
रंगों की दुनिया का वैज्ञानिक विवेचन
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प्रकाश क्या है? देखने में उसे सफेद चमक भर कहा जाता है पर विश्लेषण करने पर उसके अन्तराल में कुछ विशिष्ट शक्ति धाराओं का समुच्चय पाया जाता है। उन्हें रंग कहते हैं। सूर्य किरणों में सात रंग हैं इसलिए सविता देवता को सात अश्वों के रथ पर सवार होकर परिभ्रमण करते हुए निश्चित किया गया है। किरणों का विश्लेषण करने या उन्हें सात विशेषताओं से युक्त सात रंगों के रूप में देखा गया है।
इन रंगों की अपनी-अपनी विशेषता है। इन सबके पृथक-पृथक प्रभाव शरीर और मन पर पड़ते हैं। इसलिए उनका उपयोग उसी प्रकार करने के लिए परामर्श दिया जाता है जैसा कि भोजन से आवश्यक तत्वों का समन्वय रखने का प्रतिपादन किया जाता है।
मनुष्य जीवन की एक अविज्ञात आवश्यकता प्रकाश की है। प्रकाश के साथ गर्मी भी जुड़ी होती है। दोनों के समन्वय से विस्तार और हलचल का लाभ मिलता है। इसके अभाव से जड़ता छाने लगेगी और विकास विस्तार का क्रम अवरुद्ध हो जायगा।
धरती पर जीवन का अवतरण स्थानीय रासायनिक सम्पदा के साथ सूर्या ऊर्जा का सम्मिश्रण होने पर ही सम्भव हुआ है। यदि यह सुयोग न बना होता तो फिर नेपच्यून, प्लूटो ग्रहों की तरह धरती भी शून्य तापमान से नीचे की स्थिति में रहकर निर्जीव स्थिति में दिन गुजार रही होती। सूर्य को जीवन कहा गया है। पुराणों में आदित्य का पति के, पृथ्वी का पत्नी के रूप में वर्णन हुआ है और प्राणियों की उत्पत्ति उन्हीं दोनों के सुयोग से सम्भव हुई बताई गई है। वैदिक प्रतिपादन में सूर्य को ही उस जगत की आत्मा कहा गया है।
श्रुति का वचन है- सौर किरणों में विद्यमान सभी वर्गों की अपनी-अपनी विशेषताएँ हैं। जो पदार्थ जिन किरणों को अधिक मात्रा में ग्रहण करता है वह उसी रंग का दृष्टिगोचर होने लगता है यह हमारी आँखों की कमी है जिसके कारण प्रकाश केवल सफेद ही दीखता है। वस्तुतः उसमें स्थूल रूप से सात रंगों का सम्मिश्रण है। जिसे इन्द्रधनुष के रूप में किरणों पर जल कण चमकते समय देखा जा सकता है।
सूर्य की प्रकाश किरणों में सात रंग हैं। किन्तु उनके हलके भारी सम्मिश्रणों से प्रायः 10 लाख रंग बन सकते हैं इनमें से विभिन्न जीव जन्तु अपनी नेत्र क्षमता के अनुरूप ही रंग देख पाते हैं। मनुष्य की आँखें मात्र 378 रंग देख सकने में समर्थ हैं। हमें उतने पर ही सन्तोष करना पड़ता है।
एक और ध्यान देने योग्य तथ्य यह है कि यद्यपि हमारे नेत्र सात की प्रख्यात प्रकाश किरणों को ही देख पाते हैं तथापि नेत्रों की पकड़ से बाहर भी उनकी विलक्षणता और भी अद्भुत दृश्यमान ज्योति की तुलना में अत्यधिक विस्तृत है। ब्रह्मांडीय किरणें, गामा किरणें, एक्स किरणें, परा बैंगनी, प्रकाश ऊष्मा तरंगें, रेडियो तरंगें ये सभी प्रकाश परिवार के अंतर्गत ही आते हैं।
विभिन्न प्रकार के रंग विभिन्न प्रकार के मनोभाव जागृत करने की चमत्कारिक क्षमता रखते हैं। विवाह शादियों और किन्हीं धर्मोत्सवों में हरी, पीली, लाल, नीली झण्डियों से द्वार सजाते हैं तो सम्बन्धित व्यक्ति ही नहीं सभी वहां से गुजरने वाले दर्शक भी प्रसन्न हो उठते हैं यह रंगों का अविज्ञात मनोवैज्ञानिक प्रभाव ही है। वास्तविकता यह है कि रंगों का सौंदर्य और साज-सजावट से सीधा सम्बन्ध है। सौंदर्य आत्मा का एक गुण है। यदि उसकी उपयुक्त जानकारी न हो तो लाभ उठाने के स्थान पर हानि हो सकती है। घर दरवाजे खिड़कियाँ दीवालों के बेल-बूटों वस्त्र का चयन इस सम्बन्ध में कौन-सा रंग कैसी मनोभूमि उत्पन्न करता है इसकी जानकारी हो जाय तो जीवन में प्रसन्नता का अभिवर्धन किया जा सकता है। उसे सुधारा और संवारा जा सकता है।
रंगों से विशेष प्रकार का वातावरण बनता है। वस्त्रों में कमरे की दीवारों में फर्नीचर में किस प्रकार के रंग लगे होते हैं वे अपना प्रभाव उनका उपयोग करने वालों पर भी छोड़ते हैं। लाल रंग गर्मी, उत्तेजना और चिड़चिड़ापन उत्पन्न करता है। इससे स्नायु विकार हो सकते हैं। इसके विपरीत नीला रंग शीतल और शांतिदायक होता है।
भगवती सरस्वती ज्ञान और मधुरता की देवी हैं। उनकी कल्पना में रंग का विशेष महत्व है। ऋषि ने कहा है-
“ या कुन्देन्दु तुषारहार धवला,
या शुभ्र वरुणां वृता॥”
अर्थात्- श्वेत वर्ण के वस्त्र धारण किये हुए हैं यहाँ श्वेत रंग ज्ञान, मधुरता गम्भीरता एवं पवित्रता का उद्बोधक है। इसलिए कुंआरी कन्याओं और उन महिलाओं को जिनके पतियों का निधन हो गया होता है श्वेत वस्त्र धारण कराने की भारतीय परम्परा है। श्वेत वस्त्र दूसरों के मन में भी द्वेष दुर्भाव नहीं लाते इसलिए विद्यालय में जाने वाली कन्याओं को श्वेत अथवा हल्की एक रंग की ही साड़ी पहननी चाहिए ऐसी मान्यता है।
शरीर की धातुओं और कार्य पद्धतियों पर रंगों का विभिन्न प्रभाव होता है और इस पर नये रंग चिकित्सा विज्ञान का नया ढाँचा खड़ा हो रहा है। सर्दी, गर्मी की मात्रा घटाने बढ़ाने में भी रंग सहायक होते हैं। इसके अतिरिक्त उनका मनोवैज्ञानिक प्रभाव भी कम नहीं है। हर रंग में कुछ विशेष भावनाएँ उत्तेजित एवं शान्त करने का गुण है। जो लोग जिस प्रवृत्ति की विशेषता अपने भीतर बनाए होते हैं वे तद्नुरूप रंग पसन्द करते और चुनते हैं। इसी प्रकार जिन्हें जिस भावना से प्रेरित प्रभावित करना होता है उसके लिए उस रंग के आवरण आच्छादित जुटाने का प्रबन्ध आवश्यक होता है। फूलों के बगीचे में परिभ्रमण करने उन्हें घर-आँगन में लगाने मेज पर गुलदस्ता सजाने में रंगों से मस्तिष्क को प्रभावित करने की आवश्यकता पूर्ण होती है। शोभा सुरुचि और कला सौंदर्य का इसमें समावेश तो है ही।
रंग विशेषज्ञ एन्थोनी एल्डर के अनुसार बहिर्मुखी जीवन लालिमा प्रधान होती है। अंतर्मुखी जीवन में नीलाकाश जैसी उदात्त मनःस्थिति होती है। पीले रंग की कर्मठता, तत्परता और उत्तरदायित्व निर्वाह की भाव चेतना का प्रतीक माना जा सकता है। हरें रंग को स्थिरता और बुद्धिमता का प्रतिनिधि समझा गया है। एल्डर कहते हैं। स्वभावगत विशेषताओं को घटाने बढ़ाने के लिए उन रंगों का उपयोग या बहिष्कार करना चाहिए जिनमें अभीष्ट विशेषताओं का समावेश है।
रत्नों की अँगूठी नाक कान गले में पहनने में जहाँ मनुष्य की सम्पन्नता का बोध होता है वहाँ उस रंग के कारण पहनने वाले को लाभ भी होते देखा गया है।
सन् 1938 में आड्रियन हिल नामक चित्रकार ने एक पुस्तक छपाई, जिसका नाम था ‘कला बनाम रोग’। उसने इस पुस्तक में चित्रकला एवं वर्ण विज्ञान को स्वास्थ्य संवर्धन और रोग निवारण के लिए महत्वपूर्ण माध्यम बताया है।
विश्व-विख्यात मनःचिकित्सक डा. गोल्ड स्टीन ने भिन्न-भिन्न रोगों का कठिनाइयों, कुण्ठाओं से ग्रसित लोगों पर किये गये रंगों के प्रयोगों का विस्तृत विवेचन “न्यू इंग्लैण्ड जरनल आफ मेडिसिन” में करते हुए लिखा था कि रोजमर्रा के जीवन में प्रयुक्त होने वाले अथवा आकर्षण हेतु पहने जाने वाले वस्त्राभूषणों के रंगों का मानव शरीर पर कितना व कैसा प्रभाव होता है उनका निष्कर्ष था कि रंगों में परिवर्तन के माध्यम से अनेकों मनोविकार तथा मनो शारीरिक रोगों का शमन सम्भव हैं।