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Magazine - Year 1996 - Version 2

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समग्र परिवर्तन चेतना-स्तर ही सम्भव

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यंत्र-उपकरण खराब हो जाए, तो उनके अन्दर के कल-पुर्जोँ की ही सुधार-मरम्मत करनी पड़ती है। कारण कि बाहरी श्रेष्ठता का महत्वपूर्ण आधार भीतरी विज्ञान है। वह यदि गड़बड़ा जाय, लड़खड़ा जाय, तो बाह्य ढाँचा के ठीक दीखने पर भी वह किसी काम का नहीं रह जाता।

मनुष्य के साथ भी ठीक यही बात है। वह यदि श्रेष्ठ, शालीन और सज्जन है, तो यह उसकी भीतरी सुव्यवस्था का परिणाम है और यदि दुष्ट-दुर्जन है तो इसका भी कारण अन्दर की अव्यवस्था है। दोनों का आधार अन्तस् में ही स्थित है। वह यदि ठीक हो जाय, तो व्यक्ति के सुधरते देर न लगेगी। जिस समाज में व्यक्ति सुधर जाएँगे, वहाँ का समाज भी सभ्य होगा, यह निश्चित है।

आजकल लोग बदलना तो चाहते हैं और विकास की आकाँक्षा भी रखते हैं; पर वह सब बुद्धि के स्तर पर, चेतना के स्तर पर नहीं। यहाँ एक बात जान लेना जरूरी है कि बुद्धि के स्तर पर परिवर्तन कभी सम्भव नहीं; जो शक्य है वह इतना ही कि उस आधार पर नियंत्रण तो हो सकता है, रूपांतरण नहीं। नियंत्रण हुआ भी तो वह अस्थायी ही होगा और उसके उठते ही सब कुछ पूर्ववत् हो जाएगा। जो पहले परिवर्तन जैसा प्रतीत होता था, वह सब भ्रान्ति और नियंत्रण की तात्कालिक परिणति मालूम पड़ेगी।

संसार में साम्यवादी व्यवस्था एक प्रकार की क्रान्ति का परिणाम थी। वह भी अपने ढंग से समाज को सुधारना एवं बदलना चाहती थी और पूँजीवादी व्यवस्था में जिन त्रुटियों से व्यक्ति-व्यक्ति के बीच जमीन-आसमान जितना अन्तर रह गया था तथा जिसके कारण उस व्यवस्था में चोरी, उठाईगीरी, बेईमानी, ठगी, अपराध, अपहरण, हत्या जैसे काण्ड होते थे, उसे मिटाकर एकता, समता जैसा वातावरण पैदा करना चाहती थी, किया भी; पर यह व्यवस्था कितनी सफल रही, इसे समाजवादी देशों, विशेषकर सोवियत संघ के विघटन से भली-भाँति जाना-समझा जा सकता है। जिस व्यवस्था में भ्रष्टाचार की कल्पना नहीं की जा सकती, वहाँ करोड़ों रुपये का घोटाला पकड़ा गया। ‘अपराधी को मार दो, अपराध समाप्त हो जाएँगे’ जहाँ सुधार संबंधी यह नीति रही हो, वहाँ इसके बाद भी अपराध और अपराधी प्रच्छन्न रूप से उद्भिजों की तरह पनपते रहे, आखिर क्यों? कारण एक ही है कि यह एक बुद्धि के स्तर पर अपनायी गई व्यवस्था थी। इसे परिवर्तन की तुलना में नियमन कहना ज्यादा उचित होगा। क्योंकि जहाँ परिवर्तन घटित होगा, वहाँ फिर उसके पूर्व स्थिति में लौट जाने की सम्भावना समाप्त हो जाती है। परिवर्तन सदा स्थायी होता है। अस्थायी तो नियंत्रण होता है, जिसके हटते ही पुरानी स्थिति वापिस आ जाती है। साम्यवादी प्रणाली में यही हुआ। वहाँ आरंभ में ऐसा लगता है कि सब कुछ बदल गया; पर वास्तविकता इससे कोसों दूर होती है। कानून द्वारा रत्नाकरों को नियंत्रित कर लेने और उनकी गतिविधियों पर रोक लगा देने का यह तो अर्थ नहीं हुआ कि दस्यु, वाल्मीकि बन गये, उनका हृदय-परिवर्तन हो गया। शायद इस मर्म को न समझ पाने के कारण ही संसार में आये दिन ऐसी व्यवस्थाएँ बनती और बिगड़ती रहती हैं। जिस दिन इसे समझ लिया जाएगा, उसी क्षण परिवर्तन घटित हो जाएगा। फिर बुद्धि के स्तर पर बदलाव सम्पन्न कर लेने का कोई दुराग्रह न करेगा।

इन दिनों यह आग्रह इसलिए होता दिखाई पड़ता है; क्योंकि भौतिक जगत में बुद्धि को सर्वोपरि तत्व के रूप में मान्यता मिली हुई है। यहाँ कोई यदि प्रगति करता है, तो उसके पीछे बुद्धि कौशल ही कारणभूत होना स्वीकार किया जाता है और किसी की अवनति होती है तो उसका निमित्त भी प्रायः बौद्धिक विपन्नता ही माना जाता है। इसलिए लोग सब कुछ बुद्धि के आयाम में ही सम्पन्न कर लेना चाहते हैं। उनके लिए स्मृति का विकास भी बुद्धि के स्तर पर होना चाहिए और एकाग्रता का विकास भी। यह कितनी बेतुकी बात है। जो केवल चेतना के स्तर पर घटित हो सकते हैं, उन्हें हम बुद्धि के डाईमेंशन में सम्पन्न करना चाहते हैं। यह नितान्त असंभव है। बुद्धि के द्वारा तर्क, निर्णय, निष्कर्ष, शंका आदि ही हो सकते हैं। जहाँ बुद्धि का प्रयोग होगा, वहाँ शंकाएँ उत्पन्न होंगी और तर्क भी पैदा होंगे; क्यों और कैसे के सवाल भी खड़े होंगे। यह स्वाभाविक है। आदमी यदि ऐसा न करे, तो उसे बहुत बड़ा धोखा हो सकता है। दलील न हो, तो प्रवंचना हो सकती है और संदेह न हो तो, ठगी का सम्भावना बनी ही रहती है। इसलिए हर विश्वास के पीछे एक अविश्वास छिपाये रखना पड़ता है। तभी मनुष्य अपनी लौकिक सफलता कायम रख पाता है। तर्क की शक्ति न्यायालयों में देखी जा सकती है। वहाँ इसी आधार पर झूठ-सच का फैसला होता है। वहाँ दलील का प्रयोग न हो, तो कदाचित् निर्णय और न्यायालय दोनों ही बन्द हो जाएँ। जो वकील वहाँ तर्क देने में जितना कौशल का प्रयोग और प्रदर्शन करते हैं, उनकी सफलता की सम्भावना उतनी ही अधिक आँकी जाती है, जबकि कमजोर पक्ष मुकदमा हारता देखा जाता है। इस हार-जीत में सच-झूठ का उतना महत्व नहीं, जितना इस बात का कि किसने कितने सटीक और सबल तर्क प्रस्तुत किये, भले ही वह झूठे क्यों न हों, पर जीत सर्वदा उसी की होगी। सच्चे और निर्बल तर्क वालों को तो सर्वत्र पराजय ही झेलनी पड़ती है।

यह सब बुद्धि का चमत्कार है। इससे लौकिक प्रगति तो सम्भव है; पर जहाँ वैयक्तिक परिवर्तन या आत्मिक उन्नति की बात आती है वहाँ यह असहाय साबित होती है। इसके लिए तो प्रयोग के स्तर पर, अनुभव के स्तर पर उतरना पड़ेगा। बात तभी बन सकेगी, विकास तभी हो सकेगा, सुधार की संभावना फलवती तभी हो सकेगी। यह सुधार अन्तस् की प्रयोगशाला में, चेतना की अनुसंधानशाला में प्रवेश किये बिना असंभव है। कारण कि चेतना का जीवन-ध्यान का जीवन ही प्रयोग का जीवन है। कोई व्यक्ति उसे बुद्धि के आयाम में समझना चाहे, तो वह सफल न हो सकेगा, उसे समझ न सकेगा। आज तक ध्यान को जिसने भी समझा है, उसे प्रयोग के आधार पर समझा है। ज्ञान के आधार पर, मीमाँसा के आधार पर, तर्क और बुद्धि के आधार पर नहीं। यही रूपांतरण की कुँजी है।

जब यह कहा जाता है कि हमने स्वयं को सुधार लिया, आदतों को परिवर्तित कर लिया, तो वास्तव में इसका आशय विकृत चेतना को निकाल बाहर करने से होता है, असंतुलन को हटाने-मिटाने से होता है। यह विकृति न हटे, असंतुलन न घटे तो शायद सुधार संशोधन की प्रक्रिया भी सम्पन्न न हो सकेगी। सुधार सदा अन्तर का करना पड़ता है; क्योंकि बिगाड़ का मूलभूत कारण वहीं मौजूद होता है। बाहर तो उसकी अभिव्यक्ति मात्र होती है। बाहर तो उसकी अभिव्यक्ति मात्र होती है। उसका निमित्त ढूँढ़ना हो, तो हमें चेतना जगत में डुबकी लगानी पड़ेगी और यह देखना पड़ेगा कि उस सूक्ष्म विकृति से कौन-से अवयव और संस्थान प्रभावित हुए हैं, किन ग्रन्थियों ने काम करना बन्द कर दिया है, किन उपत्यिकाओं, किन मात्रिकाओं, कौन-से भ्रमरों, कैसी नाड़ियों और किस प्रकार के प्राणों के कारण यह उपद्रव खड़े हुए हैं। कारण जान लेने के उपरान्त चेतना विज्ञान के आधार पर उसका निवारण सरल हो जाता है।

आज अंगों की रुग्णता को मिटाने के लिए स्थूल-बौद्धिक उपचारों का प्रयोग किया जाता है। किसी के गुर्दे खराब हो गये हों, किसी की तिल्ली ने काम करना बन्द कर दिया, तो उसे ठीक करने के लिए औषधि का प्रयोग करते हैं। यह ठीक है कि दवाओं से आराम मिलता है, पर वह स्थायी होता है, ऐसा नहीं कहा जा सकता। उनसे बाह्य लक्षण दब भर जाते हैं; पर आन्तरिक असंतुलन यथावत् बना रहता है। इस असंतुलन को चेतना विज्ञान द्वारा ही ठीक किया जा सकता है। व्यसनियों का दुर्व्यसन, व्यभिचारियों का व्यभिचार ठीक करने का यही एकमात्र माध्यम है। इसी कारण पाश्चात्य देशों में रोगों के शारीरिक उपचार के साथ-साथ रोगियों का मानसिक लेखा-जोखा लेने का भी प्रावधान है। मनोवैज्ञानिक पड़ताल के दौरान इसी प्रक्रिया को पूरा किया जाता है। इससे बीमारियों के इलाज में काफी सहायता मिलती है। कई बार जो रोग औषधि प्रयोग से ठीक नहीं होते, वे मनोवैज्ञानिक उपचार से समाप्त होते देखे जाते हैं। ऐसा इसलिए, क्योंकि मनोविज्ञान चेतना विज्ञान के काफी निकट है। इसमें मन की गहराइयों में उतरकर व्यवहार की प्रतिकूलता का कारण खोजना पड़ता है और यह देखना पड़ता है कि किस मानसिक विकृति के कारण उक्त प्रकृति दोष पैदा हुआ। निमित्त ज्ञात हो जाने के बाद उस विकार को हटाने के लिए उपयुक्त सुझाव एवं संकेत मानसिक स्तर पर दिये जाते हैं, जिनका कि यदि नियमित रूप से अभ्यास किया गया, तो कुछ ही दिनों में रोगी स्वस्थ होते देखे जाते हैं। यह अन्दर की प्रक्रिया है। इसे अध्यात्म के निकट की विधा कह सकते हैं। यही कारण है कि मनःशास्त्री लोग आदतों के सुधार-संशोधन में का फल हद तक सफल होते पाये जाते हैं।

शरीरशास्त्र की खोज इससे स्थूल स्तर की है। वह आदतों, अभ्यासों, दोष-दुर्गुणों का कारण शारीरिक स्तर का मानता है और इसके लिए ‘रसस्रावों’ एवं ‘जीनों’ को जिम्मेदार बताता है। इन्हें यदि नियंत्रित किया जा सके, तो स्वभावों को बदल पाना सम्भव है, ऐसा विज्ञानवेत्ता कहते हैं; पर अभी तक ऐसी कोई विधा उनके हाथ लग नहीं पायी है, जिससे मनोभूमि को उच्च और उदात्त बनाया जा सके। कुछ अपवादों को यदि छोड़ दिया जाय, तो यही कहना पड़ेगा कि रसायनों द्वारा व्यवहार परिवर्तन संभव नहीं। यदि शक्य लगता प्रतीत होता भी है, तो यह स्थिति तभी वक बनी रह पाती है, जब तक औषधि सेवन जारी रहे, उसके बन्द होते ही दशा पूर्ववत् हो जाती है।अतः इसे परिवर्तन न कहकर अस्थायी नियंत्रण कहना ज्यादा समीचीन होगा।

स्थायी परिवर्तन जप, ध्यान, प्राणायाम जैसे चेतना को प्रभावित करने वाले अभ्यासों के बिना संभव नहीं। कई बार कुछ विशिष्ट किस्म के लोगों में इन आध्यात्मिक उपचारों की अनुपस्थिति में भी परिवर्तन होता दृष्टिगोचर होता है। वहाँ इसका कारण संकल्प बल होता है। यह एक आध्यात्मिक गुण है और चेतना को सीधे प्रभावित करता है। यह बल जिसमें जितने अंशों में होता है, उसमें आत्मिक प्रगति उसी हिसाब से होती चलती है। जहाँ आत्मोत्थान हो, वहाँ यह समझा जाना चाहिए कि चेतना के धरातल पर भारी फेर-बदल हो रहा है। यह आन्तरिक क्रिया की परिणति है, भले ही उसका दृश्य स्वरूप बाह्य स्तर का स्थूल जैसा क्यों न लगे।

यहाँ कहा यह जा रहा है कि बाहर यदि रूपांतरण सम्पन्न करना हो, तो शुभारम्भ भीतर से करना होगा। आज इसका उलटा हो रहा है और बाहर से बाहर को बदलने का प्रयास किया जा रहा है। अल्सर पेट में हो और लेप ऊपर चढ़ाया जाय- यह कितना हास्यास्पद है। कुछ ऐसा ही उपक्रम इन दिनों समाज सुधार के संबंध में अपनाया जा रहा है। विश्वभर में इस निमित्त बड़े-बड़े आँदोलन और अभियान रचे जा रहे हैं, जबकि समाज की इकाई व्यक्ति की उपेक्षा की जा रही है। सच्चाई तो यह है कि व्यक्ति-सुधार हो जाय, तो समाज-सुधार स्वतः घटित हो जाएगा; क्योंकि समाज की आत्मा व्यक्ति है। वह यदि कलुषित बना रहें, तो समाज रूपी शरीर की व्याधि दूर न हो सकेगी। आज भ्रष्टाचार, आतंकवाद, अनीति, अन्याय, अत्याचार, दंगे-फसाद को रोकने के लिए विश्व-स्तर पर क्या कुछ उपाय नहीं किये जा रहे हैं, इतने पर भी तथ्य यह है कि दिन-दिन उनमें बढ़ोत्तरी ही हुई है, कारण कि हमने आत्मा की जगह कलेवर में सुधार करना चाहा है, अन्तस् के स्थान पर बाह्य को बदलना चाहा है। यह असंभव है।

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