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Magazine - Year 1986 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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आत्म साक्षात्कार - आत्मबोध

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दूध में घी होता है, पर दीखता नहीं। मथानी से उसे बिलोने के उपरान्त मक्खन अलग निकल आता है और छाछ अलग पड़ी रह जाती है। फूल का रूप तो दीखता है, गन्ध नहीं। इत्र निकालने के उपरान्त वह गन्ध निथर कर ऊपर आ जाती है और फटी-टूटी पंखुड़ियां अलग से पड़ी रहती हैं। यह मंथन क्रिया ही साधन है, जिसमें ‘स्व’ और ‘पर’ के पृथक्करण का बोध होता है। सामान्यतया मनुष्य शरीर के रूप में ही दीखता है। बहुधा तो वस्त्र-पोशाक ही दीख पड़ती है। काया के दबे हुए अवयव भी दीख नहीं पड़ते। कलेवर दीखता है, प्राण नहीं। मरण के उपरान्त दोनों विलग हो जाने पर वस्तुस्थिति समझ में आती है। जीवन के दिनों में ही दिखता भी शरीर ही सब कुछ है और दूसरों की ही नहीं अपने के भी ऐसा ही लगता है। पर इस एकीकरण में भ्रम ही प्रबल है, वास्तविकता नगण्य। घोंसले में भी पक्षी बैठा रहता है, घोंसला दीखता है, पक्षी नहीं। पर जब वह उड़कर आकाश में स्वच्छन्द विचरता है तो प्रतीत होता है कि घोंसला जैसा कि एक समग्र इकाई के रूप में दीखता था, बात वैसी भी नहीं। उसके भीतर एक पक्षी भी बैठा था।

भौतिक ज्ञान के आधार पर हम शरीर में पूरी तरह रम जाते हैं और अपने को आच्छादन में सीमाबद्ध संबद्ध समझते हैं। शरीर और आत्मा की पृथकता की बात तो कथा-सत्संगों में सुनते रहते हैं। किसी की चिता जलाने जब मरघट में जाते हैं और उसका श्राद्ध-तर्पण करते हैं, तब भी कुछ कुछ-कुछ ऐसा ही लगता है कि प्राणी और शरीर में पृथकता हैं, पर इस जानकारी को दूसरों तक ही सीमित समझते हैं। अपने सम्बन्ध में मान्यता अत्यन्त गहराई तक परिपक्व हो जाती है कि हम शरीर ही हैं। शरीर रूप में ही सदा बनें रहेंगे। जब भी कोई योजना बनाते हैं, तो वह शरीर सम्बन्धी ही होती है। हानि-लाभ का लेखा-जोखा लेते हैं तो भी वे तथ्य शरीर को प्रभावित करने के कारण ही भले-बुरे लगते हैं। शरीर को जो सुविधा पहुंचाते- प्रसन्नता देते- अपने लगते हैं, उन्हीं के साथ आत्मभाव जुड़ता है। इसके अतिरिक्त और सब विराने लगते हैं। बिरानों से कुछ मतलब रखने की, उनके सुख-दुःख की परवा करने की इच्छा नहीं होती। शरीर में इतनी गहराई तक रम जाने का परिणाम है कि परायों के साथ अनीति बरतने में भी अपने को कोई कष्ट नहीं होता और न अपनों के साथ पक्षपात करने में कुछ अनुचित प्रतीत होता है। काया को सुखी समुन्नत बनाने के लिए हमारे समस्त प्रयास चलते हैं और उन्हीं में सफलता-असफलता मिलने पर प्रसन्नता-अप्रसन्नता का अनुभव होता है। यही उपक्रम है जो दुनियादारों द्वारा अपनाया जाता है। उनका सोचना और करना इसी निमित्त होता है।

यहाँ सबसे बड़ी भूल एक ही होती है कि अपने आपे को भूल जाते हैं, जब आत्मसत्ता का विस्मरण ही हो गया तो उसके स्वरूप, लक्ष्य, दायित्व, उत्कर्ष आदि की बात कोई क्यों सोचे? देखा जाता है कि लोगों में से अधिकाँश इस संदर्भ में कुछ सोचते-समझते भी नहीं। कोई ज्ञानी इस रहस्य को गम्भीरतापूर्वक समझाता भी नहीं। जो कहा जाता है उसका साराँश इतना ही होता है कि भजन-पूजन या अन्य धार्मिक कर्मकाण्ड करने से ईश्वर प्रसन्न होता है। मरने के बाद अपने गाँव में बुलाकर विपुल सुविधा-साधन सौंप देता है। तब भी शरीर यही रहता है। स्वर्ग के उपभोग भी इसी शरीर द्वारा भोगे जाते हैं। कथा-वार्ताओं में जो सुनने को मिलता रहता है, उसका साराँश प्रायः इसी प्रकार समझा जाता है।

इसी भ्रान्ति को ‘माया’ कहते हैं। कहा जाता है कि जीव माया के बन्धनों में बँधा हुआ है और भवसागर में डूबता-उतराता है। यह भव सागर या माया-पोश और कोई नहीं- एक ही है कि हम शरीर में साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए हैं। वही हम हैं और हमारा वही एक है। इस समझ के दूरगामी परिणाम होते हैं। मनुष्य कायिक सुख और उसके साथ जुड़े हुए सम्बन्धियों के हित-साधन के अतिरिक्त उसे और कुछ सूझता ही नहीं। हित किस प्रकार का- इस सम्बन्ध में भी अपनी दृष्टि इतनी ही दूर तक जाती है जिसमें सम्पदा, विलासिता और अहंकार की अधिकाधिक अनुभूति बन पड़े। ऐसा चिन्तन असीम चाहता है। सृष्टि-व्यवस्था में सबको सीमित ही मिलता है। इस कारण अपने लिए, अपनों के लिए जिस असीम की चाहना होती है, उसकी आँशिक पूर्ति भी अनीति अपनाये बिना, दूसरों के हितों पर कुठाराघात किये बिना बन पड़ना सम्भव नहीं। अनीति अपनाने पर, आत्मिक एवं सामाजिक संकट उत्पन्न होते हैं। ऐसी दशा में वह तथाकथित हित-साधन भी प्रत्यक्ष या परोक्ष संकटों से भरा होता है। किन्तु परिणाम की बात कौन सोचे? तात्कालिक लाभों वाली संकीर्ण स्वार्थपरता ही जब विचारणा और कार्य पद्धति के साथ घुल जाती है, तो अनीति भी अभ्यास में घुल जाती है और वह भी स्वाभाविक प्रतीत होने लगती है। यही है सामान्य जीवन का उपक्रम जिसके आधार पर अधिकाँश लोग अपनी गाड़ी धकेलते हैं।

इस दयनीय एवं अवाँछनीय स्थिति को देखते हुए शास्त्रकारों ने अध्यात्म विज्ञान का सबसे महत्वपूर्ण आधार यह बताया है कि अपने को जानो, अपने को समझो, अपने को देखो और अपने कल्याण के निमित्त प्रयत्न करो। यहाँ अपनेपन का तात्पर्य उस आत्मा से है जिसकी चर्चा तो बहुत होती है, पर उसे देखने समझने का कोई प्रयत्न नहीं करता। आत्म विस्मृति ही अध्यात्म धर्म में सबसे बड़ा दुर्भाग्य माना गया है और उससे छूट सकने को परम पुरुषार्थ या परम सौभाग्य कहा गया है। भेड़ों के बीच पले सिंह-शावक की जब असली सिंह से भेंट हुई, तो उसने समझा कि मेरा वास्तविक रूप कुछ और है, वैसा नहीं, जैसा कि समुदाय के बीच रहते हुए मैंने समझा या माना है।

कथा है कि दस मूर्ख कहीं मेला देखने गए। सोचा कि भीड़ में कोई खो न जाय, इसलिए गिनती कर ली जाय। गिने गये तो दस थे। साथ-साथ लौटे तो गिनने पर नौ निकाले। सभी बैठकर रोने लगे। किसी समझदार ने कारण पूछा। उनने एक के खो जाने की बात कही। पर वे थे तो पूरे। समझदार ने सबके सिर में एक-एक चपत लगाई और गिनती गिनी तो वे बड़े प्रसन्न हुए और समझदार के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए घर लौटे। वस्तुतः यह हो रहा था कि मूर्खों में से प्रत्येक औरों को गिन लेता था, पर अपने को नहीं गिनता था। इसी की गड़बड़ी थी। भ्रम निकल गया, तो रोना-धोना बन्द हुआ और प्रसन्नता फूट पड़ी। यही स्थिति हम सब की है। अपने को, अपनी आत्मा को, उसके हित को नहीं पहचानते और अपने उच्चस्तरीय स्वरूप और कर्तव्यों का ध्यान ही नहीं रहता। मानवी गरिमा स्मृति से उतर जाती है और यह सोचते नहीं बनता कि अपना वास्तविक स्वार्थ- जिसमें सबका स्वार्थ समाया हुआ है- वह परमार्थ कितना आवश्यक और कितना सुखद है।

इस भ्रान्ति के निवारण का उपाय है कि हम मृत्यु का नित्य स्मरण करें- रात को सोते समय तो निश्चित रूप से। विज्ञजन का कथन है कि “दिन ऐसा बिताओ जिससे निश्चिन्तता की गहरी नींद आये और रात इस प्रकार बिताओ जिससे दिन में मुंह दिखाने लायक बने रहो।”

अपना स्वरूप जानने पर भगवान बुद्ध सामान्य राजकुमार से भगवान हो गये थे। जिस पीपल के पेड़ के नीचे उन्हें आत्मज्ञान हुआ था, वह बोधिवृक्ष कहलाया और उसकी टहनियाँ सभी बौद्ध देशों में पवित्र देवालय की तरह स्थापित की गईं। आत्मबोध हुआ या नहीं- इसकी एक ही पहचान है कि जीवनक्रम मोहग्रस्तों की तरह व्यतीत हो रहा है या उसमें उत्कृष्टता का, आदर्शवादिता का पुट लगने लगा या नहीं, स्वार्थ, परमार्थ में बदला या नहीं, ‘आत्मवत् सर्वभूतेषु’ और ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की मान्यता के अनुरूप चिन्तन एवं चरित्र में महानता का समावेश हुआ या नहीं?

First 15 17 Last


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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
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