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Magazine - Year 1993 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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First 55 57 Last
चैत्र नवरात्रि पर्व पर उपासना संबंधी मार्गदर्शन हेतु परम पूज्य गुरुदेव द्वारा केन्या की राजधानी नैराबी में 11 दिसम्बर 1972 को दिया गया प्रवचन इस अंक में प्रस्तुत है।

गायत्री मंत्र जिन लोगों को याद हो, कृपाकर मेरे साथ कहें−

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

नारद पुराण का अनुवाद जिन दिनों मैं कर रहा था, उन दिनों एक बड़ी सुन्दर कथा पढ़ने को आयी। कथा थी एक लड़की की। राजा अश्वघोष की एक सुन्दर लड़की थी जिसके गुण ऐसे कि जो कोई भी उसको वरण कर ले, साथ रहे−उसको धन और यश की कमी न रहे, सारी की सारी शक्तियों से विभूषित हो जाय। नाम था उसका ‘सावित्री’। जब वह बड़ी होकर ब्याह लायक हो गयी तो संसार भर से माँग आने लगी कि लड़की का हमारे राजकुमार के साथ ब्याह कर दिया जाए। पिता विवाह की तैयारी कर रहे थे। कन्या ने एक दिन पिता से कहा, पिता जी? लड़के जिसे चाहे उसी के यहाँ कन्या को जाना चाहिए या लड़की की भी इच्छा होती है। पिता ने कहा, लड़की की इच्छा होती है और तेरी इच्छा के बिना मैं तेरी शादी नहीं करूंगा। सावित्री ने कहा−तो मुझे इजाजत दीजिये मैं स्वयं अपने लिए लड़का तलाश करूंगी। राजा अश्वघोष ने एक रथ मँगाया, लड़की को बिठाया और कहा बेटी तू कहीं भी जाकर अपने लिए लड़का ढूँढ़ ले।

लड़की रवाना हो गयी। कई राज्यों में पहुंची, बड़े−बड़े राजकुमारों को देखा और सबको मना करती गयी। एक दिन एक जंगल में एक लकड़हारे को देखा जो लकड़ी सिर पर रखे कहीं जा रहा था। उसने लड़के की ओर देखा और उससे कहा−लड़के! तेरा नाम क्या है? लड़के ने कहा−मेरा नाम है सत्यवान! तेरे चेहरे पर तो बड़ी चमक मालूम पड़ती है? उसने कहा−यह जो चमक है− ब्रह्मतेजस् है। ऐसा ब्रह्मतेजस् जिसे मैंने अपनी सुख−सुविधाओं को एक कोने में रखकर और माता-पिता सेवा में संलग्न रहकर प्राप्त किया है। लड़की ने उसको देखा, पहचाना और पहचान करके गले में वरमाला पहना दी। उसने कहा−मैं सत्यवान की तलाश में थी और तू सत्यवान मुझे मिल गया। बाद में क्या हुआ? एक साल बाद उसकी मृत्यु हो गयी और मृत्यु को परास्त करने के लिए सावित्री यमराज के पीछे−पीछे गयी और अपने पति का प्राण छुड़ा करके लायी।

यह कथा आप सबने जरूर सुनी है। यह किसकी कथा है? यह कथा आप सब ब्राह्मणों की है। ब्राह्मण माने−सत्यवान। सावित्री माने −वह माँ जिसके चरणों में हम और आप रोज मस्तक नवाते हैं। जिसको हम ब्रह्मशक्ति कहते हैं, आद्यशक्ति कहते हैं। जिसको हम वेदमाता और विश्वमाता कहते है। वह माता सावित्री है जो तलाश करती रहती है कि किसको वरण करूं? किसके साथ चलूँ? किसका पल्ला भारी करूं? किसके साथ रहूँ? उसको आदमी की जरूरत है जो सत्यवान हो। सत्यवान् माने ब्राह्मण। यह ब्राह्मण किसी वर्ण का नाम नहीं है, किसी कौम का नाम नहीं है, किसी जाति का नाम नहीं है। जिन्होंने ब्रह्म के तत्व को समझ लिया है, ब्रह्म के कर्तव्यों को जान लिया−वह ब्राह्मण है ऐसे ही ब्राह्मण व्यक्ति को वरण करने के लिए, उनके साथ होने के लिए, उनके प्राण बचाने और रक्षा करने के लिए माँ गायत्री तलाश करती रहती है कि ऐसा कौन व्यक्ति है जिसके गले में जयमाला पहना दी जाय। ऐसा व्यक्ति ब्राह्मण होना चाहिए।

गायत्री मंत्र शक्ति का पुँज है जिसकी प्रशंसा करते हुए वेद थकते नहीं। अथर्ववेद में वेदमाता गायत्री के बारे में कहा है−

“स्तुता मया वरदा वेदमाता प्रचोदयान्ताँ......।’

सात ऋद्धियाँ,सात विभूतियाँ सात सिद्धियाँ दिया करती है गायत्री किसको? ब्राह्मण के अलावा और किसी को नहीं देती। कोई भी जाय वह हर एक को मना कर देती है। आप लोग यही सुनते भी है कि गायत्री का अधिकार ब्राह्मण को है। उसे गायत्री का जप करना ही चाहिए। यहाँ ब्राह्मण का अर्थ किसी वर्ण विशेष से नहीं है। यह विश्वमाता है। यह ब्राह्मण के लिए है, क्षत्रिय के लिए है, शूद्र के लिए है, हिंदू के लिए है, मुसलमान के लिए पारसी के लिए है, यहूदी के लिए है, खाली लोगों के लिए है और सबके लिए है। विश्वमाता एक की नहीं हो सकती। सूरज एक का नहीं हो सकता, चन्द्रमा एक का नहीं हो सकता। हवा एक की नहीं हो सकती। पृथ्वी एक की नहीं हो सकती, भगवान एक का नहीं हो सकता और गायत्री भी एक की नहीं हो सकती। वह सबकी है। लेकिन यह कैसे कहते है कि वह ब्राह्मण की है? ब्राह्मण की इसलिए कहते है कि शक्ति को धारण करना, शक्ति को ग्रहण करना, शक्ति से ओत-प्रोत होना हर आदमी का काम नहीं है। इसके लिए भूमि चाहिए। भूमि अगर मनुष्य के पास न हो तो वह लाभ नहीं मिल सकता जो मिलना चाहिए।

गायत्री का लाभ प्राप्त करने के लिए क्या करना पड़ेगा? गायत्री का जप करना पड़ेगा। पुरश्चरण करने पड़ेंगे। ध्यान करना पड़ेगा। गायत्री चालीसा का पाठ करना पड़ेगा। नवरात्रियों का अनुष्ठान करना पड़ेगा। परन्तु इतना ही काफी नहीं है। तब एक और भी काम करना पड़ेगा कि जो व्यक्ति इस शक्ति को धारण करना चाहता हो उसको अपने भीतर ब्रह्मतेजस् उत्पन्न करना पड़ेगा। कोई जमाना था जब इस देश में ब्रह्मतेजस् जगमगाता था क्षत्रिय विश्वामित्र, वन में गये। सेना सहित भूखे एक तालाब के किनारे बैठे थे। गुरु वशिष्ठ को मालूम पड़ा तो वे उनके पास गये और कहा−राजन् हूरे यहाँ अतिथि सत्कार स्वीकार कीजिए। उन्होंने कहा−महाराज! हम दस हजार व्यक्ति है। आपकी कोठरी में तो कंदमूल होगा और इसके अतिरिक्त क्या हो सकता है। वशिष्ठ बोले राजन्! हमारी कोठरी में कंदमूल ही नहीं और भी बहुत कुछ होता है। तो आप सबको भोजन करा देंगे? हाँ सबको कराया गया।

भोजन करने के पश्चात् विश्वामित्र ने कहा−महाराज यह शक्ति कहाँ से आयी? वशिष्ठ ने कहा−कामधेनु हमारे पास है। यह देवताओं की पुत्री नन्दिनी है जिसके माध्यम से मैं आपको भोजन कराने में समर्थ हुआ, ब्रह्मतेजस् धारण करने में समर्थ हुआ। विश्वामित्र ने कहा −इस गाय को तो आप हमें दे दीजिए जिससे हम मनोकामना पूर्ण करेंगे। गुरु वशिष्ठ ने कहा यह गाय और किसी के यहाँ जा नहीं सकती, केवल ब्राह्मण के यहाँ रहेगी, दूसरा कोई से ग्रहण नहीं कर सकता−धारण नहीं कर सकता। विश्वामित्र बलपूर्वक छीनने लगे तो नन्दिनी अकेली खड़ी हो गयी। ब्रह्मास्त्र नाम है इसका। ब्रह्मास्त्र माने−ब्राह्मण का हथियार। हथियार बहुतों के पास होते हैं, पर ब्राह्मण का हथियार बहुत जोरदार है और उसका नाम है −गायत्री। दोनों में संघर्ष हुआ, विश्वामित्र की सारी सेना परास्त हो गयी। वशिष्ठ की नन्दिनी जीत गयी। तब विश्वामित्र ने एक ही शब्द कहा− ”धिक्बंल क्षत्रिय बलं ब्रह्मतेजो बलम् बलम्।” क्षत्रिय का बल, भुजाओं का बल, पैसे का बल, विद्या का बल, ज्ञान का यह बल− यह सभी धिक् अर्थात् छोटे हैं राई-रत्ती के बराबर हैं। ब्रह्मतेज ही असली बल है।

मित्रो! एक जमाना याद आया जब ब्राह्मण जगद्गुरु था।। ज्ञान देने के लिए विश्व में वह जाता नहीं था, वरन् सारे संसार के लोग शिक्षायें लेने के लिए हमारे पास आते थे। नालंदा और तक्षशिला के विश्वविद्यालय सारी दुनिया के लिए ज्ञान के केंद्र बने हुए थे। ईसामसीह के बारे में जो नयी खोज की गयी है उसके अनुसार यरुशलम से चलकर एक बालक तक्षशिला के विश्वविद्यालय में आया और कई वर्षों तक पढ़ा। पढ़ने के बाद में उसने रोम और दूसरों देशों में घूम−घूमकर सत्य और अहिंसा का शिक्षा देना शुरू किया। वही बालक पीछे ईसामसीह कहलाया। सारे विश्व के लोग इन विश्वविद्यालयों में पढ़ने के लिए आते थे जिनके शिक्षक, अध्यापक, डीन, व्यास, चान्सलर ब्राह्मण होते थे−ऋषि होते थे और वे साधारण नहीं होते थे। मैं अनेक गुणानुवाद गा रहा हूँ जिन्होंने गायत्री की शक्ति को जाग्रत करके अपने भीतर धारण किया था। यह वर्ग यदि अपने उन्हीं कर्तव्यों पर टिका रहा तो आज विश्व कि दिशा कुछ अलग ही रही होती।

पूर्व पुरुष अपने पीछे अपनी संतानों को धन−दौलत देकर जाते है−चीजें देकर जाते है, लेकिन जिम्मेदारियाँ भी देकर जाते है। पूर्वज ऋषि हमको अपनी जिम्मेदारियाँ देकर गये है कि हम विश्व का संरक्षण, विश्व का मार्गदर्शन और दिशा देने का वजह अपने ऊपर लें। जनेऊ संस्कार जब कराया जाता है तब हर ब्राह्मण को एक प्रतिज्ञा करनी पड़ती है, कसम खानी पड़ती है कि −”वयं राष्ट्र जाग्रयाम पुरोहिताः” −हम पुरोहित−हम ब्राह्मण राष्ट्रों को जिन्दा रखेंगे। राष्ट्र को देश को जीवित और जिन्दा रखने की जिम्मेदारी−जो पूर्व पुरुष छोड़ गये है, कदाचित् हम उसे निभा सके होते तो हमने भी सिर ऊंचा उठा करके उन्हीं बातों को कहा होता जिनकी की प्रशंसा हमारे शास्त्रों और ग्रन्थों में ब्राह्मण की महानता के आगे सिर झुका कर की गयी है। हमको उन जिम्मेदारियों को निभाना चाहिए जो ब्राह्मण करते है। प्राचीन काल में ब्रह्मतेजस् धनी चाणक्य ने देखा कि राष्ट्र में अव्यवस्था फैल रही है भारत छिन्न−भिन्न हो रहा है उन्होंने चन्द्रगुप्त को बुलाया और कहा−इनको संभालने के लिए तुमको आगे बढ़ना चाहिए। चन्द्रगुप्त के सिर पर चाणक्य का हाथ था। वे लड़ने नहीं गये तो क्या, लेकिन ऐसी शक्ति भर दी जिससे वह न जाने क्या से क्या कर सका। यह काम आप भी कर सकते है यदि आप के पास गायत्री की शक्ति हो तब। लेकिन उस शक्ति को हम भूल गये। प्राचीन काल में सारा विश्व आपके चरणों में इसलिए सिर झुकाता था कि हम शासन नहीं करते थे, पर शासनों पर नियंत्रण करते थे। रामराज्य में राम का राज्य हुआ, उनके पिता दशरथ का राज्य हुआ, उनके पिता रघु का, अज का, दीलिप का राज्य हुआ। पीढ़ियां होती चली गयी, लेकिन गुरु वशिष्ठ का नियंत्रण बना रहा। शासन चलते थे पर उन्हें चलाते थे ब्राह्मण। कब? तब, जबकि वे उसकी उपासना करते थे जिसकी की आराधना करने के लिए आप लोग हजार कुण्डों का दीपक जला करके आरती उतारने चल रहे है। उस ब्रह्म शक्ति की जिस शक्ति से हम जगमगाते थे किसी जमाने में राष्ट्रों का नियंत्रण करते थे, शासकों को उत्पन्न करते−पैदा करते थे। शासकों को उतारते थे और चढ़ाते थे विभूतियाँ हमारे चरणों के अंतर्गत रहती थी, क्योंकि ब्रह्मतेजस् हमारे पास था।

गायत्री आपकी माता है आपकी माता वही नहीं है जिसने जन्म दिया, वर्ण आपकी माता शक्ति की पुँज विश्वमाता है। गायत्री को आपकी माता को हम भूल गये। जो आदमी अपनी माता को भूल जाएगा दूध कहाँ से पीयेगा? शक्ति का पुँज है यह गायत्री मंत्र। लेकिन हमारे मंत्र न जाने क्यों चमत्कार नहीं दिखा रहे हैं? इसलिए नहीं दिखा रहे है क्योंकि एक हिस्सा हमारा बाकी रह गया है। जमीन को हमने सँभाला नहीं और बीज बो दिया। चरित्र जमीन है और मंत्र बीज। बीज वहीं उगेगा− फलेगा, जहाँ जमीन होगी। जमीन नहीं होगी तो बीज कैसे फैलेगा? मनुष्य का चरित्र सबसे बड़ा है। चरित्रवान की वाणी जो वचन कहे जायेंगे जो मंत्र बोले जायेंगे वे सत्य होते चले जायेंगे मिथ्या नहीं हो सकते सिंनगारी ऋषि द्वारा राजा दशरथ पुत्रेष्टि यज्ञ की कथा आपने सुनी है अब मैं आपको अपनी जिन्दा आदमी की गवाही पेश करता हूँ। अभी 50 लाख व्यक्ति मेरे है। उस आदमी इसमें से एक लाख भी नहीं है जो गायत्री मंत्र विद्या सीखने, उसकी सुविधायें प्राप्त करने के लिए आते हैं। फिर 49 लाख कौन है? 49 लाख वे हैं जो दुःखी हैं, कष्ट में हैं, मुसीबत में हैं, जिनको साँसारिक मानसिक कठिनाइयों ने घेर रखा है। वे भी आते रहे हैं और कहते रहे हैं मेरी यह दिक्कतें हैं आप कोई सहायता कीजिए। मैंने कहा भगवान से प्रार्थना करूंगा और भगवान से प्रार्थना सही होती चली गयी इस तरीके से कितने आदमी दुःखों को दूर करने के लिए आते हैं। यह कैसे सम्भव हो गया? गायत्री मंत्र की सिद्धि कैसे हो गयी? जप करने महत्व क्या है क्या मैं अकेला ही जानता हूँ? दूसरे किसी ने जप नहीं किया? बहुतों ने जप किया फिर फल क्यों नहीं मिला? पर इसलिए नहीं मिला कि लोगों ने अपनी जीभ को जला दिया। झूठ बोला जीभ जल गयी पराया अन्न खाया−कुधान्य खाया जीभ जल गयी। सत्य−असत्य भाषण किया, दूसरों पर क्रोध किया−जीभ जल गई। जली हुई जीभ द्वारा किस तरह मंत्रों का उच्चारण हो और मंत्रों को सफलता मिले? जीभ जले नहीं, इनके लिए हमारे चरित्र और आचरण उच्च कोटि के होने चाहिए।

मंत्र कारतूस के तरीके के हैं और मनुष्य का व्यक्तिगत बन्धु के तरीके से। कारतूस का अपना महत्व है, पर उससे भी ज्यादा कीमती बन्दूक है जो बढ़िया लोहे की बनी और ढली हुई हो हमें अपने चरित्र को, जीवन को उच्चकोटि बनाना पड़ेगा। आपने आपको स्वयं ही ब्रह्मचारी, ईमानदार, नेक और सरीफ बनाना पड़ेगा यही तो ब्राह्मण की परिभाषा है ब्राह्मण जन्म से नहीं कर्म से होता है। कर्म ही हमारे ब्राह्मण जैसे होने चाहिए। अभी ब्राह्मणत्व खण्डहर हो गया है, टूट फुट गया है जिसने फिर से ‘रिपेयर’ करने की जरूरत है फिर हमको चरित्रवान विद्वान, सेवा भाव ही और ईमानदार बनने की जरूरत है। ऐसे व्यक्ति यदि हम अपनी साधना से पैदा कर सकते हैं तो हम ब्राह्मणत्व की सेवा कर सकते हैं और उस चमत्कार को देख सकते हैं जो गायत्री मंत्र के साथ जुड़ा हुआ है। जो यज्ञ के माध्यम से जुड़ा हुआ है।

यज्ञ की महत्ता असाधारण है। राजा दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ की कथा प्रसिद्ध है। रावण जब पराजित होने लगा तब उसने राम चन्द्र जी शक्ति का मुकाबला करने के लिए एक आयोजन किया। राम और लक्ष्मण को जब पता चला तो उन्होंने कहा −यदि यज्ञ पूरा हो गया तो हमारी विजय मुश्किल हो जाएगी। हनुमान जी गये और यज्ञ को विध्वंस किया। यज्ञ की शक्ति बहुत बड़ी है यह कोई समारोह आयोजन नहीं, वरन् शक्तियों का आह्वान है। उन शक्तियों का आह्वान है जिसके द्वारा मनुष्य क्या से क्या बन सकता है। ब्राह्मण पैदा नहीं होता, वह यज्ञ की अग्नि में पकाया जाता है। घड़ा पैदा नहीं होता−अग्नि में आवों में पकाया जाता है। “महायज्ञेश्च यज्ञेश्च ब्राह्मीयाँक्रियते तनुः”− ब्राह्मण पैदा नहीं होते, यज्ञों के द्वारा −महायज्ञों के द्वारा पकाये जाते हैं। चन्द्रोदय, अभ्रक पकाया जाता है खिचड़ी कहीं बनी बनायी नहीं मिलती पकायी जाती है। ब्राह्मण भी पैदा नहीं होते, उन्हें यज्ञ के आवे में बनाये व पकाये जाते हैं।

प्राचीनकाल में पहले हम यज्ञ पिता को भोजन कराते थे तब भोजन करते थे। अग्निहोत्र हमारे जीवन का अंग था। गायत्री तपोभूमि में अखण्ड अग्नि स्थापित है। अखण्ड जप हमारे यहाँ होता है। उसका परिणाम है यह ब्रह्मवर्चस जिसकी आप उपासना करते है। आज की परिस्थितियों में यज्ञ की बहुत जरूरत है जिसका कि आप लोग आयोजन कर रहे है इसे मानव समाज की बड़ी सेवा होने वाली है। इससे लोगों की मानसिक दुख दूर हो सकते हैं। आप प्रयोग करके देखिए। जो लोगों हवन में सम्मिलित हो उनके शरीर के बिमारियों के बारे में इम्तहान लेकर करके देखिये हवन पर बैठने वाले की बीमारियां दूर हुई कि नहीं। मानसिक बीमारियां जिसमें क्रोध काम विकार, असंतोष, झल्लाहट, सनकीपन, से लेकर पागलपन तक शामिल है− ऐसे लोगों को हवन पर बिठा कर देखिये कि शरीर और मन की बिमारियों को वह दूर करता है कि नहीं यह व्यक्ति की बात है।

अब मैं व्यक्ति की नहीं सारे विश्व की कल्याण की बात करता हूं। भगवान राम जब लंका विजय करके घर तब गुरु वशिष्ठ ने पूछा−अब क्या करना चाहिए? उन्होंने कहा राम।़ अभी स्थूल शरीर वाला रावण मारा गया है पर सूक्ष्म रावण जिन्दा है जो आकाश में फैला हुआ है। रावण ने जो बुरे कर्म किये थे, जो हवाएँ फैलायी थी, जो गन्दे विचार फैलाये थे उससे सारा आकाश क्षुब्ध हो गया है, उसे शान्त करो। राम ने कहा−स्थूल रावण को तीर मार दिया, पर यह कैसे मारा जायेगा? गुरु वशिष्ठ ने कहा−अश्वमेध यज्ञ से। रामचन्द्र जी ने दस अश्वमेध यज्ञ किये। बनारस के जिस स्थान पर दस अश्वमेध या किये गये, उस स्थान का नामा दशाश्वमेध घाट पड़ा। गुरु वशिष्ठ जी ने कहा−अब वह रावण मरा गया, क्योंकि जिस आकाश में इतनी हाय, विध्वंस और हिंसा फैली हुई थी− उसका निवारण हो गया।

पिछले दिनों दो विश्वयुद्ध हो चुके है। उसमें कितनी आत्मायें मारी गयी, कितने जीवों की हत्यायें हुई, कितनी गोलियाँ चली, कितनी बारूद आसमान में फैलायी गयी। अंतरिक्ष दूषित और गर्हित हो गया। अब जो बच्चा पैदा होता है वहीं संस्कार ले करके आता है गंदे आसमान में से। जो भी वृष्टि होती है, जो भी अनाज पैदा होता है, जो भी वनस्पतियाँ और प्राणी पैदा होते हैं− जन्म से ही सह संस्कार लेकर आते हैं। माता−पिता रोते हैं−अच्छी सन्तान हुई इससे न होती तो अच्छा रहता’। यह संस्कार इस आसमान में फैले हुए हैं। भगवान श्रीकृष्ण ने भी यही किया था। पाण्डवों में फैले हुए है। भगवान श्री कृष्ण ने भी यही किया था। पाण्डवों ने कहा−भगवान्। राजगद्दी मिल गयी अब हम शान्ति से बैठेंगे। आप बताइये हमको अब क्या करना है? कृष्ण ने कहा−सूक्ष्म दुर्योधन अभी मारा गया। सूक्ष्म कंस, सूक्ष्म जरासंध सूक्ष्म शिशुपाल अभी नहीं मरे। केवल शरीरधारी मरा। शरीरधारी कौरव मारे गये, पर सूक्ष्म कौरव मारने बाकी है। ये कैसे मरेंगे? राजसूय यज्ञ किया गया।

उस यज्ञ से आकाश-अंतरिक्ष की शुद्धि की गयी। अंतरिक्ष की शुद्धि के लिए और उन सबसे लिए जो नयी पीढ़ी के लोग पैदा होने वाले है, जो समस्याओं से उलझे हुए है, जो संकट और कठिनाइयों से भरे हुए है− उस सारी मानव जाति का कल्याण करने के जो यज्ञ कर रहे है− यह सबसे बड़ा परोपकार है। इससे बड़ा परोपकार और कुछ नहीं हो सकता। यह सारे मनुष्य जाति के लिए ब्रह्मभोज और दूसरा हो नहीं सकता। सारे विश्व के समस्त प्राणियों, वृक्ष−वनस्पतियों की इससे पुष्टि होती है। सब बलवान और निरोग होते है। सबके कषाय−कल्मष दूर होते है। सबको शान्ति मिलती है। यज्ञ से असंख्य मनुष्यों के रोग, शारीरिक−मानसिक विकार दूर होते है। इससे विश्व में शान्ति होती है। दो महायुद्धों के द्वारा,गन्दे गीतों के द्वार जो आकाश प्रदूषित हो गया है, इसको वेद मंत्रों द्वारा यज्ञ से दूर किया जा सकता है। इसमें सारे विश्व का कल्याण छिपा हुआ है और आप लोगों का कल्याण भी जिन्होंने यज्ञ का संकल्प किया है। आप लोग जो यज्ञ करने जा रहे हैं उनके बारे में वेद भगवान ने ही विश्वास दिलाया, जिम्मेदारी उठायी−कसम खायी और कहा−’जिन लोगों ने मुट्ठी भरकर सामग्री लायी−हवन कर दी, हमने उनकी मुट्ठियों को भर दिया। तुम घी का एक चम्मच भर कर दिया। यह बैंक में जमा करने के बराबर है। यज्ञ चीजों को जलाता है, वरन् जम जो चीजें हवन करते है उससे लाखों गुनी चीज इस सारे आकाश को मिल जाती है। यह एक वैज्ञानिक उपाय है। यज्ञ ब्रह्मतेजस् जगाने की विधि है। यह वह कर्मकाण्ड है जिसे ने केवल हम और आप ब्रह्म समाज के लोग अपना कर्तव्य पालन कर सकेंगे। वरन् सारी मनुष्य जाति के प्रति भी अपने कर्तव्यों का पालन कर सकेंगे।

गायत्री मंत्र जिसकी आप उपासन करते, जिसको ब्रह्मास्त्र कहते हैं−यह ब्राह्मण का हथियार है। इसे कामधेनु कहते हैं, अमृत और पारस कहते हैं जिसको छूकर लोहा सोना हो जाता है। यह गायत्री वेदमाता है। उसके प्रति आपके कर्मकाण्ड सराहनीय है, लेकिन उससे भी अगला कदम आपका यह होना चाहिए कि जो भी गायत्री की उपासना करते हैं उनको सत्यवान बनना ही चाहिए, ताकि वह सावित्री जो गायत्री का ही दूसरा नाम है, आपके गले में विजय माला पहना सके। यह गायत्री शक्तियों का पुँज है, देवत्व की देवी है। ब्रह्मवर्चस्। यह सब कुछ है। कोई भी ऐसी चीज नहीं जो इसके पास न हो। यह सतयुग में भी फल देती है और कलयुग में भी फल देती है, पर शर्त एक ही है कि जिन-जिन लोगों ने गायत्री उपासना के प्रति कदम बढ़ाये हैं उनको दूसरा कदम यह बढ़ाना चाहिए कि उत्तम बनायें उज्ज्वल बनाये बनाये। सदाचारी, विवेकवान्, शिष्ट, पवित्र और परोपकारी बनायें। जैसे-जैसे अपने आपको साफ करते चले जायेंगे। जीवन पवित्र और शुद्ध होता चला जायेगा वैसे-वैसे ही भगवान के नाम का रंग, गायत्री माता का रंग आप पर चढ़ता हुआ चला जायेगा। यह रहस्य है−चाबी है गायत्री मंत्र की और अन्य सारे अध्यात्म की।

मित्रो! मैं इसी राह पर अब तक चलता हुआ चला आया और यह अनुभव निकालने में समर्थ हो सका कि यह ब्रह्मतेजस् जिसकी कि आप उपासना करते हैं और मैं उपासना करता रहा, एक शक्तिपुँज है। इसके बराबर उपासना करते हुए जो लाभ उठाया जा सकता है कोई दूसरा व्यापार, दूसरा लाभ और दूसरा परमार्थ नहीं। आप लोगों ने अनेक तरह के व्यापार और कार्य किये हैं। मेरा व्यापार से कितना लाभ उठाया जा सकता है कितना लाभ उठाया गया। मैं चाहता हूँ कि मेरे तरीके से आप लोग भी लाभ उठायें और उसी तरीके से लाभान्वित हो जैसे कि आपके पूर्व पुरुष लाभान्वित होते रहे हैं।

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