
भारत का भविष्य
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भारत का भविष्य क्या है? यदि इस विषय पर विचार किया जाय तो पता चलेगा कि भिन्न-भिन्न विचारकों, समाज−शास्त्रियों, अर्थवेत्ताओं, मौसम विज्ञानियों,भविष्यवक्ताओं एवं अंतर्दृष्टाओं ने अपने-अपने ढंग से इसी एक तथ्य को भिन्न-भिन्न रूप में रखने का प्रयास किया है कि वर्तमान के संकटकालीन दौर के आधार पर भारत का भविष्य नहीं आँका जाना चाहिए, वरन् ऐसा कुछ निष्कर्ष निकालने से पूर्व उसके आध्यात्मिक विरासत और प्राचीन इतिहास को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। वे कहते हैं कि कई बार आँखें जो कुछ देखती हैं, वह सच जान पड़ने पर भी सत्य नहीं होता। इसका कारण उस सूक्ष्म दृष्टि का अभाव होता है, जो सत्य और तथ्य को पहचान सके।
भारत के संदर्भ में तथ्यान्वेषियों के इस तर्क में काफी बल है। निश्चय ही अपना देश इन दिनों कठिन दौर से गुजर रहा है एवं आन्तरिक विद्वेषों, अन्तर्विग्रहों में इस कदर उलझा हुआ है जिसे देखते हुए दृश्य रूप में तो ऐसा लगता नहीं कि वह कभी आगामी समय से जल्द ही इनसे उबर कर ऊपर उठ सकेगा, पर इस बात को भी झुठलाया नहीं जा सकता कि घनघोर घटाटोप के आये बिना भी शरीर को झुलसा देने वाली गर्मी से राहत पायी जा सकती है। सुख से पहले दुःख और सफलता से पूर्व विफलता का आना सुनिश्चित है। इतने पर भी यह स्थिर मान्यता नहीं बनाली जानी चाहिए कि यह स्थायी स्थिति है, वरन् सोचा यह जाना चाहिए कि अब उत्कर्ष का समय निकट आने वाला है। प्रसव-पीड़ा को देख कर यदि कोई यह अनुमान लगा बैठे कि यह तो ऐसी व्यथा जान पड़ती है, जिसका शायद समाधान तुरंत आप्रेशन ही तो, तो उसकी बुद्धि पर तरस ही आयेगा। भारत के भविष्य को वर्तमान के आधार पर कोसने वाले लोगों की बुद्धि और चेतनात्मक स्तर को इससे ऊँचा नहीं ही माना जाता चाहिए।
दूसरी ओर ऐसे सूक्ष्म द्रष्टाओं की भी कमी नहीं, जिनने भविष्य के गर्भ में परिपाक हो रहे सूक्ष्म घटनाक्रमों को समय से पूर्व देखकर उसके उज्ज्वल भविष्य की भविष्यवाणी की है। ऐसे ही एक द्रष्टा हुए हैं मैक्जार्ज बण्डी। उन्होंने जॉन गुलर की पुस्तक “रिट्रीट फ्राँम डूम्सडे” की समीक्षा करते हुए अपना मन्तव्य प्रकट किया है कि “रोमन साम्राज्य के उपरान्त यही सबसे ऐसी लम्बी अवधि है, जब हम विश्वव्यापी तनाव शैथिल्स (देतान्ते) की स्थिति देख रहे हैं। वे लिखते हैं कि मानव जाति ने इस बात को भलीभांति समझ लिया है कि युद्ध ही सृष्टि और उसकी उन्नति का सबसे बड़ा शत्रु है, अतः अब विश्व को शान्ति की आवश्यकता है। वे बलपूर्वक अपनी बात को स्वीकारते हुए कहते हैं कि मेरी अंतर्दृष्टि यह स्पष्ट देख रही है कि संसार में अब कोई हिटलर, मुसोलिनी या अन्श्रय कोई एण्टी क्राइस्ट अथवा कोई साम्राज्यवादी एम्पायर जन्म नहीं लेगा। यदि जन्म लिया भी तो वह करुणा का सागर कोई एक महामानव होगा, जिसका लक्ष्य विनाश नहीं, विकास-घृणा नहीं, विश्व बन्धुत्व होगा और यह महामानव भारत ही पैदा कर सकता है, क्योंकि उसकी साँस्कृतिक विरासत और आध्यात्मिक दृष्टि इतनी व्यापक और गहराई लिये हुए है कि इससे कम में विश्व-शान्ति और उज्ज्वल भविष्य की बात करना आकाश कुसुम खिलाने जैसा सिद्ध होगा।”
सन् 1989 की “टाइम” मैगजीन में इसी आशय का मंतव्य प्रकट करते हुए एक निबन्ध प्रकाशित हुआ है, जिसका शीर्षक है-”सुपर इण्डिया”। इसके लेखक एस.एच.मुनरो लिखते हैं कि यों तो पश्चिम में भारत की छवि एक अन्धविश्वासी, रूढ़िवादी देश के रूप में है, पर अब इसे इस प्रकार की संज्ञाओं द्वारा देर तक उपेक्षित नहीं रखा जा सकता, क्योंकि इसी भारत से एक ऐसे महाभारत-विशाल भारत का उदय होने जा रहा है, जिसकी आध्यात्मिक शक्ति देखते-देखते समस्त विश्व को अपना अंकशायिनी बनाने जा रही है।
इसी प्रकार के अनेकानेक विचार द्रष्टा, मनीषी प्रकट करते रहे हैं, जिससे ऐसा स्पष्ट आभास मिलता है कि ग्रहण के मध्य से ही कोई ऐसा नवोदय होगा, जो सम्पूर्ण विश्व को आध्यात्मिक आभा और ऊर्जा से इस प्रकार परिपूर्ण कर देगा, जिसके ऐसी प्रतीत किसी कदर होगी ही नहीं कि यह वही भारत है, जो कभी ग्रहण युक्त था।