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Magazine - Year 1993 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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महाकाल की इच्छा, जिसे पूरा होना ही है

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हमें यह भली भाँति समझ लेना चाहिए कि इक्कीसवीं सदी-नारी युग का संदेश लेकर आ रही है। अंधकार युग के दिन अब अपनी अन्तिम सांसें भी तोड़ने लगे है। नारी की वर्तमान दुर्गति भरी स्थिति देर तक बनी रह सकती। विश्व का जाग्रत विवेक अनौचित्य का सार्वजनिक प्रचलन स्वीकार नहीं कर सकता। राजतन्त्र, सामंतवाद आदि के आतंक और शोषण पर आधारित प्रचलनों का अन्त हो गया। दास प्रथा इसलिए नहीं चली कि गुलामों ने मालिकों को लड़कर हराया था। बल्कि विश्व के जाग्रत विवेक ने पीड़ित पक्ष की हिमाकत की और शोषकों के खूनी पंजे बेहतर रख दिए। उत्तरी और दक्षिणी अमेरिका में दास प्रथा विरोधी और समर्थक गोरों के बीच ही इस प्रश्न को लेकर गृहयुद्ध हुआ था और उस प्रचलन की कानूनी मान्यता समाप्त हुई थी।

आवश्यक नहीं कि शोषित वर्ग स्वयं ही समर्थ शोषकों को परास्त करे। उनकी हिमायत और वकालत के लिए युग विवेक की क्षमता दिनों दिन उभरती बढ़ती चली आ रही है। विस्मार्क, क्रोपाटिकिन, नेहरू आदि शोषित वर्ग के नहीं थे तो भी उनने शोषकों के पैर तोड़ने में डट कर मोर्चा लिया था। अपने देश में ही हरिजनों को आदिवासियों को, गई गुजरी स्थिति से उबारने में उनका प्रतिरोध संघर्ष नहीं, जनमानस का न्याय समर्थन ही उभरा है। बाल विवाह, कन्या विक्रय, वर विक्रय, बंधुआ मजदूर, बेगार प्रथा, आदि का अन्त पीड़ितों को पराक्रम ने नहीं, जाग्रत विवेक ने किया है। रंग भेद की कलुषित नीति बरतने वाले गोरे अब कालों के सामने उखड़ते चले जाते है। इसका कारण सामर्थ्यों की कमजोरी नहीं वरन् न्याय समर्थक लोकमत का प्रबल दबाव ही प्रधान कारण बन रहा है।

नारी के प्रति बरती गई अनीति में पुरुष का अहंकार और शोषक दृष्टिकोण ही निमित्त रहा है। समय आ गया है कि उस राह को छोड़ा जाय और पिछली भूलों का प्रायश्चित्त किया जाय। पिछले दिनों गिराने में जितना चातुर्य, कौशल और उद्धत पौरुष लगा है। अब उससे सदाशयता भरे उत्साह से क्षतिपूर्ति की बात सोची जानी चाहिए।

क्षतिपूर्ति का दायित्व पुरुषों को ही उठाना पड़ेगा। सवाल विवाहित-अविवाहित का नहीं हैं, सम्बोधन पुरुष मात्र को है। इसी में उसकी सज्जनता, सद्भावना एवं समय को पहचानने वाली दूरदर्शी विवेकशीलता का परिचय मिल सकता है। पाप का प्रायश्चित्त और अनीति का परिमार्जन इसी में है। नारी को समुन्नत बनाने में पुरुषों का असामान्य उत्साह के साथ प्रयत्नरत होना चाहिए। इसी में उसका स्वार्थ और परमार्थ जुड़ा हुआ है।

स्वार्थ इसलिए कि समुन्नत नारी के सहयोग से अभीष्ट में अधिकाधिक लाभ उठाने का अवसर उसी को मिलेगा। समर्थ-सहयोगी, गृह–व्यवस्थापक, पारिवारिक स्नेह, सौजन्य के संस्थापक पीड़ितों के उन्नायक साथी की उपलब्धि उसे ही होती है। गले में बँधे हुए पत्थर को देव प्रतिमा के रूप में बदलने और सघन वरदानों से लदने का लाभ उसे ही मिलना है। अस्तु उसका दूरगामी स्वार्थ इसी में है कि पत्नी को ही नहीं पूरे परिवार की, परिवार ही नहीं पूरे समाज की नारी को समुन्नत बनाने के लिए जो कुछ बन पड़े, उसे पूरे सद्भाव, मनोयोग, श्रम-समय, प्रतिभा आदि के समस्त अनुदानों को उसमें नियोजित कर दिया जाय।

परमार्थ इसलिए कि दुर्भिक्ष पीड़ितों से भी अधिक दुखी-मानवी अधिकारों से वंचित रहने की प्रताड़ना सहते हुए सुविस्तृत जनसमूह को समुन्नत बनाने का प्रयास बड़े धर्म, पुण्यदान-अनुदान से बढ़कर है। इसमें पीड़ा निवारण और सुविधा सम्वर्धन के दोनों तत्व पूरी तरह जुड़े हुए है। रोटी-कपड़ा बाँटने की तरह दृश्यमान दान-पुण्य तो यह नहीं है और न पाने वाले द्वारा जय जयकार सुनने को मिलेगा। फिर भी परिणाम की दृष्टि से इसकी तुलना संसार के श्रेष्ठतम परमार्थ से ही की जा सकती है।

प्रायश्चित के लिए अनिवार्य रूप से परमार्थ करना पड़ता है। पाप की निवृत्ति पुण्य के सम्वर्धन से ही सम्भव होती है। हजारों सालों से पुरुषों द्वारा स्त्रियों का जो शोषण-क्रम चला है उन संचित पापों की निवृत्ति के लिए वर्तमान पीढ़ी को उसी प्रकार तप करना चाहिए जैसा कि भगीरथ ने अपने पुरखों के पाप-निवारण के किया था। सगर के सौ बेटे महर्षि कपिल के शाप से नष्ट हुए थे और वे नरक की अग्नि में जल रहे थे। भगीरथ ने तप करके उनका उद्धार कराया था।

पिछले दिनों नारी को पराधीन-पददलित करने के समर्थन में बौद्धिक जाल जंजाल बुनने वाले लेखक प्रतिपादक,दार्शनिक भी कुंभीपाक, नरक में पड़े जल रहे होंगे। इसी प्रकार जिनने उस उन्नति को कार्यान्वित करने के लिए अग्रिम कदम उठाए, दुष्ट मान्यताएं प्रचलित करने में आगे रहे थे। वे सबके सब निश्चित रूप से परलोक में दुर्गति के भागी बने हुए है। इनके उद्धार का प्रयत्न अपनी भागीरथी पीढ़ी को करना चाहिए। ऐसा तप करने में निमित्त जो भी भी बने हों, हमें तो उत्थान के प्रचलन की ही भूमिका निभानी है। महाकाल ने यह काम हम सबके कंधे पर डाला है, तो उसमें पीछे हटने,कायरता बरतने में शोभा नहीं है।

पुरुष हो या स्वयं स्त्रियाँ जिनमें तनिक-सी भी जाग्रति है। जिनके कान परमात्मा की वाणी को सुन समझ रहे है उनमें से प्रत्येक का यह उत्तरदायित्व है। अनीति करने वाले की तरह अनीति सहने वाले को भी दोषी ठहराया गया है। रिश्वत लेने की तरह रिश्वत देना भी अपराध है। अन्याय इसलिए बढ़ता है क्योंकि उसके विरोध में सिर उठाने वाला साहस मूक, बधिर,पंगु बना पड़ा रहता है। असहयोग, विरोध संघर्ष के छोटे बढ़े कदमों में से जिनसे जो बन पड़े उसका उपयोग करना चाहिए। सहन करने में तो अत्याचारी का साहस बढ़ता है। उसे और भी बढ़ी-चढ़ी अनीति करने का साहस मिलता है। संसार में अनीति इसलिए नहीं बढ़ता है। उसे और भी बढ़ी-चढ़ी अनीति करने का साहस मिलता है। संसार में अनीति नहीं बढ़ी कि दुरात्माओं की ताकत अधिक थी। बल्कि उसका विस्तार इसलिए हुआ क्योंकि उत्पीड़कों में विरोध प्रतिरोध का साहस नहीं रहा।

बकरियाँ पालतू बन गई पर हिरनों पर यह प्रयोग उतना सफल नहीं हुआ। दोनों की जाति और स्थिति में थोड़ा-सा ही अन्तर है। कुत्ते और सियार एक ही जाति के है। बिल्ली और बन-बिलाव में नाम मात्र का अन्तर है। एक ने मनुष्य की दासता स्वीकार कर ली। दूसरे ने नहीं की। समर्थ होने के कारण प्राझा तो लिए जा सकते है पर वशवर्ती नहीं बनाया जा सकता। अतएव दुष्टों की तरह दुर्बल भी दोषी माने गए है। यह बात दूसरी है कि किसी का पाप भारी किसी का हलका माना जाय।

आज की स्थिति में अशिक्षा, व्यस्तता, आत्महीनता और प्रतिबंध की बेड़ियों से बँधी जकड़ी नारी को समर्थन सहयोग की सख्त जरूरत है। थोड़ा-सा सहयोग पाते ही वह स्वयं अग्रिम मोर्चा सम्भाल लेगी। फिलहाल तो इस काम में पुरुषों को स्वतः पहल करनी होगी। अच्छा हो शुरुआत अपने घर से हो और दायरा बढ़ता हुआ समाज को भी समेट ले।

अभियान के सभी कामों की पृष्ठ भूमि बनाने से लेकर साधन खड़े करने तक के सारे सरंजाम उसे ही जुटाने पड़ेंगे। अच्छा हो वह सरंजाम जुटाकर अपनी घनिष्ठ आत्मीय महिलाओं को आगे कर दें। मोर्चे पर लड़ते तो सैनिक है पर उनके लिए खाना, कपड़े, संचार, वाहन, उपकरण, दवादारु, प्रशिक्षण मार्गदर्शन आदि सारे साधन सरकार जुटाती रहती है। पुरुषों को भी पीछे रहकर अभियान का सूत्र संचालन करना चाहिए और अपने प्रभाव क्षेत्र को नारियों को अग्रिम मोर्चा सम्भालने का प्रत्यक्ष काम करने के लिए समाज के नव निर्माण के क्षेत्र में उतारना चाहिए।

इसमें उनमें दायित्वबोध बढ़ेगा आत्म विकास के अंकुर फूटेंगे। धीरे-धीरे वे सारी क्षमताएँ जन्म लेंगी जिसके आधार पर वे नारी शताब्दी का सशक्त नेतृत्व कर सकें। पुरुष भी युगनियन्ता द्वारा निर्देशित इस प्रायश्चित तप को करके, श्रेय के भागीदार तो बनेंगे अनुदानों-वरदानों का भरापूरा जखीरा उन्हें उपहार में मिलेगा।

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