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Magazine - Year 1988 - Version 2

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आत्मशोधन की संयम साधना

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योग विद्या का वर्गीकरण विश्लेषण अनेक दृष्टिकोणों से अनेक खण्डों में किया जा सकता है, पर सरलता की दृष्टि से उनके दो विभाजन ही अधिक उपयुक्त पड़ते हैं। एक अध्यात्म-योग दूसरा हृदयोग या तंत्रयोग। अध्यात्मयोग को राजयोग भी कहा जा सकता हैं। दोनों का लक्ष्य एक होते हुए भी उनकी विधि व्यवस्था पृथक-पृथक है।

जीवन सत्ता दो भागों में बाँटा जा सकती है। शरीर और प्राण। इनके सम्मिलन से जीवन-धारा प्रवाहित होती है। इसे प्रकृति पुरुष का संयोग भी कह सकते है। शरीर पंच तत्वों से बना है। पंच तत्व प्रकृति का प्रतिनिधित्व करते है। उन्हें पड़ भी कहा जाना है। जड़ का तात्पर्य है- विचार विहीन, भावना शून्य। यो जादू में भी हलचल तो रहती है।प्रकृति के सब से छोटा घटक परमाणु द्रुतगति से अपनी कक्षाओं में परिभ्रमण करते रहते है। स्थिति के अनुरूप उनके गतिचक्र में परिवर्तन भी होता रहता है। यह हलचलें अस्तित्व बने रहने तक चलती ही रहती हैं। प्राण निकल जाने पर काया बिना किसी की प्रतीक्षा किये अपनी अंत्येष्टि करने में स्वयं लग जाती है। उसमें सड़न पैदा हो जाती है। कृमि उपज पड़ते हैं। मृत कलेवर को खा पीकर समाप्त कर देते हैं। साथ ही स्वयं भी मर जाते है। चील, कौए, स्यार, कुत्ते उनके कार्य में सहायता करते हैं इससे पूर्व सम्बन्धियों कुटुंबियों ने वह कृत्य स्वयं पूरा कर दिया हो तो बात दूसरी है। जीवन में एक सत्ता शरीर की है, तो प्रत्यक्ष दीख पड़ती है वह नाम रूप से जानी जाती है। इसे स्थूल शरीर भी कहते है।”

इसके उपरान्त दूसरी सत्ता है-प्राण। जिसे मोटे रूप में चेतना या आत्मा भी कहा है। प्राण का प्रत्यक्षीकरण मन मस्तिष्क के क्रिया-कलापों से जाना जाता है। प्राण जीवन को ही स्थिर नहीं रखता, वरन् विचारणा एवं भावना को भी गति देता है। इसकी मूलभूत सत्ता आत्मा है। जो जीवन में समाविष्ट होते हुए भी अपनी सत्ता साक्षी दृष्टा के रूप में बनाये रहता है। विचारणा और बुद्धिमत्ता प्राण की अनुकृति है। आत्मा इससे अधिक गहराई में है वह कर्मफल व्यवस्था बनाती है। संस्कारों को यथा समय फलित होने के लिए संजोये रखती हे। योनियों में भ्रमण उसी को करना पड़ता है। परलोक में ही उसी का प्रवेश है। अजर-अमर वही है। शरीर तो जन्मते, मरते रहते है।

यदि विभिन्न भेद, उपभेदों में न जाया जाय तो जीवसत्ता के दो वर्ग विभाजन करने से काम चल जायगा। मन को ग्यारहवीं इन्द्रिय के रूप में माना जाता है। अधिक से अधिक वह कह सकते है कि चेतना ओर काया का सम्मिश्रण मन है। पीला और नीला रंग मिलने से हरा बन जाता है। पर यदि दोनों को पृथक्-पृथक् कर दिया जाय तो उस मिश्रण से बने हरे रंग का अस्तित्व समाप्त हो जायगा। प्राण तत्व जड़ चेतन से मिली एक स्वतंत्र इकाई मानी जाती है, पर वस्तुतः वह इन दानों का सम्मिश्रण है जो ब्रह्माण्ड से शरीर में प्रवेश करता है और समयानुसार वह अपने विशाल क्षेत्र में मिल कर घुल भी जाता है। समुद्र का जल बादल बनता है। बादल बरसते और अपनी जल धारा का समुद्र में जा पहुँचने के लिए धकेल देते हैं। इसी प्रकार विराट में संव्याप्त महाप्राण काय कलेवरों में प्रवेश करके व्यक्ति प्राणवान बनता और सचेतन विद्युत धारा के रूप में अवयवों के विभिन्न क्रिया-कलापों का सूत्र संचालन करता रहता है। यह शरीरों में उनकी स्थिति के अनुरूप न्यूनाधिक मात्रा में भी देखा जाता है। अधिकता से ओजस, तेजस, वर्चस की अभिवृद्धि देखी जाती है और न्यूनता से दुर्बलता, दीनता, हीनता आ घेरती है। प्राण को संकल्प-बल के सहारे प्राणायाम द्वारा अधिक मात्रा में खींचा और धारण किया जा सकता है। उपेक्षा बरतने पर वह गई-गुजरी स्थिति में भी पड़ा रहता है।

शरीर, प्राण और चेतना के तीन भागों में व्यक्तित्व को विभाजित किया जा सकता है। यही तीन प्रकृति, जीवन और ब्रह्म है। इन्हीं को स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर कहते है। कर्मयोग, ज्ञानयोग और भक्तियोग के नाम से इस त्रिवर्ग की विवेचना होती रहती है। क्रमशः तीनों के केन्द्र बिन्दु नाभिक, हृदय और ब्रह्मरन्ध्र में माने गये है। इन्हें देव विज्ञान में शिव, विष्णु और ब्रह्मा भी कहा गया है। काली, लक्ष्मी और सरस्वती भी इन्हीं की प्रतीक प्रतिनिधि है।

साधना विज्ञान का प्रयोजन इन तीनों को परिष्कृत प्रखर बनाना है। शरीर की स्वस्थता, सुन्दरता, मन की बुद्धिमत्ता, दूरदर्शिता, अन्तःकरण की भाव-संवेदना उदार सेवा परायणता इन्हीं तीन क्षेत्रों का समुन्नत बनाती हैं। अनेकानेक साधनाएँ इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति के लिए की जाती हैं।

काया में सुदृढ़ता एवं तेजस्विता का अभिवर्धन संयम साधना से होता है। इसी का बढ़ा-चढ़ा स्वरूप तप है। प्रथम को सहज सामान्य और द्वितीय को कठिन असाधारण कहा जा सकता है। संयम का तात्पर्य है- अभ्यस्त कुटैवों को ढूंढ़ना और कठोरतापूर्वक उखाड़ फेंकना। तपस्वी को एक कदम और आगे बढ़ाना पड़ता है, उसे साधना विधानों को अपना कर ऐसी प्रचण्ड ऊर्जा उत्पन्न करना है, जो संग्रहित कुसंस्कारों को न केवल उखाड़े, वरन् अपने प्रचण्ड तप से उन्हें भस्मीभूत भी कर दे।

आदतें सहज पीछा नहीं छोड़ती। वे भगाने पर भी लौट लौटकर फिर वापस आ जाती है। गन्दगी पर मक्खी बैठती है। उड़ा देने पर चक्कर काटकर फिर उसी स्थान पर आ धमकती है। दोष, दुर्गुणों की हानि और उनके छोड़ देने पर मिलने वाली सुविधा के सम्बन्ध में मोटी जानकारी प्रायः सभी को होती है। कुकृत्य करने वालों को भर्त्सना, प्रताड़ना मिलती प्रायः देखी जाती है। कुकर्मी का कोई सच्चा मित्र नहीं होता है। मतलब निकालने के लिए कोई सच्चा मित्र नहीं होता है। मतलब निकालने के लिए कोई चापलूसी भले ही करता रहे, पर समय पड़ने पर उसका साथ सभी छोड़ जाते है। इन सब बातों की चर्चा सत्साहित्य में, सत्संगों में, प्रवचन समारोहों में भी होती रहती है। इतने पर भी समझदार कहे जाने वाले लोग तक कुटेवों से ग्रसित पाये जाते हैं। पोल खुलने जैसी घटना सामने आने पर लज्जित भी होते है। पछताते भी है। किन्तु कठिनाई ज्यों की त्यों बनी रहती है। आदत छूटती नहीं। नशेबाजों की दुर्दशा उस दुर्व्यसन के कारण होती आये दिन देखी जाती है। फिर भी सुधार के कारगर लक्षण दीख नहीं पड़ते। नशेबाजी दिन-दिन बढ़ती जाती है।

शरीर को क्षति पहुँचाने वाले यों अनेक कारण है। मौसम का परिवर्तन, अस्वच्छता, उद्वेग, आलस्य, अतिवाद जैसे कारण भी स्वास्थ्य को बिगाड़ते हैं, पर प्रधान कारण असंयम को ही मानना पड़ेगा। उसके कारण उत्पादन की तुलना में अपव्यय कहीं अधिक होता है। जीवनी शक्ति की पूँजी घटती जाती है। चटोरपन के कारण तामसिक प्रकृति का आधार आवश्यकता से अधिक मात्रा में उदरस्थ होता चला जाता है। अपच की सड़न अनेकानेक रोग उत्पन्न करती है। कामुकता को अमर्यादित रूप से अपनाने वाले भी भारी मस्तिष्कीय क्षति उठाते हैं। साथ ही जीवन तत्व का महत्वपूर्ण भाग गँवा बैठने से खोखले हो जाते है।

प्रश्न यह है कि शरीर को दुर्बल, रुग्ण बनाने वाले दुर्व्यसनों से छुटकारा कैसे पाया जाय? इसका एक ही उत्तर है। दृढ़ प्रतिज्ञा स्तर की साहस भरी व्रतशीलता को अवधारण करना और संकल्प करना कि किसी भी हालत में निश्चय से पीछे न हटा जायगा। सुधरी हुई दिनचर्या बननी चाहिए। व्यस्तता का इतना दबाव रहना चाहिए कि खाली दिमाग को शैतान की दुकान बनने का अवसर मिल न पाये। किसी क्षण असावधानी पाकर यदि आदत का भूत कोई आक्रमण कर ही बैठे तो उसका अविलम्ब प्रायश्चित्त करना चाहिए। अपने आप को प्रताड़ना देनी चाहिए। भले ही वह हलके ही किस्म की क्यों न हो? साथ ही उस गलती को न दुहराये जाने के लिए अधिक कड़ा निश्चय करना चाहिए। इस पर भी गलती दुहराई गई हो तो पहले की अपेक्षा अधिक कठोर दण्ड सहन करना चाहिए। यह तितीक्षा के रूप में भी हो सकता है, सदाशयता को क्षति पहुँचाने पर की जाने वाली भरपाई को श्रमदान, धनदान आदि के रूप में भी चरितार्थ किया जाना चाहिए। दण्ड का उद्देश्य ही यह है कि अपराधी भविष्य में वैसा करने से रुके हिचके।

असंयम का मोटा अर्थ-चटोरपन और कामुकता के दो रूपों में ही जाना जाता है, पर उसका क्षेत्र इतना सीमित नहीं है। समय की बरबादी, पैसे की बरबादी, कुकल्पनाओं में निरत होकर की जाने वाली विचारशक्ति की बरबादी भी असंयम के अंतर्गत आती है। इन्द्रिय असंयम तो उपवास, अस्वादव्रत, ब्रह्मचर्य, मौन आदि तितीक्षाओं के आधार पर किया जा सकता है। वे समय पर सावधानी बरतने से टल सकते हैं। किन्तु समय संयम, अर्थसंयम, विचार संयम के लिए निरंतर जागरूकता अपनानी पड़ती है। अपने घर परिवार की साहसी पहरेदार की तरह चौकीदारी करनी पड़ती है। जिस प्रकार साँप से, बिच्छू से, अँगारे से, खुले बिजली के तारों से दूर रहा जाता है, बचा और भागा जाता है, उसी प्रकार उपरोक्त सभी असंयमों से प्राण बचाना चाहिए। आक्रमण होने से पहले बचाव की पूरी-पूरी सतर्कता बरतनी चाहिए।

यह सावधानी वाला व्यवहार पक्ष का प्रयोग हुआ। शरीर क्षेत्र में घुसी हुई बुरी आदतों से लड़ने के लिए और भी कई व्रत तितीक्षाओं का विधान है। अस्वाद व्रत की साधना भी उपवास वर्ग में आती है। पेट खाल रखना, पाचन तंत्र को विश्राम देना, नमक, शकर, मसाले, चिकनाई का एक निर्धारण अवधि के लिए परित्याग कर देना मनोबल को बढ़ाता है। इसमें दुष्प्रवृत्तियों से जूझने और उन्हें परास्त करते रहने का साहस उभरता है। यह संकल्प-बल आगे चल कर सत्प्रवृत्ति संवर्धन के अनेक प्रयोजनों में काम आता है।

ब्रह्मचर्य को काम-क्रीड़ा से विरत होना भर नहीं मान लेना चाहिए। वह तो उसका प्रत्यक्ष स्वरूप एवं व्यावहारिक पक्ष है। इसे दबाव या अभाव से भी विवशता में निभाया जाता रहता है। कैदियों के लिए ब्रह्मचर्य एक विवशता है। साधु बन जाने पर भी मन में उठने वाली कुत्सा को कार्यान्वित कर सकने का अवसर नहीं मिलता। विधुर, विधवा, कुंआरे, कुमारियाँ भी समाज व्यवस्था से अनुबंधित होने के कारण प्रत्यक्षतः कुछ कुकृत्य कर सकने में असमर्थ हैं। कुछ गुप्त करने लग जाँय तो बात दूसरी है।

उपरोक्त स्तर के काम-क्रीड़ा से विरत लोगों का ब्रह्मचारी नहीं कहा जा सकता। असली क्षरण तो मानसिक होता है। काम को मन्सज कहा गया है। उसकी उत्पत्ति मन से होती है। मन को धोया जाय, कुदृष्टि को त्यागा जाय। नर नारी को और नारी नर को पवित्र दृष्टि से देख सके तो समझा जाना चाहिए कि समग्र इन्द्रिय संयम बन पड़ा। चटोरपन हो या कामुकता का व्यवहार रोकना ही पर्याप्त नहीं, त्यागी उनकी ललक एवं अभिलाषा भी जानी चाहिए।

इन्द्रिय निग्रह का प्रथम चरण जो पूरा कर लेता है उनके लिए इस संयम साधना के अन्य तीन पक्ष साध सकना भी सरल हो जाता है। इन्द्रिय- जयी, समय संयमी, अर्थ संयमी, विचार संयमी बनने में उतनी अधिक कठिनाई अनुभव नहीं करता जितनी की प्रथम चरण की साधना में साहस अपनाना होता है।

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