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Magazine - Year 1996 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है।

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First 12 14 Last
उस दिन प्रकृति देवी को अरुण ने प्रकाश से नहलाया, ऊषा ने उसके माथे पर कुमकुम का तिलक लगाया, बालसूर्य ने उसे स्वर्णिम वस्त्र पहनाए। ऐसी पवित्र बेला में स्नानादि से निवृत्त होकर चित्रलेखा राजधानी अवन्तिका के राजमहल में अपने कक्ष में बैठी श्रीमद्भगवद्गीता का स्वाध्याय कर रही थी। घनी, काली केशराशि उसकी पीठ पर लहरा रही थी। वायु के मन्द झोंके उससे अठखेलियाँ कर रहे थे। शान्त-स्निग्ध मुख की आकृति पर एक अलौकिक आभा बिखरी थी। उसके विस्तीर्ण नयन गीतामृत का रसपान कर रहे थे। संसार के अस्तित्व को ही नहीं, स्वयं के अस्तित्व को भी वह भूल गयी थी। नयन रसपान कर हृदय कोष को भर रहे थे और आत्मा अमृतमयी अनुभूति का आस्वादन कर रही थी। एक अजर और अमर व्यक्ति का भाव उसके चेहरे पर प्रकाशित हो रहा था।

सादे रेशमी वस्त्र में उसने भगवद्गीता की पोथी भगवान श्रीकृष्ण के सिंहासन पर रखकर श्रद्धाभाव से प्रणाम किया। प्रणाम करने के अनन्तर उसने मुख फेरा ही था, तभी एक दावी ने आकर कहा-”राजकुमारीजी आपको महाराज ने स्मरण किया है।”

जाओ निवेदन करो, मैं अभी आती हूँ। दासी के जाने पर वह उठी। उसे आशंका थी कि पिताश्री सुबह होते ही बुलाएँगे। कल ही तो वह उज्जयिनी के गुरुकुल से अध्ययन समाप्त कर लौटी थी। चित्रलेखा ने वहाँ ग्रन्थ के अध्ययन एवं आचार्यों से संस्कृत और प्राकृत भाषा में धार्मिक, सामाजिक तथा व्याकरण शास्त्र में पूर्णता प्राप्तकर ली थी। संगत और नृत्य शास्त्र में उसकी विशेषज्ञता पर सभी आश्चर्यचकित थे। इतना ही नहीं, वह असाधारण सुन्दरी भी थी। मानो किसी श्रेष्ठ शिल्पी ने संगमरमर की प्रतिमा गढ़ी हो और प्रकृति ने उसमें साँसों का स्पन्दन भर दिया हो। ब्रह्मचर्य की साधना से उसके शरीर पर दिव्य कान्ति झिलमिला रही थी। ज्ञानार्जन से मुख की दीप्ति प्रखर हो चुकी थी।

वह अपने पिताश्री के कक्ष में आयी और उन्हें प्रणाम कर उनके सम्मुख एक आसन पर बैठ गई।

कुछ क्षण महाराज वीरभद्र पुत्री की ओर देखते रहे। चित्रलेखा इस समय नितान्त साधारण पीली साड़ी पहने थी। महाराज को लगा जैसे यह राजवंश तथा राजपरिवार का अपमान है। उन्होंने रुखाई से कहा-”पुत्री तुम भूल गयीं कि तुम मालव सम्राट की पुत्री हो। मालवा राज्य की राजकुमारी हो और राजपरिवार में तुम्हारा स्थान उच्च है। मैं पूछता हूँ कि तुमने अपने शरीर पर जो वस्त्र धारण किए हैं क्या वह राजवंश के योग्य हैं? क्या एक राजकुमारी की वेषभूषा को तुम्हारे वस्त्र चरितार्थ करते हैं?

चित्रलेखा ने शान्त भाव से कहा-”पिताश्री अपराध क्षमा करें। यदि मैं यह निवेदन करूं कि मानव का मूल्य वस्त्रों से नहीं आँका जाता। वह तो केवल मात्र शरीर को ढकने का साधन है। सद्गुण सम्पत्ति का आन्तरिक विकास ही मानवीय उच्चता को दिग्दर्शित करता है। मैं तो एक साधारण-सी मानवी हूँ किन्तु आपकी पुत्री होने के कारण ही मैं राजकुमारी हूँ।”

और इसीलिए तुम्हें राजपरिवार की वेषभूषा धारण करनी चाहिए। जब तग राजमहल में रहती हो, राज कुल की सदस्या हो, तुमको यहाँ के नियम मानने होंगे। समझीं, भविष्य में ध्यान रखना। महाराज वीरभद्र ने एक निरंकुश शासक की तरह अन्तिम निर्णय दे दिया।

सुसंस्कृत, आर्य पुत्री की भाँति चित्रलेखा पिता की आज्ञा का प्रतिवाद करना अनुचित समझती थी। उसने नतमस्तक होकर कहा- “जैसी आज्ञा, पिताश्री।”

चित्रलेखा ने उनकी आज्ञा को विनयपूर्वक मान लिया तो वह प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा, मुझे परम आनन्द है क्योंकि तुमने मेरा कहना मानकर यह प्रमाणित कर दिया कि तुम सुशील हो, पितृभक्त हो। एक सवाल मैं तुमसे और करना चाहता हूँ। अभी तुम्हारे आने से पूर्व मैंने सुलेखा को बुलाया था। तुम से जो प्रश्न करना चाहता हूँ वहीं प्रश्न मन सुलेखा से किया था। उससे मुझे जो उत्तर दिया, उससे मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई। मुझे भरोसा है कि तुम भी निःसंकोच होकर उत्तर दोगी और मुझे आनन्दित करोगी।

चित्रलेखा बोली, “परम पूजनीय पिताजी, उत्तर प्रश्न पर निर्भर करता है। आप सवाल करें, आपकी पुत्री चाहेगी कि उसके उत्तर से पिताश्री प्रसन्न हों।

महाराज ने पुत्री को अपलक निहारते हुए कहा-”बेटी तुम्हारा बाल्यकाल समाप्त हो गया है। शिक्षा ग्रहण कर तुम पण्डित हो गयी हो। अब वह समय आ गया है कि तुम अपने जीवन साथी के संदर्भ में सोचो यदि मन ही मन किसी राजकुमार को तुमने वरण कर लिया हो तो उस भाग्यशाली का नाम बताओ, हम तुम्हारे सुख के लिए उसी से तुम्हारा विवाह करेंगे। यही प्रश्न हमने तुम्हारी बड़ी बहिन सुलेखा से किया था, तो उसने निःसंकोच होकर चेदिपति महाराज शिशुपाल से विवाह करने का अपना निश्चय प्रकट किया और मैंने सहर्ष स्वीकृति दे दी। अतएव तुम भी बिना किसी हिचक के अपने मनोभावों को प्रकट करो।

चित्रलेखा ने सोचा भी नहीं था कि उसके पिताश्री इस समय उससे ऐसा सवाल करेंगे। किन्तु उत्तर तो देना ही था। उसने स्थिर चित्त से कहा-”पिताश्री लज्जा और संकोच का परित्याग कर मैं इस सवाल का जवाब कैसे दे सकूँगी? मेरा दृढ़ विश्वास है कि माता-पिता अपने स्नेह और प्रेम के वश अपनी सन्तान के भविष्य का ध्यान रखते हैं। मैं प्राणपण से आपकी तथा पूजनीया माताजी की रुचि का, निर्वाचन का स्वागत करूंगी। आप जिस वर को मेरे योग्य समझें, उसके साथ मेरा विवाह कर दें। मेरे मन में जीवन-साथी के सम्बन्ध में अस्पष्ट भाव भी कभी नहीं जागा है। फिर मन ही मन वरण करने की बात की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। किसी पुरुष के अनजान में नारी का यह समर्पण एकाँगी है, अव्यावहारिक है, अधर्म भी है। मन से वरण किया गया पुरुष ही नारी का आराध्य पति होता है। यदि कोई नारी किसी पुरुष का मन ही मन वरण करे और वह पुरुष मना कर दे तो उस परित्यक्ता नारी का भविष्य क्या होगा? समाज में उसका स्थान कहाँ होगा? कैसे वह अपना जीवन व्यतीत करेगी?”

मानवीय दृष्टिकोण से, धार्मिक रीति से तथा सामाजिक परिणाम को लक्ष्य कर दिया गया वह उत्तर सुनकर महाराज वीरभद्र को बड़ी प्रसन्नता हुई। लेकिन उसके मनोभावों को कैसे जाना जा सकता है? आज तो वे अपनी पुत्री से प्रश्न पर प्रश्न किए जा रहे थे तथा उसकी परीक्षा ले रहे थे। उन्होंने कहा, “पुत्री तुम्हारा उत्तर सुनकर मुझे हार्दिक प्रसन्नता हुई। अब एक सवाल और तुमसे करना चाहता हूँ। बताओ बेटी यह ऐश्वर्य, यह वैभव, यह राजकीय सम्मान तुम्हें किसके भाग्य से प्राप्त हैं? यही सवाल हमने सुलेखा से भी किया था। उसने जो उत्तर दिया, उसे सुनकर हमारी खुशी का ठिकाना नहीं हैं।”

चित्रलेखा ने शांत मन से कहा-”क्या मैं उनका उत्तर सुन सकती हूँ पिताश्री।”

महाराज ने कहा- “क्यों नहीं पुत्री, जरूर सुन सकोगी। उसने कहा था कि उसे यह वैभव, ऐश्वर्य और मान-सम्मान सभी मेरे यानि कि अपने पिता के भाग्य से प्राप्त है।”

चित्रलेखा मन ही मन में हँस पड़ी, किन्तु हँसी का कोई भाव भी उसने चेहरे पर आने नहीं दिया। लेकिन वह झूठ को भी स्वीकार नहीं कर सकती थी। सत्य की उपासिका थी वह। उसका दृढ़ विश्वास था कि आत्मनिर्माण का आधार ही सत्य है। सत्य की मजबूत नींव पर आत्मनिर्माण का गगनचुम्बी मन्दिर निर्मित है। यदि सत्य को वहाँ से हटा दिया जाय तो श्रद्धेय ऋषियों, मुनियों अवतारों, अध्यात्मवेत्ताओं ने अपनी तप-तितीक्षा से जो मन्दिर बनाया, वह ढह जाएगा। नहीं वह असत्य को कतई स्वीकार नहीं करेगी। इस निश्चय के साथ ही उसके नेत्रों में एक पावन ज्योति दीप्त हो उठी। वाणी में अपूर्व ओज आ गया। उसने कहा-”पिताश्री मैं अभयदान चाहती हूँ, मैं अपनी बड़ी बहिन का प्रतिवाद करना नहीं चाहती। उनकी अपनी मान्यताएँ हैं। मेरे अन्तर्यामी कहते हैं कि असत्य को कभी स्वीकार न करो। सत्य पथ से कभी विचलित न हो। पिताश्री मैं विनयपूर्वक निवेदन करती हूँ कि प्रत्येक मानव अपने-अपने कर्मों का फल पाता है। मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। आज किए गए कर्म ही कल परिपक्व होकर भाग्य बनते हैं। ऐसी स्थिति में मैं भी अपने पूर्व अर्जित पुण्यों के फल से इस समय सुख का भोग कर रही हूँ।

महाराज वीरभद्र को यह उत्तर रुचिकर न लगा। उनके हृदय का वात्सल्य भाव अचानक तिरोहित हो गया। उनके शरीर में रहने वाला पिता अन्तर्ध्यान हो गया। मन ही मन वह क्रोधित हो गए। उन्होंने केवल इतना कहा-”ठीक है जाओ।”

विवेकशील चित्रलेखा को यह समझते देर न लगी कि उसके उत्तर से पिताश्री असन्तुष्ट हो गए हैं। सम्भव है उन्हें क्रोध आया हो। वह अपने कक्ष में आ गयी।

क्षण, पल, निशि, वासर बीतते गए। उपर्युक्त घटना की याद भी धुँधली होती गई। एक दिन मालवराज वीरभद्र अपने अंगरक्षकों और मन्त्रियों समेत भ्रमण पर जा रहे थे। नगर की सीमा पर बने सार्वजनिक उद्यान में देखा तो कुष्ठ रोगियों का एक समूह ठहरा हुआ है। इस समय एक युवा कुष्ठी अपने साथी कुष्ठियों के बीच बैठकर आध्यात्मिक प्रवचन कर रहा है। कण्ठ मधुर, वाणी ओजस्विनी, विचारधारा उच्चतम महाराज कौतुकवश खड़े हो गए और प्रवचन सुनने लगे। युवा कुष्ठी जब राजपुरुषों के समूह को प्रवचन सुनते देखा, तो अधिक स्फुरित हो अपनी विद्वता और पाण्डित्य प्रकट करने लगा। महाराज उसके अगाध ज्ञान, अपूर्व वर्णन शैली से बहुत प्रभावित हुए। प्रवचन समाप्त हुआ। महाराज ने पूछा-”युवक किस देश के रहने वाले हो? शुभ नाम क्या है? किस जाति के हो?

“महाराज, यह जानकर आपको क्या लाभ होगा? अतीत के गर्भ में मैंने अपना इतिहास गाढ़ दिया हैं। मैं अब उसे खोदना नहीं चाहता। अब वर्तमान ही मेरा साथी है। मैं मात्र वर्तमान को ही भोगता हूँ, उसमें से किस भविष्य का जन्म होगा, मैं इसकी चिन्ता नहीं करता। कुष्ठी का अतीत उसके शरीर पर विद्यमान है। वर्तमान आप देख ही रहे हैं। भविष्य की कल्पना कर लीजिए। नाम, ग्राम में रखा ही क्या है?

विद्वतापूर्ण उत्तर सुनकर महाराज के मस्तिष्क में अतीत की वह घटना सजीव हो उठी। उनके अंतरमन में आवाज उठी-इसी के साथ चित्रलेखा का विवाह कर दो। वह सोचने लगे-यह अयोग्य नहीं है। विद्वता में यह चित्रलेखा से कम नहीं। बौद्धिक पक्ष से उसे जैसा पति चाहिए, वैसा ही यह है। निश्चय ही शरीर पक्ष से यह अयोग्य है कि चित्रलेखा भी तो साँसारिक विषय-भोगों की निन्दा करती रहती है। फिर वह तो कहती है मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता स्वयं है। देखें इन विपरीत स्थितियों में वह अपने किस भाग्य का निर्माण करती है। लेकिन एक कुष्ठी से एक राजा अपनी पुत्री से विवाह करने की प्रार्थना कैसे करे?

विहँस कर युवा कुष्ठी ने पूछा-”क्या सोचने लगे ‘महाराज?”

महाराज अचानक चौंकते हुए बोले, युवक मैं तुम्हारी इस अवस्था को देखकर द्रवित हो उठा हूँ। चाहता हूँ कि तुम्हें कुछ दूँ। किन्तु क्या दूँ सोच नहीं पाता। मैं चाहता हूँ कि तुम माँगो, मैं तुम्हें दूँ।

कुष्ठी युवक ने उपहास से हँसकर कहा-”कथनी और करनी में बड़ा अन्तर होता है महाराज, सोच-समझकर कहिए।”

राजा के वचन पर सीधे चोट थी। वीरभद्र के शरीर में विद्यमान क्षत्रिय खून उबल उठा। क्रोध भरे स्वर में उन्होंने कहा-युवा मैं क्षत्रिय नरेश हूँ, वचन देकर पीछे हटना मेरा स्वभाव नहीं। माँगो जो चाहो माँग लो।

कुष्ठी ने स्थिर दृष्टि से महाराज की ओर देखते हुए कहा- “मैं आपकी पुत्री चित्रलेखा से विवाह करना चाहता हूँ। क्या यह मँगनी स्वीकार है?”

अंगरक्षक सैनिकों के नेत्रों में शोले दहक उठे। सबने म्यान से तलवार खींच ली। किन्तु मालव नरेश को तो मनचाहा वरदान मिल गया था। उन्होंने संकेत से सैनिकों को रोक दिया। नाटकीय क्रोध शब्दों में भरकर वह बोले और कोई समय होता तो तुम्हारी इस धृष्टता पर मृत्युदण्ड ही दिया जाता, किन्तु मैं वचनबद्ध हो चुका हूँ। तुम्हें उत्तर देने से पूर्व मैं तुमसे एक प्रश्न पूछना चाहता हूँ कि तुम तो परदेशी हो, तुम्हें कैसे मालुम कि मेरे पुत्री है, उसका नाम चित्रलेखा है? कुष्ठी ने बीच में ही कहा-महाराज आपके दो पुत्रियाँ हैं। बड़ी सुलेखा और छोटी चित्रलेखा।

मालव नरेश ने कहा, जब तुम्हें इतना सब मालुम था तो तुमने चित्रलेखा को ही क्यों माँगा?

युवक की आँखें आर्द्र हो उठीं। कण्ठ जैसे अवरुद्ध हो गया। उसने कहा “महाराज, आपकी प्रजा के सभी लोग जानते हैं कि आपकी दो कन्याएँ हैं। कह सकता हूँ उन्हीं के द्वारा मुझे यह बात मालुम हुई। किन्तु नहीं, मैं पूर्व से ही यह सब जानता हूँ। रही चित्रलेखा को माँगने की बात तो मैंने सुना है वह कहती है कि मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का निर्माण करता है। मैं उसकी इस बात की सच्चाई जानना चाहता हूँ कि मेरे साथ नितान्त विपरीत परिस्थितियों में वह किस तरह अपने जीवन को सँवारती है। बात को समाप्त करते हुए उसने कहा- तो मँगनी स्वीकार है।

स्वीकार है। कहते हुए महाराज मुस्करा पड़े। यह तो सब उनके मन की ही बातें थीं, जो अभी युवा कुष्ठी ने कही थीं।

विवाह की बात सुनकर चित्रलेखा ने कोई प्रतिकार न किया। किपनता के निश्चय के विरुद्ध उसने एक शब्द भी नहीं कहा। हाँ, प्रजाजनों तथा उसकी माता ने विरोध किया तो वह बोली, कि इस विवाह में उसकी सम्मति है। स्वेच्छा से ही उसने स्वीकृति दी है। तब सब शान्त हो गए।

विदा के समय महाराज का हृदय भर आया। उनके हृदय में बैठा राजा तिरोहित हो गया और पिता अचानक जाग्रत हो उठा। आँखें भर आयीं, उन्हें पश्चाताप होने लगा। उन्होंने भर्राये गले से कहा, बेटी मैंने कुष्ठी के साथ विवाह करके तुम्हारा जीवन दुःखमय बना दिया।

चित्रलेखा के भी नेत्रों से भावबिन्दु छलक रहे थे। अतीत के स्पन्दनों से भरपूर उस वातावरण को छोड़ने का दुःख उसे भी हो रहा था। उसने अपने मन को संयत करके गम्भीर स्वर में कहा-पिताश्री, इसमें आपका कोई दोष नहीं। आप तो केवल निमित्त मात्र हैं। होनी होकर ही रहती है फिर अनिष्ट कुछ हुआ ही नहीं। उनकी देह से मुझे क्या काम? आपने बताया है कि वह अपूर्व विद्वान हैं, महान ज्ञानी हैं। मुझे ऐसे ही पति की आवश्यकता थी।

इस उत्तर से उपस्थित जनसमूह रो उठा। चित्रलेखा ने अपनी सदाशयता, सेवा-भावना से सभी को मोहित कर लिया था। उससे विलग होना सभी के लिए कष्टकर था।

चित्रलेखा को लेकर युवा कुष्ठी विश्वजित् उद्यान में आ गए। मालव नरेश ने चाहा कि उद्यान में ही उन दोनों के लिए एक महल बना दें। किन्तु विश्वजित् को यह स्वीकार नहीं था। उसने कहा, विश्वजित् किसी की दया पर नहीं जीता। वह विश्व का है, विश्व उसका है। उसे महल की आवश्यकता नहीं। महाराज के नेत्र चित्रलेखा की ओर उठे, तो उसने भी अपने पति के कथन पर मौन सहमति प्रकट की।

अपने कुष्ठी साथियों की सहायता से उसी उद्यान में झोपड़ी बनाकर दोनों पति-पत्नी रहने लगे। चित्रलेखा ने पति सेवा की पराकाष्ठा कर दी। वह नित्यप्रति प्रातः उठती, उष्ण जल से विश्वजित् के घावों को धोती। उन पर औषधि लगाती। इस कर्तव्य-कर्म के कारण सभी घाव बन्द हो गए थे। उसके इस अपूर्व त्याग को देखकर विश्वजित् का अन्तःकरण भी द्रवित हो उठा।

एक दिन एक गहरी उसाँस लेकर वह कहने लगा, मुझे क्षमा करना देवि ! अपने स्वार्थवश तुम्हारा जीवन नष्ट कर दिया।

ऐसा न कहिए देव ! ऐसा न कहिए ! इस समय मैं जितनी सुखी हूँ, उतनी विगत जीवन में कभी नहीं रही। मानव सेवा फिर पति सेवा बड़े पुण्य से मिलती है। आप किंचित मात्र भी दुःखी न हों। बोलते-बोलते उसका गला भर आया।

चार मास तक यही क्रम चलता रहा। उन्हीं दिनों उज्जयिनी में गायत्री विद्या के महासिद्ध आचार्य विद्यारण्य आए हुए थे। पंचदर्शीकार विद्यारण्य श्रृंगेरी पीठ के शंकराचार्य होने के साथ दक्षिण भारत के विख्यात राज्य विजयनगरम् के शासक हरिहर के गुरु भी थे। उनके तप से समूचा भारत आलोकित हो रहा था। महाकाल की नगरी में उनके आगमन को सुनकर लोगों को ऐसा लगा, जैसे उज्जयिनी निवासियों पर कृपा करने के लिए कहा कालेश्वर ने स्वयं आचार्य का बाना पहन लिया हो।

उनके दर्शन के क्रम में चित्रलेखा भी एक दिन जा पहुँची। उसकी सारी बातें सुनकर वे कहने लगे-बेटी, गायत्री महामंत्र जीवन निर्माण का सूत्र है। भाग्य निर्माण की कुँजी है। तुम्हारे पति के पूर्व संचित पापों का अन्त निकट है। फिर भी प्रायश्चित आवश्यक है। तुम दोनों सृष्टि के आदि देव सविता का ध्यान करते हुए गायत्री साधना करो। रविवार के व्रत के साथ उन्होंने चौबीस लाख मंत्रों के गायत्री जप का विधान समझा दिया और कहा कि इसी एक वर्षीय साधना के द्वारा सब कुछ परिवर्तित हो जाएगा।

हुआ भी यही, पति-पत्नी ने विधिपूर्वक साधना की। एक वर्ष पूरा होते-होते विश्वजित् अपने पाँच सौ साथियों के साथ रोगमुक्त हो गए। उनके शरीर दिव्य कान्ति से झिलमिला उठे। चित्रलेखा का आनन्द गगन चूमने लगा। विश्वजित् ने कहा-एक दिन तुमने मेरा अतीत जानना चाहा था, उसका उत्तर देना का समय आ गया है। मैं स्वर्गीय राजा रत्नसिंह का पुत्र हूँ और चम्पापुरी का वर्तमान शासक हूँ। मेरी देह पर जब कुष्ठ रोग के चिन्ह उभर आए तो प्रजा की इच्छानुसार राज्य संचालन का भार मैंने अपने काका शूरसेन को अस्थाई रूप से सौंप दिया। शूरसेन राजकार्य में कुशल एवं प्रतापी थे। उनके संरक्षण में मेरा राज्य सुरक्षित रहेगा, ऐसा मेरा विश्वास था। मैं रोगमुक्ति की खोज में निकल पड़ा। आज तुम्हारे सहयोग से वह भी हो गया।

रोगमुक्ति की सूचना महाराज वीरभद्र को मिली। वह भागे-भागे आए। यहाँ आने पर पता चला युवा विश्वजित् चम्पापुरी का शासक भी है। इस खुशी के पीछे सक्रिय चित्रलेखा की साधना से वह अवगत थे।

कुछ दिन उज्जयिनी में रहने के पश्चात् मालव नरेश वीरभद्र, विश्वजित् और चित्रलेखा एवं विश्वजित् के साथियों के साथ चम्पापुरी आए। शूरसेन को सूचना मिलने पर वह आतुरता से दौड़े आए। उन्हें विश्वजित् से पुत्रवत् प्रेम था। उसे नीरोग देखकर उनकी खुशी का ठिकाना न रहा। उनके समेत नगरजन चित्रलेखा की कर्मनिष्ठा, तप साधना की प्रशंसा कर रहे थे। सबको विश्वास हो चुका था, सचमुच मनुष्य अपने भाग्य का निर्माता आप है। विपरीत परिस्थितियाँ नवनिर्माण में बाधक नहीं, बल्कि उनसे जीवट एवं संघर्षवृत्ति का ही जागरण होता है।

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Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
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Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
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