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Magazine - Year 1988 - Version 2

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सेवा धर्म एक योग साधना

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मानवी काय कलेवर अनेकानेक शक्तियों का भाण्डागार है। प्रायः वे प्रसुप्त स्थिति में पड़ी रहती है। बीज के अन्दर एक समूचा वृक्ष अपनी समस्त विशेषताओं के साथ छिपा पड़ा रहता है। पर वह प्रकट तभी होता है जब उसे भूमि, खाद, पानी का सुयोग मिले, इसी प्रकार व्यक्ति के अन्तराल में छिपी हुई विशेषताओं को उभरने के लिए कुछ विशेष प्रयत्नों की-आधार, अवलम्बनों की आवश्यकता होती है। जो इस दिशा में प्रयत्नशील रहते और उभार परिष्कार में सफलता प्राप्त करते है, उन्हें महामानव स्तर तक पहुँचने का अवसर उपलब्ध होता है। वे ऐसे ऐतिहासिक बन सकने योग्य कार्य भी कर दिखाते हैं जो सामान्यजनों को अलौकिक, आश्चर्यजनक जैसे प्रतीत होता है।

प्रसुप्त को जाग्रत करना ही महान पुरुषार्थ है। इसी के लिए अनेकानेक साधनाओं का आश्रय लिया जाता है। योग साधनाओं की विविध परम्पराओं का सृजन इसी निमित्त हुआ है। उनमें अनेकता विविधता देखते हुए किसी को भी भ्रम में नहीं पड़ना चाहिए जिस प्रकार विभिन्न क्षेत्रों के आहार, पोशाक, भाषा, परम्परा एवं विनोद क्रम में अन्तर पाया जाता है, उसी प्रकार यदि आध्यात्म साधनाओं में अन्तर पाया जाता है तो इसमें किसी को भी आश्चर्य नहीं करना चाहिए और न भ्रम में पड़ना चाहिए। वे सभी उपयोगी हैं। लक्ष्य सभी का एक है आत्म-परिष्कार। वह जिस सीमा तक पूरा होता जाता है, उसी क्रम से गुण कर्म, स्वभाव में उत्कृष्टता का समावेश होता है। इस प्रकार परिपुष्ट हुआ व्यक्ति अपने में सामान्य जनों की अपेक्षा प्रतिभा, प्रामाणिकता सुव्यवस्था और तत्परता की मात्रा कहीं अधिक बढ़ी-चढ़ी देखता है। यही ऋद्धि सिद्धियों का बीज है। इसके पल्लवित होने पर सामान्य स्थिति में जन्मे, पले लोग भी उन्नति के उच्चशिखर तक जा पहुँचते हैं, ऐसे काम कर दिखाते हैं, जिन्हें अभिवन्दनीय, अनुकरणीय कहा जा सके। इसी प्रगतिक्रम के साथ-साथ आत्म-सन्तोष और लोक सम्मान उपलब्ध होता चलता है। जन सहयोग की भी कमी नहीं रहती है। स्पष्ट है कि एकाकी व्यक्ति किसी प्रकार मनुष्यों की तरह निर्वाह भर कर सकता है। भौतिक एवं आत्मिक क्षेत्रों में प्रगति करने के लिए उसे तद्नुरूप वरिष्ठ स्तर की प्रतिभाओं का सहयोग चाहिए, इसे अर्जित करने में निजी पात्रता ही सफल होती है। चुम्बक अपने स्तर के धातु खण्डों को समेट, बटोर कर इर्द-गिर्द एकत्रित कर लेता है। यह बात सत्पात्रों पर भी लागू होती है। परिष्कृत और प्रामाणिक व्यक्तियों के साथ मैत्री साधने, प्रशंसा करने, सहयोग देने के लिए असंख्यों तैयार रहते है। प्रगति के आधारभूत तथ्य यही हैं। इसके लिए आत्म-शोधन की आत्म-परिष्कार की अनिवार्य आवश्यकता पड़ती है। इस आधार का अवलम्बन ही योग साधना है। इस उपाय उपचार की असाधारण महिमा गाई जाती है। महात्म्य वर्णन किये जाते हैं। फलश्रुतियों के उत्साहपूर्वक बढ़े-चढ़े अम्बार लगाये जाते हैं। पर तथ्यतः बात इतनी भर है कि अपने को कषाय-कल्मषों की कीचड़ से उबारा जा सके। पवित्रता, प्रामाणिकता के शुद्ध जल से धोया जा सके तो व्यक्ति खरे सोने जैसा दृष्टिगोचर होता अपनी स्वर्णिम शोभा से दर्शकों की आँखों में चकाचौंध उत्पन्न करता है।

यह सोचना भूल है कि देवानुग्रह आसमान से बरसता है या किसी हथकण्डे के माध्यम से उन्हें बरगलाया फुसलाया जा सकता है। दैवी शक्तियाँ समदर्शी और न्याय-निष्ठ होती हैं। उन्हें किसी के साथ राग-द्वेष जैसे सम्बन्ध स्थापित करने की इच्छा नहीं होती। वे मात्र पात्रता का परिपोषण करते हैं। उर्वरभूमि पर वर्षा की बूँदें मखमली हरीतिमा उगा देती है; पर कठोर चट्टानों पर घनघोर वर्षा होते हुए भी एक पता तक नहीं जमता हैं। इसमें देवता पर पक्षपात का आरोपण नहीं किया जा सकता, वरन् निष्कर्ष यही निकाला जाना चाहिए कि पात्रता का परिष्कार ही फलदायी होता है। देवीनुग्रह इसके बिना नहीं मिलता साथ ही यह बातें भी गाँठ बाँध लेने योग्य है कि इस तथ्य की उपेक्षा करके कोई अनाचारी दैवी शक्तियों को न तो प्रसन्न कर सकता है और न अनुग्रह बरसाने के लिए बाधित। इस दिशा में विविध कर्मकाण्ड भी कुछ सहायक सिद्ध नहीं होते। अस्तु पतों पर भटकने की अपेक्षा विवेकवानों को आत्म-शोधन के निमित्त ही अपने आत्मिक प्रयासों को केन्द्रीभूत करना चाहिए। उन्हीं के निमित्त साधना क्षेत्र में प्रवेश करना चाहिए। उन उपचारों के स्वरूप विभिन्न हो सकते है, पर उद्देश्य में अन्तर नहीं रखा जा सकता। आत्म-परिष्कार ही वास्तविक देवाराधन है।

योगाभ्यासों में, तप साधनाओं में, सभी उपासना परक कर्मकाण्डों में अनुबंधित हो ऐसी बात नहीं है। एक अति सरल और व्यावहारिक योग भी है-सेवायोग। इसे पुण्य परमार्थ का संचय भी कह सकते हैं। इस निमित्त भी आत्मसंयम बरतना पड़ता है। शक्तियों को अनावश्यक कार्यों में क्षरित होने से रोकना पड़ता है। इतना ही नहीं समय साधन चिन्तन आदि की कुछ भी बचत क्यों न हो, उन्हें सत्प्रयोजनों के निमित्त अर्पित करना प्रयास है। संयम साधना में तपश्चर्या सध जाती है और दूसरों की सेवा सहायता में अपनत्व पर विराट के विशालता के किसी घटक के साथ अपनी आत्मीयता सघन होती है। यही योग साधना की पृष्ठभूमि भी है। सेवा, धर्म को सेवायोग भी कहा जा सकता है। उसे अपनाने वाले को प्रथम चरण लोभ मोह और अहंकार का नियमन करने के रूप में उठाना होता है। सादा जीवन और उच्चविचार का जीवन चर्या में सघन समावेश किया जाता है। औसत नागरिक स्तर का निर्वाह अपनाना पड़ता है। सादा जीवन उच्च विचार वाले सिद्धान्त को जीवनचर्या की अविच्छिन्न रूप से गति-विधि में सम्मिलित करना पड़ता है। इतना बन पड़ने पर आत्मिक प्रगति के मार्ग में और कोई बड़ा अवरोध आड़े नहीं आता। सेवा धर्म अपनाने का संकल्प उत्साह मन में तब उठता है जब संकीर्ण स्वार्थपरता के भव-बंधनों से जैसे-जैसे छुटकारा मिलता जाता है वैसे ही जैसे कीचड़ में दब कर तली में बैठी हुई लकड़ी पानी भर चलने पर ऊपर उभरती चलती है। दबाव हटते ही ऊपर उभरना आरम्भ हो जाता है। यही बात आध्यात्मिक जीवन के सम्बन्ध में भी लागू होती है। अन्तरंग क्षेत्र के कुसंस्कार और बहिरंग क्षेत्र के दुष्कर्म जैसे ही हटने मिटने लगते है वैसे ही आत्म-विकास का ‘कमल’ सद्ज्ञान रूपी सूर्य की किरणें पड़ते ही सहज खिलने लगता है।

सेवा धर्म प्रगति पथ पर अग्रसर होने के लिए वही काम करता है जो पौधे के लिए खाद पानी। उसे साबुन पानी भी कह सकते हैं जो कपड़े पर लगी मलीनता को धोकर स्वच्छ चमकीला बनाता है। सद्गुण बढ़ाने पर सेवा धर्म अपनाने की उत्कंठा उमँगती है। साथ ही यह भी देखा गया है कि लोकमंगल के लिए प्रवृत्त होने पर जड़ जमाये गया है कि लोकमंगल के लिए प्रवृत्त होने पर जड़ जमाये हुए दोष दुर्गुणों की आधारशिला उखड़ती है।

सद्भावना फूल है और जन-कल्याण के निमित्त प्रयत्नशीलता उसका प्रतिफल। सेवा कृत्यों में मात्र हलचल ही नहीं होती रहती उसके साथ सत्प्रवृत्तियों का समागम भी चलता रहता है। जो आदर्शवादी न होगा उसे अपनी लोभ-लिप्सा से ही फुरसत न मिलेगी। उसका सोचना और करना स्वार्थपरता की पूर्ति के निमित्त ही कार्यरत बना रहेगा। सस्ती वाहवाही लूटने के लिए ऐसे लोग दिखावटी आडम्बर मात्र ओढ़ पाते हैं। नाम छपने फोटो प्रकाशित होने, पदाधिकारी कहलाने भर में उनकी रुचि होती है। उस विज्ञापन बाजी के लिए ही वे थोड़ा समय और धन खर्च पाते हैं। जहाँ ऐसा अवसर न हो वहाँ से वे दूर ही रहते है, उदार आत्मीयता की भावनाएँ परिपक्व होने पर ही यह सूझता है कि दूसरों का दुःख बँटाया जाये, अपना सुख बाँटा जाय। गिरतों को उठाया जाये। उठतों को बढ़ाया जाये। यह उमंग तभी उठती है जब अन्यों में भी अपनी ही आत्मा का प्रतिबिम्ब परिलक्षित होने लगे। इस स्तर की सद्भावना, सदाशयता अनायास ही नहीं उभर आती इसके लिए लम्बे समय तक आत्मशोधन की साधना करनी पड़ती है। तुच्छता को महानता में, कामना को भावना में बदलना पड़ता है। लेने की अभिलाषा, देने की उत्कंठा में जब परिणत होती है तभी सेवा धर्म अपनाने का सुयोग संयोग बनता है।

सेवा भावना का अस्तित्व तभी प्रकाश में आता है जब उदारता सहृदयता पनपती है। कहना न होगा कि इस प्रकार का अन्तस्तल उन्हीं में दीख पड़ता है जो दया, करुणा, ममता जैसी सत्प्रवृत्तियों से अनुप्राणित होते है। निष्ठुरता के रहते दूसरों का शोषण करते रहने की बात ही सूझती है। उस दिशा में परमार्थ के लिए कुछ करना तो दूर सोचते भी नहीं बनता। जब सेवाभावी चिन्तन जग पड़े और उसे कार्यान्वित करने की विधा चल पड़े तो समझना चाहिए कि चिन्तन क्षेत्र में उत्कृष्टता घर बनाने लगी। जब वह कार्यान्वित होने लगे तो मानना चाहिए कि श्रद्धा ने मूर्ति रूप धारण कर लिया।

स्व धर्म अपनाने पर पग-पग पर उदारता का परिचय देना पड़ता है। स्वार्थों में कटौती करनी पड़ती है। समय और साधनों को बढ़-चढ़ कर उपभोग करने, ठाटबाट बनाने, विलासिता का रसास्वादन करने की दुष्प्रवृत्तियों पर अंकुश लगाना पड़ता है। सहृदयता के बिना सेवा बन ही नहीं पड़ती। इसी तथ्य को यों भी कहा जा सकता है कि जन-कल्याण में प्रवृत्त होने वाला क्रमशः अधिकाधिक उदार बनते चलने के लाभ से वंचित नहीं रह सकता। सदाशयता और सेवा एक ही प्रक्रिया के दो अविच्छिन्न पक्ष है। एक के रहते दूसरी का भी जा पहुँचना स्वाभाविक है। प्रकाश के सामने अन्धकार नहीं टिक सकता। उदारता के उभरते ही संकीर्ण स्वार्थपरता का निर्वाह हो नहीं सकता। सेवा परायण व्यक्ति दुर्जन बना नहीं रह सकता। उसे सज्जनता का पक्षधर बनना ही पड़ता है।

अन्य योग−साधनाओं में विधि-विधान सही न होने पर उल्टा परिणाम भी हो सकता है। हानि भी उठानी पड़ सकती है। पर सेवायोग में ऐसा कोई खतरा नहीं है। पुण्य परमार्थ का स्वल्प समयदान भी सत्परिणाम ही प्रस्तुत करता है। जन-कल्याण में निरत व्यक्ति सज्जन बन कर रहता है। इतना बन पड़ने पर आत्म-कल्याण की दिशा में प्रगति क्रम अनुगामी ही बनता है।

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