
गायत्री महाशक्ति की उच्चस्तरीय साधना
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
साधना का उद्देश्य आत्मसत्ता को परिष्कृत करना है। जीव अपने आप में पूर्ण है। पूर्ण से उत्पन्न हुआ पूर्ण ही होना चाहिए। इसके लिये उपयुक्त बोध, साहस और कौशल प्राप्त करने के लिए विभिन्न अध्यात्म साधनाएँ की जाती हैं। प्रसुप्त को जाग्रत में परिणत करने के लिये आत्म साधना का पुरुषार्थ किया जाता है। इस मार्ग पर चलते हुए जो सफलताएँ मिलती हैं, उन्हें सिद्धियों के नाम से जाना जाता है। उन्हें अतीन्द्रिय क्षमताएँ भी कहा जाता है। उन्हें अतीन्द्रिय क्षमताएँ भी कहा जाता है। इन सामर्थ्य अथवा क्षमताओं का मूल आत्मबल एवं ब्रह्म तेज है, जिसका उपार्जन गायत्री मन्त्रों की साधना द्वारा किया जाता है। इस क्षमता के चमत्कारी क्रिया−कलाप भौतिक क्षेत्र में संपदाएँ, सफलताएँ और आत्मिक क्षेत्र का उत्पादन है। जाग्रत आत्माओं का पुरुषार्थ इसी दिशा में नियोजित होता है। ब्रह्मतेज या आत्मबल के उत्पादन उपार्जन में जिस साधना का अभ्यास किया जाता है उसमें पंचमुखी गायत्री की पंचकोशी अनावरण प्रक्रिया प्रमुख मानी जाती है।
पंचकोशों के अनावरण की साधना में पाँच योगों का समावेश है-
(1) त्राटक बिन्दुयोग (2) सूर्य धन प्राणायाम, प्राणयोग (3) शक्त चालिनी, कुण्डलिनी योग (4) खेचरीमुद्रा लययोग (5) सोऽहम् साधना, हंसयोग। इस समन्वय को यम द्वारा नचिकेता को सिखाई गई कठोपनिषद् वर्णित पंचाग्नि विद्या भी कह सकते हैं। इनमें से प्रथम तीन का सामान्य परिचय इस प्रकार है-
बिन्दुयोग-त्राटक-
भगवान शिव और भगवती दुर्गा के भूमध्य भाग में तीसरा ने चित्रित किया जाता है। यह तीसरा नेत्र है। दिव्य दृष्टि सामान्य तथा दूरदर्शिता और विवेकशीलता को कहते हैं। उच्चस्तरीय स्थिति में उसे दूरदर्शन जैसी अतीन्द्रिय क्षमता माना जाता है। वेधक दृष्टि सामान्य तथा दूरदर्शिता और विवेकशीलता को कहते हैं। उच्चस्तरीय स्थिति में उसे दूरदर्शन जैसी अतीन्द्रिय क्षमता माना जाता है। वेधक दृष्टि भी यही है। इस केन्द्र से प्रचण्ड विद्युत शक्ति निकलती है और उसके द्वारा दूसरों को कई प्रकार के अनुदान देना संभव हो जाता है। भगवान शिव ने इसी तीसरे नेत्र से निकलने वाली प्रचण्ड विद्युत शक्ति के सहारे आक्रमणकारी कामदेव को जला कर भस्म कर दिया था। संजय इसी केन्द्र का उपयोग टेलीविजन की तरह करते थे। उन्होंने धृतराष्ट्र के पास बैठ कर ही सुविस्तृत क्षेत्र में फैले हुए महाभारत का समाचार सुनाते रहने का काम अपने जिम्मे लिया था।
इस शक्ति को जाग्रत करने की साधना त्राटक है। त्राटक साधना में धृत दीप जलाकर सामने रखते हैं। त्राटक साधना में धृत दीप जलाकर सामने रखते हैं। उसे एक बार आँख खोलकर देखते हैं, फिर आँखें बंद कर लेते हैं। भूमध्य भाग में ध्यान करते हैं कि प्रकाशज्योति भीतर जल रही है और अंतःक्षेत्र में विद्यमान तृतीय नेत्र को ज्योतिर्मय बनाती हुई, दिव्य दृष्टि उत्पन्न कर रही है। संकल्प बल द्वारा आज्ञा चक्र में उसकी प्रतिष्ठापना होती है और अभ्यास से उसे इतना परिपक्व बनाया जाता है और अभ्यास से उसे इतना परिपक्व बनाया जाता है कि चर्मचक्षुओं की तरह से इसे विश्वव्यापी दिव्यता का भान होने लगे। जड़ के आवरण में छिपी हुई आत्मा की झाँकी होने लगे। इसे विवेक का जागरण भी कह सकते हैं। त्राटक साधना से जो दूरदर्शी तत्वदर्शी विवेक जाग्रत होता है, उसे ऋतम्भरा प्रज्ञा कहते हैं। वही गायत्री मंत्र का धियः तत्व है। इस जागरण को आत्म जागरण की संज्ञा दी जाती है तथा इसे भौतिक और आत्मिक जीवन की महान उपलब्धि भी कहा जा सकता है।
प्राणयोग सूर्यवेधन प्राणायाम-
इस निखिल ब्रह्मांड में वायु, ईथर, ऊर्जा आदि की तरह ही एक ऐसा दिव्य तत्व भी भरा पड़ा है जिसे जड़ चेतन की समन्वित शक्ति प्राण कहते हैं।
यह प्रचुर परिमाण में सर्वत्र भरा पड़ा है। इसकी अभीष्ट मात्रा को खींचना और आत्मसत्ता में धारण कर सकना प्रयत्नपूर्वक संभव हो सकता है। इस प्राण विनियोग की प्रक्रिया को प्राणायाम कहते हैं। इसमें विशिष्ट क्रिया-प्रक्रिया को प्राणायाम कहते हैं। इसमें विशिष्ट क्रिया-प्रक्रिया के साथ श्वास-प्रश्वास क्रियायें करनी पड़ती है। साथ ही प्रचण्ड संकल्प-बल का वैज्ञानिक चुम्बकत्व समुचित मात्रा में समन्वित किये रहना होता है। इसी साधना को प्राणयोग कहते हैं। इसे करने वाले को प्राणवान कहते हैं। “लय” और “ताल” की महान् शक्ति का ज्ञान सर्वसाधारण को तो नहीं होता, पर विज्ञान के विद्यार्थी जानते हैं कि सर्वविदित न होने पर भी यह सामर्थ्य कितनी प्रचण्ड है।
सूर्यवेधन प्राणायाम में लय और ताल के विशेष समन्वय है। इड़ा और पिंगला शरीरगत दो विद्युत प्रवाह है जो मेरुदंड के अंतराल में काम करते रहते हैं। इनका मिलन केन्द्र सुषुम्ना हकलाता है। पिंगला से संबंधित श्वास प्रवाह को उलट-पुलट कर चलाने की प्रक्रिया विशेष महत्वपूर्ण है। हृदय की धड़कन भी इसी उलट-पुलट का क्रम रक्त-संचार के सहारे जीवन धारण किये रहने का महान कार्य संपादन करती है।
इस लोम-विलोम क्रम से किया जाने वाला प्राणयोग सूर्यवेधन प्राणायाम कहलाता है। ब्रह्मवर्चस साधना में इसी का अभ्यास कराया जाता है। साधक अपने भीतर प्राणतत्व की अभिवृद्धि का अनुभव करता है। इस प्रक्रिया के द्वारा उपार्जित प्राण सम्पदा साधक की बहुमूल्य संपत्ति होती है। इस पूँजी को आवश्यकतानुसार विभिन्न प्रयोजनों के लिये प्रयुक्त किया जा सकता है। इसे बहिरंग और अंतरंग क्षेत्र का सामर्थ्य उत्पादक प्रयोग कह सकते हैं। कुण्डलिनी जागरण के लिये तो इसी क्षमता की विशेष रूप से आवश्यकता पड़ती है। विद्युत उत्पादन में जो कार्य जेनरेटर करते हैं, लगभग उसी प्रकार व्यक्तित्व के विकास में अनेक प्रयोजनों में काम आने वाली प्राणऊर्जा का संचय सूर्यवेधन प्राणायाम की साधना द्वारा किया जाता है।
कुण्डलिनी योग-शक्तिचालनी-
ब्रह्म शक्ति का केन्द्र ब्रह्मलोक और जीव शक्ति का आधार भू-लोक है। दोनों की काया के भीतर सूक्ष्म रूप से विद्यमान हैं। भूलोक-जीव संस्थान मूलाधार चक्र है। मूलाधार अर्थात् जननेंद्रिय मूल। प्राणी इसी स्थान की हलचलों और संचित सम्पदाओं के कारण जन्म लेते हैं। इसलिये सूक्ष्म शरीर में विद्यमान उस केन्द्र का उद्गम स्थान मूलाधार चक्र कहा गया है। कुण्डलिनी शक्ति इसी केन्द्र में नीचा मुँह किये मूर्छित स्थिति में पड़ी रहती है और विष उगलती रहती है। इस अलंकार विवेचन में यह बताया गया है कि जीवात्मा का भौतिक परिकर इसी केन्द्र में सन्निहित है। इस अलंकार विवेचन में यह बताया गया है कि जीवात्मा का भौतिक परिकर इसी केन्द्र में सन्निहित है। प्रजनन कर्म इसी की संवेदनशीलता की दृष्टि से अति सरस एवं उत्पादन की दृष्टि से आश्चर्यचकित करने वाला एक छोटा-सा किन्तु चमत्कारी अनुभव है। इसे कुण्डलिनी शक्ति का यह कुण्डलिनी केन्द्र, मूलाधार की भौतिक क्षमता का मानवी उद्गम कहा जा सकता है। जिस प्रकार ब्रह्म सत्ता का प्रत्यक्षीकरण ब्रह्मलोक में होता है, ठीक इसी प्रकार प्रकृति की प्रचण्ड शक्ति का अनुभव इस जननेन्द्रिय क्षेत्र के कुण्डलिनी केन्द्र में किया जा सकता है। शारीरिक समर्थता, मानसिक सज्जनता और संवेदनात्मक सरलता की तीनों उपलब्धियाँ इसी शक्ति केन्द्र के अनुदानों द्वारा प्राप्त की जा सकती हैं।
कुण्डलिनी जागरण की साधना में मूलाधार शक्ति को जगाने-उठाने और पूर्णता के केन्द्र से जोड़ देने का प्रयत्न किया जाता है। मूलाधार की प्रसुप्त कुण्डलिनी को जगाने तथा ऊर्ध्वगामी बनाने का प्रथम प्रयास शक्ति चालिनी मुद्रा के रूप में संपन्न किया जाता है। ऊर्ध्वमुखी कुण्डलिनी अग्नि शिखा की तरह मेरुदण्ड मार्ग से ब्रह्मलोक तक पहुँचती है तथा अपने अधिष्ठाता सहस्रार से मिलकर पूर्णता प्राप्त करती है।
शक्तिचालिनी मुद्रा गुदा संकुचन की एक विशेष पद्धति है जिसे सिद्धासन या मुद्रासन पर बैठकर विशिष्ट प्राण साधना के साथ संपन्न किया जाता है। इस प्रक्रिया का समूचे कुण्डलिनी क्षेत्र पर प्रभाव पड़ता है जिससे उस शक्ति स्रोत के जागरण और उर्ध्व गमन के दोनों उद्देश्य पूरे हो सकें। इस प्रयास से उत्पन्न हुई उत्तेजना का सदुपयोग करने वाले अनेक असाधारण काम संपन्न कर सकते हैं। इस प्रकार पंचकोशी साधना के तीन प्रमुख साधना उपचार ये हैं, जिन्हें विधिविधान से करने पर निश्चित ही फल मिलता है।