
अहं का विसर्जन ही समर्पण
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समूचे अजनाभ वर्ष में यह विख्यात था कि वे बड़े धर्म परायण व्यक्ति हैं। उनकी तप-तितिक्षा की कहानियों को लोग बड़े चाव से कहते सुनते थे, था भी कुछ ऐसा ही। प्रतिदिन राजमहल के प्राँगण में ही बनवाए गए भगवान विष्णु के मन्दिर में प्रातःकाल ऊषा बेला में पहुँचने, भगवान के विग्रह की पूजा, अर्चना करने, संख्या-उपासना, जप, ध्यान के साथ उनकी दिनचर्या आरंभ होती। इसके बाद वे अपने राज्य के दीन-दुखियों और अभाव ग्रस्तों को प्रतिदिन एक-एक स्वर्णमुद्रा बाँटते थे।
पूजा और दान के बाद आरंभ होता था स्वाध्याय। इसके उपरान्त वे राज्य की समस्याओं को सुलझाने के लिए मंत्री-परिषद के सदस्यों से परामर्श करते। अपनी समस्याओं को उनके पास सुलझाने के लिए आए नागरिकों से भेंट करते, उसके कष्ट सुनते और कठिनाइयों को हल करने के लिए हर संभव सहयोग करते थे। इन सभी कार्यों के निवृत्त होने तक सूर्यदेव अपना रथ लिए ऊपर आकाश के एकदम बीच में पहुँच। उनको यही समय मिलता था भोजन के लिए। कष्ट साध्य जीवन कार्यों में लगे रहने के कारण उन्हें एक प्रकार का सुख मिलता था और वे इस सुखानुभूति में अपनी कष्ट साध्य दिनचर्या की असुविधाओं को भूलकर उसके अभ्यस्त हो गए थे।
उसकी इस ख्याति से प्रभावित होकर अवन्ति नरेश उदयभानु ने अपनी कन्या उदयानी के विवाह का प्रस्ताव किया। प्रस्ताव के उत्तर में उनने स्पष्ट कह दिया कि वह कठोर दिनचर्या के अभ्यस्त है। उनके साथ विवाह होने पर उदयानी को कष्ट तथा असुविधाएँ ही मिलेगी।
परन्तु अवन्ति नरेश ने कहा कि उदयानी स्वयं भक्ति-सेवा तथा तप-तितिक्षा में विशेष रुचि रखती है। यह प्रस्ताव भी उसी का है।
लक्ष्य और मार्ग की एकात्मता को प्रगाढ़ जानकर उन्होंने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। विवाह के पश्चात प्रथम रात्रि के ऊषा काल में, उनके उठने से पहले ही उदयानी उठ गई। उसने विष्णु मन्दिर में जाकर पूजा-अर्चा संपन्न कर ली। जागरण के बाद स्नान आदि से निवृत्त होकर जब वह मन्दिर में गए तो यह देखकर बड़े खिन्न हुए कि उनसे पहले ही उदयानी पूजा-अर्चा से निवृत्त हो चुकी है और वह भी उन्हीं के मन्दिर में। प्रथम पूजा का श्रेय मुझे ही मिलना चाहिए, यह सोचकर उन्होंने उदयानी को निर्देश दे दिया कि वह उनके बाद में ही पूजा के लिए जाया करे। उदयानी ने सहर्ष निर्देशों को अंगीकार कर जाया करे।
कुछ समय बाद वे अनुभव करने लगे कि उदयानी उनकी अपेक्षा साधना मार्ग में अधिक प्रगति कर चुकी है। उसके मुखमण्डल पर अभूतपूर्व दीप्ति, दिव्य शान्ति और दैवीय आभा दिखाई देने लगी। पूछने पर मालूम हुआ कि वह भाव-समाधि की स्थिति में जा पहुँची है।
मैं इतने समय से पूजा, भक्ति और सेवा-साधना में लगा हुआ हूँ। मुझे तो यह सिद्धि मिली नहीं। यह जिसे मैंने अपने से पहले पूजा भी नहीं करने दी किस तरह इतनी जल्दी इस अवस्था में पहुंच गयी? यह विचार उन्हें और भी खिन्न व उदास करने लगा। धर्म-कर्म में उनकी रुचि कम होने लगी। इन्हीं दिनों उनके गुरु ब्रह्मर्षि वशिष्ठ राजमहल में पधारे। दिव्य अंतर्दृष्टि संपन्न ब्रह्मर्षि ने उनके मनोद्वेगों को ताड़ लिया और पूछा-”राजन! आजकल आप निराश और खिन्न क्यों दिखाई देते हैं।”
उन्होंने अपनी मनोव्यवस्था खोलकर सुना दी। सुनने के बाद एक क्षण तक ब्रह्मर्षि किसी अज्ञात लोक में खोए रहे, फिर उनकी गम्भीर वाणी गूँजी-”वत्स अम्बरीष! अध्यात्म मार्ग का उत्कर्ष किसी पूजा या दीर्घ अवधि का नहीं, भावनापूर्वक किये गए उपचारों का परिणाम है। तुम जो पूजा-साधना करते हो उसमें अहं की भावना होती है। जबकि महारानी समर्पण के भाव से अर्चना करती है। जिसने अपने को ईश्वर के प्रति पूर्णतया समर्पित कर दिया, उसके पास अहं कहाँ बचा? और जहाँ अहं मिट जाता है, वहाँ ईश्वर के अतिरिक्त और कोई नहीं रह जाता।”
इन वचनों ने अम्बरीष को साधना का सही और नया मार्ग प्रकाशित किया।