
पराई पीर जब अपनी बन जाय
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अपराधी को दण्डित तो किया पर मन विक्षुब्ध हो उठा। मन-मन्थन से उठने वाली हर तरंग उनसे सवाल पूछने लगी-चोरी के अपराध में तूने दूसरे को तो पीड़ित किया-लेकिन स्वयं क्या तू चौर्य वृत्ति से मुक्त है? वे स्वयं को कोई जवाब नहीं दे पा रहे थे। मन पश्चाताप से भर गया। उनने विचार किया कि राजकोष के लोभ के कारण ही उन्हें किसी को पीड़ा पहुँचानी पड़ी। दूसरों को पीड़ा पहुँचाने वाले ऐसे राज्यकर्म का प्रयोजन और वह एक दिन चुपचाप तपश्चर्या के लिए घर से निकाल गए। उनके आगे बढ़ते हर कदम के साथ वैभव-राजकीय ऐश्वर्य पीछे छूटता जा रहा था। वे कैलाश पर्वत पर रहने वाली हेमजटा नामक जाति के प्रमुख थे। दयालुता न्यायप्रियता, उदारता के उनके स्वाभाविक गुणों के बावजूद राज्य में कुछ-न-कुछ दुष्ट और दुराचारी तो थे ही, जिनके साथ उन्हें कठोरता बरतनी पड़ती थी। उन्हें दण्डित करना पड़ता था। स्वभाव विरुद्ध होने के कारण इस कठोरता से उन्हें बड़ा क्लेश होता। अपराधी पर पड़ने वाला हर कशाघत जैसे उनके स्वयं की पीठ पर पड़ता।
इस क्लेश से मुक्त होने के लिए ही वे राज्य छोड़कर वन आ पहुँचे। शान्त तपोवन में आश्रम बनाया और तप करने लगे। तपश्चर्या के प्रभाव से चित्त वृत्तियाँ निर्मल होने लगीं। भगवान की भक्ति में उन्हें आनन्द आने लगा।
आश्रम में अनेक पक्षी भी निवास करते थे। उनमें से कुछ शान्त और मधुर प्रकृति के पक्षी थे कुछ का स्वभाव दुष्ट और हिंसक भी था। एक दिन जब वह प्रातःकाल अग्निहोत्र समाप्त कर उठे-देखा सामने वाले आम्रवृक्ष पर एक बाज एक तोते के बच्चे को पंजों में पकड़े बैठा उसे मारकर खा जाने के यत्न में था। बच्चा चीं-चीं करता हुआ तपोवन की शान्ति को अपनी करुण गूँज से भर रहा था। पर दुष्ट बाज में तो जैसे दया का नाम निशान भी न था।
उनके न्याय प्रिय हृदय में एक बार शक्ति का आक्रोश जागा। धनुष बाण तो था नहीं पास ही एक पत्थर पड़ा था। उसे ही निशाना साधकर जो मारा कि बाज घायल होकर भूमि पर गिरा। तोते का बच्चा मुक्ति पाकर अपनी माँ की गोद में जा लिपटा। दृश्य बदल गया। मृत्यु आयी थी शुक्रशावक को लेने पर हाथ में बाज लगा।
अपने हाथ बाज की मृत्यु को देखकर उनका हृदय फिर काँप उठा। तपोवन में भी प्राणि हिंसा-कैसे और क्यों हुई? सवाल यह नहीं था, हिंसा का अपराध तो हुआ ही। अन्तःकरण पीड़ा से विकल हो उठा। जिस कारण राज्य और वैभव का परित्याग किया वही फिर करना पड़ा। यह सोचकर उनका चित्त बेचैन हो उठा। आँखों से आँसू झरने लगे। वह सोचने लगे विधाता। कैसी है तेरी सृष्टि कि न चाहते हुए भी मनुष्य को क्या-क्या करना पड़ता है।
उनकी विचारमग्नता की कड़ियाँ उधर से घूमते चले आ रहे महामुनि माँडव्य की पदध्वनि के कारण अनायास बिखरने लगीं। उन्हें दुःखित देखकर मनोभावज्ञ मुनिवर सब बात समझ गए। राजा ने मुनि को प्रमाण किया और सविस्तार अपना दुःख प्रकट करके उनसे छुटकारा पाने का उपाय पूछा।
महामुनि माँडव्य बोले-”राजन् न्याय न किया जाये कठोरता न बरती जाये तो दुराचारी लोगों के हाथों सज्जन, धर्मनिष्ठ लोगों की दुर्गति होने लगती है। इसलिए व्यवस्था सँभालना भी निखिल सृष्टि के महाप्रबन्धक भगवान के काम में हाथ बँटाना है। मनुष्य स्वार्थ और अहं के लिए कुछ न चाहकर ईश्वर की इच्छा मानकर संसार की सेवा करे तो यह कठोरता भी पाप नहीं होती। इस स्थिति में भी आनन्द और शान्ति का अभाव नहीं होगा।”
मुनि के शब्द उनके अन्तःकरण की गहराइयों में उतरने चले गए। वे पुनः अपनी राजधानी लौट आये और प्रजा की सेवा और उसके विकास में इस तरह तल्लीन हो गए कि अपना हित भी उन्होंने भुला दिया। उनका मोक्ष-क्षेत्र भगवान स्वयं वहन करने लगे।
सेवा का सुख प्रजा का प्यार पाकर आत्मदर्शी सम्राट सुरधु की सब मानसिक विकलताएँ दूर हो गई। उन्हें सर्वत्र आनन्द की निर्झरिणी प्रवाहित अनुभव होने लगी।
उन्हीं दिनों पारसीक देश के नरेश परिध ने आर्यावर्त की यात्रा की। आत्मज्ञान और समाधि सुख की आकाँक्षा से परिध ने सारे भारतवर्ष के सन्त-तपस्वियों-ज्ञानियों की शरण ली। अनेक प्रकार की साधनाएँ उन्होंने संपन्न की। यम-नियम ध्यान, धारणा प्रत्याहार के द्वारा उनने इन्द्रियों पर नियन्त्रण करना भी सीख लिया। कई तरह की सिद्धियों का अर्जन भी किया। किन्तु न जाने क्यों उन्हें अपने अन्तःकरण में कुछ सूना-सूना सा लगता था। शान्ति के स्थान पर गहरा द्वन्द्व था। खोखलेपन से उपजी आकुलता उन्हें हमेशा घेरे रहती थी।
इसी अवस्था में परिभ्रमण करते हुए परिध की भेंट महर्षि माँडव्य से हो गई। माँडव्य ने नरेश को सम्राट सुरधु के पास जाने और योग विद्या सीखकर आत्मशांति पाने का परामर्श दिया। महान जिज्ञासु शीघ्र ही कैलाश की ओर चल पड़ा।
राजधानी पहुँचने पर प्रधान अमात्य ने बताया महाराज प्रतिदिन अपनी प्रजा के कष्ट-दुःख देखने स्वयं वेश बदल कर जाया करते हैं। एक सप्ताह हुए वे लौटे नहीं। राज्य संचालन महारानी करती है। आप चाहें तो उनसे भेंट कर लें।
परिध ने सुना और चुपचाप एक ओर चल पड़े। संध्या होने पर वे एक गाँव में रुके। जिस घर पर उन्होंने विश्राम करना निश्चित किया दैवयोग से उस घर में एक वृद्धा माता अतिरिक्त कोई न था। वृद्धा का पुत्र युद्ध में गया था वह आज एक सप्ताह से बीमार थी। कोई अपरिचित व्यक्ति उसकी सेवा सुश्रूषा कर रहे थे। परिध ने देखा अद्वितीय ओजस् का धनी वह व्यक्ति कोई साधारण मनुष्य नहीं था। वृद्धा की सेवा घर की सफाई जैसे साधारण कामों में भी उसकी तल्लीनता देखते ही बनती थी। जिसके कर्कश स्वभाव के कारण कोई पड़ोसी मकान के पास फटकने को तैयार न था। उसके मल-मूत्र की दुर्गन्ध, छूत की बीमारी के रोगाणुओं का भय किसी को भी दूर भगाने के लिए काफी था। उसकी इतनी आत्मभाव से सेवा? परिधि के मन में उन अपरिचित सज्जन का परिचय प्राप्त करने का कौतूहल जाग उठा।
वह महाराज सुरधु थे। अपने अंगरक्षक सैनिक की ओर इस तरह देखा जैसे उन्हें पता ही न चला हो कि राजधानी में उनकी अनुपस्थिति को पूरे सात दिन हो चुके हैं। उनके मुखमण्डल पर सेवा की अपूर्व शान्ति और आत्मदर्शन की गम्भीरता स्पष्ट झलक रही थी। उन्होंने सैनिक को सम्बोधित करते हुए कहा-”भद्र! मेरा प्रत्येक प्रजाजन मेरे धर्म से जुड़ा है यह भी तो मेरा ही कर्तव्य था कि मैं इस वृद्धा की देखभाल करता। तुम चलो और राजमहिषी को मेरा संदेश कहो- वे मेरे न पहुँचने तक वहाँ की व्यवस्था सँभाले रहें।”
सैनिक लौटा और दूसरे क्षण सम्राट परिध महाराज सुरधु के समीप थे। आज उन्होंने समाधि का मर्म जान लिया था। सेवा और प्रेम से लबालब भरा व्यक्तित्व ही आत्मद्रष्टा होने का गौरव पाता है। ऐसा आत्मदर्शन जिसमें हर प्राणी की पीड़ा अपनी पीड़ा, हर जीव का दुःख दर्द अपना दुःख दर्द। अनन्त आत्मा की अनुभूति और उसमें खो जाने के सुख से बढ़कर और कोई साधना क्या हो सकती है? परिध को यह जान लेने के बाद कुछ जनना शेष नहीं रह गया।
शिष्य भाव से उन्होंने सम्राट सुरधु को प्रणाम किया और वह अपने देश की ओर लौट पड़े। जो शान्ति उन्हें किसी योग साधना और साँसारिक वैभव से न मिल सकी, वह निष्काम कर्मयोग के प्रयोग से सहज मिलने लगी।