
विचार-क्रान्ति का तत्व दर्शन
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क्रान्ति की निरन्तरता ही धर्म है। हमें अपने विकास के लिए-इस जीवन के माध्यम से ही-अपने धार्मिक होने का प्रमाण देना होगा। सामाजिक आदर्शवादी लोग, आदर्श और वास्तविकता के बीच दा व्यवस्थाओं के संघर्ष में विश्वास रखते हैं- जो सारे धर्मों का सार है। आवश्यक परिवर्तन और संघर्ष का यह क्रान्तिकारी क्रम चलता ही रहता है। बुद्ध ने संसार के दुःख और कष्टों को देखकर उन्हें संसार से समाप्त करने का प्रयत्न किया। उनने उसकी उपेक्षा या व्याख्या भर नहीं कर दी, बल्कि एक पक्के क्रांतिकारी की तरह उन पर विजय प्राप्त करने का प्रयत्न किया। ईसा ने अनुभव किया कि स्वर्ग का साम्राज्य इस संसार के मुकाबले पर डटा है। सेण्टपॉल की दृष्टि में इस संसार की शक्तियाँ आत्मा की शक्तियों के मुकाबले में सन्नद्ध है। आंगस्टाइन की नजर में पार्थिव शक्ति परमात्मा के नगर के विरुद्ध युद्ध कर रही है। धर्म संसार की सत्ता आत्मशक्ति को ला बिठाने के लिए एक चुनौती है। यह सब तथ्य मनुष्य का इसलिए आह्वान करते है कि वह परीक्षण करे और अभियान का क्रम अपनाए।
स्वयं परमात्मा एक सर्वोच्च क्रांतिकारी है। वह स्पष्ट और पालनकर्ता के साथ एक विनाशकर्ता भी है। सृजन और विनाश दैवी शक्ति के परस्पर आश्रित गुण है। यदि एक नई और अपेक्षाकृत अच्छी व्यवस्था खड़ी होनी हो तो पुरानी व्यवस्था को तोड़ फेंकना होगा। हम न केवल आध्यात्मिक जगत में अपितु राजनीतिक, सामाजिक, औद्योगिक जगत में भी ऐसी रूढ़ियों से घिरे हैं, जो कभी जीवित थीं,परन्तु अब निर्जीव हो चुकी हैं। अब केवल शासकीय उपायों से काम नहीं चलेगा। इस समय आवश्यकता एक क्रान्तिकारी परिवर्तन की, आमूल-चुल उथल-पुथल की है। थोड़ी-सी भी फसल के लिए भूमि की जुताई करनी पड़ती है। वांछित उपलब्धि के लिए समाज की बौद्धिक, नैतिक और भौतिक अनेक जुताइयाँ आवश्यक है। इस प्रकार की जुताई के साधन, जिनके द्वारा प्रगति होती है, वही है जिन्हें विद्रोह, विप्लव या क्रान्ति कहा जाता है। इसके स्वरूप को समयानुसार बदला भले जाता रहे, पर विशाल परिवर्तन के लिए इनसे बचा नहीं जा सकता। बल्कि इसके इसके लिए एक संतुलित व्यवस्था का ताना-बाना अदृश्य शक्तियाँ बुन रही है।
सब सुधार उन आन्दोलनकारी, विद्रोही और क्रान्तिकारी लोगों द्वारा किए गए है, वे नए पाखण्डों के जगत के खिलाफ युद्ध करते रहे हैं। आन्दोलन शुरू करते हैं। नए धर्म विज्ञान का प्रतिपादन करते है। नए संविधानों की नींव डालते है। धर्म इस महत्वपूर्ण कार्य को अपनी महान सामर्थ्य के द्वारा सदा से करता आया है। ईसा ने पुरोहितों के पाखण्ड के विरुद्ध साम्राज्यवादी रोम की दूषित परम्पराओं के विरुद्ध और अपने समय की रूढ़िवादिता, भ्रष्टाचार के विरुद्ध विद्रोह किया।
वह सामाजिक आवेश जो इन महान नेताओं को बल और प्रेरणा देता है, धार्मिक उत्साह के विपरीत नहीं है। बल्कि इसे तो धार्मिकता का स्वाभाविक परिणाम कहना होगा। सही अर्थों में धार्मिक-चेतना अनीति, अनाचार, अन्याय सहन नहीं कर सकती। धार्मिक सन्त, पैगम्बर,महापुरुष जिनकी आत्माएँ अत्याचार, अन्याय देखते ही भड़क उठती हैं, वे लोग हैं, जिन्होंने मानवता के प्राण-तत्व पर सबसे गहरी छाप छोड़ी है।
केवल इसलिए कि हमारी रुचि सामाजिक है, यह निष्कर्ष नहीं निकलता कि हमें स्वयं को आध्यात्मिक क्षेत्र से अलग कर लेना चाहिए। आध्यात्मिक सजगता और सामाजिक दक्षता न केवल परस्पर संगत है, अपितु एक-दूसरे के पूरक भी। आध्यात्मिक पक्ष की उपेक्षा करना, सुचारु रूप से कार्य करने की अपनी क्षमता को सीमित कर लेना है। जब तक मानवता निष्कृष्ट, कठोर और अपरिष्कृत है, उसे पिघलाया और ढाला नहीं जा सकता। ईश्वर पर विश्वास करने वालों की श्रद्धा ही वह स्थिति पैदा करती है, जिसके प्रभाव से कठोर हृदय व्यक्ति भी पर दुःख द्रवित हो उठता कराती रही है। विचार-क्रान्ति का तत्वदर्शन यही है। जिसकी प्राण-ऊर्जा कल के परिवर्तित समाज का जीवनाधार बन रही है।