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Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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आइये! इस शीतऋतु में अपना स्वास्थ्य ऐसे सँवारें

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हमारे शारीरिक स्वास्थ्य पर केवल आहार-विहार का ही नहीं, वरन् ऋतु-परिवर्तन व जलवायु का भी प्रभाव पड़ता है। यों तो ऋतुओं में परिवर्तन प्रकृति के अनुसार होते हैं, परन्तु इनकी अस्थिरता, अनियमितता जो आजकल देखी जाती है, वह मनुष्य द्वारा उत्पादित विषाक्तता के कारण है और इसका दुष्परिणाम हम सब भुगत भी रहे हैं- विभिन्न प्रकार की आपदाओं व महामारियों के रूप में। वायु-मण्डल एवं वातावरण को प्रदूषित करने से प्रकृति में जो व्यवधान उत्पन्न हुए हैं, उसका खामियाजा मनुष्य समेत सभी प्राणियों को भुगतना पड़ रहा है। इन परिस्थितियों में यदि ऋतुओं के अनुकूल खान-पान रहन-सहन आचार-व्यवहार पर ध्यान न दिया जाये, तो प्रकृति- प्रतिकूलता से स्वास्थ्य रक्षा कर पाना संभव नहीं हो पाता। यही कारण है कि वातावरण में थोड़ा हेर-फेर होते ही व्यक्ति बीमारियों का शिकार बन जाता है। ऋतुओं के अनुकूल आहार-विहार का पालन करने से न केवल शरीर की रोग-प्रतिरोधी क्षमता का विकास होता है, वरन् शरीर नीरोग, पुष्ट और बलिष्ठ बनता है। शारीरिक, मानसिक स्वास्थ्य का आधार हमारा आहार-विहार आचार- व्यवहार है।

‘स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ आत्मा का निवास होता है, यह कथन अक्षरशः सत्य है। जो शारीरिक, मानसिक रूप से स्वस्थ होगा, उसकी आत्मा भी स्वस्थ एवं समुन्नत होगी। स्वस्थ-समुन्नत आत्मा के लिए शरीर का स्वस्थ होना आवश्यक है। कारण पंचमहाभूतों से विनिर्मित यह काया ही आत्मा का आश्रयस्थल है-वाहन है। इसके पूर्ण रूप से स्वस्थ होने से बाहर-भीतर चारों ओर सामर्थ्य ही सामर्थ्य दृष्टिगोचर होती है।

यों तो प्रत्येक क्षेत्र में हृष्ट-पुष्ट एवं बलिष्ठ स्वस्थ शरीर की अनिवार्य आवश्यकता है। उपार्जन से लेकर भोजन तक और संघर्ष से लेकर मनोरंजन तक ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं है, जिसमें रुग्ण या अस्वस्थ शरीर वाले व्यक्ति सफलता एवं सार्थकता पूर्वक बस सकें। किसान से लेकर क्लर्क तक, उद्योगपति से लेकर श्रमिक तक- यदि वह शरीर से स्वस्थ एवं समर्थ नहीं होगा, तो अपना उपार्जन क्रम नहीं चला सकता। यदि किसी तरह चलाता भी है तो उसका काम सुन्दर एवं संतोषजनक नहीं हो सकता। रोगी, अस्वस्थ शरीर व्यक्ति प्रतिस्पर्द्धा के इस युग में अधिक दिनों तक टिक नहीं सकता। शीघ्र ही वह या तो रोगी होकर चारपाई पकड़ लेगा या पूर्णरूप से क्षीणकाय होकर सब कुछ गवा बैठेगा। ठीक यही बात अध्यात्म क्षेत्र में, साधना समर में लागू होती है। स्वास्थ्य सुख से वंचित असमर्थ शरीर वाला व्यक्ति आध्यात्मिक क्षेत्र में कौन-सी और कितनी उन्नति कर सकता है, कितना आगे बढ़ सकता है, इसका उत्तर भी केवल नकारात्मक ही हो सकता है।

आत्मोन्नति के इच्छुक अध्यात्मवादी साधकों की सबसे प्रमुख एवं प्रथम साधना यह है कि वे अपने शरीर को पूर्ण रूप से स्वस्थ एवं पुष्ट बनायें। संयमी और समर्थ बनें। जो असमर्थ व्यक्ति साधारण दैनिक श्रम नहीं कर सकता, अपने जीवन-शकट तो ठीक से खींच नहीं सकता, वह साधना-समर में आवश्यक नियमों, संयमों का निर्वाह कर सकेगा- काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, डाह आदिक शत्रुओं से डटकर मुकाबला कर सकेगा, ऐसी कल्पना भी नहीं की जा सकती। फिर उच्चस्तरीय साधना-तपश्चर्या के लिए स्वस्थ एवं पुष्ट शरीर की तो अनिवार्य आवश्यकता होती है, जिसे पुरा किये बिना कोई भी व्यक्ति साधनापथ पर एक कदम भी नहीं बढ़ सकता। आध्यात्मिक उन्नति करने के लिए जिस निर्मलता, निर्विकारता एवं निर्भयता की आवश्यकता है, वह शरीर को सबल, स्वस्थ-संवर्द्धन की दृष्टि से सबसे उपयुक्त बताया गया है। अश्विन नवरात्र के बाद शरद ऋतु आरम्भ हो जाती है। इसका काल सामान्यतः 15 नवम्बर तक माना जाता है। तत्पश्चात शिशिर और हेमन्त ऋतुएं आती हैं, जो जनवरी तक चलती हैं। इसके बाद ही वसन्त का आगमन होता है। आयुर्वेद के मतानुसार, मकर संक्रान्ति के पश्चात् जब सूर्य उत्तरायण होने लगता है, तब से ठंड घटना और गर्मी का बढ़ना आरम्भ हो जाता है। इससे मानव शरीर का शोषण पहले की अपेक्षा अधिक होने लगता है और रुक्षता तथा उत्ताप की वृद्धि होती है। इसका सन्तुलन बिठाने को उन दिनों चिकनाई युक्त ठंडे पदार्थ जैसे ठंडाई आदि का सेवन लाभदायक माना जाता है। इसी प्रकार शीत ऋतु में जब सूर्य के दक्षिणायन होने से उसकी किरणों की शक्ति कम पड़ जाती है और वे शोषण कम कर पाती हैं तथा शरीर का उत्ताप भी घट जाता है, उस समय जठराग्नि प्रबल हो जाती है। अतः उस समय उष्ण वीर्य वाले पौष्टिक, भारी तथा चिकने पदार्थ भी आसानी से हजम हो जाते हैं। अष्टांग संग्रह 4-12 में उल्लेख भी है-

“देहोष्माणो विशन्तोऽन्नः शीशेशीतानिलाहताः। जठरे पिण्डितोष्माणं प्रबलं कुर्वतेऽनलम्॥

अर्थात् इस शीत ऋतु में शरीर की ऊष्मा वातावरण में व्याप्त शीत के प्रकोप एवं ठंडी वायु के स्पर्श से शरीर के अन्दर ही रुककर बढ़ती और बलवान होती हैं इस ऊष्मा की उष्णता उदर में स्थित जठराग्नि को बढ़ाकर प्रबल बनाती है, जिससे पाचन संस्थान की सक्रियता बढ़ती है और वह भारी तथा गरिष्ठ आहार को भी पचाने में समर्थ हो जाता है। चरक संहिता में सूत्र स्थान के अध्याय 6, श्लोक 9 में तथा सुश्रुत संहिता में सूत्र स्थान के अध्याय 6, श्लोक 9 से 12 में भी यही बातें कही गयी हैं।

इन दिनों ठंड विशेष रूप से बढ़ जाती है। शीतलहर भी इसी ऋतु में सर्वाधिक चलती है। इससे बचने के लिए स्वेटर, शाल जैसे गरम ऊनी कपड़े पहनने पड़ते हैं। शीत ऋतु में रात बड़ी और दिन छोटा होता है, अतः विश्राम करने की अवधि भी लम्बी हो जाती है। इससे पाचन-शक्ति प्रदीप्त हो उठती है और जो भी खाया जाये, आसानी से पच जाता है। इन दिनों भूख सहन करना, देर से भोजन करना, हल्का और पोषक तत्वों से रहित आहार लेना शारीरिक दौर्बल्यता का कारण बनता है। अतः ठण्ड के दिनों में पोषक तत्वों से भरपूर आहार लेना स्वास्थ्य-संवर्द्धन की दृष्टि से आवश्यक हो जाता है। हमारे यहाँ इसी सिद्धान्त के आधार पर प्राचीनकाल से जाड़े के मौसम में पौष्टिक पाक, लड्डू आदि बनाकर सेवन करने का रिवाज है। अब बदलती परिस्थितियों में बहुत कुछ परिवर्तन हो गया है और घी, मेवा आदि पौष्टिक पदार्थ शुद्ध रूप से बड़ी कठिनाई से मिलते हैं और मिलते भी हैं तो बहुत महँगे, जिन्हें जनसामान्य की जेब स्वीकृति नहीं प्रदान करती। इसके अतिरिक्त एक प्रमुख कारण यह भी है कि पढ़े-लिखे लोगों में शारीरिक श्रम तथा व्यायाम का अभाव हो जाने के कारण अधिक भारी पाठक और लड्डू आदि को ठीक तरह से पचाने की शक्ति भी नहीं रह गयी है।

ऐसी स्थिति में स्वास्थ्य-संरक्षण एवं बलवर्धक हेतु कुछ परीक्षित व प्रामाणिक आयुर्वेदीय नुस्खे दिये जा रहे हैं, जिन्हें ब्रह्मवर्चस शोध संस्थान के वरिष्ठ अनुसंधानकर्ता, चिकित्सा-विज्ञानियों ने वर्षों शोध के बाद सबके उपयुक्त पाया है। ये हैं-

(1) च्यवनप्राश, (2) छुहारा-पाक (3) अश्वगंधा। यह तीनों ऐसे हैं, जिन्हें हर स्थिति का व्यक्ति घर बैठे बना सकता है और अपना तथा अपने परिजनों की स्वास्थ्य रक्षा कर सकता है।

शीत ऋतु में सर्वाधिक खपत होने वाले टानिकों में च्यवनप्राश की गणना की जाती है। जनसामान्य इन्हें औषधि के रूप में ही प्रयुक्त कर पाते हैं। महँगी होने के कारण समूचे परिवार के लिए खरीद पाना विरलों के लिए ही संभव हो पाता है। परन्तु इन्हें यदि घर पर स्वयं बना लिया जाये, तो यह सस्ती भी पड़ती है और प्रामाणिक भी रहती है, साथ ही पूरे परिवार के लिए महीनों तक उपलब्ध रहती है। आवश्यकता पड़ने पर जब चाहे जितनी मात्रा में बनाया जा सकता है। ठंड के दिनों में आँवला भी सर्वत्र विशेषकर ग्रामीण अंचलों एवं वन्य प्रदेशों में प्रचुर मात्रा में उपलब्ध रहता है। इसकी पिट्ठी बनाकर रख ली जाये, तो वह साल भर सुरक्षित बनी रहती है और आवश्यकतानुसार उससे च्यवनप्राश बनाया जा सकता है। बनाने की विधि एवं प्रयुक्त होने वाली सामग्री इस प्रकार है-

च्यवनप्राश

(प्रति 1 किलोग्राम के लिए)

सामग्री- इसमें प्रयुक्त होने वाले प्रमुख घटक निम्नलिखित हैं-

(1) एक किलो हरा पक्का आँवला, (2) 100-150 ग्राम घी, (3) 40 जड़ी-बूटियों का जौकुट पाउडर-340 ग्राम, (4) शक्कर- 1500 ग्राम, (5) शहद 100 से 150 ग्राम।

इसके अतिरिक्त नीचे दिये गये क्रमांक (6) से क्रमांक (12) तक कह सामग्री धूप में सुखाकर अलग-अलग मिक्सी या सिलबट्टे से बारीक पीस कर कपड़े से छानकर तैयार कर लें। ये हैं-

(6) वंशलोचन- 15 ग्राम (7) छोटी पीपल-12 ग्राम, (8) लौंग-10 ग्राम, (9) तेजपत्र-6 ग्राम, (10) दालचीनी- 6 ग्राम, (11) नागकेशर- 6 ग्राम, (12) इलायची बीज- 6 ग्राम।

च्यवनप्राश में जिन जड़ी- बूटियों का जौकुट पाउडर (क्रमाँक-2) लिया जाता है, उनका विवरण इस प्रकार है-

(1) बेल छाल (2) अग्निमंथ (अछाल) (3) श्योनाक (4) गंभारी छाल (5) पाढल छाल (6) शालपर्णी (7) पृष्ठिपर्णी (8) मुग्दपर्णी (9) माषपर्णी (10) गोखरु पंचाँग (11) छोटी कटैली (12) बड़ी कटैली (13) बला मूल (14) पिप्पली मूल (15) काकड़ा सिंगी (16) भुई आँवला (17) मुनक्का (18) पुष्कर मूल (19) अगर (20) बड़ी हरण (21) लाल चंदन (22) नील कमल (23) विदारी कंद (24) अडूसा मूल (25) काकोली (26) छीर काकोली (27) ऋद्धि (28) सिद्धि (29) जीवन (30) ऋषभक (31) मेदा (32) महामेदा (33) कचूर (34) नागरमोथा (35) पुनर्नवा (36) बड़ी इलायची (37) गिलोय (38) काकनासा।

इन सभी 38 वनौषधियों में से प्रत्येक की प्रति किलो आँवले पर 7-7 ग्राम सात-सात ग्राम) लेकर जौ के बराबर बारीक कूट-पीस लें। ये सभी जड़ी- बूटियाँ शान्तिकुञ्ज से सम्पर्क द्वारा या आयुर्वेदिक फार्मेसियों से खरीदी जा सकती हैं। हरिद्वार की फार्मेसी में यह च्यवनप्राश की जड़ी-बूटियों के पाउडर के नाम से भी मिलती हैं। अगर ये जड़ी-बूटियाँ उपलब्ध न हों, तो 40 ग्राम अश्वगंधा, 40 ग्राम शतावर, 40 ग्राम प्रज्ञापेय चूर्ण लेकर च्यवनप्राश की जड़ी बूटियों की जगह इनका क्वाथ बनाकर भी पौष्टिक प्राश बनाया जा सकता है। इतना ही नहीं, अगर क्रमांक-25 काकोली से लेकर क्रमांक-32 महामेदा तक की जड़ी -बूटियाँ उपलब्ध न हों, तो भी उनकी जगह अश्वगंधा, शतावर, विदारीकंद, बाराही कंद का उपयोग उतनी ही मात्रा में कर सकते हैं।

विधि- च्यवनप्राश बनाने की विधि विस्तारपूर्वक इस प्रकार है-

(1) जड़ी-बूटियों के जौकूट पाउडर को एक किलो पानी में 24 घंटे पहले भिगो देना चाहिए-

(2) एक किलो ताजे हरे आँवलों को एक लीटर पानी में डालकर प्रेशर कूकर में उबालना चाहिये। जब तीन बार सीटी आ जाये तो कुकर को उतार कर 15 मिनट तक ठंडा होने देना चाहिये।

(3) उबले हुए आँवलों की गुठली निकालकर अलग कर देने के पश्चात् गूदे को स्टील की चलनी या कद्दूकस के चिकने वाले हिस्से या सूती कपड़े या आटा छानने कर छलनी में घिसे, जिससे अनावश्यक रेशे अलग हो जाते हैं। मुख्य उद्देश्य यहाँ पल्प यानी गूदे से रेशे अलग करना है।

(4) अगर रेशे न निकल सकें, तो गुठली निकाले हुए आँवले के गूदे को मिक्सी में डालकर पेस्ट बना लें और फिर आगे बढ़ें ।

(5) अब इस पेस्ट को ऊपर बताये हुए अनुपात के हिसाब से देशी घी में मंद आँच पर तब तक तले, जब तक आँवले की पिट्ठी, घी लगभग पूरी तरह न छोड़ दे। इस तरह से तैयार की हुई पिट्ठी को कई महीनों तक शीशे या स्टील के बर्तन में सुरक्षित रखा और आवश्यकतानुसार प्रयुक्त किया जा सकता है।

(6) आँवला उबालने के पश्चात् नीचे बर्तन में जो पानी शेष बच रहता है, उसे सुरक्षित रखा लेना चाहिये और इसी पानी में च्यवनप्राश की जड़ी-बूटियों के जौकुट पाउडर को, जो 24 घंटे पहले एक लीटर पानी में भिगाया गया था, मिलाकर मंद आँच पर दो घंटे तक उबालना चाहिये। आँच-लौ जितनी धीमी रहेगी, क्वाथ भी उतना ही बढ़िया बनेगा।

(7) क्वाथ को ठंडा होने पर छान लें और इस छने पानी को लगभग 10-12 घंटे तक एक जगह पर स्थिर रूप से रखा रहने दें, जिससे कीट (गंदला पदार्थ) नीचे बैठ जायेगा। छने पानी के साथ कीट चले जाने पर बनने वाले च्यवनप्राश में कड़वाहट आ जाती है।

(8) अब इसे सावधानीपूर्वक दूसरे बर्तन में उड़ेल लें, जिससे कीट अलग हो जायेगी और जल अलग।

(9) अलग किये हुए औषधीय जल में 1500 ग्राम (डेढ़ किलो) शक्कर डालकर थोड़ी देर तक उबालना चाहिये। इसी बीच गरम दूध के हलके छींटे मारते रहें, जिससे मैल ऊपर आ जाता है। इसे अलग कर देना चाहिये। पिट्ठी को प्रारम्भ से ही ढक कर रखें। जब चाशनी में डाल दें एवं एवं बर्तन को चूल्हें से उतारकर पिट्ठी को चाशनी में खूब घोटे या पिट्ठी को अलग बर्तन में लेकर उसमें तीन तार वाली चाशनी डालकर पेस्ट- सा बना लें। फिर पेस्ट को चाशनी में डालकर एकरस कर लें। यहाँ यह बात ध्यान रखने योग्य है कि अधिक देर तक भुनी हुई पिट्ठी रखी रहने से उसकी ऊपरी सतह पर काले रंग की कड़ी पपड़ी-सी जम जाती है। उसे फेंकना नहीं चाहिये, वरन् उसे अलग कर मसल कर पिट्ठी के समान चिकना बनाकर पिट्ठी में ही मिला लेना चाहिए।

(10) जब उक्त चाशनीयुक्त पिट्ठी एकरस हो जाये, तब कुनकुनी स्थिति (हल्का गरम) में ही क्रमांक-6 से 12 का पाउडर थोड़ी-थोड़ी मात्रा में डालकर घुटाई करते रहें।

(11) जब लगभग ठंडा हो जाये तब शहद डालकर पूरी तरह मिला लें।

(12) 24 घंटे तक ठंडा होने के लिए छोड़ दें। अब 1 किलो आँवले से लगभग ढाई किलो च्यवनप्राश तैयार है।

(13) अगर ज्यादा आँवले का च्यवनप्राश बनाना है - जैसे तीन किलो आँवले का बनाना है, तो सामग्री में 3 से गुणा कर जितनी बैठे, उतनी सामग्री लेनी है, परन्तु चाशनी तीन तार की ही होगी।

(14) च्यवनप्राश ज्यादा गाढ़ा या पतला (नरम) करना है, तो चाशनी को क्रमशः थोड़ी गाढ़ी या पहली कर दें। अगर अधिक कड़ा सख्त हो गया है तो 20 चम्मच (100 मि.ली.) पानी में 3 चम्मच घी मिलाकर उबालें। जब पानी खौलने लगे, तो गाढ़ा च्यवनप्राश उसमें डाल दें। एकरस होते ही उतार कर ठण्डा कर लें।

ध्यान देने योग्य विशेष बातें-

(1) अगर घी 125 ग्राम ली जाए, तो च्यवनप्राश उत्तम क्वालिटी का बनता है।

(2) बिना रेशे निकले हुए च्यवनप्राश को तीन माह में उपयोग कर लेना चाहिये।

(3) विशिष्ट प्रकार का च्यवनप्राश बनाने के लिए उक्त विधि से तैयार किये हुए ढाई किलो च्यवनप्राश में निम्नलिखित वस्तुएँ मिलाई जा सकती हैं-

केशर- 3 ग्राम, मकरध्वज-4 ग्राम, चाँदी वर्क-10 पत्ते, शुक्ति भस्म- 12 ग्राम, प्रवालभस्म- 12 ग्राम, अभ्रक भस्म- 15 ग्राम, शृंग भस्म-15 ग्राम। भस्मों, केशर एवं मकरध्वज को आयु एवं आर्थिक परिस्थितियों के अनुसार कम भी किया जा सकता है।

च्यवनप्राश में मिलाने से पूर्व केशर एवं मकरध्वज को अलग-अलग महीन घोट लिया जाता है, तत्पश्चात् इन दोनों को भस्मों में मिलाकर पुनः घुटाई की जाती है, फिर 50 ग्राम शहद में सभी को अच्छी तरह मिला लिया जाता है। इसके बाद इसे च्यवनप्राश में थोड़ा-थोड़ा डालते हुए मिलाते हैं। अच्छी तरह एकरस हो जाने पर एक दिन के लिये इसे बर्तन में खुला छोड़ देते हैं और फिर स्वच्छ डिब्बे में बंद करके रख देते हैं। च्यवनप्राश को सूखा भी बनाया जा सकता है।

सूखा च्यवनप्राश बनाने की विधि-

पहले जड़ी-बूटियों का क्वाथ एवं शक्कर लेकर उबाले और जब चार तार की चाशनी बन जाये, तब कड़ाही को पूरी तरह ठण्डी करें या एक दिन तक रहने दें। चाशनी ठण्डी होने पर बूरा बना लें या एक साथ भी बूरा बना सकते हैं। जब बूरा की स्थिति आ जाये, तब पिट्ठी एवं पिसा हुआ सूखा पाउडर डालकर अच्छी तरह से मिलाते हुए दुबारा बूरा बना लें इसमें शहद नहीं डाला जाता। संक्षेप में जड़ी बूटी क्वाथ+शक्कर+पिट्ठी+क्रमांक-8 से 12 तक औषधियों का पाउडर।

इस तरह से तैयार दोनों ही प्रकार के च्यवनप्राश में से किसी एक का सुबह-शाम एक-एक चम्मच दूध के साथ सेवन करते रहने पर व्यक्ति सदैव स्वस्थ बना रहता है। विटामिन-सी की अधिकता के कारण जीवनी-शक्ति स्फूर्ति व प्रसन्नता बढ़ती है और वृद्धावस्था में भी नौजवानों जैसी स्फूर्ति, सक्रियता एवं मस्ती बनी रहती है। आयुर्वेद शास्त्रों में इसे भूख को बढ़ाने वाला, खाँसी-श्वाँस वात, पित्त रोगनाशक, शुक्र एवं मु़ दोष हरने वाला, बुद्धि व स्मरण-शक्तिवर्धक प्रसन्नता, वर्ण एवं कान्तिवर्द्धक बताया गया है।

2- छुहारा पाक

सामग्री- (1) गुठली निकला छुहारा- 100 ग्राम (2) शक्कर- 400 ग्राम (3) दूध-1 किलो (4) घी- 100 ग्राम (5) पिप्पली- 6 ग्राम (6) सफेद मूसली- 3 ग्राम (7) काली मूसली- 3 ग्राम (8) लौंग-3 ग्राम (9) जायफल- 3 ग्राम (10) तेजपत्र- 3 ग्राम (11) जावित्री- 3 ग्राम (12) वला मून या बीज- 3 ग्राम (13) पिस्ता- 3 से 10 ग्राम (14) चिरौंजी- 3-10 ग्राम (15) बादाम- 3-10 ग्राम (16) अखरोट गिरी- 3.10 ग्राम (17) काजू- 3-10 ग्राम

बनाने की विधि-

1- छुहारों को सर्वप्रथम पानी से साफ कर लें और उनके ऊपर की टोपी (जहाँ फल पेड़ से जुड़ता है) तथा बीच की गुठली को निकाल दें।

2- दूध (खोवा बनाने वाला) को पहले उबालकर ठंडा कर लें, फिर उसमें साफ किये छुहारे डालें और उसे दूध में ही 12 से 24 घंटे तक फूलने दें। अगर दूध खराब होने का डर हो, तो बीच-बीच में उबाल लें।

3- क्रमांक 6 से 12 तक की चीजों को मिक्सी या सिल में पीसकर कपड़े से छानकर पाउडर तैयार कर लें।

4- ड्राई फ्रूट (मेवा) को मिक्सी में डालकर या सिल में पिस कर चिरौंजी के बराबर टुकड़े कर लें। मेवा (ड्राई फ्रूट) की और किस्में भी बढ़ायी जा सकती हैं।

5- दूध में फूले हुए छुहारों को मिक्सी या सिल में पीस कर पेस्ट बना लें।

6- इस पेस्ट में पिप्पली चूर्ण मिलाकर कढ़ाई या किसी बर्तन में औटा कर खोवा (मावा) बना लें।

7- खोवा तैयार होते ही साथ-साथ उसमें 60 ग्राम के लगभग घी डालकर तब तक तलना चाहिये, जब तक लाल रवेदार मावा तैयार न हो जाये और वह घी न छोड़ दे।

8- 150 ग्राम पानी में 400 ग्राम शक्कर डालकर तीन बार की चासनी आने पर उसमें भुना हुआ मावा डाल दें, साथ ही जड़ी- बूटियों का तैयार पाउडर भी डाल दें।

9- थोड़े समय पश्चात् उसमें टुकड़े किये हुए ड्राईफ्रूट (मेवा) डाल दें।

(10)- जब मिठाई जमने की स्थिति में आये, तब बचा हुआ घी डालकर खूब चलाये ।

(11) मिठाई जमने की स्थिति से थोड़ा और कड़ा होने पर उतार लें।

12- एक थाली में घी डालकर मिठाई को उसमें जमा दें। 15 मिनट बाद चाकू से लाइन खींच दे और 30 मिनट बाद छोटे-छोटे पीस काटकर अलग-अलग कर दें। ठंडा होने पर सुरक्षित डिब्बे में भरकर रख लें।

13- विशेष प्रकार का छुहारा पाक बनाने के लिए क्रमांक-9 की स्थिति आने पर ड्राईफ्रूट (मेवा) के साथ-साथ निम्नलिखित वस्तुएँ और मिलाई जाती हैं-

(1) केसर- 1 से 3 ग्राम (2) लौह भस्म- 3 ग्राम (3) अभ्रक भस्म- 3 ग्राम (4) बंग भस्म- 3 ग्राम।

केशर और भस्में मिला देने से छुहारापाक की गुणवत्ता और भी अधिक बढ़ जाती है और यह निम्न रोगों को दूर करता है- खून की कमी, रजोदोष, धातु-क्षीणता कमजोरी आदि। मात्रा- 10 से 20 ग्राम तक ली जाती है। शीत ऋतु में यह ज्यादा उपयोगी सिद्ध होती है। केशर, भस्में एवं क्रमांक-5 से लेकर 12 तक की जड़ी- बूटियाँ छोड़कर भी मिठाई बनायी जा सकती है। यह बहुत ही पौष्टिक टानिक है।

3- अश्वगंधापाक

सामग्री- (1) अश्वगंधा चूर्ण- 100 ग्राम, (2) दूध- 1500 ग्राम, (3) शक्कर- 1 किलोग्राम, (4) दाल- चीनी- 4 ग्राम, (5) तेजपत्र-4 ग्राम, (6) इलायची-4 ग्राम, (7) नागकेशर-4 ग्राम, (8) जायफल- 2 ग्राम, (9) गोखरु बीज-2 ग्राम, (10) वंशलोचन-2 ग्राम, (11) जटामाँसी-2 ग्राम, (12) चन्दन- 2 ग्राम, (13) जावित्री- 2 ग्राम, (14) पीपलामूल- 2 ग्राम, (15) लौंग- 2 ग्राम, (16) खैरसार (कत्था)- 2 ग्राम, (17) सिंघाड़ा- 2 ग्राम, (18) कौंचगिरी- 2 ग्राम, (19) अख़रोट गिरी- 2 ग्राम, (20) केशर- 2 ग्राम, (21) अभ्रकभस्म- 2 ग्राम, (22) बंग-भस्म 2 ग्राम, (23) लौह-भस्म 2 ग्राम, (24) प्रवाल भस्म- 2 ग्राम।

बनाने की विधि-

1- क्रमांक- 4 से 16 तक की औषधियों का बारीक कपड़छन पाउडर बना लें।

2- क्रमांक 17 से 19 तक की वस्तुओं के छोटे-छोटे टुकड़े काटकर सुखा लें और फिर उनका भी पाउडर बना लें।

3- केशर को बारीक पीसकर उसमें सभी भस्म एक के पश्चात् एक मिलाकर एकरस कर लें।

4- इसके बाद सभी पाउडरों अर्थात् क्रमांक 4 से 16, 17 से 19 एवं 20 से 24 को मिलाकर रख लें।

5- दूध में कपड़छन किया हुआ अश्वगंधा चूर्ण मिलाकर खोवा तैयार कर लें।

(6) शक्कर की दो तार की चाशनी बनाकर उसमें पहले खोवा डालकर अच्छी तरह मिला दें। फिर सभी पाउडरों के मिश्रण को थोड़ा-थोड़ा मात्रा में डालकर तरह से पूरी मात्रा को उसमें मिला दें।

7- पाउडर मिल जाने पर एक थाली में थोड़ा सा घी लगाकर उसमें मिठाई का जमा लें। जम जाने पर चाकू से छोटे-छोटे टुकड़ों में काटकर अलग कर दें। ठण्डा होने पर दूसरे दिन स्वच्छ डिब्बे में रख लें, और खाने में प्रयुक्त करें।

8- ग्रीष्म ऋतु में अश्वगंधापाक में केशर नहीं डालना चाहिये। साथ ही यदि कोई औषधि सरलता से उपलब्ध न हो रही हो तो उसे छोड़ा जा सकता है। सुबह खाली पेट इसके एक-दो पीस खाकर दूध पी लिया जाये तो दिन भर ताजगी एवं स्फूर्ति बनी रहती है। कमजोरी एवं वार्द्धक्यता दूर करने के लिए यह सर्वोत्तम टानिक है।

उपरोक्त तीनों प्रकार के टानिक ऐसे हैं जिन्हें हम परिस्थिति का व्यक्ति स्वयं बना सकता है और परिवार की स्वास्थ्य रक्षा कर सकता है। अधिक मात्रा में बनाने के लिए उक्त लिखित सामग्रियों को उसी अनुपात से दुगुनी-तिगुनी आदि मात्रा में लेकर आसानी से बनाया जा सकता है। शीत ऋतु के लिए यह उत्तम बलवर्धक रसायन है ही, अन्यान्य ऋतुओं में भी बराबर इनका सेवन किया जा सकता है।

यहाँ एक और आयुर्वेद रसायन का परिचय दिया जा रहा है जो स्वास्थ्यवर्द्धक होने के साथ-साथ स्मृति और मेधावृद्धक है। इसका नाम है सरस्वती पंचक।

4- सरस्वती पंचक

सरस्वती पंचाक के घटक सामग्री (पुरुषों हेतु)-

1- ब्राह्मी, (2) मिठीवच, (3) जटामाँसी, (4) अमृता, (5) मुलहठी।

यह पाँचों ही वनौषधियों पंसारियों के यहाँ आसानी से मिल जाती है। इसके तैयार पाउडर शान्ति कुँज, हरिद्वार में सदैव उपलब्ध रहते हैं। पाँचों घटकों की समान मात्रा लेकर मिश्रित कर ली जाये। और साफ कार्क लगे बोतल में रख ली जाये। सुबह दूध या शहद से एक चम्मच पाउडर का नित्य सेवन करते रहने पर इस रसायन के सेवन से जो लाभ होता है उनमें प्रमुख हैं-

1- मेधा व स्मृति वृद्धि, 2- तनाव, उदासी एवं उत्तेजना जैसी अगणित माँसिक परेशानियों का निवारण, 3- शारीरिक दुर्बलता तथा अनिद्रा रोग में अचूक असरकारक, 4- कब्जियत में फायदेमन्द, 5- लोग्रेड फीवर की उत्तम दवा, 6- ब्लडप्रेशर में राहत।

महिलाओं के लिए प्रयुक्त होने वाले सरस्वती पंचाक के घटकों में उनकी प्रकृति के अनुसार कुछ अन्तर रखा गया है।

सरस्वती पंचक के घटक (महिलाओं हेतु)- (1) ब्राह्मी, (2) शंखपुष्पी, (3) शतावर, (जटामाँसी), 5- मुलहठी

इसके निर्माण व सेवन की विधि-सेवन की विधि ऊपर जैसी ही है। इसके सेवन से एक शारीरिक कमजोरी में लाभ, 2- मेधावृद्धक, प्रतिभा संवर्धक, (3) तनाव, उलझन व उत्तेजना, छुटकारा, (4) अनिद्रा रोग दूर (5) ब्लडप्रेशर और ला ग्रेड फिवर में फायदेमन्द जैसे अनेकों लाभ होते हैं-

उक्त दोनों ही प्रकार के सरस्वती-पंचक को क्वाथ रूप में भी प्रयुक्त किया जा सकता है। क्वाथ बनाने की विधि यह है कि रात्रि में पाँचों घटकों की एक-एक चम्मच मात्रा लेकर एक लीटर पानी में भिगो दिया जाये। सुबह उसे मंद आँच पर उबाला जाए और जब चौथाई अंश पानी रह जाये, तब उसे चूल्हे पर से अलग हटाकर ठंडा होने तक छोड़ दिया जाये। तत्पश्चात् पकड़े से छानकर क्वाथ अलग कर लिया जाये। इस क्वाथ के दो भाग बनाकर एक सुबह दूसरा शाम को पी लिया जाये। इस तरह आसानी से स्वास्थ्य संरक्षण ही नहीं, संवर्द्धन भी किया जा सकता है।

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