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Magazine - Year 1993 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्राणधारण कर प्राणवान बनने की प्रक्रिया

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शरीर में मन की चेतना पंचतत्वों के सम्मिलन की चेतना मानी जाती है। आत्मा में प्रकाश प्राप्त करते हुए भी वह आत्मा नहीं, शरीर का ही अंश माना जाता है। इसी प्रकार विश्वव्यापी पंचतत्वों की, महाभूतों की सम्मिलित चेतना का नाम प्राण है। प्राण को ही जीवनीशक्ति कहते हैं। वह वायु में, आकाश में घुला तो रहता है, पर इनसे भिन्न है। जिसे जड़ प्रकृति प्रकृति कहते हैं, वस्तुतः वह भी जड़ नहीं है। पूर्ण निष्प्राण वस्तु पूर्णतः निरुपयोगी ही नहीं होती, वरन् नष्ट भी हो जाती है। प्राण के अभाव में कोई वस्तु अपना स्वरूप धारण किये नहीं रह सकती। उसके गुण भी प्राणहीन स्थिति में स्थिर नहीं करते।

प्राण को एक प्रकार की सजीव विद्युत शक्ति कह सकते हैं, जो समस्त संसार में वायु, आकाश, सर्दी, गर्मी की तरह समायी हुई है। यह तत्व जिस प्राणी में जितना अधिक होता है, वह उतना ही स्फूर्तिवान, तेजस्वी, साहसी, एवं सुदृढ़ दिखाई देता है। शरीर में व्याप्त इसी तत्व को जीवनीशक्ति एवं ‘ओज’ कहते हैं और मन में व्यक्त होने पर भी, नख–शिख का ढाँचा सुन्दर दिखने पर भी मनुष्य निस्तेज, मुरझाया हुआ और लुँज-पुँज प्रतीत होता है। भीतरी तेजस्विता के अभाव में चमड़ी की सुन्दरता निर्जीव जैसी लगती है। मन को लुभाने वाले सौंदर्य में जो तेजस्विता एवं मृदुलता बिखरी होती है, वह और कुछ नहीं, प्राण का ही उभार है। वृक्ष-वनस्पतियों, पुष्पों से लेकर शिशु और शावकों, किशोर-किशोरियों में जो कुछ आह्लादपूर्ण दीख पड़ता है, वह सब प्राण का ही प्रताप है। यह शक्ति कहीं चेहरे सौंदर्य में, कहीं वाणी की मृदुलता में, कहीं प्रतिभा में, कहीं बुद्धिमत्ता में नहीं कला-कौशलता में, कहीं भक्ति में कहीं अन्य किसी रूप में देखी जाती है।

दुर्गा-काली के रूप में अध्यात्म जगत में इसी तत्व को पूजा जाता है। शक्ति यही है। दुर्गा सप्तशती में “या देवी सर्वभूतेषु शक्ति रूपेण संस्थिताः” आदि श्लोकों में अनेक रूप से उसी तत्व के लिए “नमस्तस्यै, नमस्तस्यै, नमस्तस्यै नमोनमः” कह कर अभिवन्दन किया गया है। विजयदशमी की शक्ति पूजा के रूप में हम इस प्राणतत्व का ही आह्वान और अभिनन्दन करते हैं। विश्व सृष्टि में समाया हुआ यह प्राण जब दुर्बल पड़ जाता है, तो हीनता का युग आ जाता है, जीव-जन्तु दुर्बलकाय, अल्पजीवी, मन्दबुद्धि और हीन भावनाओं वाले हो जाते हैं, किन्तु जब इसकी प्रौढ़ता और वृद्धता पर निर्भर है। जब सृष्टि में यह प्राण शनैः-शनैः मरण की परि समाप्ति की स्थिति में पहुँचता है, तो प्रलय की घड़ी प्रस्तुत हो जाती है। परमाणुओं को एक दूसरे के साथ सम्बद्ध रखने वाला चुम्बकत्व प्राण ही नहीं रहा, तो वे सब बिखर कर धूल की तरह छितरा जाते हैं। जितने स्वरूप बने हुए थे, वे सब नष्ट हो जाते हैं। जितने स्वरूप बने हुए थे, वे सब नष्ट हो जाते हैं। इसी का नाम प्रलय है। जब दीर्घकाल के पश्चात् यह प्राण चिरनिद्रा में से जागकर नवजीवन ग्रहण करता है, तो सृष्टि उत्पादन की प्रक्रिया पुनः आरंभ हो जाती है। जीवात्माओं को इस परा और अपरा प्रकृति का आवरण धारण करके कोई स्वरूप ग्रहण करने का अवसर मिलता है और वे पुनः जीव-जन्तुओं के रूप में चलते-फिरते दृष्टिगोचर होने लगते हैं।

यह प्राणतत्व किन्हीं प्राणियों को पूर्व संगृहीत संस्कार एवं पुण्यों के कारण जन्मजात रूप से अधिक मात्रा में उपलब्ध होता है। इसे उनका सौभाग्य ही करना चाहिए, पर जिन्हें वह न्यून मात्रा में प्राप्त है, उन्हें निराश होने की कुछ भी आवश्यकता नहीं है। प्रयत्नपूर्वक इस तत्व को कोई भी अभीष्ट आकाँक्षा के अनुरूप अपने अन्दर धारण कर सकता है। जिसमें कम है, वह उसकी पूर्ति इस विश्वव्यापी प्राण में से बिना किसी रोक-टोक के चाहे जितनी मात्रा में लेकर धारण कर सकता है। जिनमें इसकी पर्याप्त मात्रा है, वह और भी अधिक परिमाण में ग्रहण करके अपनी तेजस्विता और प्रतिभा में अभीष्ट अभिवृद्धि कर सकते हैं।

भारतीय योगियों ने इस संबंध में अद्भुत प्रयोग किये हैं। योग विज्ञान के सारे चमत्कार इसी प्राणतत्व के क्रिया−कलाप हैं। यह सृष्टि परा और अपरा प्रकृति के दो भागों में विभक्त है। एक को जड़ दूसरे को चेतन कहते हैं। जड़ के सूक्ष्म अंश, जिसके संयोग से स्थूल अवयवों का निर्माण होता है परमाणु कहते हैं, जबकि चेतन को, जिससे सूक्ष्म शरीर बनता है, प्राण कहा गया है। शरीर में यह प्राण ही सूक्ष्म शरीर के रूप में विद्यमान रहता है। इसी से उसमें गति और सक्रियता उत्पन्न होती है, जिससे प्राणि जगत हलचल करता हुआ दिखाई देता है। उसके अभाव में इस बौद्धिक चेतना के दर्शन नहीं हो सकते हैं। प्राण की प्रशस्ति में शास्त्रकारों ने तरह-तरह की व्याख्याएँ प्रस्तुत की हैं-

प्राणोस्मिप्रात्या। (शाँखायन)

मैं ही प्राणरूप प्रज्ञा हूँ।

दशये पुरुषे प्राणा आत्मैकादश। (वृहदारण्यक)

मनुष्य में रहने वाली दस इन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ मन-यह सब प्राण हैं।

न वायु प्राणो नामि करण व्यापरः। (ब्रह्मसूत्र 2−4−9)

यह प्राण, वायु नहीं है और न वह इन्द्रियों का व्यापार ही है।

प्राणाय नमोयस्य सर्वमिदं वशे।

उस प्राण को नमस्कार, जिसके वश में यह सब कुछ है।

जड़ जगत में शक्ति तरंगों के रूप में, संव्याप्त सक्रियता के रूप में प्राण शक्ति का परिचय दिया जा सकता है। चेतन जगत में उसे विचारणा एवं संवेदना कहा जा सकता है। इच्छा, ज्ञान और क्रिया के रूप में यह जीवधारियों में काम करती है। जीवनी शक्ति यही है। इसकी जितनी मात्रा जिसे मिल जाती है। चेतना की विभु सत्ता समस्त विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त है। चेतना प्राण कहलाती है। उसी का अमुक अंश प्रयत्नपूर्वक अपने में धारण करने वाला प्राणी महाप्राण बनता है। यह प्राण जड़ पदार्थों में सक्रियता और चेतन प्राणियों में सजगता के रूप में दृष्टिगोचर होता है। जड़ चेतन जगत की सर्वोपरि शक्ति होने के कारण उसे ज्येष्ठ एवं श्रेष्ठ कहा गया है।

वैदिक विवेचना में प्राण के साथ ‘वायु’ का विशेषण भी लगा है। उसे कितने ही स्थानों पर प्राणवायु कहा गया है। इसका तात्पर्य आक्सीजन नाइट्रोजन आदि वायु विकारों से नहीं, वरन् उसे प्रवाह से है, जिसकी गतिशील विद्युत तरंगों के रूप में भौतिक विज्ञानी चर्चा करते रहते हैं। अणु विकिरण, ताप, ध्वनि आदि की शक्ति धाराओं के मूल में संव्याप्त सत्ता भी उसे कहा जा सकता है। यदि उसके अध्यात्म स्वरूप का विवेचन किया जाय तो अँग्रेजी के लेटेण्ट लाइट डिवायन लाइट आदि शब्दों से संगति बैठती है जिसमें उसके दिव्य प्रकाश के समतुल्य होने का संकेत मिलता है।

स्वामी विवेकानन्द ने प्राण की विवेचना साइकिक फोर्स के रूप में की है। इसका मोटा अर्थ। मानसिक शक्ति हुआ। मोटे रूप से तो यह कोई मस्तिष्कीय हलचल हुई, पर प्राण तो विश्वव्यापी है। यदि समष्टि को मन की शक्ति कहें या सर्वव्यापी चेतना शक्ति का नाम दें, तो ही यह अर्थ ठीक बैठ सकता है। व्यक्तिगत मस्तिष्कों की प्रथम मानसिक शक्ति की क्षमता प्राण के रूप में नहीं हो सकती। संभवतः उनका संकेत समष्टि मन की सर्वव्यापी क्षमता की ओर ही रहा होगा।

मानसिक एवं शारीरिक क्षमताओं के रूप में प्राणशक्ति के प्रकट होने का प्रखर होने का परिचय प्राप्त किया जा सकता है, पर वह मूलतः इन सब ज्ञात विवरणों से कहीं अधिक सूक्ष्म व सशक्त है। हम इस सूक्ष्मशक्ति को अधिकाधिक परिमाण में अवधारण कर उसी के अनुरूप सबल व सशक्त बनें तभी सही अर्थों में प्राण को धारण करने वाला ‘प्राणी’ और ‘प्राणवान’ कहला सकते हैं।

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