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Magazine - Year 1993 - Version 2

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Language: HINDI
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क्रोध तो कृत्रिम है, मनुष्य स्वभावतः शान्त है

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First 18 20 Last
यों तो ‘गुस्सा’ आज के मनुष्य को बात-बात में आते देखा जाता है और वह उसकी दिनचर्या का एक अंग बन चुका है, किन्तु मनोविज्ञान और शरीर विज्ञान की दृष्टि से विचार किया जाय, तो निष्कर्ष यही सामने आता है कि यह उसका स्वभाव नहीं है, पर सभ्यता के विकासक्रम में किन्हीं कारणों से उसमें सम्मिलित हो गया है।

फिर वे कारण क्या है, जिनने कभी के सर्वथा शान्त प्राणी को इतना क्रोधी बना दिया है? मनोविज्ञान इसका उत्तर यह कहकर देता है कि यह उसके सीखने-सिखाने की अद्भुत विशेषता ही है, जो इसके लिए जिम्मेदार है। उसके अनुसार पिछली कुछ पीढ़ियों से यह दुर्गुण उसे विरासत में मिला और आज वही अभिन्न आदत के रूप में चला आ रहा है। पावलोव के कुत्ते वाले उदाहरण के माध्यम से इसे भलीभाँति समझा जा सकता है। उल्लेखनीय है कि इवान पावलोव एक सोवियत वैज्ञानिक थे और वे यह सिद्ध करना चाहते थे कि सीखने-सिखाने की प्रक्रिया द्वारा प्राणी कमी किसी भी प्रवृत्ति को नियंत्रित, परिवर्तित अथवा आदत में सम्मिलित किया जा सकता है। इस हेतु उन्होंने कुत्ते पर एक प्रयोग किया। उसे जब भी खाना देना होता, वे पहले घंटी बजाते, फिर भोजन देते। यह प्रक्रिया अनेक दिनों तक चलती रहीं। घंटी बजती। कुत्ता उपस्थित होता और भोजन पाकर चला जाता। इतने दिनों में उसके मस्तिष्क में यह बैठ चुका था कि घण्टी बजने का अर्थ भोजन दिया जाना है। अतएव दूसरे अवसरों पर वह भोजन देखता भी, तो उस ओर से निरपेक्ष ही बना रहता, क्योंकि वह जानता था कि वह उसके लिए नहीं है। दूसरा जो महत्वपूर्ण परिवर्तन पावलोव ने देखा, वह था कुत्ते के मुँह में पानी आना। पहले यह पानी भोजन को देखने मात्र से उसके मुँह में भर आता था, पर अब उसके स्वभाव में बदलाव आ चुका था। अब घण्टी सुनने के पश्चात् उसके मुँह में पानी आता।

इस प्रयोग के द्वारा पावलोव यह दर्शाना चाहते थे कि कोई भी आदत प्राणी तब तक आत्मसात् नहीं कर सकता, जब तक वह इस प्रकार की किसी प्रक्रिया से होकर न गुजरा हो, सामान्य जीव-जन्तुओं से लेकर अतिविकसित मनुष्य तक में वह सिद्धान्त समान रूप से लागू होता है। इनकी अधिकाँश क्रियाएँ ऐसी होती हैं, जिनमें उन्हें प्रशिक्षण की आवश्यकता होती है। शेष तो वे अपनी अन्तःप्रेरणा के कारण स्वतः ही सीख लेते हैं, किन्तु ऐसी क्रियाएँ कम ही होती हैं। शेर-शावकों की स्थिति बकरी के बच्चों जैसे ही होते है। यह तो उनके माता-पिता होते हैं, जो शिकार का नियमित प्रशिक्षण देकर उन्हें अपने मूल स्वरूप में आक्रामक पशु के रूप में ढाल लेते हैं, अन्यथा अति आरंभ में यदि उन्हें अहिंसा पशुओं, बकरियों के झुण्ड में रख दिया जाय, तो वे उनके जैसे ही अहिंसक बनते देखे जाते हैं। भेड़िये के समुदाय में पलने वाले शेर की वह कथा प्रसिद्ध है, जिसमें वह भेड़िये जैसा ही व्यवहार करने लगा था। बाद में किसी सजातीय द्वारा आत्मबोध कराये जाने पर ही वह अपना वास्तविक स्वरूप जान सका और तदुपरान्त वैसा बन सका। बिल्ली, बन्दर से लेकर तमाम आक्रामक जीवों में लगभग ऐसी ही प्रक्रिया दिखाई पड़ती है। शावक अपने वरिष्ठों से शिक्षण-प्रक्रिया द्वारा ही अकर्मण्य-प्रत्याक्रमण के घात-प्रतिघात सीखते और तदनुरूप आदत की वंश-परम्परा बनाये रखते हैं।

मनुष्य भी इसका अपवाद नहीं। उसके चलने, बोलने से लेकर पढ़ने, सीखने और सुसभ्य बनने तक में यही विद्या काम आती है। देखा गया है कि शैशवावस्था में यदि अबोध बच्चे को मानवी समुदाय से पृथक कर दिया जाय, तो वह न सिर्फ अपने मानवोचित बाईपेडल लोकोमोशन (दो पैरों से चलने की विशेषता) को भूलकर चौपाये जैसा व्यवहार करने लगता है, वरन् अपने सुविकसित और सुसंस्कृत प्राणी के समस्त लक्षणों को भी भुला बैठता है। इस दशा में उसकी स्थिति किसी जंगली अहिंसक जीव से कोई बहुत अच्छी नहीं होती। रामू भेड़िये की वास्तविकता सर्वविदित है। ऐसे ही दो बालक पं. बंगाल के जंगलों में शिकारियों को कुछ वर्ष पूर्व मिले, जो भेड़िये के समूह में रहते थे। उनके हाव-भाव, चलने-फिरने का ढंग, आवाजें सब कुछ भेड़िए जैसे थे। शिकारियों ने उन्हें पकड़ कर सभ्य बनाने के, मानवी बोली सिखाने के बहुतेरे प्रयास किये, पर वे किसी प्रकार सफल न हो सके और अचानक अनभ्यस्त वातावरण में आ जाने एवं अभ्यस्त आदत से विपरीत आचरण किये जाने के लिए विवश होने के कारण वे जल्द ही दम तोड़ गये।

ऐसी स्थिति में यह कैसे कहा जाय कि मनुष्य स्वभाव से ही क्रोधी है गुस्सा करना उसकी मूल-प्रवृत्ति है। जो ऐसा मानते हैं, निश्चित रूप से वे मानवी-मन का विश्लेषण करने में यूक करते हैं। ऐसे लोग संभवतः इन दिनों दिखाई पड़ने वाली उसकी इस आदत को चारित्रिक विशिष्टता समझ बैठे हों और यह अनुमान लगाने की भूल करने लगे हों कि यही उसकी प्रकृति और प्रवृत्ति है। यदि यह उसकी मूल-प्रवृत्ति रही होती, तो सन्त और सज्जनों में, ऋषियों-महर्षियों में इसकी अनुपस्थिति की व्याख्या किस प्रकार कर सकना संभव होता? जबकि चोर-उचक्कों में, अनाचारी अत्याचारियों में यह उसका नैसर्गिक गुण भासता प्रतीत होता है। इस अंतर्विरोध की स्थिति में सम्पूर्ण मनोविज्ञान का ढाँचा ही लड़खड़ा गया हाता और मनोवैज्ञानिकों के लिए यह उत्तर दे पाना कठिन हो गया होता कि जो मूल-प्रवृत्ति है, उसका समाज के सन्त सरीखे पुरुषों में अचानक अभाव कैसे हो गया? क्योंकि मूल-प्रवृत्ति तो प्राणी की प्रकृति का अविच्छिन्न अंग होती है। फिर, कहीं अभाव, कहीं स्वभाव-इसकी विवेचना किस भाँति हो पाती? स्थिति तब और जटिल बन जाती, जब प्रताड़ित होने वाले सज्जनों के उदाहरणों में प्रताड़ना का प्रतिकार वे मुसकान बिखेर कर करते देखे जाते, जैसा कि यदा-कदा, यत्र-तत्र इन दिनों भी देखे जाते हैं, विरोधाभास की इस दशा में यह मानकर चलना ही बुद्धिमानी है कि मनुष्य एक कोरे कागज की तरह है। उसका मान सर्वथा निर्विकार है। उसमें सही-गलत, अच्छा बुरा चाहे जो भी अंकित कर दिया जाय, वही उसकी आदत बन जाता है। इस तर्क संगत आधार से उसके आज की अवस्था की सही-सही समीक्षा कर जाना भी सरल हो जाता है कि मनुष्य के इन दिनों की बुराइयाँ उसके बीते कल की कठिनाइयों की परिणति हैं। इस आधार पर इसकी व्याख्या भी आसान हो जाती है कि जब मानव स्वभावतः ऐसा नहीं है, तो वह आज जैसा क्रोधी और क्रूर किस कदर बन गया? स्पष्टतः इसका उत्तर यह कहकर दिया जा सकता है कि विकास-यात्रा के दौरान उसे जिन प्रतिकूलताओं का सामना करना पड़ा, उसकी प्रकृति का अंग बन गया। पीढ़ी दर पीढ़ी यही स्वभाव चलते हुए मनुष्य विकास के वर्तमान पड़ाव तक आ पहुँचा।

इसी प्रकार शरीर शास्त्र भी मनुष्य को शान्त प्राणी सिद्ध करता है। आस्ट्रियाई जीवविज्ञानी डॉ. ज्विग ने इसके लिए एक प्रयोग किया। उन्होंने बिल्ली के मस्तिष्क में हाइपोथैलमस वाले हिस्से को बिजली का झटका दिया। प्रतिक्रिया तुरंत सामने आयी। बिल्ली क्रोध में आकर गुर्राने और आक्रामक भाव-भंगिमा बनाने लगी, जैसे किसी ने उसके साथ छेड़खानी की हो। झटका समाप्त होते ही, वह पुनः सामान्य हो गई। इसका कारण बताते हुए वैज्ञानिक कहते हैं कि प्राइमेट (स्तन पायी जन्तु का वर्ग विशेष) में जन्तुओं का व्यवहार हाइपोथेलेमस के स्थान पर सेरेब्रल कोर्टेक्स द्वारा नियंत्रित होता है। इनमें कोई भी निर्णय मस्तिष्क के इसी हिस्से द्वारा लिया जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इतना सब होने के बावजूद भी सेरेब्रल कोर्टेक्स किसी बाह्य कारक की उपस्थिति मात्र से ही कोई निर्णय नहीं ले लेता, वरन् वह उस समय की परिस्थिति एवं मस्तिष्क के इसी हिस्से द्वारा लिया जाता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इतना सब होने के बावजूद भी सेरेब्रल कोर्टक्स किसी बाह्य कारक की उपस्थिति मात्र से ही कोई निर्णय नहीं ले लेता, वरन् वह उस समय की परिस्थिति एवं मस्तिष्क में अंकित विगत के अनुभवों का पूरा-पूरा अध्ययन-विश्लेषण करने के अनुसार यह प्राइमेटों की विशिष्ट मस्तिष्कीय संरचना ही है, जो उन्हें काफी सावधानी से कोई भी प्रतिक्रिया व्यक्त करने की छूट देती है।

मनोविज्ञान और शरीर विज्ञान के तर्क और तथ्य अपने-अपने स्थान पर सही है एवं अब लगभग यह सिद्ध हो चुका है कि मनुष्य नैसर्गिक रूप से क्रोधी नहीं है, पर नृतत्त्ववेत्ताओं और समाजशास्त्रियों की चिंता इस संदर्भ में अलग प्रकार की है। वे कहते हैं कि मनुष्य क्रोधी है अथवा शान्त, स्वभावतः आक्रामक है या अनाक्रामक-अब यह निर्णय करने का समय नहीं रहा। अब तो इस दिशा में सोच यह उभरनी चाहिए कि उसकी इन दिनों की विनाशक प्रवृत्ति पर काबू किस प्रकार पाया जाय? उसे एक विकसित, बुद्धिमान, विवेकशील प्राणी के अनुरूप विनिर्मित कैसे किया जाय? समाधान अध्यात्म विज्ञान प्रस्तुत करता है। वह कहता है कि अध्यात्म उपचारों द्वारा आज के चिड़चिड़े, तनावग्रस्त, तुनकमिजाजी व्यक्ति के मानस को बदला जा सकना संभव है। आज की सबसे बड़ी व्याधि “स्ट्रेटस” तनाव पैदा ही गुस्से से हुई है और उसकी चिकित्सा एक ही है-ध्यान। यदि व्यक्ति की चेतना को अन्तर्मुखी बना उसे प्रशिक्षित कर लिया जाय तो जनसमुदाय में छायी गुस्से की, आक्रोश की महामारी से जूझा जा सकता है।

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