
Magazine - Year 1997 - Version 2
Media: TEXT
Language: HINDI
Language: HINDI
अब दवाइयाँ खेत-खलिहानों में पैदा होंगी
Listen online
View page note
Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
इन दिनों बीमारों को रोग की स्थिति में गोलियाँ और कैप्सूल खाने पड़ते हैं, पर आने वाले समय में इनकी जगह सब्जियाँ खा लेने से ही शायद काम चल जाये। ऐसी सम्भावना जीन वैज्ञानिकों ने व्यक्त की है और कहा है कि तब दवाइयाँ फैक्ट्रियों में नहीं, वरन् खेतों में उगेंगी।
इसे विज्ञान की सफलता ही कहनी चाहिये कि जो रसायन पहले जीव-जन्तुओं से प्राप्त किये जाते थे, उन्हें अब वनस्पतियाँ पैदा करेंगी। इस नवीन खोज से उन लाखों निरीह प्राणियों की हत्या से बचा जा सकेगा, जो प्रतिवर्ष विज्ञान की बलि चढ़ जाया करते थे। शरीर शास्त्रियों को जब यह ज्ञात हुआ कि प्राणियों के जीन्स की कलमें वनस्पतियों में लगाया जा सकना सम्भव है, तो उन्होंने इस दिशा में तरह-तरह के प्रयोग करने आरम्भ किए, जिसके फलस्वरूप उन्हें कई महत्वपूर्ण सफलताएँ हस्तगत हुईं और यह जाना जा सका कि मानवी जीन्स की खेती पौधों में सरलतापूर्वक की जा सकती है।
जानने योग्य तथ्य यह है कि ‘जीन’ जीवधारियों में पायी जाने वाली वह इकाई है, जो उनके आकार-प्रकार शक्ल−सूरत, रूप-रंग गुण-अवगुण जैसी समस्त निजी विशेषताओं के लिये जिम्मेदार होती है। इसमें कोई जीन-परिकर भी उत्तरदायी हो सकता है अथवा एक अकेला जीन भी। अलग-अलग खूबियों के लिये पृथक्-पृथक् समूह अथवा एकल जीन होते हैं। इन्हीं को पहचानकर जब किसी विशेष जीन अथवा जीन-समूह को किसी पौधे में प्रविष्ट कराया जाता है, तो उस में वही खूबी पैदा हो जाती है, जो उस प्राणी में थी।
यहाँ प्राणियों के गुण वनस्पतियों में उत्पन्न करने का मात्र इतना ही तात्पर्य है कि उनमें पैदा होने वाले ऐंजाइम और रसायन जीन प्रत्यारोपण के साथ पौधों में भी निर्मित होने लगते हैं। इसका यह अर्थ नहीं लगाया जाना चाहिये कि उन जैसे चलने-फिरने बोलने अथवा आकार-प्रकार सम्बन्धी वैशिष्ट्य वनस्पतियों में उत्पन्न हो जायेंगे। यदि यह प्रयोग पूर्णतया सुफल रहा, तो आगामी समय में चिकित्सक दवाइयों के अपने पुर्जों में रासायनिक गोलियों के स्थान पर यह लिखा करेंगे कि बीमार को सुबह-दोपहर-शाम एक-एक शलजम और आलू एक सप्ताह तक खिलाया जाये। ध्यान देने योग्य बात यह है कि ये साधारण खेतों में आने वाली सामान्य सब्जियाँ नहीं होंगी। इन्हें जीन तकनीक के प्रयोग से कुछ विशेष खेतों में पैदा किया जायेगा और ये दवाओं के स्थानापन्न होंगे। इनको सिर्फ मरीज ही खा सकेंगे। सर्वसाधारण के उपयोग के लिये ये नहीं होंगे। इनकी सर्वप्रमुख विशेषता यह होगी कि वाँछित तत्व इनमें प्राकृतिक रूप से ही मौजूद रहेंगे।
इस प्रकार के सफल प्रयोग करने का श्रेय स्विट्जरलैंड के विज्ञानवेत्ताओं को मिला। यहाँ के शरीर शास्त्रियों ने एक ऐसे मानव जीन को शलजम के पौधे में डाला, जो इण्टरफेराँन पैदा करता था। इण्टरफेराँन एक प्रकार का प्रोटीन है। यह वायरसों को नष्ट करता है। वैज्ञानिकों का विश्वास था कि इण्टरफेराँन निर्मित होने के कारण शलजम अब स्वस्थ-सुरक्षित रहेंगे, वायरसों का उन पर आक्रमण नहीं होगा, पर ऐसा नहीं हो सका। यह उनकी आस्था पर एक तरह का कुठाराघात था, किन्तु इससे वे विचलित नहीं हुए। जब ऐसे शलजम का उन्होंने परीक्षण किया, तो विदित हुआ कि उनमें बड़ी मात्रा में इण्टरफेराँन निर्माण हुआ है। यह इण्टरफेराँन ठीक वैसा ही था, जैसा मानव शरीर में पाया जाता है। इतना ही नहीं, उसकी क्रियाशीलता और कार्यपद्धति भी उसी जैसी थी। यह उसका उत्साहवर्द्धक पक्ष था। अब वैज्ञानिकों के हाथ एक ऐसी सरल, सस्ती और निरापद प्रणाली लग गई थी, जिसके द्वारा बड़े परिणाम में यह रसायन नैसर्गिक रूप से बनाया जा सके।
एक असफल प्रयोग के सार्थक परिणाम का यह एक अच्छा उदाहरण है। वनस्पति शास्त्री इस प्रयोग के द्वारा शलजम की खेती को वायरसों के हमलों से सुरक्षित रचाना चाहते थे, किन्तु इसके उपरान्त जो सूत्र उपलब्ध हुआ, उससे भविष्य में स्वास्थ्य-रक्षा के क्षेत्र में सुनिश्चित रूप से एक नवीन क्रान्ति आएगी, ऐसा विशेषज्ञों का मत है।
एक अन्य प्रयोग में कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के प्राणिशास्त्रियों ने ‘एण्टीबॉडी’ पैदा करने वाला एक ऐसा जीन तम्बाकू के पौधे में डाला कि उसने पादपीय ‘एण्टीबॉडी उत्पन्न करना शुरू कर दिया। ‘एण्टीबॉडी जन्तु एवं मनुष्य के शरीर में कार्य करने वाली ऐसी ‘सैनिक’ हैं, जो जीवाणुओं और विषाणुओं के आक्रमण से शरीर की रक्षा करती है। किसी भी जीवाणु का जब हमला होता है, तो वे उनसे लड़ने के लिये तत्पर हो उठती है। इस प्रकार सदैव सतर्क सिपाही की तरह वे हमारी रक्षा करती हैं। तम्बाकू के पौधों में बनने वाली इस ‘एण्टीबॉडी का नाम वैज्ञानिकों ने “प्लाण्टीबॉडी’ रखा है। इन्हें बच्चों के लिए निर्मित डिब्बाबन्द दूध आदि में मिलाने की सोची जा रही है।
इस शृंखला की अगली कड़ी के रूप में ‘हेसेल्टन फर्मास्यूटिकल’ नामक एक अमरीकी कम्पनी के अनुसंधानकर्ताओं ने जब वहाँ के एक स्थानीय जंगली पौधे में एक विशिष्ट मानवी जीन डालता, तो पौधा ‘ल्यूएनकेफैलिन’ नामक एक महत्वपूर्ण रसायन पैदा करने लगा। उल्लेखनीय है कि उक्त रसायन मानवी मस्तिष्क का एक अत्यन्त उपयोगी उत्पाद है। इसका उपयोग कई प्रकार की औषधियों के निर्माण में किया जाता है।
अब इसी प्रकार के प्रयोग अनेक देशों की दवा निर्माता कम्पनियों और शोध संस्थानों ने आरम्भ किये हैं और कितने ही प्रकार के मूल्यवान रसायन उत्पन्न कर रहे हैं। कुछेक कंपनियाँ आलू और तम्बाकू से मानवी महत्व का उपयोगी प्रोटीन ‘एल्ब्यमिन’ बना रही हैं। आग से जले लोगों के लिए यह एक प्राण रक्षक पदार्थ की भूमिका निभाता है। इसके अतिरिक्त भी इसके अगणित उपयोग हैं।
फलों और सब्जियों में दवाइयाँ भरी होने से एक साथ दोहरे प्रयोजन पूरे होंगे । जहाँ एक ओर से वे औषधि की आवश्यकता पूरी करेंगे, वहीं साथ-साथ शरीर को पोषण भी प्रदान करेंगे। इससे पृथक्-पृथक् दवा लेने और भोजन करने के झंझट से बचा जा सकेगा। स्वास्थ्य रक्षा के लिए भविष्य में रासायनिक दवाओं के स्थान पर लोगों को हरी सब्जियाँ खानी पड़ें, तो कोई आश्चर्य नहीं।