
Magazine - Year 1997 - Version 2
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Language: HINDI
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बड़ा निराला है प्रतीकों का मनोविज्ञान
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प्रतीक और संकेत तब भी थे और अब भी हैं। जब भाषा नहीं थी, तब ये ही पारस्परिक संवाद का माध्यम थे। भाषा के जन्म के बाद भी इनका प्रयोग बन्द नहीं हुआ। सभ्यता की शुरुआत से ही इनके द्वारा भावनाओं तथा आन्तरिक मनोवृत्तियों का आदान-प्रदान किया जाता रहा है। भाषा से भी यही कार्य किया जाता है, किन्तु इसमें जटिल विचार-प्रक्रिया चलती है, समय भी अधिक लगता है, जबकि संकेत तथा प्रतीक आसानी से तुरन्त प्रभाव डालते हैं। किसी विषय के स्पष्टीकरण के लिए शब्द न मिलने पर विशेष हाव-भावों के प्रयोग से समस्या हल हो जाती है। मौन रखना आवश्यक हो या फिर शब्द अधिक प्रभावशाली न हों, तब भी प्रतीकों अथवा संकेतों के माध्यम से अभीष्ट समझाया जा सकता है। आत्माभिव्यक्ति सही मायने में शब्दरहित भाव संचार के द्वारा ही की जा सकती है, क्योंकि कही गयी बात असत्य भी हो सकती है, जबकि शब्दरहित संकेतों के भ्रामक होने की सम्भावना रहते हुए भी ये अधिक विश्वसनीय हैं। इनसे अपेक्षाकृत सार्थक अभिव्यक्ति होती है।
आज के जमाने में विज्ञानवेत्ताओं, अनुसंधानकर्ताओं ने इस विधा पर गहरी खोज-बीन शुरू की है। समाज मनोविज्ञानियों एवं मनश्चिकित्सकों ने अपने इस तरह के सम्मिलित प्रयासों के माध्यम से यह स्पष्ट करने की कोशिश की है कि इससे मानवीय जीवन के कई अनछुए पहलुओं को उजागर किया जा सकता है। इस तरह के अध्ययन से मानव-चेतना की कई अनदेखी-अनजानी बातें पता चल सकती है। इतना ही क्यों? सम्भव है इससे मानव-जीवन के लिए कोई नयी सम्भावना हाथ लग जाए।
आधुनिक विज्ञान की इस बारे में पहली शुरुआत इंग्लैण्ड में हुई। सन् 1969 में आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी में शब्दरहित संचार पर प्रथम अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन आयोजित किया गया। प्रोफेसर राल्फएक्सलाइन एवं माइकन अरगील ने इसमें मुख्य भूमिका निभाई। उनका कहना था कि मनुष्य भाषा के द्वारा सम्पर्क करता है, किन्तु इसके पूरक के रूप में एवं इसे और अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए कुछ शब्दरहित संकेतों का सहारा लेता है। शब्दरहित संचार द्वारा चार मुख्य कार्य होते हैं- भावनाओं तथा मनोवृत्तियों का दूसरे के समक्ष प्रकटीकरण, आत्मप्रदर्शन, धार्मिक कृत्य तथा कथन को अपेक्षाकृत अधिक प्रभावपूर्ण एवं स्पष्ट बनाना।
अकेले मानव ही नहीं, पशु-पक्षी भी अपनी भावनाओं एवं मनोवृत्तियों के प्रकटीकरण में शब्द रहित संचार का खासतौर पर सहारा लेते हैं। इस सन्दर्भ में ऐकमैन एवं फ्रीजन ने अपनी पुस्तक ‘अनमास्किंग द फेस’ में काफी बहुमूल्य एवं महत्वपूर्ण विचार व्यक्त किये हैं। उन्होंने अपने इस लोक विख्यात ग्रन्थ में चेहरे के छह मुख्य भाव बताए हैं। उनके अनुसार ये भाव हैं- प्रसन्नता, उदासी, भय, आश्चर्य, क्रोध एवं घृणा। मानव मनोविज्ञान के मर्मज्ञ इजार्ड ने अपने ग्रन्थ ‘ह्यूमन इमोशन्स’ में इन भावों में दो की और बढ़ोत्तरी की है। ये हैं- रुचि एवं लज्जा। इनके अतिरिक्त कतिपय मुख्य आन्तरिक वृत्तियाँ भी हैं- मित्रता, क्रूरता, श्रेष्ठता, हीनता तथा प्रेम।
ये सभी विभिन्न भाव और वृत्तियाँ चेहरे पर अपने वाले उतार-चढ़ाव तथा बोलने के स्वर से प्रकट होती हैं। देखने के तरीके, सान्निध्य, स्थूल सम्पर्क तथा शारीरिक मुद्राओं द्वारा भी इन सभी भाव एवं वृत्तियों की अभिव्यक्ति होती है। इनमें से कुछ भाव तो अपने आप ही चेहरे पर आ जाते हैं, जबकि कुछ को काफी कोशिश के बाद चेहरे पर लाया जाता है। इन स्वतः प्रकट भावों को भी स्वेच्छा से नियंत्रित करना या बदलना सम्भव है। मनोवैज्ञानिकों का मत है कि उचित संकेत का प्रभावशाली संचार करना भी एक कला है। इसकी उत्कृष्टता पर ही निर्भर है। इसी कारण मानसिक रोगियों के सामाजिक व्यवहार में इन संकेतों का सर्वथा अभाव रहता है। यही नहीं, ऐसे व्यक्ति प्रायः बहुत ही कम औरों की ओर देखते- मुस्कराते तथा अन्य चेष्टाएँ करते हैं जबकि सामाजिक व्यवहार में कुशल व्यक्ति वास्तविक मनोभावों के स्थान पर समय व परिस्थिति के अनुकूल भाव ले आने में सक्षम होते हैं।
मइकल अर्गील ने ‘बॉडिली कम्यूनिकेशन’ पुस्तक में लिखा है कि प्रयोगों की एक शृंखला द्वारा आत्मीयता प्रकट करने के लिए शाब्दिक संदेशों से अधिक प्रभाव चेहरे के भावों तथा बोलने के स्वर का पड़ता है। शब्दरहित अभिव्यक्ति का भाषण तथा विस्तृत जानकारी देने के अवसरों पर अधिक न उपयोग होने के बावजूद भी इसी के द्वारा वक्ता तथा श्रोता एक-दूसरे के भावों का अध्ययन करते हैं।
विभिन्न भावों की सर्वाधिक जानकारी चेहरे से ही हो पाती है। कुछ तो बहुत स्वाभाविक होते हैं। जन्मजात गूँगे-बहरे शिशु भी मुसकराते, हँसते तथा रोते हैं। देखने के साथ मुस्कराना सबसे अधिक प्रभावशाली संकेत है। तीन सप्ताह का शिशु भी ऐसा करके अपने अभिभावकों के प्रति सन्तुष्टि प्रकट करता है। वैज्ञानिकों के अनुसार चेहरे के भावों का नियंत्रण बीस माँसपेशियाँ करती हैं। ये फेशियल नर्वस द्वारा प्रेरित होती हैं- जो सीधे मोटर कॉर्टेक्स के संचालन में होती हैं। नृतत्त्वशास्त्रियों का मत है कि भावों एवं संकेतों का प्रदर्शन वंश-परम्परा एवं संस्कृति से सीखा जाता है। मुख्य शब्दरहित संकेतों का भिन्न संस्कृतियों में भी समान अर्थ होता है, किन्तु भिन्न संस्कृतियों में अवसर के अनुरूप चेहरे के भावों में भिन्नता देखी जाती है। ऐकमैन के अनुसार, एक जापानी सार्वजनिक स्थान पर घृणास्पद दृश्य को देखकर घृणा के भाव उसके चेहरे पर उभर आते हैं। एक जापानी के लिए दूसरे जापानी के भावों को जानना कठिन है, जबकि किसी अंग्रेज या इटली वासी के भावों को वे अधिक समझ सकते हैं। ऐसा इसलिये है क्योंकि जापान में उदासी, क्रोध या अन्य नकारात्मक भावों का प्रदर्शन असभ्यता माना जाता है।
चेहरे के भावों पर नियंत्रण जितना सहज है, बोलने के स्वर व शरीर की मुद्राओं पर नियंत्रण उतना सहज नहीं है। अतः चेहरे पर अपने से रोके गये भाव इनके द्वारा प्रकट हो जाते हैं। भावाभिव्यक्ति का चेहरे के बाद स्वर ही दूसरा प्रमुख रास्ता है। धीमी गति और नीचा स्वर उदासी का, उच्च स्वर, रुकावट युक्त, हाँफती आवाज उत्तेजना का परिचायक है। भावों की स्वाभाविक अभिव्यक्ति चेहरे से अधिक वाणी कर देती है।
देखने की शैली से भी मनोभाव प्रकट होते हैं। जिनसे हम प्रेम करते हैं। उनसे अधिक उन लोगों को देखना चाहते हैं, जो हमें अधिक आत्मीय होते हैं। बोलते समय अधिक देखना तथा सुनते समय कम देखना प्रभुत्व दर्शाता है। नीचे से लज्जा, ग्लानि एवं उदासी के भाव प्रकट होते हैं। स्पर्श के विभिन्न तरीकों से भी विभिन्न संस्कृतियों में प्रेम प्रकट किया जाता है। निकटता रखना या पास बैठना भी प्रेम को प्रकट करता है। मेज़ के सिरे पर बैठना प्रभुत्व दर्शाता है। इसी तरह शरीर की मुद्राओं से भी कुछ भावों का ज्ञान होता है। टाँगें फैलाकर, पीछे की ओर झुकना व हाथों पर सिर टिकाना अरुचि का द्योतक है।
शब्दरहित संकेतों द्वारा भावों को प्रकट करने की क्षमता अलग-अलग लोगों में भिन्न-भिन्न होती है। स्वतः प्रकट होने वाले संकेत महिलाओं तथा बहिर्मुखी व्यक्तियों में अधिक देखे जाते हैं, जबकि निराश व्यक्तियों व मानसिक रोगियों में कम देखने को मिलते हैं। स्वेच्छा से प्रकट किये गये भाव समाज-व्यवहार में कुशल लोगों तथा नित्य बहुसंख्य लोगों के सम्पर्क में रहने वालों में अधिक देखे जाते हैं।
शब्दरहित संकेतों को समझना भी अपनी व्यक्तिगत क्षमता पर निर्भर करता है। मानव शिशु पाँच-छह माह की उम्र से ही चेहरे के भावों को पहचानने लगता है। यह सीखने का नहीं, वरन् परिपक्वता का परिणाम है। परिस्थिति के अनुसार एक संकेत के भिन्न-भिन्न अर्थ हो सकते हैं विवेकवान व्यक्ति स्वैच्छिक तथा स्वतः उत्पन्न दोनों प्रकार के संकेतों को भली प्रकार समझ लेते हैं। महिलायें इनकी खासकर स्वैच्छिक संकेतों की बेहतर जानकार होती हैं। वे स्वर तथा शरीर की मुद्राओं की अपेक्षा चेहरे पर अधिक ध्यान देती हैं, जबकि पुरुष स्वर पर ही ध्यान देता है। लड़कियों में यह योग्यता बाल्यावस्था में ही आ जाती है। हालाँकि जो महिलायें पुरुषों की तरह भावों को समझ लेती हैं, उन्हें लोकप्रियता नहीं मिलती। इसका कारण यह हो सकता है कि महिलाओं से विनम्र तथा नमनीय रहने की अपेक्षा की जाती है। मनोरोगियों की इस क्षेत्र में बहुत कम समझ होती है। अपराधी प्रकृति के लोग अत्यधिक संवेदनहीन देखे जाते हैं। उन्हें तब तक यह ज्ञान नहीं हो पाता है कि वे किसी को कितना क्रोधित कर रहे हैं, जब तक लड़ाई नहीं शुरू हो जाती।
अलग-अलग संस्कृतियों में विभिन्न संकेतों द्वारा विशेष सन्देश देने की परम्परा रही है। पाँचों अंगुलियाँ एक साथ जुड़ी हुई अपनी हथेली ऊपर की ओर उठाने का अर्थ ग्रीस में ‘अच्छा’, इटली में ‘एक प्रश्न’, ट्यूनिसीया में धीरे-धीरे तथा स्पेन में ‘बहुत’ होता है। अधिकाँश यूरोप में सिर को दायें-बायें हिलाने का अर्थ इनकार होता है, जबकि ग्रीस तथा दक्षिणी इटली में सिर को पीछे की ओर झटकना ‘इनकार’ दर्शाता है। अरब में पैर का तलवा दिखाने को बहुत असभ्यता माना जाता है, क्योंकि इसका अर्थ है- तुम मेरे पैरों की धूल के समान हो। ग्रीस में खुला हाथ दिखाना और भी असभ्यता है, क्योंकि इसका अर्थ है- मैं तुम्हारे चेहरे पर मल पोतना चाहूँगा। बोलने के स्थान पर संकेतों- चिह्नों के प्रयोग के कई कारण हैं, जिनमें दूरी- संचार, युद्ध, पानी के अन्दर तैरना आदि है। इटली में बातचीत में संकेतों का काफी ज्यादा प्रयोग किया जाता है।
किसी भाषण के दौरान श्रोता सिर हिलाकर तथा चेहरे के भावों से वक्ता को अपनी रुचि -अरुचि का बोध कराते हैं। वक्ता भी बोलने के दौरान बीच-बीच में अपने श्रोताओं के मनोभावों का अवलोकन कर लेते हैं। सामान्यतया लोग बोलते समय जितना देखते हैं, उससे दो गुना सुनते समय देखते हैं। ऐसा इसलिये क्योंकि बोलते समय-विशेषकर भाषण के आरम्भ में वक्ता का अधिक देखना उसकी एकाग्रता में विघ्न डालेगा, जबकि श्रोता सुनने के अतिरिक्त वक्ता के हाव-भाव में रुचि रखने के कारण अधिक देखते हैं। इसके विपरीत प्रभुत्व सम्पन्न व्यक्ति बोलते समय जितना देखते हैं, उतना सुनते समय नहीं क्योंकि उनके लिए सुनना महत्वपूर्ण नहीं, पर बोलते समय श्रोता कितना सुन रहे हैं, यह वे देखना चाहते हैं।
सुविख्यात मनीषी के. एवरक्लोम्बाई ने ‘ब्रिटिश जर्नल ऑफ डिसीजेज ऑफ कम्यूनिकेशन’ में अपने शोधपत्र में लिखा है कि हम मुँह से बोलते हैं, पर वार्तालाप सम्पूर्ण शरीर से करते हैं। यही क्यों वेशभूषा के द्वारा बिना कुछ कहे भी संदेश दिया जा सकता है। कोई चिकित्सक या वकील अपनी वर्दी में जो प्रभाव डालता है, वह साधारण वस्त्रों में सम्भव नहीं। अमेरिका के एक महाविद्यालय की फुटबाल टीम ने मैच जीतने पर ज्यादातर छात्रों ने महाविद्यालय की टी. शर्ट पहननी शुरू कर दी, क्योंकि यह उनकी विजय का प्रतीक बन गयी।
कुछ धार्मिक कृत्य जैसे विवाह संस्कार आदि में प्रतीकों के द्वारा विशेष संदेश दिये जाते हैं। ये प्रतीक सामाजिक सम्बन्धों तथा चिन्तन-व्यवहार में भारी परिवर्तन ला देते हैं। एक अंगूठी अथवा गाउन पहनाने तथा पादरी के स्पर्श कर देने से पति-पत्नी का सम्बन्ध बन जाता है। शब्दरहित संकेतों एवं प्रतीकों के कारण पादरी की शक्तियाँ बढ़ जाती हैं। ईसाइयों के कुछ धार्मिक प्रतीक हैं- डबलरोटी, शराब, क्रास । अन्य धर्मों में मृत्यु व जीवन, सूर्य व चन्द्र प्रतीकों की पूजा की जाती है। हिन्दुओं में स्वस्तिक का चिन्ह एवं मूर्ति पूजा इसी का विकसित एवं परिष्कृत रूप है।
धार्मिक भावनाओं को जगाने के लिए ही संगीत, खुशबू, अंधकार, ज्योति, एकान्त तथा विशेष मूर्तियों का उपयोग किया जाता है। किसी राष्ट्र या विशेष समूह को विशेष चिन्ह या ध्वज के द्वारा पहचाना जाता है। ये प्रतीक-चिन्ह लोगों की धार्मिक, आध्यात्मिक, राष्ट्रीय भावनाओं से गहराई तक जुड़े होने के कारण अत्यन्त प्रभावशाली होते हैं। रेमण्ड कर्थ के अनुसार- “संकेतों का ऐसा महत्व योग्यता, स्थायी प्रभाव व एक सृजन शक्ति है- जो शब्द अकेले नहीं कर सकते।” प्रतीकों, संकेतों के साथ शब्दों का प्रयोग उनके अर्थ को अधिक स्पष्ट व प्रभावशाली बनाकर भावनाओं पर गहरा प्रभाव डालता है। ये प्रतीक और संकेत पुरातनकाल से हमारे जीवन में रचे-बसे हैं। इन्हें पहचानने, जानने व अनुभव करने की कला सीखकर हम सामाजिक जीवन में अपेक्षाकृत अधिक कुशल, सक्षम एवं आत्मीयतापूर्ण व्यवहार निभा सकते हैं साथ ही औरों का सहज प्रेम पाकर कृतकृत्य हो सकते हैं।