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Magazine - Year 1988 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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मानव जीवन इस जगती का सर्वोत्तम उपहार

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First 17 19 Last
मनुष्य क्या है? इसका उत्तर दिया जा सकना अत्यंत कठिन है, क्योंकि वह समूची विचित्रता है। उसे भानुमती का पिटारा कह सकते हैं। अनादि काल से ही विभिन्न क्षेत्रों के विशेषज्ञ, मनीषी, वैज्ञानिक, दार्शनिक, अध्यात्मवेत्ता उसकी व्याख्या विवेचना अपने-अपने ढंग से प्रस्तुत करते रहे हैं। जिस दृष्टिकोण से देखा जाय, वह पूर्ण प्रतीत होता है। रासायनिक संरचना, ज्ञान तंतुओं का जाल-जंजाल, अंतःस्रावी ग्रंथियाँ मनःसंस्थान, भाव समुच्चय आदि को प्रधानता देने से भी बात बन जाती है और उसके अंतर्गत जुड़ी हुई विशेषताओं को गौण या सहायक सिद्ध किया जा सकता है।

मनुष्य ईश्वर का अंश अजर, अमर, अविनाशी आत्मा भी है और तथाकथित मनोविज्ञानियों की मान्यता वाला मूल प्रवृत्तियों-पशु प्रवृत्तियों युक्त मरणशील प्राणी भी। वह किसी का शत्रु अथवा मित्र किसी का ग्राहक किसी का स्वामी किसी का दास हो सकता है। विभिन्न सम्बन्धी नातेदार उसे अपनी-अपनी स्थिति के अनुरूप विभिन्न रिश्तों में बाँधते हैं। किन्हीं की दृष्टि में वह विद्वान पहलवान, कलाकार, संगीतज्ञ, वैज्ञानिक, अध्यापक, चिकित्सक, अर्थशास्त्री, कृषक, संत, दार्शनिक-समाज सुधारक आदि हो सकता है और कोई उसके दोष-दुर्गुणों को देखते हुए आलसी, व्यसनी, अपव्ययी, दुष्ट-भ्रष्ट आदि ठहरा सकते हैं। यह सभी निर्धारण आँशिक रूप से ही सही हैं- समग्र रूप से नहीं। जिसने जैसा सोचा या देखा है वह उसे उसी रूप में प्रतीत होगा। कोई भी एक व्यक्ति किसी दूसरे को समग्र रूप से जानने में समर्थ नहीं हो सकता, क्योंकि हर किसी की दृष्टि एक ढाँचे में ढली और एक सीमा में ही पर्यवेक्षण कर सकने में समर्थ हो सकती है।

प्रायः मनुष्य के दो स्वरूपों का वर्णन देखने को मिलता है। प्रथम-वास्तविक और दूसरा-आभासी। आत्मज्ञानी अपने को आत्मा मानते हैं और कहते है- .... पराजिग्ये।” अर्थात् मैं अपराजित आत्मा हूँ। उनका उद्घोष है कि मैं अकर्ता उपभोक्ता हूँ अविकारी हूँ। शुद्ध बोध स्वरूप हूँ एक हूँ और नित्य कल्याण स्वरूप हूँ। अध्यात्मवेत्ताओं के अनुसार यही मनुष्य का वास्तविक स्वरूप हैं पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक मनुष्य के आभासी स्वरूप की व्याख्या विवेचना में निरत देखे जाते है। उनकी दृष्टि में मनुष्य एक साइकोलॉजिकल बीइंग-मनोकायिक प्राणी है। वे शरीर और मन को महत्वपूर्ण मानते और उसी को उधेड़ बुन करने-विश्लेषण करने को प्रमुखता देते है। यही कारण है कि पाश्चात्य मनःशास्त्र को मानने वाले मनुष्य को मात्र एक अद्भुत तथा विलक्षण सचेतन जीव मानते है। जिसके पास मन और मस्तिष्क जैसे बहुमूल्य घटक प्राप्त है। वह मूल प्रवृत्तियों का गुलाम है। यौन आकर्षण ही वह प्रेरक तत्त्व है जिससे उसकी प्रत्येक भली-बुरी गतिविधियाँ संचालित होती हैं। जिसकी सन्तुष्टि अथवा अतृप्ति पर मानवी विकास अथवा पतन आधारित है।

समाज शास्त्रियों के अनुसार मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। वह समाज का एक अभिन्न घटक तथा उसका निर्माता है। अन्यान्य क्षेत्र के विशेषज्ञों ने भी अपने विषय ज्ञान के आधार पर मनुष्य को विभिन्न रूपों में परिभाषित किया है। जीवविज्ञानी उसे एक बहुकोशीय पिण्ड मानते हैं। तो ज्योतिर्विदों ने उसे तारों के बीजकोष के रूप में माना है। मनःशास्त्री कहते हैं कि मनुष्य कुशाग्र दृष्टि सुविकसित मस्तिष्क, कल्पनाशील मन तथा समर्थ शरीर से युक्त सृष्टि का एक सुविकसित प्राणी है। पुरातत्त्ववेत्ताओं की मान्यता है कि मनुष्य संस्कृति का संचायक नगर का निर्माता मिट्टी पात्र से लेकर अन्यान्य कला कृतियों का आविष्कारक संगी कृषि साहित्य जैसे विषयों का निर्माता है। जैव रसायनविदों ने मनुष्य को न्यूक्लिक एसिड एन्जाइमों के बीच पारस्परिक क्रियाशील रहने वाला प्राणी कहा है तो रसायनशास्त्रियों ने उसकी व्याख्या “कार्बन अणु की जटिल जैविक संरचना” के रूप में की है।

अर्थशास्त्रियों ने पार्थिव शरीर के रूप में मनुष्य का मूल्याँकन किया है तथा शरीर का विश्लेषण अपने ढंग से प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं कि मानवी काया के निर्माण में भाग लेने वाले महत्वपूर्ण संघटक कार्बन, नाइट्रोजन, फास्फोरस आदि को अलग-अलग करके उनकी कीमत आँकी जाये तो महँगाई के इस जमाने में वह लगभग सौ रुपये तक बैठती है। इस प्रकार मूल्य की दृष्टि से मनुष्य शरीर अन्यान्य पशुओं की तुलना में सस्ता और कम वजन का होता है।

पुरातन तथा आधुनिक पाश्चात्य मनीषियों एवं दार्शनिकों ने मनुष्य की व्याख्या विभिन्न ढंग से की है। दार्शनिक प्लेटो ने मानव को एक पंख विहीन द्विपाद के रूप में वर्णन किया है। दार्शनिक सेनेका उसे एक सामाजिक प्राणी मानते हैं, जबकि एल्डुअस हक्सले का कहना है कि-”मनुष्य इन्द्रियों की दासता में जकड़ा एक बुद्धिमान जीव है।” डार्विन ने जीव विकास की एक उच्च स्थिति के रूप में मनुष्य का वर्णन किया है। फ्रायड मनुष्य को पशु प्रकृतियों में जकड़ा एक जीव मानते हैं जन स्टुअर्ट मि ने उसे चलता फिरता नश्वर प्राणी माना है और कहा है कि वह अन्य जीवों की तुलना में अधिक समझदार तथा सृष्टि के लिए उपयोगी है। बर्ट्रैन्ड रसेल उसे बुद्धिमान किन्तु विध्वंसक जीव मानते हैं। भारतीय ऋषियों तथा मनीषियों ने भी मनुष्य तथा मनुष्य जीवन की विवेचना अनेक रूपों में की है। नास्तिकवादी दार्शनिक चावकि ने मनुष्य को नश्वर माना है जबकि आस्तिकवादियों की मान्यता है कि जितना असीम शाश्वत यह परमात्मा है उतना ही महान उसका पुत्र है। नश्वर शरीर है आत्मा नहीं। महर्षि व्यास महाभारत में कहते है-

“गुह्यं ब्रह्म तदिंद ब्रवीमि न मानुषाच्छेष्ठतरं हिं किंचित।” ( महाभारत शा॰प॰ 80/12)

अर्थात्- में एक रहस्य की बात बताता हूँ कि इस संसार में मनुष्य से श्रेष्ठ और कुछ नहीं। वस्तुतः मनुष्य ही समस्त जीवधारियों में ऐसा प्राणी है जो विवेक बुद्धि से समन्वित है। शारीरिक मानसिक और बौद्धिक क्षमता के अतिरिक्त उसको ईश्वरकृत विशिष्ट उपलब्धि भावना क्षेत्र की मिली हुई है। अन्तःकरण में उत्कृष्टता के सार तत्व बीज रूप में विद्यमान हैं जिन्हें जागृत कर वह अपने आत्मगौरव को प्राप्त कर सकता है। क्षुद्र से महान मानव से अतिमानव, नर से नारायण बन सकता है। मनुष्य ही सृष्टा के उन अरमानों को पूरा कर सकता हैं जिसके लिए उसने इतनी तीव्र आकाँक्षा की और इस दुर्लभ सृजन का कष्ट उठाया।

पाश्चात्य मनीषी कोर्लिस लैमोण्ट ने अपनी सुप्रसिद्ध कृति “ह्यूमैनिज्म ऐज ए फिलाँसफी “ में लिखा है कि इस सृष्टि में अनेकों’ आश्चर्य हैं किन्तु मनुष्य से अद्भुत और श्रेष्ठ अन्य कुछ नहीं है। पास्कल के मतानुसार वह इस संसार का सर्वश्रेष्ठ बौद्धिक जीव है। ज्ञान प्राप्त करके वह सृष्टि की सम्पूर्ण अभिव्यक्ति करने में समर्थ है। रूसो के मतानुसार स्वतंत्र होकर भी मनुष्य प्रत्येक स्थान पर बंधनों से बंधा हुआ है। सुकरात का भी यही कथन है कि मानव जीवन श्रेष्ठ तो है पर ज्ञान के अभाव में वह व्यर्थ ही चला जाता है। मारकस एन्टोनियसस ने अपनी पुस्तक “टू हिमसेल्फ” में लिखा है कि मनुष्य ही सृष्टि एवं उसकी समस्त क्रियाओं का मूल केन्द्र है फिर भी वह स्वयं अपने लिए एक समस्या है। संसार के रहस्य को समझने में वह भले ही समर्थ हो जाय, पर अपने बारे में वह अनभिज्ञ ही बना रहता है। आदिकाल से वह अपने अस्तित्व के संबंध में उत्सुक होकर अपना और अपने परिवेश का परीक्षण करता रहा है। “आइडियाज ऑफ ग्रेट फिलासफर” नामक अपनी सुप्रसिद्ध कृति में एस॰एस॰फ्रास्ट ने कहा है कि सर्वोच्च सत्ता से सम्बन्धित होने के कारण मानव उससे तनिक ही नीचे है। स्वामी विवेकानन्द ने मानव जीवन को सर्वश्रेष्ठ माना है और कहा है कि यह पशुता, मानवता और देवत्व का संयोग है। अशुभ को शुभ में बदल देने, स्वार्थ को परमार्थ में पुरोहित कर देने के कारण ही उसका श्रेष्ठता है। प्रख्यात यूनानी दार्शनिक पाइथागोरस का कहना है कि मनुष्य ही समस्त वस्तुओं का मापदण्ड है जबकि चीनी दार्शनिक कन्फ्यूशियस का मानना है कि मानव का मापदण्ड मानव ही है। उनके मतानुसार हर दृष्टि से मनुष्य इस सृष्टि का सूत्र है। वही समाज और मूल्यों का माध्यम तथा समस्त संस्कृतियों की शक्ति का स्त्रोत है। इस प्रकार उपरोक्त कथन ऐतरेय उपनिषद् के उस वचन की पुष्टि करते हैं जिसमें कहा गया है-”ताम्य पुरुषमानयत्ता अबु्रवन सुकृत बतेति। पुरुषो वाव सुकृतम। “( ऐत॰उप॰ 1/2/3) अर्थात् मनुष्य विश्व शक्ति की सुकृति है।

मनुष्य प्रायः साढ़े पाँच फुट ऊँचा, डेढ़ सो पौण्ड भारी, सोता, खाता-पीता, बोलता, लिखता, सजता, अकड़ता दीखता भर है। पर उसकी मूल सत्ता यह काय कलेवर नहीं वरन् आत्म-चेतना है जिसमें व्यष्टि और समष्टि दोनों समाये हुए हैं। मनुष्य के इसी वास्तविक स्वरूप की महता को अध्यात्मविदों ने स्वीकारा और परिष्कृत आत्मा को परमात्मा के समतुल्य माना है। विभिन्न धर्मग्रंथों में मानव के स्वरूप का वर्णन उत्कृष्टता के रूप में किया गया है। शतपथ ब्राह्मण 2/5/11 में कहा गया है- “पुरुषो वे प्रजापतेर्नेदिष्ठम्” अर्थात् ब्रह्म का सारा रहस्य मानव में सन्निहित है, क्योंकि नर ही नारायण के अतिनिकट है। बाइबिल में भी अनेक स्थलों पर इस तथ्य का उल्लेख मिलता है कि सृष्टि में मनुष्य ही परमात्मा का साकार रूप है। वही ईश्वर का जीवन्त मन्दिर है (बाइबिल-जैनेसिस 1/26,27, 5/1, 9/6 ) कुरान में कहा गया हैं कि “मनुष्य धरती पर अल्लाह का प्रतिनिधि है” ( कुरान-सुरा 2 एवं 35,36 )। तथा “अल्लाह ने मानव को सर्वश्रेष्ठ आकार प्रदान किया है” ( कुरान-सुरा 95/4, 64/3. 40/96 )। जैन एवं बौद्धधर्म में भी मनुष्य की श्रेष्ठता का ही प्रतिपादन किया गया है और उसे परमात्म सत्ता का एक लघु संस्करण बताया गया है। मानवी काया के उपलब्ध होने पर ही निर्वाण, सत्य ज्ञान, मोक्ष आदि प्राप्त किये जा सकते हैं।

इजिप्ट के प्रख्यात संत दार्शनिक हरमेस ट्रिस्मेजिस्टस ने मनुष्य को ईश्वर का एक दिव्य चमत्कार माना है। उनके अनुसार मनुष्य के समान गौरवशाली, मर्यादित एवं श्रद्धास्पद कोई भी प्राणी इस धरती पर नहीं है। ईश्वर ने ही मानवी काया में प्रवेश किया है। परमात्म सत्ता का प्रतीक प्रतिनिधि होने से वह स्वयं में समस्त ईश्वरीय गुणों से अभिपूरित है। यही कारण है कि उसकी दृष्टि निम्नगामिता को छोड़कर सदैव श्रेष्ठता की ओर परमपिता परमेश्वर की ओर ऊपर उठी रहती है।

प्रख्यात ग्रीक दार्शनिक पिको डेला मिरान डोला तथा अर्नस्ट कैसिरर ने मानव को “सार्वभौमिक मनुष्य” कहा है और तदनुरूप उसका व्यापक स्वरूप प्रस्तुत किया है। इनके मतानुसार अपने विकास अथवा पतन के लिए मनुष्य स्वयं जिम्मेदार है क्योंकि भले-बुरे का निर्णय और वरण करने की स्वतंत्रता जो उसे मिली है। वह चाहे तो अपने कर्मों के माध्यम से निम्न योनियों में भ्रमण करता रह सकता है और चाहे तो दिव्य योनियों में जन्म ले सकता है, मोक्ष प्राप्त कर सकता है। महर्षि अरविंद के अनुसार पृथ्वी पर मनुष्य ही परमात्म-सत्ता की दिव्य चेतना का सर्वोच्च प्रमाण है। यही वह साधन है जिसके माध्यम से ईश्वर इस संसार में अभिव्यक्त होता है। दिव्यता, पूर्णता एवं मुक्ति का आधार मानव जीवन ही है।

मनुष्य क्या है? इसका उत्तर इस प्रतिप्रश्न में सन्निहित है कि मनुष्य क्या नहीं है? अर्थात् वह सब कुछ है। बीज रूप में उसके भीतर विकास की असीम संभावनाएँ विद्यमान है। अपने विषय में जो जैसा सोचता है, वैसा ही बन जाता है। वह एक ऐसा अनगढ़ प्राणी है, जो सुगढ़ बन सकता है, नर से नारायण बन सकता है और अधोगामी मार्ग अपना कर नर-पशु-नर पामर भी बन सकता है। अभीष्ट दिशा में चल पड़ने की उसे खुली छूट है। शरीर, मन, अन्तःकरण तथा उससे जुड़ी असामान्य क्षमताएँ सदुद्देश्यों से जुड़कर उसके विकास का मार्ग प्रशस्त कर सकती है और निकृष्ट दिशा में नियोजित होकर पतन पराभव की ओर ढकेल भी सकती है।

अपने को वह रसायनों का सम्मिश्रण, मूल प्रवृत्तियों का गुलाम, अणुओं का संगठन अथवा चलता फिरता नश्वर प्राणी भर मानता रहे, यह मनुष्य के लिए शोभा नहीं देता। वह ईश्वर की अंशधर आत्मा है, पंचमृतों से विनिर्मित यह काय कलेवर नहीं जो प्रत्यक्ष दीखता है। अतः उसके लिए उचित यही है कि वह मानव जीवन की इस गरिमा को समझे तथा यह माने कि सुरदुर्लभ प्रस्तुत अवसर उसे विशिष्ट प्रयोजन के लिए प्राप्त हुआ है, जिसका सदुपयोग होना चाहिए। श्रेष्ठ मान्यता के अनुरूप ही विचारणा का क्रम चलता और अन्ततः वही आचरण में उतरता है। भौतिक मान्यताओं से ऊपर उठकर ही मनुष्य का सही एवं शाश्वत मूल्यांकन करना विवेक सम्मत है।

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