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Magazine - Year 1988 - Version 2

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व्यक्तित्व परिष्कार का मूलभूत आधार

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शारीरिक एवं मानसिक दृष्टि से संयमित एवं सन्तुलित व्यक्तित्व ही सुखी एवं सफल जीवन का आधार बनता है। कार्ल, गुस्तेव, जुँग आदि आधुनिक मनोवैज्ञानिक इसी को “मैच्योर पर्सनालिटी” कहते हैं। इसको परिभाषित करते हुए इन मनःशास्त्रियों का मानना है कि चिन्तन की दृष्टि से प्रौढ़ और स्वस्थ व्यक्तित्व उसी का माना जाना चाहिए जो समस्त परिस्थितियों में शान्त होकर कार्य करे। इस तरह ऐसा व्यक्ति भली प्रकार समंजित होता है और उसमें भावात्मक तथा सामाजिक परिपक्वता होती है।

व्यक्तित्व का गठन विचारों पर निर्भर हैं। चिन्तन मन को ही नहीं शरीर को भी प्रभावित करता है। मनोकायिक गड़बड़ियाँ चिन्तन की गिरावट का ही परिणाम है। इस बात को प्रायः सभी मनोवैज्ञानिक एकमत से स्वीकार करते हैं। चिन्तन की उत्कृष्टता को अपनाने तथा उसे व्यावहारिक जगत में उतारने से ही भावात्मक तथा सामाजिक समंजन प्राप्त हो सकना सम्भव है।

इस प्रकार के समंजन की सरल किन्तु सक्षम प्रक्रिया बता पाने में आधुनिक मनःशास्त्री असमर्थ पाये जाते हैं। इस विषय पर वे आपसी खींचतान के अतिरिक्त कुछ उपादेय दे पाने में अक्षम ही दिखाई देते हैं। मनोविज्ञान की जाह्नवी का गोमुख सदृश उद्गम स्थल उपनिषद् है। इनमें विशेषतया श्वेताश्वतर उपनिषद् में ऋषियों ने इस प्रकार के भावात्मक एवं सामाजिक समंजन स्थापित करने, रागद्वेष आदि विरोधी भावों से ऊपर उठने हेतु एक पूर्णतया सक्षम सशक्त प्रक्रिया उद्धृत की है जिसे ‘उपासना’ कहते हैं।

निःसन्देह उपासना श्रेष्ठ चिन्तन एवं उत्कृष्ट व्यक्तित्व के निर्माण का सशक्त माध्यम है। मन की बनावट कुछ ऐसी है, वह चिन्तन के लिए आधार ढूँढ़ता है। जैसा माध्यम होगा उसी स्तर का चिन्तन चल पड़ेगा। तदनुरूप क्रिया कलाप होंगे। निम्न स्तरीय चिन्तन वाले व्यक्ति के क्रिया-कलाप भी घटिया होना स्वाभाविक हैं। ऐसा व्यक्ति अपने जैसे दुराचारी-अनाचारी व्यक्ति विनिर्मित करने में ही सहायक सिद्ध होगा, जबकि उच्चस्तरीय चिन्तन करने वाले सन्त-मनीषी महात्माओं के चिन्तन के अनुरूप उनके क्रिया-कलाप भी उत्कृष्ट कोटि के होते हैं। तदनुरूप उनके सान्निध्य में रहने वाले व्यक्तियों का व्यक्तित्व भी उसी साँचे में ढल कर सुघड़ स्वरूप प्राप्त करता है।

वर्तमान समय में श्रेष्ठ व्यक्तित्व सम्पन्न व्यक्तियों का अभाव है। बहुलता हेय गए-गुजरों की है। इनसे सामाजिक समंजन की उपेक्षा करना एक विडम्बना है। इन परिस्थितियों में समस्या यह खड़ी होती है कि मानवी व्यक्तित्व को श्रेष्ठ कैसे बनाया जाय? विचार करने पर एक ही रास्ता दिखाई पड़ता है ‘उपासना का अवलम्बन’।

उपासना से जुड़ी आदर्शवादी मान्यताएँ एवं प्रेरणाएं ही चिन्तन को श्रेष्ठ एवं व्यक्तित्व को उत्कृष्ट बना सकने में समर्थ हो सकती हैं। उपासना की समग्रता एवं उसके मनोवैज्ञानिक प्रभावों को भली भाँति समझा जा सके तो व्यक्तित्व निर्माण का सबल आधार मिल सकता है। उपासना का लक्ष्य है व्यक्तित्व का परिष्कार। इसके निर्धारण से उससे जुड़े आदर्शों एवं उच्चस्तरीय सिद्धान्तों द्वारा उपासक को श्रेष्ठ मार्ग पर चलने की प्रेरणा मिलती है। उपास्य में तन्मय होने का अभिप्राय है उच्चस्तरीय आदर्शों एवं सिद्धान्तों में लीन हो जाना और उसके अनुरूप आचरण करना। उपासना द्वारा निर्माण की यह मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया चलती रहती है। इसमें तन्मयता की पराकाष्ठा उपास्य और उपासक के बीच विभेद का समाप्त कर देती है। द्वैत से उठकर अद्वैत की स्थिति हो जाती हैं। परमहंस रामकृष्ण देव का सर्वत्र काली का दर्शन करना, महाप्रभु चैतन्य का कृष्ण से एकाकार हो जाना, स्वामी रामतीर्थ का ब्रह्मभाव में प्रतिष्ठित हो अपने अस्तित्व को भूल जाना, उपासना की तन्मयता एवं उसकी प्रतिक्रियाओं का प्रभाव हैं। यह असामान्य स्थिति न भी हो तो भी उपासक के विचारों का परिशोधन, परिष्कृतीकरण होता जाता है। भाव-संवेदनाओं में आदर्शवादिता जुड़ने लगती है।

उपासना निराकार की करें या साकार की। इष्ट निर्धारण क्या हो? यह व्यक्तिगत अभिरुचि एवं मनः स्थिति के ऊपर निर्भर करता है। चिन्तन को लक्ष्य की ओर नियोजित किए रखने के लिए साकार अथवा निराकार कोई भी अवलम्बन लिया जा सकता है। यह आवश्यक है और उपयोगी भी। इस प्रक्रिया के साथ जुड़े चिन्तन प्रवाह में आदर्शवादिता का जितना अधिक पुट होगा, उसी स्तर की सफलता प्राप्त होगी। इष्ट से तादात्म्य और उससे मिलने वाले दिव्य अनुदानों से वह आधार बन जाता है जिससे उपासक अपने चिन्तन एवं गतिविधियों को श्रेष्ठता की ओर मोड़ सके।

आधुनिक मनोविज्ञान ने जिन नए तथ्यों का उद्घाटन किया है वे आध्यात्मिक मूल्यों की पुष्टि करते हैं। चिन्तन को व्यक्तित्व का मूल आधार माना जाने लगा है। इस संदर्भ में हुए शोध प्रयास यह स्पष्ट करते है कि मनुष्य का जैसा आदर्श होगा उसी के अनुरूप उसका व्यक्तित्व विनिर्मित होगा। आदर्श यदि श्रेष्ठ एवं उत्कृष्टता समायेगी। इसके विपरीत निकृष्ट आदर्श निम्नगामी प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन देंगे, हेय व्यक्तित्व गढ़ेंगे। उपासना में इष्ट निर्धारण परोक्ष रूप से श्रेष्ठ आदर्शों की प्रतिष्ठापना है। जिसके निकट आने तादात्म्य स्थापित करने वाला भी उसी के अनुरूप ढलता-बनता चला जाता है।

एरिक फ्राँम, हैरी स्टैक सुलीवान एवं डा. हेनरी लिड़लहर का मानना है कि हम शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य को किसी दिव्य सत्ता, देवदूत अथवा सर्वव्यापी चेतना से एकत्व स्थापित करके निश्चयपूर्वक सुधार सकते हैं। उनका कहना है कि हम जिस प्रकार की सत्ता का चिन्तन करते है उससे हमारा संपर्क उसी प्रकार स्थापित हो जाता है जिस प्रकार माइक्रोवेव्स द्वारा संसार के विविध रेडियो स्टेशनों से संपर्क हो जाता है। दिव्य सत्ताओं से संपर्क एवं उनसे मिलने वाली प्रेरणाओं से आध्यात्मिक ही नहीं शारीरिक, मानसिक लाभ भी प्राप्त किये जा सकते हैं। प्रत्येक मनुष्य का मस्तिष्क वायरलेस के रिसीवर की तरह ही है जो हर समय भले बुरे विचारों को ग्रहण करता रहता है। मन में किस प्रकार के विचार उत्पन्न होंगे यह इस बात पर निर्भर करता है कि हम किससे अपना संपर्क जोड़ रहे हैं।

परिष्कृत एवं परिपक्व विचार आस-पास के वातावरण को भी तद्नुरूप बनाने में सहायक होते हैं। प्रख्यात विचारक अपटाँन सिंक्लेयर अपनी पुस्तक “मेन्टल रेडियो” में स्पष्ट करते हैं कि उपासना व्यक्तित्व निर्माण की एक समग्र प्रक्रिया है, जिसका अवलम्बन लेने वाला स्वयं श्रेष्ठ बनता तथा अन्यों को भी प्रभावित करता है। वह अपने विचारों का प्रसारण अभौतिक माध्यमों से अन्य लोगों तक कर सकता है। इसमें व्यक्ति एवं वातावरण को अनुवर्ती बनाने के सभी तत्व विद्यमान हैं।

प्रसिद्ध मनःशास्त्री जुग-उपासना को जीवन की अनिवार्य आवश्यकता के रूप में स्वीकार करते हैं-उनके अनुसार “सभी धर्मों में प्रचलित उपासनाएँ मानव के स्वास्थ्य एवं सर्वांगीण विकास के लिए आवश्यक हैं।” उनकी मान्यता के अनुसार “संसार के सभी मानसिक चिकित्सक मिलकर भी जितने रोगियों को आरोग्य नहीं प्रदान कर पाते जितना कि छोटी से छोटी धार्मिक उपासनाएँ कर देती हैं।”

व्यक्तित्व के अधःपतन एवं चिन्तन-चरित्र व्यवहार की त्रिवेणी में बढ़ते जा रहे प्रदूषण को रोकने तथा इसको परिशोधन कर निर्मल परिष्कृत एवं ऊर्ध्वगामी बनाने में-उपासना की आवश्यकता ही नहीं अनिवार्यता भी है। पुरातन काल के ऋषियों तथा आधुनिक काल के सन्तों ने इसका अवलम्बन कर स्वयं के व्यक्तित्व को सुघड़ बनाने के साथ ही समूची मानव जाति के समक्ष प्रकाश संकेतक के रूप में स्वयं को उभारा। आज भी भावनात्मक एवं सामाजिक समंजन सर्वतोमुखी परिष्कार एवं समग्र प्रगति के सभी आधार इसमें विद्यमान हैं। समस्याओं की जटिलता से उबरने तथा अपने व्यक्तित्व को गढ़ने के लिए यह राजमार्ग ही सर्वाधिक उपयुक्त है। *

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