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Magazine - Year 1988 - Version 2

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शावत धर्मधारणा और समय की महती आवश्यकता का समन्वय उन चार निर्धारणों में हुआ है जो अखण्ड-ज्योति के विज्ञ परिजनों के सम्मुख अपनाने के लिए प्रस्तुत की गई हैं। आत्म-परिष्कार, शिक्षा संवर्धन, नारी जागरण, दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन के चार निर्धारणों को जिस रूप में, जितने अंशों में कार्यान्वित किया जा सके उसी अनुपात में कर्ता की, और वर्तमान समाज की उतनी ही बड़ी सेवा साधना बन पड़ेगी। यों करने को तो संसार में अनेकानेक क्षेत्र और कृत्य खाली पड़े है। उनमें से जो अपनी रुचि और योग्यता के अनुरूप सत्प्रवृत्ति संवर्धन की दिशा में अग्रगामी हो सके, वह उतना ही श्रेयाधिकारी और लोक सेवी महामानव बनने की दिशा में अग्रसर हो सकेगा। उपरोक्त चारों कृत्य ऐसे है, जिन्हें हर स्थिति का व्यक्ति अपने क्रिया कृत्यों में सम्मिलित कर सकता है। आवश्यक नहीं कि एक व्यक्ति इन सभी निर्धारणों को एक साथ अपनी क्रिया-प्रक्रिया में सम्मिलित करें, पर यह तो हो ही सकता है कि जितनी मात्रा में जो बन पड़े, उसे उस प्रकार क्रियान्वित किया जाता रहे। भावनाशीलों में से एक भी ऐसा नहीं हो सकता जो इच्छा होने पर भी कुछ न कर पाने की असमर्थता व्यक्त करे। बहाना बनाना हो तो बात दूसरी है। आदर्शों के परिपालन की उपयोगिता आवश्यकता जिन्हें विदित नहीं, वे पेट और प्रजनन को ही सब कुछ मानकर उसी कोल्हू में पिलते हुए व्यस्तता जैसी कोई मजबूरी व्यक्त कर सकते है, पर किसी भी आस्थावान के लिए यह सर्वथा सरल और संभव ही रहेगा कि महाकाल द्वारा सौंप युगधर्म का किसी रूप में परिपालन करता रहे।

सामान्यजनों की दिनचर्या में उपार्जन, उपभोग और परिवार, यह तीन तत्व ही सम्मिलित रहते हैं। लोभ, मोह और अहंकार की पूर्ति के अतिरिक्त उन्हें और कुछ सूझता सुहाता ही नहीं। पर जिन्हें मानवी गरिमा और उसकी जिम्मेदारी का ज्ञान है, वे आत्म-परिष्कार और लोक मंगल की परमार्थ साधना से विरत नहीं हो सकते। उन्हें वह भी आवश्यक और अनिवार्य स्तर का प्रतीत होता है। ऐसे लोग युग धर्म के निर्वाह को भी ऐसे लाभदायक कामों में सम्मिलित करते है जिसमें आत्म-सन्तोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह का विविध समन्वय है। इच्छा यदि बलवती हो तो न समय की कमी रहती है, न अवसर की अथवा सहयोग ही कम पड़ता है।

निर्धारित चार कार्यक्रमों में आत्म-परिष्कार तो मात्र चिन्तन और स्वभाव का स्तर ऊँचा उठाने का है जो पूरी तरह अपने हाथ में है। उसके लिए अतिरिक्त समय की भी आवश्यकता नहीं पड़ती। अन्य कार्यों के साथ वह भी होता चलता है। शिक्षा संवर्धन से साक्षरता तो कुछ ढूंढ़ खोज भी कराती है, पर स्वाध्याय-सत्संग अपने परिवार या संपर्क में भी चलता रह सकता है। नारी जागरण अवश्य ऐसा है जिसके लिए थोड़ी अधिक चेष्टा करनी पड़ती है। इसके लिए अपने परिवार की महिलाओं का सुव्यवस्थित क्रम बना देने से भी कार्य आरम्भ हो सकता है। कुरीतियाँ अधिकतर नारी समुदाय के स्वभाव में ही अपना कोंतर बनाये रहती है। उनमें साहस और विवेक बढ़ाया जा सके तो उसका प्रभाव पड़ोसियों, परिचितों पर भी पड़े बिना न रहेगा।

वस्तुतः यदि समाज सुधार के क्षेत्र में बहुमुखी प्रगति करनी है तो इसके लिए महिला समुदाय में प्रगति प्रेरणा करनी अनिवार्य होगी। ‘हम सुधरेंगे जग सुधरेगा’ का उद्घोष जितना सत्य है उतना ही यह भी सही है कि “नारी अभ्युदय-समस्त समाज का भाग्योदय”। जिन चार निर्धारणों को कार्यान्वित करने के लिए कहा गया है, उनमें से अधिकांश की प्रगति इस एक ही आधार पर बन पड़ती है कि नारी उत्कर्ष की सुव्यवस्थित योजना बनाई जाये और उसे अपने परिवार परिकर से ही आरम्भ किया जाये। सामान्य महिलाओं को शिक्षा, स्वावलम्बन, सत्संग, संगठन की सुविधा देकर क्रमशः आगे बढ़ाया जा सकता है। पर उनका मार्ग-दर्शन करने के लिए ऐसी प्रतिभावान महिलाओं की आवश्यकता है जो समीपवर्ती क्षेत्र में घर-घर जा कर महिलाओं से संपर्क साधने में झिझक अनुभव न करें। ऐसी दो महिलाएँ साथ-साथ निकल सकें, रूढ़िवादिता से उन्हें विरत कर के प्रगति पथ पर चलने के लिए प्रयत्नशील रह सकें, तो यह प्रयास ही अभीष्ट उद्देश्य की पूर्ति कर देगा। विचारशील पुरुषों को अपने घरों की प्रतिभावान महिलाओं को इस सेवा साधना के लिए प्रोत्साहित एवं प्रशिक्षित करना चाहिए। स्वयं पीछे रहकर उन्हें आगे बढ़ाना चाहिए। अपने देश में नारी संपर्क के लिए पुरुषों को उपयुक्त नहीं समझा जाता। उन पर संदेह एवं अविश्वास किया जाता है। इसलिए यदि उन्हें कार्य करना है तो साथ ही घर की महिलाओं को अवश्य ले लेना चाहिए। पुरुषों का एकाकी प्रयत्न उतना सफल नहीं हो सकता, जितना होना चाहिए।

अशिक्षित नारियों को साक्षरता से लाभान्वित करने का प्रयत्न किया जाय। इसके लिए मोहल्ले-मोहल्ले प्रौढ़ पाठशालाएँ चलें। इसके अतिरिक्त इसी प्रयास में सिलाई जैसे कुटीर उद्योगों का समावेश रहे। अर्थ लाभ का आकर्षण अशिक्षित वर्ग में शिक्षा प्राप्त करने से भी अधिक समझा जाता है। इसलिए जहाँ जिन कुटीर उद्योगों को आरम्भ किये जाने एवं माल के खपत की सुविधा हो, वहाँ उन्हें हाथ में लिया जाय। घरेलू शाकवाटिका भी ऐसी ही विद्या है जिसे हर घर से आरम्भ कराया जा सकता है और स्वास्थ्य रक्षा तथा बचत का नया द्वार खोला जा सकता है।

साप्ताहिक सत्संगों में संगीत शिक्षा का गायन-वादन का मनोरंजन भी होता रहे और साथ ही अनुपयुक्तताओं को हटाने एवं सत्प्रवृत्तियों को बढ़ाने की परामर्श प्रक्रिया का भी क्रम चलता रहे। स्वास्थ्य रक्षा, शिशुपोषण, गृहव्यवस्था, कुरीतियों का उन्मूलन जैसी कितनी ही योजनाएँ इसी साप्ताहिक सत्संग का अंग बन सकती हैं। उज्ज्वल भविष्य की प्रगतिशील योजनाएँ बनाना व उनके कार्यान्वयन का प्रयास चल पड़ना इन साप्ताहिक सत्संगों का अविच्छिन्न अंग रह सकता है। छोटे-बड़े आयोजनों समारोहों से भी इस प्रकार का उत्साह बढ़ाया जा सकता है। मिलजुलकर किये जाने पर हर कार्य अधिक सफल होता है। नारी उत्कर्ष के लिए भी संगठित सामूहिक शक्ति ही विकसित करनी होगी। विज्ञजनों को इसके लिये छोटे-छोटे नारी संगठन खड़े कर आवश्यक वातावरण बनाने एवं साधन जुटाने का दायित्व अपने कंधों पर उठाना चाहिए। इतने भर से नारी जाग्रति की एक उत्साहवर्धक लहर दौड़ पड़ेगी जो कभी घटेगी नहीं, बढ़ती ही रहेगी।

अवसर न हो तो एकाकी प्रयत्न तो करते ही रहना चाहिए। पर यह अवश्य ध्यान रखना चाहिए कि संगठन में भारी शक्ति होती है। मिल-जुल कर काम करने से प्रगति की संभावना अनेक गुनी बढ़ जाती है। अखण्ड-ज्योति परिजन यह लक्ष्य निर्धारित कर लें कि ‘हम पाँच-हमारे पच्चीस’। परिवार नियोजन वाले ‘हम दो-हमारे दो का नारा लगाते है पर अपना लक्ष्य परिसीमन नहीं अभिवर्धन हैं। यहाँ विस्तार अभीष्ट है। साथ ही अभियान को प्रबल एवं प्रचण्ड भी बनाना है। इसलिए सम्मिलित प्रयत्नों को संगठित रूप से कार्य करने की योजना बनानी चाहिए। अपने जैसे चार साथी ढूंढ़ कर पाँच का एक मण्डल बनाया जाय। प्रत्येक को संपर्क साधने और उत्साह भरने मार्ग-दर्शन करने का दायित्व सौंपा जाये। इस प्रकार एक से पाँच और पाँच से पच्चीस बनने की प्रक्रिया चल पड़ेगी। पाँच लाख वरिष्ठ परिजन पाँच-पाँच की टोलियों में गठित होकर एक महती भूमिका सम्पादित करेंगे। इसी प्रकार हर परिजन अपने घर की एक महिला को आगे बढ़ाकर अपने जितने ही संगठन खड़े कर सकता है। दोनों पक्षों में असाधारण रूप से प्रगति प्रयासों को चमत्कारी गति से अग्रगामी होते देखा जा सकता है।

इस स्तर के उत्साहीजनों के सर्वांगीण प्रशिक्षण की व्यवस्था शान्ति-कुँज में है। उसमें नर और नारी समान रूप से भाग लेते रहते हैं। समग्र पाठ्य-क्रम तो तीन माह का है, पर जिन्हें इतना अवकाश नहीं हैं, उनके लिए आवश्यक मार्ग-दर्शन प्राप्त करने व व्यवहार में उतारने की संक्षिप्त शिक्षा दस-दस दिनों के सत्रों में भी उपलब्ध हो सकती है। ऐसे सत्र हर माह 1 से 10, 11 से 20, 21 से 30 तारीखों में अनवरत रूप से चलते रहते हैं। दोनों प्रकार के सत्रों में से जब जिन्हें जिस सत्र में सम्मिलित होना अभीष्ट हो, आवेदन पत्र भेजकर स्वीकृति प्राप्त कर लेनी चाहिए। तीन मास का सत्र संबंधी ज्ञातव्य फरवरी अंक में विस्तार से छप चुका है। जिन्हें अत्यधिक समयाभाव है, वे दस दिन वाले संक्षिप्त सत्रों में आकर काम चलाऊ रूप-रेखा तो समझ ही सकते हैं। विस्तृत प्रशिक्षण बाद में कभी लिया जा सकता है। जिन्हें युग-धर्म के निर्वाह की कुछ उमंगें उठती हों, उन्हें इन अभिनव सत्रों में से किसी में सम्मिलित होने की चेष्टा करनी ही चाहिए।

अनभ्यस्त कार्य सरल होने पर भी कठिन लगते है। उन्हें अपनाते समय मन अचकचाता है और अनेक व्यवधान पड़ने की कल्पना करता है, पर जब प्रयोग चल पड़ता है तो सर्कस करने वाले कलाकारों की तरह लोगों को अति कठिन दीखने वाले कार्य भी सरल हो जाते हैं। आत्मोत्कर्ष और लोकमंगल की सम्मिश्रित गतिविधियाँ अपनाने के संबंध में भी यही बात है। जब तक उन्हें प्रयोग में लाने का साहस नहीं जुटता तभी तक वे कठिन लगते हैं। पर जब उस दिशा में कदम उठते हैं और रस आने लगता है तो फिर वे इतने लोकप्रिय लगने लगते है कि किये बिना रहा ही नहीं जाता। न बन पड़ने पर ऐसा लगता है, मानो कोई अपराध बन पड़ा।

अखण्ड-ज्योति परिजनों की विशिष्टता देखते हुए उनके कंधों पर नव सृजन के कुछ उत्तरदायित्व सौंपे गये है, जिनमें से चार अनिवार्य स्तर के हैं, जिनका उल्लेख ऊपर किया गया है। इन चारों में भी यदि किसी को प्राथमिकता देनी हो तो वा नारी-जागरण अभियान है, कारण कि उससे कर्त्ता को सीधा और तत्काल लाभ मिलता है। ग्रह संचालिकाएँ यदि उत्कृष्ट प्रगतिशीलता अपनाने होंगे तो उसका प्रभाव समूचे पारिवारिक वातावरण पर पड़ना निश्चित है। जो औरों से कहा जाता व कराया जाता है, वह अपने घर से ही क्यों न आरम्भ किया जाय? अपने घर की महिलाओं को ही आगे धकेला जा सके तो निश्चित ही इसका प्रभाव संपर्क क्षेत्र पर पड़े बिना न रहेगा। देखते-देखते उस आधार पर सत्प्रवृत्ति संवर्धन और दुष्प्रवृत्ति उन्मूलन का सशक्त वातावरण बनेगा। माँझी अपनी नाव खेता है, स्वयं पार उतरता है और उसमें बिठाकर अनेकों ऐसों को पार करता है जो अपने बलबूते नदी पार करने में परिजन अपने समविचार वालों को ढूँढ़ कर उनमें से पाँच के साथ संगठन का ताल-मेल बिठाये और उस मण्डली द्वारा निर्धारित कार्यों को पूरा करने की योजना बने। उसे पूरा करने के लिए योजनाबद्ध रूप से कार्यरत रहने का क्रम चले।

यह परीक्षा की बेला हैं प्रस्तुत समय को युग चेतना का अरुणोदय काल कह सकते हैं। यह अवसर गँवाया नहीं जाना चाहिए। स्वार्थ और परमार्थ की समन्वित इस विधि व्यवस्था को अपनाना चाहिए जो चार सूत्री योजना के रूप में इन पृष्ठों पर प्रस्तुत है।

जिनको गृह कार्यों से अवकाश मिल सकता हो, वे शाँति-कुँज आकर पूरा समय व्यापक क्षेत्र में युगान्तरीय चेतना जगाने में संलग्न होने का साहस करें। जिनकी वैसी स्थिति नहीं है, वे अपने निजी जीवनचर्या को इस प्रकार बनायें जिसमें इन निर्धारणों को कार्यान्वित करने के लिए अधिकाधिक श्रम समय मनोयोग एवं साधनों का समावेश हो सके।

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