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Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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देश के हर गाँव को विकास का तीर्थ बनाना होगा

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स्वतंत्रता -प्राप्ति के बाद देश में जैसे-जैसे आर्थिक एवं औद्योगिक विकास की गति तीव्र हुई, नगरों की संख्या और उनमें निवास करने वाली जनसंख्या दोनों में ही तेजी से बढ़ोत्तरी हुई। ग्रामीण भारत आज शहरों के दम घोंटू वातावरण में जीवन एवं रोजगार की राह तलाश रहा है। एक तो नगरों की आबादी का प्रबल दबाव और उस पर गाँवों से शहरों की आरे पलायन, ढेर की ढेर समस्याओं को रोज जन्म दे रहा है। कारखानों और बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के कारण देश में हर साल पाँच लाख लोग शहर में आकर बस जाते हैं। आज स्थिति यह है कि भारत की कुल जनसंख्या की 26 प्रतिशत आबादी अर्थात् 21.7 करोड़ लोग शहरों में निवास करते हैं।

सन् 1951 से आज तक शहरीकरण पर एक नजर डालें तो इसकी भयावहता और विस्तार का अनुमान लगता है। पिछले चालीस वर्षों पूर्व शहरों की कुल जनसंख्या 12 प्रतिशत थी। सन् 1951 में नगरों की कुल संख्या 2085 तथा इनकी जनसंख्या 61,629,646 थी। उत्तरोत्तर इसमें वृद्धि हुई और 1961 में यह स्थिति 2270 व जनसंख्या 7,75,62,000 हो गयी। यह क्रमशः 1971 में 2476 व 106, 966, 534 थी। 1981 में औद्योगीकरण में भारी वृद्धि हुई, जिसके फलस्वरूप नगरों की संख्या 3245 तथा जनसंख्या 15,64,19,768 हो गई। सन 1991 में नगरों की संख्या 3609 तक जा पहुँची और इसमें रहने वाले लोग बढ़कर 21,28,67,337 हो गये। अब तक तो इनमें काफी बढ़ोत्तरी हो चुकी होगी। एक आकलन के अनुसार, शहरों में 10 से 12 प्रतिशत जनसंख्या-वृद्धि हर साल हो रही है। बाहर से आने वालों की तुलना यदि शहरों की जनसंख्या-वृद्धि से की जाये तो पता चलता है कि यह दो गुनी है। शहरी भारत में जनसंख्या का घनत्व दुनिया के किसी भी देश से अधिक है। भारत में नगरीय संख्या का प्रतिशत विकसित देशों की तुलना में बहुत कम है, परन्तु नगरों में निवास करने वाली कुल जनसंख्या कई-कई विकसित देशों की कुल जनसंख्या से भी अधिक है।

भारतीय जनगणना विभाग द्वारा भारतीय नगरों को जनसंख्या के आधार पर 6 वर्गों में बाँटा गया है। पहले वर्ग में एक लाख से अधिक जनसंख्या वाले नगर आते हैं। दूसरे वर्ग में 50 हजार से एक लाख, तीसरे वर्ग में 20 से 50 हजार, चौथे वर्ग में 10 से 20 हजार, पाँचवें वर्ग में 5 से 10 हजार वाले नगर आते हैं। छठे वर्ग में 5 हजार के आस-पास निर्धारित संख्या मानी गयी है। सन् 1951-61 के दशक में पाँचवें वर्ग में 405 कस्बों को पुनः अवर्गीकृत कर ग्रामीण क्षेत्रों में परिवर्तित किया गया था। विकास के साथ ही प्रथम, द्वितीय व तृतीय वर्ग के नगरों की संख्या में काफी बढ़ोत्तरी हुई। सन् 1971 में इन तीनों वर्गों की संख्या क्रमशः 215, 270 व 738 थी, जो सन् 1991 में बढ़कर 296, 341 व 927 पहुँच गयी। चतुर्थ श्रेणी के नगरों में भी इधर काफी वृद्धि हुई है। वर्तमान समय में प्रथम वर्ग के शहरों में कुल नगरीय जनसंख्या का 65.20 फीसदी भाग निवास करती है।

आँकड़ों के मुताबिक़ सन् 1971 में जहाँ एक लाख वर्ग की आबादी वाले 151 शहरों में सिर्फ 8 की ही आबादी 10 लाख से अधिक थी। सन् 1991 में यह संख्या बढ़कर 16 पहुँच गयी। अनुमान है कि 2001 तक 26 शहरों की जनसंख्या 10 लाख से ज्यादा होगी। एक से पाँच लाख तक की आबादी वाले 319 शहर हो जाने का अनुमान है। महानगरों का विकास भी कुछ इसी तरह बढ़ा है। सन् 1901 में भारत में कलकत्ता ही एक मात्र महानगर था। सन् 1911 से 1941 तक यह संख्या 2 तक सीमित रही। 1951 में यह संख्या 5,1961 में 7, 1971 में 9,1981 में 12 तथा 1991 में 23 हो गयी। इन आँकड़ों से पता चलता है कि 1981 से 91 के दशक में इसमें लगभग दुगुनी वृद्धि हुई।

शहरीकरण की यह रफ्तार बाढ़ की तरह बढ़ रही है। सन् 1971 में जहाँ देश की कुल जनसंख्या का 20.2 प्रतिशत भाग शहरों में निवास करता था, वही आज यह दर 30 प्रतिशत से ऊपर पहुँच गयी है। अगर यही स्थिति चलती रही तो सन् 2001 तक यह प्रतिशत 35 व 2011 तक 40 तक पहुँच जाने की सम्भावना है। नगरीय जनसंख्या की बढ़ोत्तरी का मुख्य भाग है- औद्योगिक विकास। इसी वजह से गाँवों की ओर से जनसंख्या शहरों की ओर पलायन करती है। इससे अनेकानेक समस्यायें उठ खड़ी होती हैं। इन समस्याओं को मुख्यतः चार भागों में बाँटा जा सकता है-

1- पर्यावरण समस्या, 2- आवास समस्या, 3-रोजगार समस्या, 4- अन्य सामाजिक समस्यायें।

शहरी जनसंख्या के विस्फोटक दबाव व औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप सर्वाधिक प्रदूषण वायु तथा जल का है। महानगरों में प्रदूषण का मुख्य कारण है वाहन एवं औद्योगिक संस्थाओं द्वारा निकले वाली विषैली गैसें एवं जहरीले रसायन। इनमें प्रमुख हैं- सल्फर डाइ ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड, सीसा एवं नाइट्रस ऑक्साइड । ‘नेशनल एन्वायरमेंटल इंजीनियरिंग रिसर्च इंस्टीट्यूट नागपुर’ के अनुसार सन् 1990 में उद्योगों से प्राप्त सल्फर डाइ ऑक्साइड की मात्रा 45000 टन प्रतिवर्ष थी, जो बढ़कर सन् 2000 तक 48000 टन प्रतिवर्ष हो जाने की संभावना है। कार्बन मोनोऑक्साइड की मात्रा 1980 के 1,40,000 टन प्रतिवर्ष से बढ़कर 1980 में 2,65,000 टन हो गयी थी। यह भी सन् 2000 ते 4 लाख टन प्रतिवर्ष हो जाने की आशंका है।

मुम्बई की सड़कों पर आठ लाख वाहन प्रतिदिन 4500 टन प्रदूषण उगलते हैं। दिल्ली में मोटर-वाहनों कारखानों और अन्य स्रोतों से रोजाना 2500 टन प्रदूषित पदार्थ निकलते हैं। यही स्थिति कलकत्ता, चेन्नई एवं अन्य बड़े महानगरों की भी है। कार्बन मोनोऑक्साइड दुपहिया व तिपहिया पेट्रोलचालित वाहनों से निकलती है। सम्पूर्ण शरीर में रक्त आक्सीजन वहन करने की क्षमता को यह गैस कम कर उसे प्रभावित करती है। नाइट्रोजन ऑक्साइड वाहनों में ईंधन दहन के समय में पैदा होता है। यह श्वास-पथ को सवंमित करने के साथ-साथ अन्य व्याधियों जैसे- सिरदर्द, आँखों में जलन व जुकाम उत्पन्न करता है। सल्फर डाइऑक्साइड रंगहीन गैस है। यह गैस डीज़ल के धुँऐ से निकलती है। इससे श्वाँस सम्बन्धी समस्यायें जैसे-खाँसी दमा आदि पैदा होती है।

सीसा विषैला पदार्थ है, जो हवा में तैरते सूक्ष्म कणों के रूप में व पेट्रोल में मौजूद रहता है। मोटर वाहनों से निष्कासित हवा का लेड धुल के रूप में संचयित होता है। शहरों की सड़कों के प्रति मिलीग्राम धूल में 2 ग्राम सीसा पाया जाता है। वाहनों से निकलने वाला कार्बनिक सीसा जब साँस के साथ अन्दर जाता है, तो धीरे-धीरे विष बन जाता है। इससे दिमाग को नुकसान, लकवा, मिरगी जैसे रोग और मृत्यु तक हो सकती है। कलकत्ता, मुम्बई और दिल्ली के वातावरण में इसकी मात्रा तेजी से बढ़ रही है। एन.ई.ई.आर.आई. (नीरी) की रिपोर्ट के अनुसार, प्रति दस लाख भाग में यह कलकत्ता में 1 से 1.6 तक, मुम्बई में 0.2 से 1.4, दिल्ली में .2 से 1.8 तक है। जबकि हवा में इसकी मानक मात्रा 0.5 तक ही मान्य है। मुम्बई की आधी आबादी के खून में प्रति 100 मिलीग्राम रक्त में 30 माइक्रोग्राम सीसा पाया जाता है। 50 माइक्रोग्राम की मात्रा दिमाग को क्षति पहुँचाने के लिए पर्याप्त मानी जाती है। इससे कैंसर की सम्भावना भी प्रबल हो जाती है।

पाँली साइकिलक एरोमैटिक हाइड्रोकार्बन डीज़ल इंजन का अधजला ईंधन है। यह कैंसर के अलावा खाँसी, आलस्य व आँखों की जलन पैदा करता है। दुपहिया और तिपहिया वाहन कार की तुलना में छह गुना अधिक हाइड्रोकार्बन और तीन गुना अनावश्यक तत्व उत्सर्जित करते हैं। औद्योगिक नगरों में ठण्ड के समय, तापीय प्रतिलोमन के समय कल-कारखानों की चिमनियों से निकलने वाला धुँआ एवं सल्फर के स्थिर वायु के साथ मिश्रण के कारण धुँऐ वाला कोहरा भी पनपता है। जो स्वास्थ्य की दृष्टि से काफी खतरनाक है।

शहरीकरण की समस्या ने जल को भी विशेष रूप से प्रभावित किया है। शहरों में पक्के आवासों की बढ़ोत्तरी से वर्षा का जल रिसकर भूमि के अन्दर नहीं पहुँच पाता है, फलस्वरूप धरातलीय जल-भण्डार में मिल जाने से भी अपार क्षति होने की संभावना है। महानगरों से निष्कासित कचरा व जल ने आस-पास की नदियों को प्रदूषित, उथला व नाले के रूप में परिवर्तित कर दिया है। ध्वनि प्रदूषण ने तो जैसे अनेकानेक आसन संकटों को अनायास आमंत्रित कर दिया है, जिससे ब्रेन सम्बन्धी अनेकानेक बीमारियाँ फैल रही हैं।

पर्यावरण के पश्चात् सबसे महत्वपूर्ण समस्या आवास की है। वर्तमान समय में भारत में तीन करोड़, 10 लाख आवासीय इकाइयों की कमी है, जिसमें 206 लाख आवास की कमी ग्रामीण क्षेत्रों में तथा 104 लाख की कमी शहरी क्षेत्रों में है। इसके अतिरिक्त सुविधाजनक मकानों की भारी मात्रा में कमी है। सन् 2000 तक लगभग सात मिलियन आवासों की कमी हो जाने का अंदेशा है। नवीनतम सर्वेक्षण के अनुसार, कुल नगरीय आबादी का 14.68 प्रतिशत झुग्गी-झोपड़ियों में निवास करता है। यहीं क्यों भारत के विभिन्न महानगरों की कुल नगरीय आबादी का एक बड़ा भाग झुग्गी-झोंपड़ियों में निवास करता है।

दिल्ली को ही लें, यहाँ का 40 प्रतिशत हिस्सा गंदी बस्तियों में निवास करता है। यहाँ पर दो तरह के स्लम हैं। कटरा श्रेणी के मकान पक्के होते हैं, परन्तु यह खण्डहरनुमा और इसकी छत उड़ी हुई होती है। दूसरी श्रेणी में झुग्गी बस्तियाँ आती हैं। जहाँ ज्यादातर लोग ईंट, गारे या सिर्फ मिट्टी की दीवारों और कमजोर छत के नीचे निवास करते हैं। सन् 1990 में दिल्ली में 929 झुग्गी-बस्तियाँ थीं, जिसमें ढाई लाख झुग्गियाँ थीं, इनमें 15 लाख लोग रहते थे। 1994 में इन बस्तियों की संख्या बढ़कर 1080 हो गयी, जिसमें करीब 6 लाख झुग्गियाँ थीं। इनकी कुल आबादी 27 लाख थी। वर्तमान स्थिति में झुग्गी बस्ती 1100 के आस-पास हैं। इस प्रकार के आँकड़ों से स्पष्ट होता है कि झुग्गी बस्तियों में आबादी का घनत्व मुम्बई में 38.30, कलकत्ता में 35.35, दिल्ली में 30.19, चेन्नई में 31.87, अहमदाबाद में 26.16, बेंगलोर में 10.02, कानपुर में 40.31 तथा लखनऊ में 38.63 प्रतिशत है।

नवीनतम सर्वेक्षण के अनुसार भारत में कुल नगरीय आबादी का लगभग 14.68 प्रतिशत झुग्गी-झोंपड़ियों में निवास करता है। दिल्ली में हर साल औसतन 11 हजार नयी झुग्गियाँ बसती जा रही हैं और इनका जीवन नारकीय यातनाओं के समान है। मुम्बई में फुटपाथ पर रहने वालों संख्या ढाई लाख है। इनमें आधे लोग ऐसी झोंपड़ियों में निवास करते हैं, जिनका आकार 5 वर्गमीटर से भी कम होता है। दूसरी ओर सुविधा सम्पन्न आवास की दर भी आसमान छूती प्रतीत हो रही है। व्यस्त एवं सघन इलाकों में एक फ्लैट का किराया प्रति माह 1 लाख रुपये तक है। पश्चिमी भारत में औद्योगिक विकास का ध्वजावाहक सुरत नगर की 30 फीसदी जनसंख्या 300 घनी बसी गन्दी बस्तियों में रहती है।

भारत में शहरीकरण के कारण 19 प्रतिशत परिवार 10 वर्गमीटर क्षेत्र से भी कम जगह में रहते हैं। इनमें से 44 प्रतिशत परिवार तो एक कमरे में ही रहते हैं। सरकार की नई भवन निर्माण नीति में शहरी जनसंख्या के 40 प्रतिशत लोग गरीबी रेखा से नीचे जीवन-निर्वाह करते हैं। शहरों की स्थिति डार्विन के सिद्धान्त सरवाइकल ऑफ द फिटेस्ट’ का शिकार होती जा रही है। एक ओर समाज अति आधुनिकतम टेक्नोलॉजी, सेल्युलर फोन, पेजर से इन्टरनेट तक की सुविधाओं का उपभोग कर दिन-दूना-रात चौगुना विकास कर रहा है।, तो दूसरी ओर सिर छिपाने हेतु छत भी नसीब नहीं हो पा रही है और है भी तो मानवीय विकास के लिए एक कलंक का पर्याय बनकर। भारतीय महानगरों की गन्दी बस्तियों में ही अपराध का नरक भी बसता है। इन्हीं की छाँव में देह व्यापार, नशा, हिंसा, हत्या आदि सभी कुछ पनपते, विकसित होते हैं। प्रमुख समाज विज्ञानी प्रो. मार्शल के मतानुसार श्रीलंका, थाईलैण्ड, हाँगकाँग की स्वयं की स्थिति कलकत्ता तथा कानपुर से बेहतर है।

नगरों की जनसंख्या-वृद्धि के साथ-साथ रोजगार की समस्या भी गहराई है। दिल्ली में हर साल लगभग ढाई लाख व्यक्ति रोजगार की तलाश में आते हैं। रोजगार के अभाव में मजदूर

वर्ग के बढ़ने के साथ- सामाजिक सन्तुलन में कमी आती हैं व अव्यवस्था बढ़ती है और यहाँ से अपराध का जन्म होता है। इन समस्याओं के अलावा शिक्षा-व्यवस्था सफाई, बीमारी आदि अनेकों ऐसी समस्याएँ हैं, जो शहरीकरण के साथ सुरसा की तरह मुँह फैलाती चली जा रही है।

कम संसाधन एवं शहरों में बढ़ती जनसंख्या का आत्मघाती विस्फोट निश्चय ही राष्ट्र की भारी परेशानी का कारण है। इसे रोकना है, तो ग्रामीण क्षेत्रों में विकास के नये-नये आयाम विकसित करने होंगे। इसी के साथ नगरीय क्षेत्रों की औद्योगिक इकाइयों को बाहरी क्षेत्रों में स्थानान्तरित कर देना चाहिये एवं बाह्य क्षेत्र में विकास ध्रुव केन्द्र की स्थापना करनी चाहिए। इससे शहरों को विकेन्द्रीकृत करने में सहायता मिल सकती है।

ग्रामीण क्षेत्रों में कुटीर एवं लघु उद्योगों की स्थापना करके शहरी क्षेत्र के आकर्षण को कम करने में सफलता मिल सकती है। साथ ही इससे लोगों में स्वावलम्बन एवं आत्मनिर्भरता भी बढ़ेगी। शहरीकरण की समस्या से निबटने का उपाय है- भारतीय गाँवों को विकास की मुख्य धारा में जोड़ना। बड़ी-बड़ी परियोजनाओं के बदले- ग्रामीण जीवन को पवित्र एवं समृद्ध बनाना होगा। अपने देश का हर गाँव, विकास का तीर्थ बन सके, तो ही राष्ट्रीय जीवन का भविष्य उज्ज्वल होगा।

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