठता और वरिष्ठता स्वीकार करने से है। मनु ने कहा है कि जहाँ नारी की पूजा होती है वहाँ देवता बसते हैं। इस तथ्य को प्रत्यक्ष करने के लिए नव यौवना गायत्री के कलेवर में मातृ बुद्धि स्थापित करने के साथ अभ्यास में उतारने के लिए की गई है। यह अभ्यास नारी मात्र के लिए विकसित होना चाहिए और जिस अर्जुन एवं शिवाजी ने नारियों के प्रति मातृभाव का प्रदर्शन किया था वैसी ही अवधारणा नर की नारी के प्रति और नारी की नर के प्रति होनी चाहिए। पवित्र एवं उच्चस्तरीय समाज की स्थापना का यही आधार हो सकता है।

संसार में अपनी-अपनी रुचि के अनुरूप अनेक लोग अनेक वस्तुओं को महत्व देते हैं, किन्तु आप्त पुरुषों ने सद्बुद्धि को सर्वोपरि विभूति माना है। रामायणकार ने कहा है कि “जहाँ सुमति तहँ संपत्ति नाना।” गीताकार का कथन है- “नहि ज्ञानेन सदृश्य पवित्र मिह विद्यते” अर्थात् इस संसार में ज्ञान के समान और कुछ पवित्र नहीं है। जिसे सद्बुद्धि उपलब्ध हुई वह अपनी और दूसरों की अनेकानेक समस्याओं का सहज समाधान निकाल लेता है, किन्तु जिसे दुर्बुद्धि ने आ घेरा है उसका निज का तथा संपर्क क्षेत्र का सर्वनाश निश्चित है। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुये सद्बुद्धि की अधिष्ठात्री गायत्री को यदि प्रथम स्थान मिला है तो इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है।

गायत्री के तीन चरणों में एकता, समता और ममता के तीन सूत्रों का समावेश है। भविष्य में एक राष्ट्र, एक भाषा, एक कानून विश्व में चलेगा। सभी लोगों के मौलिक अधिकार और सुविधा साधन समानता के स्तर तक लाने होंगे। विषमता चाहे आर्थिक क्षेत्र की हो, चाहे सामाजिक क्षेत्र की, वह हटानी होगी। तीसरा चरण ममता है, जिसका तात्पर्य है- उदारता आत्मीयता। इसी के अंतर्गत वसुधैव कुटुम्बकम् और आत्मवत् सर्वभूतेषु की मान्यता आती है और यह निर्देशन मिलता है कि जो बरताव हम दूसरों द्वारा अपने लिए किया जाना पसन्द नहीं करते। वह दूसरों के साथ भी न बरतें। इसमें सज्जनता, शालीनता और सद्भावना का उत्कृष्टता का पूरी तरह समावेश हो गया है।

चिन्तन में उत्कृष्टता, चरित्र में आदर्शवादिता और व्यवहार में न्याय निष्ठा का समावेश- यह तीनों मानवी गरिमा को अक्षुण्ण रखती हैं। गायत्री के तीन चरणों में इन तीनों को अपनायें जाने का निर्देश है।

सत्य, प्रेम, न्याय के आदर्शों को गायत्री के तीन चरण माना जा सकता है। इस मन्त्र को संसार का सबसे छोटा, किन्तु सबसे सारगर्भित धर्मशास्त्र कहा जा सकता है। गायत्री ने हमारा भूतकाल शानदार बनाया, भविष्य को समुन्नत बनाने जा रही है। आवश्यकता इस बात की है कि वर्तमान में हम उसका महत्व समझें और दूसरों को समझाने का प्रयत्न करें।

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