
महत्संग की साधना
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“मेरी साधना विफल हुई।”गुर्जर राजकुमार ने एक लम्बी श्वास ली। वे अपने विश्राम कक्ष में एक चन्दन की चौकी पर धवलवस्त्र डाले विराजमान थे। ग्रन्थ पाठ समाप्त हो गया और जप भी पूर्ण कर लिया था उन्होंने। ध्यान की चेष्टा व्यर्थ रही और वे पूजा स्थान से उठ आए।
राजकुमार ने स्वर्णाभरण तो बहुत दिन हुए छोड़ रखे थे। शयनगृह से हाथी दाँत के पलंग एवं कोमल बिछौने कब के दूर हो चुके हैं। उनकी भ्रमर कृष्ण घुंघराली अलकें सुगन्धित तेल का स्पर्श न पाकर इधर-उधर उउ़ करती हैं। रेशमी कपड़ों की जगह-सफेद रंग का हल्का मलमल ही उनकी धोती एवं उत्तरीय बनता है।
चिन्ता ने उस भव्य भाल पर हलकी लकीरें डाल दी थीं। अरुणिमा लिए गौरवर्ण के मुख पर किंचित मलिनता आ गई थी। पतला शरीर और भी क्षीण हो गया था। उनकी बड़ी-बड़ी आंखों में जल-कण झलमलाने लगे थे।
सुबह का दुग्धपान छूट चुका था दोपहर में थोड़ा शाक और कुछ फल मात्र। रात्रि को तो कुछ लेते ही न थे। गान-वाद्य में पहले ही रुचि न थी और सखा-सहचरों में अब रहना अच्छा नहीं लगता था। राजोद्यान का मालती कुँज, सरोवर तट तथा अपना विश्राम कक्ष। सदा उदासीनता टपका करती थी। एकाकी दिन और एकाकी रात्रि।
सेवक-सेविकाएँ समीप आते सहमती थीं। एकान्त उदासीन, मुद्रा देखकर जो समझाने या हँसाने जाता, वह स्वयं आँसू बहाता और खिन्न मन लौट आता। उस उदासीनता में व्यापक शक्ति थी, क्योंकि सच्चाई थी उसमें। बढ़ती जाती थी वह उत्तरोत्तर और विस्मृत होते जा रहे थे उनके भोजनादि कर्म।
महाराज का अपने एकमात्र पुत्र पर अपार स्नेह था। इसी स्नेह के कारण महारानी का स्वर्गवास होने पर भी उन्होंने दूसरा विवाह नहीं किया। आजकल उनका हृदय चिंता से सूखता जा रहा था। युवराज की उदासीनता, शोकाकुल मुद्रा उन्हें मर्म व्यथा देती थी।
“मैं नहीं चाहता कि वह राज्योपभोग ही करे।”
महाराज ने राजकुमार की आध्यात्मिक अभिरुचि में कोई भी बाधा नहीं डाली। उनके साधन के संबंध में कभी प्रश्न नहीं किया। यहाँ तक कि राजकुमार ने भोग-सामग्रियों का त्याग कर राजसदन को ही वन बना लिया, तब भी महाराज शान्त रहे, “वह वीतराग हो तो मुझे आपत्ति नहीं। मेरा सौभाग्य होगा, यदि वह परम सिद्धि के मार्ग में आगे बढ़े। कुछ भी हो, वह प्रसन्न रहे। उसका क्लेश मैं नहीं देख सकता।”
आज व्यथा सीमा पर पहुँच गयी थी। युवराज के प्रधान परिचारक ने समाचार दिया था कि राजकुमार की आँखें सूज गई है। ऐसा लगता है कि वे रातभर जागते रहे और रोते रहे हैं। महाराज तिलमिला उठे। उन्होंने एकान्त में परम धार्मिक मंत्री को बुला लिया। “चाहे जैसे भी हो, राजकुमार की चिन्ता का कारण ज्ञात करना होगा।” महाराज ने भरे कण्ठ से कहा-”मुझे तुम्हीं जीवनदान दे सकते हो। कुछ भी करो, किन्तु उसे प्रसन्न करो।” स्वर में आज्ञा नहीं, अनुनय था।
“महाराज आकुल न हो।” मस्तक झुकाकर बूढ़े मंत्री ने प्रार्थना की-”मेरी जितनी बुद्धि या शक्ति है, कोशिश करूंगा। आप विश्वास रखें यह सेवक अपने प्रयत्न में भगवान की कृपा से असफल नहीं हुआ है।”
“मैं समझता था कि वासनाओं पर विजय प्राप्त कर ली है।” महामात्य को राजकुमार ने अभिवंदन के अनन्तर आसन दे दिया था और वे बैठ गए थे। जितने स्नेह-स्निग्ध स्वर में पूछा था, उसकी उपेक्षा सम्भव नहीं थी। राजकुमार खुल पड़े थे-”मेरी धारणा व्यर्थ सिद्ध हुई। देखता हूँ कि मेरा तो और भी पतन ही हुआ है।” दोनों आँखों से अश्रुधारा चलने लगी।
“आश्वस्त हो युवराज!” महामात्य ने अपने उत्तरीय से राजकुमार की आँखें पोछीं। वृद्ध आमात्य का युवराज से पुत्र की भाँति स्नेह था और वे भी उनका आदर महाराज की ही भाँति करते थे।” मैं अन्तःसंघर्ष में न तो कभी पड़ा हूँ और न मेरा ज्ञान ही कुछ है। इतने पर भी सम्भव है कि मैं आपकी कुछ सहायता कर सकूँ। आप अपनी स्थिति स्पष्ट करें तो कृपा होगी।”
“युवराज ने बताया कि किस प्रकार साधना के आरंभ काल में वासनाएँ विलीन हो गई थीं। मन एकाग्र हो जाता था अब यह स्थिति है मन एक क्षण को भी टिकता नहीं लक्ष्य पर। जिन वासनाओं को वह अत्यन्त हेय समझते रहे है, वे भी अब विक्षिप्त किए रहती हैं। पाठ और जप के समय भी मन विषयों-वासनाओं की उधेड़-बुन में लगा रहता है। पता नहीं कहाँ थे, भोग लिप्साएँ एवं भौतिक महत्वाकांक्षाएं उभर-उभर कर आ जाती हैं।
“बस?” मुस्कुराए महामात्य-”अभी आप बालक है।” अरे इतना तो मैं भी बता सकता हूँ कि शत्रु प्रथम आक्रमण में मस्तक झुका लेते हैं, किन्तु यदि आक्रमण प्रचण्ड हो और देख लें कि उनके मूलोच्छेदन की कोशिश हो रही है तो उद्धत हो जाते हैं।उनका वेग प्रबलता की सीमा पर पहुँच जाता हैं।”
“तब क्या मैं असफल ही रहूँगा?’ महामात्य के हास्य ने तनिक आश्वासन दिया था। एकटक उनके मुख की ओर भरे दृगों से राजकुमार देख रहे थे। बोले रोग का निदान ठीक कर लिया गया तो निदान ठीक होने पर चिकित्सा में कठिनाई नहीं हुआ करती। धैर्यपूर्वक प्रचण्ड आक्रमण एवं शत्रु के एक-एक अंग का उच्छेदन-दुर्बल अंगों पर प्रथम प्रहार। यदि यह नीति काम में ली जाय तो विजय सुनिश्चित है।”
आमात्य की बातों से युवराज का मन कुछ हलका हुआ। आमात्य ने उन्हें स्नेह के साथ वन भ्रमण के लिए तैयार किया। दोनों कुछ सैनिक अश्वारोहियों के साथ वन मार्ग की ओर चल पड़े। सघन वन प्रान्त में पहुँचते ही उनकी नासिका मधुर सुरभि से भर गई। मन्द-शीतल वायु से मिलकर बह रही सुरभि ने उन्हें चौंका दिया। सबने लम्बी सांसें-खींचकर उस पवित्र गन्ध को भली प्रकार ग्रहण करने का बार-बार प्रयास किया।
सुगन्धित जितनी व्यापक थी, उसे देखते हुए उसका उद्गम कहीं समीप होना चाहिए था। पवन मार्ग का अनुसरण करने से सौरभ में अभिवृद्धि हो रही थी। सहसा सौरभ प्रान्त संकुचित होने लगा। सुगन्धित की तीव्रता एक निश्चित केन्द्र को सूचित करने लगी। पूरे एक योजन चले होगे वे। अश्वारोही सैनिक और वनवासी भील अचकचा कर खड़े हो गये। उन्होंने झुरमुट की ओर राजकुमार को देखने का संकेत किया।
एक सूब सघन तमाल का वृक्ष था। नीचे पारसीक कालीन की भाँति कोमल हरित दूर्वादल फैला था। एक हाथ की कुहनी पृथ्वी पर टेककर उसी की हथेली पर मस्तक रखे कोई महापुरुष लेटे थे। पूरा लम्बा शरीर मांसलकाय, विशाल भुजाएँ-क्षीण कटि तथा विस्तृत वक्ष। उनकी हथेलियाँ तथा फैले हुए पैरों के तलवों की लालिमा एवं कोमलता किसी सद्योजात शिशु का स्मरण कराती थीं।
प्रकाश का एक मंडल बन गया था चारों ओर। यह उनकी अंग कान्ति का प्रकाश था। घुंघराली काली रूखी अलकें धूलि से भर गई थीं और मुख मण्डल के चारों ओर बिखर रही थीं। सम्पूर्ण दिगम्बर थे वे और शरीर धूल छाई थी। मन्द-मन्द मुसकान प्राणों में वह मादकता फैला रही थी, जिससे युवराज-वृद्ध आमात्य और अपने सभी साथियों के साथ मंत्र मुग्ध हो रहे थे। जिस सुगंध का अन्वेषण करते वे यहाँ तक पहुँचे थे, वह उनके शरीर से निकल रही थी।
आश्चर्य से सभी ने पृथ्वी पर उण्डवत की अश्व से उतर कर। पर उन्होंने जैसे न कुछ देखा और न कुछ सुना। राजकुमार अपने अन्तर में विस्मयकारी परिवर्तन अनुभव कर रहे थे। थोड़ी देर यक सभी वापस चल पड़े।
रास्ते में युवराज ने वृद्ध मंत्री को ओर प्रश्नभरी निगाह से देखा। आशय समझते हुए मंत्री बोल पड़े-”हमारा सौभाग्य है कि वीतराग होकर अवधूत वेश में भारत सम्राट भगवान ऋषभदेव अपने श्री चरणों से हमारी वनभूमि को आजकल पावन कर रहे हैं।”
“भगवान ऋषभदेव? राजकुमार और भी चौके “एक सम्राट में यह शक्ति इतनी शान्ति इतना व्यापक प्रभाव?’’
“सम्राट तो अब उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत हैं। थे तो अब-साधन-साध्य और सिद्धि के जीवन्त रूप हैं।”
“मैंने अनुभव किया-उनके पास उपस्थिति होते ही वासनाएँ स्वतः विलीन हो गई। हृदय स्निग्ध प्रकाश और शान्ति से भर गया। मन चंचलता भूल गया। पर मेरा दुर्भाग्य” एक दीर्घ श्वास ली युवराज ने। उनके स्वर में असमंजस उभर आया-”यदि उनके पास अधिक जाऊँ तो न पाठ हो सकेगा न जप। समस्त दैनिक कृत्य अव्यवस्थित हो जाएँगे।”
“यह पाठ और जप, नियम और संयम धारण और ध्यान आखिर किसलिए?” स्नेह स्निग्ध कण्ठ था अमात्य का-”ये सब मनोनिग्रह के लिए स्वयं को सुसंस्कारित बनाने के लिए ही तो हैं। इन सबके द्वारा प्रयत्नपूर्वक दीर्घकाल में भी जो नहीं होता, उसे महापुरुषों संग कुछ ही क्षणों में ही सम्पूर्ण कर देता है। इन महापुरुषों के अस्तित्व और सत्संग से संस्कार झरते और साधना उफनती है। संस्कृति की गरिमा इन्हीं में प्रतिष्ठित है। अतः आपको इस प्रपंच से परित्राण पाना चाहिए। दृढ़ होना चाहिए। उसी (महत्संग) की साधना कीजिए।” राजकुमार को जीवन की नयी दिशा मिल चुकी थी।