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Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


सावधान! कहीं आप ‘फास्टफूड’ के रूप में जहर तो नहीं खा रहे?

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तेजी से दौड़ती जिन्दगी और समयाभाव ने रोजमर्रा के जीवनक्रम में फास्टफूड का आविष्कार किया है। आज यह भोजन का अंग बन चुका है। महानगरों की फास्टलाइफ बेहतर फास्टफूड की ओर आकर्षित हुई है। युवाओं के लिये तो जैसे यह खास फैशन है। युवक स्मार्ट और पतले बनने के लिए एवं युवतियाँ अपने शारीरिक सौंदर्य को बढ़ाने हेतु सन्तुलित भोजन के बदले फास्टफूड की ओर अग्रसर हो रहे हैं। इस खाद्य क्रान्ति ने समाज के हर आयु एवं वर्ग को प्रभावित किया है। पाश्चात्य जीवनशैली की यह देन हमारी अपनी जिन्दगी पर छाती जा रही है, परन्तु इसके झटपट तैयार होने और सुन्दर दिखने, स्वादिष्ट लगने के मुखौटों के पीछे झाँकने की किसी को फुर्सत नहीं। सच तो यह हैं कि यह खाद्य धीमा जहर है, जो हमारे शरीर एवं मन दोनों को धीरे-धीरे ही सही, पर पूरी तरह समाप्त करता जा रहा है। इस रासायनिक भोजन के बदले सन्तुलित एवं प्राकृतिक खाद्य पर निर्भर रहना ही एकमात्र विकल्प है।

जिसे फास्टफूड कहा जाता है, दरअसल वह पाश्चात्य जीवनशैली की एक बेबसी या मजबूरी है। वहाँ के परिवार के सभी सदस्य कामकाजी होने के कारण यह उनकी जरूरत बन गयी है। वहाँ के लोग भी इसके अस्वास्थ्यकर परिणामों को देखकर इसके खिलाफ खड़े हो गये हैं और हम लोग हैं, जो अपनी आँखें मूँदकर विवेक को ताक पर रखकर उसे अपनाने में गर्व महसूस करते हैं। इटली का मशहूर पीजा यहाँ आकर छा गया है। बर्गर यूरोप और अमेरिका का लोकप्रिय भोजन है। बर्गर की शाकाहारी एवं माँसाहारी दोनों ही किस्में प्रचलित हैं। अपने देश के उच्चवर्ग में जहाँ सैंडविच, हाटडॉग, आइसक्रीम और शीतल पेय की लोकप्रियता बढ़ रही है तो वहीं मध्यवर्गीय परिवारों में कैंडी, पेस्ट्री, कुकी, टाँफी, स्वीट ड्रॉप, जेम, जेली, कैचप आदि का आकर्षण प्रबलतम हो रहा है।

वैज्ञानिकों और पर्यावरणविदों दोनों ने ही इसके इस्तेमाल के प्रति सचेत किया है। विकसित देशों में खाद्य पदार्थों में मिलाये जाने वाले रासायनिक तत्वों की संख्या 20 हजार से भी अधिक है। कुछ रसायन तो खाद्य पदार्थ को संरक्षित, संश्लेषित करते हैं और कुछ को उसे रंगने व स्वादिष्ट बनाने हेतु प्रयोग में लाया जाता है। इनका प्रयोग करने वाले विकसित देश अमेरिका एवं यूरोपीय देशों के लोगों के पेट में प्रतिवर्ष औसतन डेढ़ किलो घातक रासायनिक पदार्थ पहुँच जाता है। इसके प्रयोग एवं प्रचलन के बढ़ने के साथ ही इसकी मात्रा भी बढ़ती जा रही है। इनमें से कुछ रसायन तो शरीर की चर्बी में वर्षों पड़े पर रह सकते हैं। जिससे कैंसर जैसी असाध्य बीमारी की सम्भावनायें बढ़ जाती हैं

भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में मानव पोषण विभाग के डॉ. उमेश कपिल की मान्यता है कि आजकल के प्रचलित फास्टफूड में प्रायः विटामिन ए, सी कैल्शियम और लौह तत्व की कमी होती है। इस संस्थान के अनुसार, 10 से 21 वर्ष के किशोर-किशोरियों का आकर्षण फास्ट-फूड के प्रति कुछ ज्यादा ही बढ़ा है, जबकि इस उम्र में शारीरिक एवं मानसिक विकास के लिये सन्तुलित आहार कही आवश्यकता अपेक्षाकृत ज्यादा पड़ती है। भारतीय पोषक संस्थान, हैदराबाद के आँकड़ों के अनुसार, सन्तुलित आहार में 13 से 15 वर्षीय किशोर को कम से कम 425 ग्राम अनाज, 50 ग्राम दाल, 100 ग्राम हरी सब्जियाँ, 60 ग्राम अन्य सब्जियाँ, 250 ग्राम दूध, 40 ग्राम चिकनाई, 50 ग्राम गुड़ या शक्कर की जरूरत होती है। इसी प्रकार एक वयस्क व्यक्ति को लगभग 1000 कैलोरी भोजन प्रतिदिन चाहिये, जबकि 16 से 18 वर्ष की लड़कियों को प्रतिदिन 2060 कैलोरी की जरूरत होती है। फास्टफूड पर्याप्त कैलोरी तो प्रदान करता है, परन्तु इसमें आवश्यक विटामिन का सर्वथा अभाव होता है। इसीलिये यह भोजन शरीर में मोटापन लाने के बावजूद स्वस्थ नहीं रख सकता। अभी हाल ही में अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान की शोध वैज्ञानिक डॉ. शोभा रामचन्द्रन ने दिल्ली पब्लिक स्कूल के बच्चों में एक सर्वेक्षण किया। सर्वेक्षण में यह पाया गया कि 16 से 18 वर्ष के संभ्रांत परिवारों के बच्चे ज्यादातर किसी न किसी फास्टफूड के शौकीन हैं और इसी वजह से ये एविटामिनोसिस रोग के शिकार हैं। इनमें से 36 प्रतिशत किशोर देखने में तो मोटे लगते हैं, लेकिन विटामिन ‘ए’ की कमी से प्रभावित है।

डॉ. उमेश कपिल के अध्ययन से पता चलता है कि फास्टफूड में नमक या चीनी की अत्यधिक मात्रा होती है। नमक के ज्यादा प्रयोग से रक्तचाप बढ़ने की आशंका होती है, जबकि मीठे का ज्यादा उपयोग शरीर में चीनी के सन्तुलन को बिगाड़ देता है। परिणामतः एड्रेनेलिन बढ़ जाता है और तनाव व तंत्रिका तंत्र सम्बन्धी रोग पनपने लगते हैं। साथ ही इस तरह के भोजन में फाइबर्स, (रेशे) का अभाव होता है, जिससे डाइवर्टीकुलेसिस, पाइल्स, हार्निया, एपेंडीसाइटिस तथा पथरी जैसी बीमारी हो सकती है। फास्टफूड पर निर्भर रहने वाले युवक-युवतियाँ ज्यादातर रक्ताल्पता, नेत्ररोग एवं अस्थिरोग से ग्रसित होते हैं। सेन्टर ऑफ साइन्स इन पब्लिक इन्ट्रेस्ट के द्वारा प्रकाशित 500 पृष्ठों की एक पुस्तक में कहा गया है कि फास्टफूड में वसा, शर्करा तथा सोडियम की मात्रा अधिक होती है। जिसकी वजह से हृदय रोग, हड्डियों की कमजोरी तथा कैंसर होने का खतरा बढ़ जाता है। माँस जनित आहार को सुरक्षित रखने के लिए प्रयुक्त सोडियम नाइट्रेट से भी कैंसर की सम्भावना बनी रहती है।

डबलरोटी को भी स्वास्थ्य के लिए स्वास्थ्य कर नहीं माना जाता। इसमें पाँलिपेकसी एथलीन मोनोस्टीअरेट, प्रोपियोनिक एसिड, नाइट्रेट क्लोराइड, पोटेशियम ब्रोमेट, अमोनियम सल्फेट, क्लोरीन डाइआँक्साइड आदि होता है। इसी तरह नूडल्स (सेवइयाँ) को अधिक समय तक खाने योग्य बनाये रखने के लिये सोडियम ग्लूटामेट रसायन का इस्तेमाल किया जाता है। इसकी खासियत यह है कि यह स्वादहीन स्वाद ग्रन्थियों को भ्रमित कर स्वाद का अहसास दिलाता है। सोडियम ग्लूटामेट सफेद रंग का होता है और पानी में घुलनशील होता है। सन् 1969 में अमेरिका की वाशिंगटन यूनिवर्सिटी के डॉ. जे. ओलेन ने अपने कुछ प्रयोगों में इस रसायन का इंजेक्शन बनाया और शिशु नहीं चूहों को दिया। इससे चूहों की मस्तिष्क कोशिकाएँ नष्ट हो गईं और कैंसर जैसी अप्रिय स्थिति पैदा हो गयी। इस रसायन ने गिनीपिग बन्दरों और हैमरस्टरों पर भी इसी तरह के परिणाम प्रस्तुत किये। मोनो सोडियम गलूटामेट मस्तिष्क के हाइपोथैलेमस को प्रभावित करता है। सैक्रीन, साइक्लोमेट और ऐसेसल्फम भी भोजन को स्वादिष्ट बनाते हैं, जबकि इनमें भी कैंसर की आशंका बनी रहती है।

कोल्डड्रिंक्स युवकों-युवतियों के आधुनिक होने की पहचान बन गया है। अपने को अभिजात्य कहने वाले लोग भी इसे बड़े चाव से इस्तेमाल करते हैं। इस कार्बोनेटेड पेय का रासायनिक विश्लेषण करने पर बड़े ही भयावह नतीजे सामने आये हैं। पेय को लज्जतदार और सुगंधित बनाने के लिए प्रयुक्त फ्लेवरिंग एजेण्ट अघुलनशील होता है। इसको घुलनशील बनाने के लिए प्रयोग में आने वाले डिस्परिंग एजेण्ट को ब्रोमिनेटेड बेजीटेबल ऑयल कहते हैं। यह पदार्थ मानव कोशिकाओं को नष्ट कर कैंसर को जन्म देता है। इसी कारण आज भारत सहित 129 देशों में इस रसायन का उपयोग पूर्णतया वर्जित कर दिया गया है। हालाँकि अभी तक इसके विकल्प को स्पष्ट नहीं किया गया है। जिससे इस पेय के प्रति आशंका और भी बढ़ जाती है। विशेषज्ञों ने कोल्डड्रिंक्स को हृदयरोग, ट्यूमर, पेट के रोगों तथा अन्य कई रोगों के लिए भी जिम्मेदार माना है।

पश्चिमी तकनीक पर आधारित आइसक्रीम में दूध और क्रीम की जगह तेल और जन का मिश्रण होता है। दूध का एक अंश मात्र होता है। इसको चिकना बनाने के लिए स्टेबलाइजर मिला दिये जाते हैं। साथ ही इसमें अन्य अनेकों रसायनों की भरमार होती है। उदाहरण के लिये, ऑक्सीकरण निवारक, परिरक्षक तत्व, सोडियम, न्यूट्रेलाइजर्स, बफर्स के अलावा सोडियम कार्बोक्सीमेथिल, सेल्यूलोज का आम प्रयोग किया जाता है। आइसक्रीम में कोका के स्थान पर एमिल फेनोल एसीटेट, बेनीलिन और प्रोपीलीन ग्लाइकोल का प्रयोग होने लगा है, जो काफी खतरनाक है।

खाद्य पदार्थों को आकर्षक बनाने के प्रयास में विभिन्न रंगों का इस्तेमाल किया जाता है। इनमें से पीले रंग के लिए मेटोनिल रसायन का प्रयोग किया जाता है, जिससे मुँह में छाले होना, पाचन-क्रिया में गड़बड़ी, गले में दर्द, शरीर पर काले धब्बे, दमा जैसी बीमारी की संभावनाएँ बढ़ जाती हैं। टॉफी, चाकलेट, तरह-तरह के रंगीन लड्डू आदि के अलावा मक्खन को आकर्षक बनाने हेतु पीले रंग का प्रयोग होता है। जिसके प्रभाव से लीवर सिरोसिस होने की भारी सम्भावना पैदा हो जाती है। इसी तरह दूध में मोटी मलाई के लिये ब्लाटिंग पेपर का इस्तेमाल किया जाने लगा है।

पेय पदार्थों में नारंगी रंग के विशेष प्रभाव हेतु रोडामेन औरेंज नामक रसायन का उपयोग होता है। ब्लू वी.आर.एस. नीले रंग के लिये एवं पलाओहिट हरे रंग हेतु प्रयोग में लाया जाता है। ये रसायन यकृत, गुर्दे, दिमाग और तिल्ली से सम्बन्धित रोगों को आमंत्रण देते हैं। वैज्ञानिकों ने इसके प्रयोग के खिलाफ गंभीर चेतावनी दे रखी है। सन् 1954 में इसके लिये कानून भी बना, परन्तु अब तक इसकी धज्जियाँ ही उड़ती रही हैं। हैदराबाद के सेण्ट्रल प्लाण्ट प्रोटेक्शन ट्रेनिंग इंस्टीट्यूट और मैसूर के फूड टेक्नोलॉजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट के अध्ययन- अनुसंधान से पता चलता है कि विभिन्न हानिकारक रसायनों की मात्रा भारतीय भोजन में इतनी बढ़ गयी है, जो मानव की सहन शीलता से परे है।

तुरन्त भोजन और बेमौसम स्वाद की चाह ने डिब्बाबन्द भोजन की संस्कृति पनपा दी है। महानगरों से लेकर कस्बों तक भारी मात्रा में इसका प्रचलन चल पड़ा है। अपने देश में इस तरह के भोजन का कुल कारोबार 130 करोड़ रुपये हैं। जिसमें फास्टफूड, नूडल्स, साँस, पीजा, बर्गर और डिब्बाबन्द तैयार भोजन शामिल है। इडली, बड़ा, साँभर, रसगुल्ला, सूप आदि का डिब्बाबन्द मिक्स पाउडर 20 करोड़ से ऊपर का कारोबार करता है। डिब्बाबन्द सब्जियों, फलों, सूप वगैरह का व्यापार भी 20 करोड़ होने का अनुमान है। यही नहीं अकेले अपने देश में 775 करोड़ रुपये सालाना से ज्यादा कारोबार बोतल बन्द या डिब्बा बन्द शीतल पेयों और फलों के रस का है। इसमें इमली का रस मटर, प्याज, आलू, टमाटर और अदरक का गाढ़ा शोरबा के तीन करोड़ से ऊपर होने का आकलन है। डिब्बाबन्द गुलाब जामुन, रसगुल्ला और पेड़ों का सालाना व्यापार 30 करोड़ के आस-पास है फलों के रस का कारोबार 120 करोड़ रुपये हैं। करोड़ों रुपये के इस व्यापार में सन् 1991 से 14 फीसदी प्रतिवर्ष की असाधारण वृद्धि हो रही है। आर्थिक उदारीकरण के दौर में विदेशी कम्पनियों ने इसमें भारी-भरकम इजाफा किया है।

इण्डोनेशिया के राष्ट्रपति सुहार्तो ने पिछले दिनों जकार्ता में आयोजित तीन दिवसीय परम्परागत खान-पान सुधार कार्यक्रम में फास्टफूड की हानियों को बताते हुए कहा कि चटपटे, स्वादिष्ट विदेशी फास्टफूड की जगह परम्परागत व्यंजनों को प्रश्रय देना चाहिये। चिकित्सा-विशेषज्ञों एवं विज्ञानवेत्ताओं का कहना है कि अमेरिका भी फास्टफूड कल्चर का विरोध करने लगा है। ऐसे में इसे अपनाना कतई विवेकसम्मत नहीं है।

कहा जाता है कि जैसा खाए-अन्न वैसा बने मन। सन् 1970 में ब्रिटेन के मनोवैज्ञानिक डॉ. इयान मैंजीज ने अपने अध्ययन में पाया है कि संस्कारित खाद्य के बदले फास्टफूड लेने वाले बच्चों में हिंसक प्रवृत्ति व आक्रामकता बढ़ जाती है। कैलीफोर्निया स्टेट यूनिवर्सिटी के वैज्ञानिक स्टीफन शोवेंट ह्वेलर ने भी इस तथ्य को स्वीकारा है कि फास्टफूड लेने वालों में मानसिक विकृतियाँ बढ़ती हैं। वे शाकाहारी व सन्तुलित भोजन को सर्वाधिक उपयुक्त मानते हैं। वर्ष 1993 के जर्नल ऑफ क्रिमिनल जस्टिस एजुकेशन में फ्लोरिडा स्टेट यूनिवर्सिटी के अपराध वैज्ञानिक सीरे जैफ्फरी ने स्पष्ट किया है कि मस्तिष्क में सिरोटोनिन का स्तर घट जाने से आक्रामक प्रवृत्ति बढ़ जाती हैं के अनुसंधान में यह पाया गया है कि फास्टफूड के प्रयोग से मस्तिष्क में सिरोटोनिन का स्तर कम हो जाता है।

विभिन्न वैज्ञानिक-विश्लेषण एवं अनुसंधान फास्टफूड की कमियों और खामियों को गिनाते हुए ‘धीमे किन्तु स्वादिष्ट जहर’ की संज्ञा देते हैं। इसमें समाये अगणित रसायन भाँति-भाँति के शारीरिक एवं मानसिक रोगों को जन्म देते हैं। समझदारी एवं विवेक का तकाजा इसका इस्तेमाल बन्द करने में ही है। शाकाहारी व सन्तुलित भोजन में वे सभी आवश्यक पोषण-तत्व होते हैं, जो स्वास्थ्य एवं सौंदर्य को बढ़ाते हैं। परिष्कृत एवं पवित्र भोजन से मन एवं भावनायें भी शुद्ध सात्विक भोजन ही ग्रहण करना चाहिये।

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