
ज्ञान का अनुपान संवेदना
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धर्म प्रचार के लिए समर्थ रामदास ने अपने प्रिय शिष्य कल्याण को भेजते हुए आशीर्वाद देकर कहा−” वत्स! संसार बड़ा दुःखी है, लोग अज्ञानवश कुरीतियों में जकड़े पड़े हैं, जाओ उन्हें जाग्रति का सन्देश दो। इससे बढ़कर और कोई पुण्य नहीं कि तुम उन्हें आत्म कल्याण का मार्ग दिखाओ”।
कल्याण ने समर्थ गुरु की चरण−रज मस्तक से लगाई और वहाँ से विदा हो लिए। दिन छिपने में अभी देर थी। कल्याण महाराष्ट्र के एक छोटे गाँव पहुँचे। उसमें अनेक लोग कृशकाय बीमार पड़े थे। बच्चों के शरीर सूखे थे। लगता था, इनको न भर पेट अन्न मिलता है और न बीमारियाँ से लड़ने को औषधियाँ। शिक्षा की दृष्टि से उनमें कोई चेतना दिखाई नहीं दे रही थी। सब म्लान, मलीन और क्लाँत दिखाई दे रहे थे।
कल्याण को अपनी सेवा का स्थान मिल गया। एक झोपड़ी के सहारे अपना समान टिकाकर वह विश्राम की मुद्रा में बैठ गए और सारे गाँव में समाचार फैल दिया−”समर्थ स्वामी रामदास के शिष्य कल्याण तुम लोगों के दुःख दूर करने आए हैं, मुक्ति का मार्ग बताने पधारे है।”
बिच्छू का विष जिस तेज गति से फैलकर चुभन, तड़पन, बेचैनी की अनुभूति कराता है, उसी तेजी से यह बात सारे गाँव में फैल गई। ग्रामीणों के हर्ष का ठिकाना न रहा−चलो अब हमारे दुःख दूर हुए। किसी को तो भेजा विधाता ने हमारा त्राणदाता बनाकर। सबने कल्याण के विश्राम के लिए सुन्दर स्थान की व्यवस्था कर दी। रात बड़ी शाँति और प्रसन्नता में बीती।
प्रातःकाल कल्याण जब तक ध्यान, पूजन समाप्त करें,
तब तक द्वार ग्रामवासियों की भीड़ से भर गया। कल्याण बाहर निकले। अशिक्षा, रूढ़िग्रस्तता और दरिद्र से ग्रसित चेहरे देखते ही उनके मन में घृणा फैल गई पर उन्होंने उसकी कोई प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं कीँ आखिर धर्मचर्चा करने आए थे। इतनी सहिष्णुता भी न होती तो समर्थ उन्हें इस कार्य के लिए कैसे भेजे देते?
सबको सामने बैठाकर कल्याण ने प्रवचन प्रारम्भ किया। कभी ब्रह्म सूत्रों की तात्त्विक व्याख्या सुनाते, तो गीता के सुललित श्लोक उनके मुख के झरने लगते। पांडित्य और विद्वता उनके मुख से झरने लगी। पर आश्चर्य −भीड़ के चेहरे पर उदासी और गहरी हो गई, दुःख सघन हो गया, वेदना तीव्र हो उठी, आकुलता बढ़ने लगी। लगा−उन सब पर अनेकों प्रहार हो रहे हैं−और वे सब सहने में असमर्थ हैं। बेचारगी, असहायपन का भाव लिए, एक−एक कर उठने लगे। मैदान खाली हो गया।
अब कल्याण के निराश होने की बारी थी। इतना पांडित्य, इतनी प्रतिभा, इतना कौशल, जिसके सामने काशी के पंडितों को अनेकों बार मुंह की खानी पड़ी। न जाने कितने दिग्विजयी शास्त्रज्ञ उनके सामने नतमस्तक हुए। पर आज−−−−−−−−।
वे हताश हो समर्थ के पास लौट आए−बोले “निष्फल भगवान्! हमारा उपदेश कुछ कामा भी न सुनी।” समर्थ हँस पड़े−बोले−”वे अनपढ़ हैं और तुम कुपढ़ हो कल्याण।” कल्याण आश्चर्य से गुरु का चेहरा निहार रहे थे। समर्थ कह रहे थे−”तुम उनकी विवशता, उनकी भावना को नहीं पढ़ सके−तब तुमको और क्या कहें।” देखो तुम उस ग्राम में जाओ -औषधि और शिक्षा का प्रबन्ध करो।”
समर्थ का आज्ञा शिरोधार्य कर दोनों चल पड़े। तब कल्याण ने पूछा। “आपने तत्त्वज्ञान की बात ही नहीं की।” समर्थ कुछ देर चुप रहे, अन्तःकरण की करुणा विगलित हो वाणी से फूट पड़ी −”औषधि बिना अनुपान के लाभदायक नहीं होती। ज्ञान का अनुपान संवेदना है। समाज के हृदय को स्पर्श किए बगैर उसकी प्राथमिक जरूरतों को पूरा किए बिना तत्त्वज्ञान की चर्चा संभव नहीं। आज की आवश्यकतानुसार −मुरझाए जीवन को संवेदना से सींचना है। अभी जीवन के प्रति आशा जगानी होगी, साहस पौरुष को प्रकट करना होगा। यही युग धर्म है।”
कल्याण को अब यथार्थता का बोध हुआ। अब वे पांडित्य का मोह त्याग कर समाज में नव प्राणों का संचार करने लगे।