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Magazine - Year 1996 - Version 2

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श्रद्धा शक्ति है, विश्वास शिव

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आत्मशक्ति की अनुभूति के लिए ये दो ही सम्बल प्रख्यात हैं- श्रद्धा और विश्वास। तुलसीदास ने मानस के प्रारम्भ में ही मंगलाचरण के द्वितीय श्लोक में इसकी स्पष्ट व्याख्या की है-

भवानीश्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरुपिणौ। याभ्याँ बिना न पश्यन्ति सिद्धाः स्वान्तस्थमीश्वरम्॥

अर्थात् मैं उन श्रद्धा एवं विश्वास रूपी भवानी और शंकर की वन्दना करता हूँ, जिनके बिना अंतःकरण में अवस्थित परमात्म-सत्ता को सिद्धजन देख नहीं सकते। यह श्लोक संक्षेप में अध्यात्म के तत्वज्ञान के आधारों का निरूपण है।

प्रख्यात जर्मन विद्वान हेनरिख जीमर ने ‘मिथ्स एण्ड सिम्बल्स इन इण्डियन आर्ट एण्ड सिविलाइजेशन ‘ नामक अपने ग्रन्थ में लिखा है कि विष्णु, रुद्र, शक्ति, शिव, ब्रह्मा आदि विविध पौराणिक प्रतीक युगों-युगों के अनुभूत जीवन तथ्यों और सत्य की अभिव्यक्ति है। वस्तुतः देवसत्ताओं की आराधना और प्रसन्नता का लाभ उठाना तभी संभव है, जब हम उनके स्वरूप का ठीक-ठीक समझ सकें तथा उनके वर्णन-विश्लेषण के निहितार्थ को, उनमें अन्तर्निहित तत्वज्ञान को भली-भाँति हृदयंगम कर सकें।

भगवान शंकर और भगवती पार्वती का तात्विक स्वरूप क्या है? यह समझने के लिए शैव-शक्ति दर्शनों का गंभीर अध्ययन-मनन उपयोगी है। श्रद्धा और विश्वास अंतःकरण की शक्तियाँ हैं। स्थूल शरीर की शक्ति क्रिया है, सक्रियता के बिना न तो जीवित रहा जा सकता है। न ही प्रगति-उपलब्धि संभव है। इस सक्रियता का प्रेरक है- चिन्तन बुद्धि का व्यापार है। समझ-सूझबूझ, विचार, कल्पना, निर्णय सब इसी के अंग हैं। किन्तु चिंतन की दिशा क्या होगी, यह निर्भर करता है अंतः में उठने वाली भाव-संवेदनाओं के स्वरूप पर। अंतःकरण को ही कारण शरीर कहा जाता है। मनुष्य के प्रत्येक कार्य का आधारभूत कारण उसके अंतःकरण में उठी उमंगे, आकाँक्षाएं, प्रेरणाएँ ही होती हैं। अंतःकरण की प्रेरणा ही जीवन-दिशा का निर्धारण करती है। इस अंतःकरण में घनीभूत भाव संवेदना का नाम ही श्रद्धा है।

कोई भी व्यक्ति वही होता है, वैसा ही बनता चला जाता है, जैसी उसकी श्रद्धा होती है। बुद्धि और सक्रियता श्रद्धा के ही अनुगामी होते हैं। एक जैसी बुद्धि और एक जैसी क्रियाशीलता भिन्न-भिन्न दिशाओं में प्रयुक्त होने पर आकाश-पाताल जैसे अंतर उपस्थित करा देती है। यह अन्तर भिन्न-भिन्न श्रद्धा के ही परिणामों का होता है। अम्बपाली की श्रद्धा जब तक रूप-सौंदर्य की अधिकाधिक प्रशंसा प्राप्त करने में ही जीवन की सार्थकता देखती-समझती थी, जब तक वह नगर वधू थी। वही सौंदर्य, वही गतिशीलता, वही बुद्धि से, विवेक से, अध्यात्म से, आत्मविकास एवं लोकमंगल के अभ्यास से जुड़ गई तो जीवन की दिशाधारा ही बदल गई, वह प्रख्यात बौद्ध भिक्षुणी बन गई। लोगों में कामजन्य आकर्षण को पैदा करने वाली अब उनमें विवेक लूटने और लुटाने वाली अब उस वैभव को हेय एवं आत्मवैभव को ही वास्तविक उपादेय मानने लगी। रत्नाकर डाकू की श्रद्धा बदल गई तो वह महाकवि वाल्मीकि हो गया। महाविद्वान आचार्य रावण की श्रद्धा ने उसे क्रूरकर्मा राक्षस बना डाला। दुराचरण और निरंकुश भोग की श्रद्धा में दुर्योधन को तब तक चैन से नहीं बैठने दिया, जब तक अपने सभी स्वजनों, सम्बन्धियों, सहयोगियों का और स्वयं अपना भी विनाश उसने नहीं करा डाला। यदि उसकी श्रद्धा मातृत्व, मैत्री और सहयोग में रही होती, तो महाभारत न हुआ होता और आज भारतवर्ष का इतिहास ही भिन्न होता। उस महाविध्वंस में इतनी विकसित सभ्यता न नष्ट हुई होती तो संभवतः आज भी यह देश ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में अग्रणी ही रहा होता।

क्रिया और विचारणा भी चेतना की ही शक्तियाँ हैं। किन्तु उनका स्वरूप एवं उनकी दिशा श्रद्धा के ही अनुरूप होती है। इसलिए श्रद्धा को मानवीय चेतना की मूल शक्ति कहा जा सकता है। गीता में भी कहा है-

श्रद्धामयोऽयं पुरुषो यो यच्छ्रद्धः स एव सः।

अर्थात् व्यक्ति श्रद्धामय ही है। जिसकी जो श्रद्धा है वह वही है। तात्पर्य यही कि किसी का व्यक्तित्व क्या है, कैसा है। इसे जानने-समझने का एक ही अर्थ और एक ही उपाय है कि उस व्यक्ति की श्रद्धा का स्वरूप क्या है ? जीव की स्थिति श्रद्धा से लिपटी हुई है। जैसी श्रद्धा, वैसी स्थिति, वही स्वरूप।

भगवती पार्वती को जगज्जननी कहा गया है। यह स्वाभाविक ही है। श्रद्धा ही आन्तरिक व्यक्तित्व को जन्म देने वाली, उसके स्वरूप को निर्धारित, विकसित करने वाली दिव्य जननी है। यह श्रद्धा विश्वास से जुड़कर संकल्प और सक्रियता की प्रेरक बनती है। संकल्प तभी उत्पन्न होता है जब विश्वास दृढ़ होता है। जिस कार्य, लक्ष्य या बात पर विश्वास ही नहीं, उसके प्रति संकल्प उदय भी नहीं हो सकता। विश्वास की प्रतिक्रिया ही संकल्प है और संकल्प ही सक्रियता का जनक है। इसलिए विश्वास को श्रद्धा रूपी पार्वती के अनन्य सहचर हैं, विश्वास रूपी शंकर।

श्रद्धा व्यक्तित्व की आदि शक्ति है और विश्वास ही परम कल्याणकारी दिव्यसत्ता है। ‘श्रितृ’ धातु में ‘उत’ प्रत्यय जोड़कर ‘श्रत’ शब्द बनता है। ‘श्रित्र सेवायाम्’ के अनुसार इसका धात्वर्थ है- सेवा करना।

यह ‘श्रत’ भाव धारण किया जाना श्रद्धा है। जिसके प्रति सेवा की भावना रखी जाय, जिसे पुष्ट, प्रबल बनने में योग दिया जाय, उसके प्रति व्यक्ति की श्रद्धा है, यह मानना चाहिए। सेवा और उपासना बिना आत्मीयता के सम्भव नहीं। शास्त्र में कहा है-’शिवो भूत्वा शिवं यजेत्’ अर्थात् स्वयं शिव रूप बनकर ही शिव की उपासना, भजन, सेवा करनी चाहिए। अतः सच्ची श्रद्धा उसी के प्रति मानी जा सकती है, जिससे अभिन्न आत्मीयता की अनुभूति हो और जिसके जैसा स्वयं बनने की उत्कृष्ट इच्छा एवं प्रयास हो।

श्रद्धा और विश्वास इन दो बीजों का विकास रूप ही व्यक्तित्व वृक्ष है। जैसी श्रद्धा और जैसा विश्वास होता है, वैसी ही आकाँक्षा, प्रेरणा तथा वैसा ही संकल्प प्रबल होता है। उसी दिशा में सक्रियता बढ़ती है और तद्नुरूप साधन सहयोग जुटाये जाते हैं। गन्तव्य का निर्धारण विश्वास ही करते हैं। उस दिशा में निरंतर बढ़ते जाने की प्रेरणा और शक्ति उन्हीं से मिलती है। व्यक्तियों, साधनों और परिस्थितियों का सरंजाम उसी स्तर का जुटाया जाता है और जो कुछ अनायास जुटता चला जाता है, वह भी उसी के अनुरूप ही। अतः व्यक्तित्व की पहचान उसके भीतर गतिशील श्रद्धा एवं विश्वास से ही हो सकती है। विश्वास शब्द को ‘विश्’ और ‘वास’ इन दो शब्दों से मिलकर बना माना जाता है। ‘विश्’ का अर्थ है ‘प्रविष्ट होना’ तथा ‘वास’ का अर्थ ‘निवास करना’ है। जो भाव-संवेदना अंतःकरण में गहराई से प्रविष्ट हो, उसे विश्वास कहते हैं। अंतःकरण में गहराई से प्रविष्ट हो, वहीं निवास करे, गहराई तक जमी हो, उसे विश्वास कहते हैं। अंतःकरण में कुछ समय उमड़-घुमड़कर तिरोहित हो जाने वाली भाव तरंगें संकल्प, उपलब्धि और कल्याण का आधार नहीं बन सकतीं। स्थायी और सुदृढ़ विश्वास-भाव ही शंकर अर्थात् कल्याण करने में समर्थ हैं।

उत्कृष्ट श्रद्धा-विश्वास ही शिव-पार्वती का युग्म है। अस्थायी भावोन्माद न तो श्रद्धा है, न विश्वास। उससे न तो शक्ति प्राप्त होती है, न ही कल्याण। अंतःकरण में सुदृढ़ता से गहराई तब जमी हुई भावनाएँ और आकाँक्षाएँ ही श्रद्धा- विश्वास हैं। वे प्रगति एवं पुरुषार्थ का आधार हैं। कृतित्व तथा कल्याण का साधन- सम्बल वे ही हैं। उल्लसित वर्तमान और उज्ज्वल भविष्य सत्श्रद्धा एवं सत्विश्वास के द्वारा ही निर्मित होते हैं। जो आचरण में न अभिव्यक्ति हो, संकल्प के रूप में न उदित हो, प्रखर भावनाओं का जनक न बने, वह विश्वास नहीं। जो क्रियाशक्ति से न जुड़ सके, जो अंतःकरण में प्रगाढ़ भाव-संवेदनाओं के रूप में न स्थित हो और चिंतन तथा क्रिया का आधार न बन सके वह श्रद्धा नहीं। रामचरितमानस में गरुड़ ने काकभुशुण्डि से आत्मसाधना की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए कहा है कि- “सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई।” सात्विक श्रद्धा ही सुन्दर गाय है। यह गाय “जप, तप, व्रत, यम, नियम, अपारा” यानि, यम, नियम, जप , तप आदि चारा ही खाती है। यह चारा हरा हो, उसमें जीवन हो प्राण हो। जीवंत संवेदनाएँ ही इन्हें प्राणवान बनाती रही हैं।

तेई तृन हरित चरै जब गाई। भाव बच्छ शिशु पाई पेन्हाई ॥

अर्थात्- ऊपर कहे हरे चारे को जब श्रद्धा रूपी धेनु चरती है और उससे पोषण प्राप्त करती है, तब भाव रूपी बछड़े को देखकर वह पिन्हाती है, उसके थनों में दूध उतर आता है। इस दूध को निर्मल मन रूपी अहीर विश्वास रूपी पात्र में दुहता है। श्रद्धा का दूध भाव रूपी पात्र में दुहता है। श्रद्धा का दूध भाव रूपी बछड़े को पाकर निर्मल मन द्वारा विश्वास के बर्तन में दुहा जाता है।

इससे श्रद्धा का तात्विक स्वरूप उसके पोषण, आहार या आधार और विश्वास से उसका सम्बन्ध स्पष्ट होता है। भाव-विहीन, जप-तप विहीन, नियमों का उल्लंघन करने वालों की श्रद्धा से धर्म रूपी दूध नहीं दुहा जा सकता। उस स्थिति में विश्वास का बर्तन रीता ही रह जाता है। उस बर्तन को दूध से भरने के लिए साधना के श्रद्धा, बाँझ ही बनी रहती है।

श्रद्धा शक्ति है और विश्वास शिव बिना शक्ति के शिव शव है। बिना शक्ति के और शिव के जीवन, जीवन नहीं है, वह निष्फल है। सार्थक जीवन के लिए श्रद्धा एवं विश्वास रूपी भवानी तथा शंकर की नित्य आराधना आवश्यक है तभी अंतरात्मा की चेतना शक्ति को देखा-समझा जा सकता है।

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