
भेड़ियों द्वारा पाले गये मनुष्य के बच्चे
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जिनका सीधा संपर्क मनुष्य से ही पड़ता, वे वन्य जीवों का शिकार तो अपने ढंग से कर लेते हैं, पर मनुष्य स्तर की धूर्तता के अभ्यस्त नहीं होते। उनमें वात्सल्य भी पाया जाता है और छोटी आयु के बच्चे किसी प्रकार उनके संपर्क में आ जाते हैं तो उन्हें भी अपना ही समझ कर पाल लेते हैं। खतरा उन्हें बड़ी उम्र वालों से होता है और इसलिए उन पर आक्रमण कर बैठते हैं कि कहीं वे उन पर घात न लगाये हुए हों।
जंगलों में एकाकी रहने वाले तपस्वियों का वास्ता जंगली जीव जन्तुओं से ही पड़ता है। दोनों आपस में पहचान लेते हैं। इतना ही नहीं प्रवृत्ति को भी भाँप लेते हैं कि यहाँ खतरे जैसी कोई बात नहीं है। इतना निश्चय हो जाने पर दोनों पक्षों में से कोई किसी पर आक्रमण की योजना नहीं बनाता। अपने-अपने रास्ते चले जाते हैं और यदि स्नेह सहयोग का सिलसिला चल पड़े तो एक दूसरे के लिए उपयोगी भी सिद्ध होते हैं।
भेड़ियों के सम्बन्ध में यह बात विशेष रूप से कही जाती है कि वे कुत्ते की बिरादरी से मिलते-जुलते होने के कारण मनुष्य के साथ सद्भावना और बिरादरी का रिश्ता जोड़ लेते हैं। कुत्ता मनुष्य का सबसे अधिक वफादार साथी है इसे सभी जानते हैं।
भेड़ियों द्वारा मनुष्य के बच्चे अपनी माँद में पाल लेने की कितनी ही घटनाएँ जानकारी में आई हैं। यह उदारता मादा द्वारा बरती गई होती है। वह मनुष्य के बच्चों को भी अपने बच्चे की तरह दूध पिलाकर पाल लेती है और उसकी सुरक्षा भी रखती है। नर भेड़िये अक्सर उपेक्षा बरतते हैं। फिर भी साथ रहने वाली मादा के कार्य में विघ्न नहीं डालते। कुछ दिन में नर भेड़िये भी उन बच्चों को अपने ही कुटुंब का सदस्य मान लेते हैं।
मिदनापुर बंगाल की घटना है कि वहाँ आदिवासी क्षेत्र में इसाइयों का एक छोटा चर्च था। उसमें एक पादरी रहता था। जान रेवेण्डकर उसका काम पहाड़ी क्षेत्र में फैले हुए आदिवासियों के साथ संपर्क साधना और उन्हें ईसाई धर्म में दीक्षित करना था।
एक बार जान पहाड़ी क्षेत्र में भ्रमण कार्यक्रम पर जा रहा था। साथ में दो एग्लो इण्डियन अतिथि भी थे जो शिकार खेलने के उद्देश्य से उधर आये थे। तीनों को पता चला कि ऊपर वाली पहाड़ी पर एक भेड़ियों की माँद है। उसमें एक पूरा झुण्ड रहता है। उनके साथ दो मनुष्य के बालक भी हैं। भेड़ियों का शिकार करने और मनुष्य बालकों को पकड़ने की उनने योजना बनाई और पहाड़ी पर चढ़ गये। शाम को झुण्ड अपनी माँद में घुसा तो उनने वैसा ही देखा जैसा कि आदिवासियों ने कहा था। अब उनकी योजना निश्चित हो गई।
दूसरे दिन पड़ौस के आदिवासियों को मजूरी पर लिया और माँद की खुदाई का काम शुरू किया। खुदाई जादा गहरी नहीं हो पाई थी कि बड़े दो भेड़िये भागे और घने जंगल में गायब हो गये। तीसरा भेड़िया निकला तो उसे शिकारियों ने गोली मार गिराया। खुदाई फिर भी चलती रही। माँद में अन्त में दो छोटे बच्चे भेड़ियों के और दो मानुषी के पाये गये चारों सटे हुए बैठे थे। उन्हें मारा नहीं गया। भेड़िये बच्चों को आदिवासी ले गये। मनुष्य वालों को ईसाई पादरी ने उठा लिया और चर्च के अनाथालय में ले चले।
बच्चों में दोनों लड़कियाँ थी। एक आठ वर्ष की दूसरी तीन वर्ष की। छोटी बुद्धि की दृष्टि से कुछ तीव्र थी। बड़ी उसी को अपनी मार्ग दर्शक मानती थी। उसके पीछे चलती और अनुकरण करती थी।
मनुष्य की आदतें सिखाने में उन्हें प्रायः दो वर्ष लग गये, पर कपड़े पहनना और मनुष्य के बच्चों के साथ खेलना सीख गई थी। उन्हें प्रायः 50-60 शब्द मनुष्य की भाषा के सीख भी लिये थे। फिर भी वे मनुष्य बुद्धि जैसी तीव्रता न अपना सकीं। पूर्ण वयस्क होने से पहले ही थोड़े-थोड़े अन्तर पर दोनों का देहावसान हो गया।