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Magazine - Year 1988 - Version 2

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Language: HINDI
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उपासना का स्वरूप और प्रतिफल

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उपासना अर्थात् “पास बैठना”। भक्त और भगवान के बीच जितने रिश्ते हैं, उनमें यही सब से श्रेष्ठ है। पिता, माता, सहायक, स्वामी आदि में दाता की महिमा का भाव तो है, पर साथ ही भक्त स्वयं को दीन, दरिद्र, याचक, क्षुद्र असहाय जैसा मानता प्रतीत होता है। भगवान की महत्ता तो स्वयमेव है। उसका वर्णन आवश्यक नहीं। ऐसी सम्भावना भी नहीं है कि चारणों द्वारा अपनी महिमा सुनने की उनकी प्रवृत्ति हो। इससे प्रसन्न होते हों और निहाल करते हों। उन्हें अपनी सृष्टि व्यवस्था से ही फुरसत नहीं, फिर समय और रुचि भी तो नहीं। दूसरे उन पर सीधी आक्षेप लगता है कि प्रशंसा सुनने की रिश्वत में किसी को अनुग्रह प्रदान करते है। ऐसी प्रवृत्ति क्षुद्र हृदय धनवानों में तो पाई जाती हैं पर उसी श्रेणी में भगवान को चित्रित करना किसी भी प्रकार उचित नहीं। इससे उनके समदर्शी होने की महानता पर आक्षेप आता है।

औचित्य पात्रता की परीक्षा करके तदनुसार उपहार या उत्तरदायित्व सौंपने का है। भगवान की इसी विशेषता को हृदयंगम करना चाहिए क्योंकि इसमें अपने को सत्पात्र बनाने, उत्तरदायित्वों को पूरा करने और श्रेष्ठता की प्रतिस्पर्धा में उपयुक्त स्थान प्राप्त करने में औचित्य भी है और न्याय भी। इसी विधा को अपनाने में भगवान की महिमा की रक्षा होती है और अपनी भी गरिमा स्थिर रहती है।

धन-दौलत हो या स्वर्ग-मुक्ति इसमें अपना ही प्रत्यक्ष स्वार्थ-साधना है। इन्हें अनुग्रहपूर्वक माँगने-अपनी दीनता दिखाने में न उनके न अपने गौरव की रक्षा होती है। इसलिए मनुहार करने की अपेक्षा भगवान के सान्निध्य के लिए अपना स्तर तदनुरूप बनाने की बात ही हर दृष्टि से उचित मालूम पड़ती है।

किसी श्रेष्ठ व्यक्ति के पास बैठने के लिए उसी के स्तर का होना चाहिए। प्रधान मंत्री की विचार गोष्ठी में एम॰पी॰ स्तर के चुने हुए लोग होते हैं। मुख्यमंत्रियों की गोष्ठी में एम॰एल॰ए॰ लोगों को स्थान मिलता हैं जौहरी, व्यापारी अपने स्तर के लोगों को ही समीप बिठाते हैं। ग्राहक दलाल या भिक्षुक दूर खड़े रहते हैं। गाय का बछड़ा अपनी माँ का दूध पीता है। माँ उसे चाटती हैं क्योंकि दोनों के बीच आत्मीयता का सघन रिश्ता है। ग्वाले या दूसरे पशु उतने समीप नहीं आते।

उपासना शब्द में प्रकारांतर से अपने लिए प्रेरणा एवं जिम्मेदारी है कि उस महान सम्मान को उपलब्ध करने का गौरव प्राप्त करने के लिए जिन विशेषताओं की आवश्यकता है उसका निर्वाह करें और परीक्षा में उत्तीर्ण हो।

चन्दन के समीप उगे हुए वृक्ष भी उसी के समान सुगंधित हो जाते है। स्वाति बूँद सीप, बाँस, केला आदि में पहुँचने पर मोती, वंशलोचन, कपूर बनते है। यह सत्संगति का चमत्कार है। इसी स्तर तक अपनी पहुँच पहुँचाने के लिए उपासना शब्द में संकेत किया गया है। मनुहार करने की उतनी अधिक आवश्यकता इस शब्द में नहीं है। मेंहदी पीसने वाले के हाथ अनायास ही लाल होते है। पुष्प-उद्यान में भ्रमण करने पर नाक को सुगंध और आँखों को सुन्दरता अनायास ही उपलब्ध होती है। समीपता का यही लाभ हैं कुसंग का प्रतिफल सभी जानते है। कोयला ढोने, बेचने में कपड़े काले होते हैं। बदबू की अन्य वस्तुएँ उठाने, धरने पर ही हाथों और कपड़ों में दुर्गन्ध आने लगती है।

शास्त्रकारों ने भक्त और भगवान की एकता, घनिष्ठता आत्मीयता के लिए उपासना को सर्वश्रेष्ठ प्रक्रिया बताया है। इसकी तुलना में और सब गौण है।

योगवाशिष्ठ 49/8 में उपासक का स्वरूप बताते हुए कहा है-

भूमौ जले लभसि देव नरा सरेषु- भूतेषु देव सकलेषु चरा चरेषु। पश्यन्ति शुद्ध मनसा खलु राम रुपं, रामस्यते भुवितले समुत्यासकाश्च।

अर्थात्- भूमि, जल, आकाश, देव, मनुष्य,चर अचर सब्र में जो भगवान को देखता है और सच्चे मन से उनकी सेवा करता है-वही उपासक है।

अब यहाँ प्रश्न उठता है कि भगवान कैसा है और उसी समीपता के लिए क्या किया जाय?

छान्दोग्य 3/14/1 में कहा है।

“सर्व खल्विंद ब्रह्म, तजवला मिति शान्त उपसीत” अर्थात्-”यह समूचा संसार ब्रह्नाम हैं।

मनुष्य को शान्त चित्त से उसी की उपासना करनी चाहिए इस श्रुति में इस विराट् ब्रह्मनाम को -समस्त संसार को-अपनी सेवा साधना से उपासना करने का संकेत है।”

बृहदारण्यक 7/3/22 में तथा बाल्मीकि रामायण 6/117/25 में भी यही भाव है-” जगत सर्व शरीरं ते” अर्थात्’-परमात्मा का दृश्य शरीर यह निखिल विश्व ही है।

जितनी भी श्रेष्ठताएँ, विभूतियाँ इस संसार में है वे सभी ब्रह्म रूप हैं।

“संगीता यस्य सर्वे वपषि स भगवान पातु वो विश्व रूप”

जिसकी समस्त देवगण, श्रेष्ठजन और मुनि ब्रह्मज्ञानी स्तुति करते हैं वह भगवान विश्वरूप है।

वाश्वेरस्य तु सुभ््राषा परिचर्याप्युपासना। अमरकोशा 2/7/34

अर्थात्- संसार की सेवा, सुश्रूषा परिचर्या करना उपासना है।

कर्मणाः मनसा वाचा सर्वावस्यास्तु सर्वदा। समपिषैषा विधिना उपस्यरिति कथ्यत। कुलार्णव तंत्र 17/67

अर्थात्- सर्व समुदाय के निकट रह कर मन से वचन से कर्म से सेवा करनी उपासना है।

भागवत में एक स्थान पर कहा गया है ‘सेव्य’ उपासित-व्यम्’-अर्थात्-सेवा ही उपासना है।

सत्कर्मों को भी उपासना कहा गया है। सथा-’शील’ सरस्वभावः दुर्जन सहवास परित्याग इति उपासा’। अर्थात् शील, सदाचार, स्वाध्याय का परिपालन और दुर्जनों कुकर्मों का परित्याग उपासना है।

योगवाशिष्ठ 49/8 में आता हैं देव-गणों का अभिनन्दन प्राणि मात्र की सेवा सहायता है। सर्वत्र श्रेष्ठता को ही खोजना, मुनि वृत्तियों को धारण करना यही सच्ची उपासना है।

पैंगलोपनिषद 4/21 में आता है कि जहाँ कहीं तक कल्पना जाती है, उस सब को ब्रह्म मानना चाहिए और उसको श्रेष्ठ समुचित बनाने की सेवा साधना करनी चाहिए।

केवल पूजा-पाठ करते रहा जाय और जीवन को पवित्र सेवा साधना युक्त न बनाया जाय, तो उस दशा में कोई मंत्र तंत्र सफल नहीं होते। कहा गया है कि -

जिह्वा दग्धा परान्नेन, करौ दग्धौ प्रतिग्रहातु। मनो दग्धं परस्त्रीभिः कथं सिद्विर्वरानने।

शंकर पार्वती जी से कहते हैं कि जिनकी जिह्वा पराया अन्न खाने से-हाथ दान दक्षिणा बटोरने से-मन परस्त्री चिंतन से-दुग्ध हो गया है उनका अध्यात्म क्षेत्र की सिद्धियाँ कैसे मिल सकती है?

यहाँ पूजा उपासना का निषेध नहीं है। वह भी करने योग्य है किन्तु व्यक्तिगत जीवन को पवित्र, प्रखर बनाना साथ ही लोकमंगल की सेवा साधना में संलग्न रहना भी आवश्यक है और उपासना का वास्तविक प्रयोजन तभी पूरा होता है। हेय जीवन जीने और आत्म परिष्कार तथा लोकमंगल के कार्यों की उपेक्षा करने से उन लोगों का श्रम निरर्थक ही चला जाता है जो पूजा-पाठ को ही उपासना समझते है और उतने भर से भगवत् प्रसन्नता की आशा करते है। बदले में ऐसों को कुछ नहीं मिलता।

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