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Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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प्रगति की होड़ में हलाहल से भर रहे हैं हमारे सागर

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आज पर्यावरण-प्रदूषण इतनी तीव्र गति से हो रहा है कि अब तक सुरक्षित माने जाने वाले सागर भी इससे अछूते नहीं रहे। कुछ वर्ष पूर्व ‘संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम’ की एक रिपोर्ट प्रकाशित हुई थी, जिसमें कहा गया था कि प्राकृतिक संसाधनों में समुद्र ही एक ऐसा संसाधन है, जो प्रदूषण से अभी मुक्त है। अब यह धारणा गलत साबित हुई है।

समझा जा रहा था कि पृथ्वी के दो-तिहाई भाग को आच्छादित करने वाले समुद्रों पर, उसके एक- तिहाई हिस्से में निवास करने वाले मनुष्यों के कचरे का कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा, पर यह विश्वास मिथ्या सिद्ध हुआ है। कहीं-कहीं का समुद्री जल इतना जहरीला हो गया है कि उसका प्रयोग निषिद्ध घोषित कर देना पड़ा। इस विषाक्तता से वहाँ के जलीय जीवन पर गंभीर प्रभाव पड़ा है। वर्तमान प्रदूषण का सबसे प्रमुख कारण है- बढ़ते रासायनिक उद्योग। इससे निकलने वाले रासायनिक कचरे से निपटने के लिए समुद्रों को उपयुक्त स्थान मान लिया गया है और बड़े पैमाने पर उसको उसमें बहा दिया जाता है। इन कचरों में सामान्य रसायनों से लेकर विषैले रसायन तक सम्मिलित होते हैं। बड़े औद्योगिक देश अपने रेडियोधर्मी कचरे को भी स्टील के बड़े-बड़े पात्रों में सीलबन्द कर सागर में जल-समाधि दे देते हैं। जब तक ये बन्द हैं, तब तक तो कोई खतरा नहीं, लेकिन जिस दिन इनकी समाधि टूटी, उसी दिन से विनाशलीला रचना शुरू कर देंगे। एक बार वे जल में मिल गये, तो फिर लम्बे काल तक उनकी विद्यमानता वहाँ बनी रहती है। इसका अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है कि सत्तर के दशक में डी.डी.टी. का प्रयोग पश्चिमी देशों में वर्जित घोषित कर दिया गया, पर उसका प्रभाव आज भी वहाँ के समुद्री जीवों में देखा जा सकता है। जब सामान्य-सा रसायन इतनी लम्बी अवधि तक अपनी उपस्थिति का प्रमाण दे रहा है, तो रेडियोधर्मी जैसे घातक तत्वों की तो बात ही और है। डी.डी.टी. का प्रयोग वहाँ बन्द हो चुका है, पर एक अन्य जहरीले रसायन- आर्गैनोहैलोजन का व्यापक प्रयोग आरम्भ हुआ है। इससे जो संकट एक बार टलता दिखाई पड़ रहा है था, उसका खतरा अब पुनः मंडराने लगा है। इसके अतिरिक्त समय-समय पर होने वाले तेल वाहक जहाजों की दुर्घटनायें भी पर्यावरण को गंभीर रूप से क्षति पहुँचाती हैं। पिछले दिनों इस प्रकार के कई प्रसंगों में मीलों दूर तक कच्चा तेल फैला, जिससे उस क्षेत्र के असंख्य जलचर मारे गये।

यह तो सीधे समुद्री जल को प्रदूषित करने की घटनायें हुई, पर जो कचरा स्थल भाग में फेंका जाता है, वह भी अन्ततः वर्षा जल के साथ समुद्र में ही पहुँचता है। इस प्रकार समुद्रों को दोहरी हानि झेलनी पड़ती है। नदियों और नालों में बहाये जाने वाले कचरे भी प्रकारान्तर से सागरों को ही प्रदूषित करते हैं। जिन समुद्रों के तट पर औद्योगिक शहर बसे होते हैं अथवा घनी आबादी होती है, देखा गया है कि वहाँ का तटीय जल अत्यन्त प्रदूषित हो जाता है। विशेषज्ञ इसका कारण बताते हुए कहते हैं कि ऐसे मामलों में किनारे का जल बीच के जल से ठीक प्रकार नहीं मिल पाता, अतएव प्रदूषण की सघनता वहीं सीमित होकर रह जाती है और धीरे-धीरे बढ़ती रहती है। ऐसे समुद्री जल में मुख्य रूप से पारा, शीशा एवं ताँबे जैसी भारी धातुओं के यौगिक होते हैं, जो नदी, नालों और झीलों के पानी के द्वारा वहाँ इकट्ठे हो जाते हैं। इनमें सूक्ष्म जीवी जीवनधारियों की संख्या भी कोई कम नहीं होती।

सूक्ष्मजीवी बैक्टीरिया से होने वाला प्रदूषण आमतौर पर तटवर्ती जल तक ही सीमित होता है, जबकि रसायनों के अंश मध्यवर्ती समुद्र में भी पाये जाने लगे हैं। यह अंश, विभिन्न उद्देश्यों को लेकर जबसे समुद्र का दोहन आरम्भ हुआ है, तब से ज्यादा घनीभूत होने लगे हैं पहले खनिज तेल और खनिजों की ही गहरे समुद्रों में खोज की जाती थी, अब हीरे की भी तलाश होने लगी है। हीरे की यह खोज सागर की तली में उतर कर रोबोट करते हैं। हाल ही में ऐसा एक रोबोट ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने विकसित किया है। समुद्री गर्भ से इस प्रकार की छेड़छाड़ और प्रदूषण से वहाँ के जल-जीवन को अब खतरा पैदा हो गया है। इसके कारण जल-जीवों की कितनी ही प्रजातियाँ लुप्त होने लगी हैं।

वैज्ञानिकों के अनुसार, समस्त पृथ्वी पर जन्तुओं के 33 वर्ग पाये जाते हैं। इनमें से 30 वर्ग समुद्र में भी विद्यमान हैं। 15 वर्ग ऐसे हैं , जिनका एक भी प्रतिनिधि स्थल भाग में नहीं है। यह तो ज्ञात प्रजातियाँ हुईं। ऐसा अनुमान है कि गहरे जल में लाखों की संख्या में ऐसी अविज्ञात प्रजातियाँ हैं, जिनके बारे में प्राणिशास्त्रियों को भी कोई जानकारी नहीं। इसके अतिरिक्त कितनी ही प्रकार की उपयोगी वनस्पतियाँ भी हैं, इनका खाद्य के रूप में प्रयोग होता है। इनमें सर्वप्रमुख शैवाल है। वनस्पति शास्त्रियों के अनुसार, समुद्री शैवाल की तीन-चार किस्में ऐसी हैं, जिनमें प्रचुरता से प्रोटीन पायी जाती है। इनमें प्रधान प्रजातियाँ निम्न हैं- आइसोक्राइसिस गल्बाना, डुनेलियेला टर्टियोलेक्टा, टेटासेल्मिस सुयोसिका एवं क्लोरेला स्टिगमैटोफेरा। इनमें सबसे अधिक प्रोटीन डुनेलियेला (55 प्रतिशत) में, उसके बाद टेटासेल्मिस (41 प्रतिशत) में तथा आइसोक्राइसिस एवं क्लोरेला में (36 प्रतिशत) पायी जाती है। इस दृष्टि से भविष्य में इनका भोजन के रूप में एवं विशेष रूप से प्रोटीन-स्रोत के रूप में बहुतायत से प्रयोग होने की बढ़ी-चढ़ी संभावना है।

यदि समुद्रों का प्रदूषण दिन-दिन इसी प्रकार बढ़ता गया, तो फिर इन वनस्पतियों का उपयोग कर सकना मुश्किल हो जायेगा। ऐसा अनुमान है कि प्रतिवर्ष समुद्रों में विभिन्न स्रोतों से 60 लाख टन से भी अधिक पेट्रोलियम पदार्थ पहुँच जाते हैं। धात्विक यौगिकों की मात्रा भी कोई कम नहीं होती। यह सब समुद्री वनस्पतियों द्वारा अवशोषित कर लिये जाते हैं। इस स्थिति में यदि इनका उपयोग खाने अथवा दवा बनाने के काम में किया गया, तो इनका विषैला प्रभाव खाने वाले पर गंभीर परिणाम उत्पन्न करेगा और जल्द ही उसे मृत्यु के मुख में धकेल देगा।

अपने देश में भी सागर तटीय क्षेत्रों में प्रदूषण की समस्या गंभीर होती जा रही है। भारत का कुल भूभाग 3290 लाख हेक्टेयर है। यहाँ 100 से अधिक स्वतंत्र नदियाँ और इससे दुगुनी सहायक नदियाँ हैं। इसके अतिरिक्त लगभग 6000 किलोमीटर लम्बा इसका समुद्रतट है। आबादी का करीब 25 प्रतिशत भाग इसी तटवर्ती क्षेत्र में बसा है। बारह राज्यों की सीमाएँ इस तटवर्ती क्षेत्र को छूती हैं। इनमें केरल, कर्नाटक, आँध्रप्रदेश, तमिलनाडु, गुजरात, महाराष्ट्र, गोवा, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, पाण्डिचेरी, लक्षद्वीप तथा अण्डमान निकोबार द्वीप समूह हैं। भारत के चार महानगरों में से तीन समुद्र किनारे बसे हैं। शहरों के आकार-प्रकार जीवन-स्तर और उद्योगों की प्रकृति एवं संख्या के आधार पर उपरोक्त शहरों के तटीय इलाकों का प्रदूषण स्तर भी भिन्न-भिन्न है।

महाराष्ट्र में मुम्बई, ठाणे, कल्याण के अतिरिक्त 24 अन्य शहरों का प्रदूषण समुद्र में ही जाता है। इनमें दो प्रकार के उद्योग हैं- वस्त्र तथा रसायन। मुम्बई में इन कचरों के समुद्री जल में डाले जाने के कारण उस क्षेत्र के जल का रंग हरा हो गया है। इसी से प्रदूषण की सघनता का अन्दाज लगता है। मुम्बई के जलीय क्षेत्र में प्रदूषण के दो अन्य कारण भी हैं। एक तो वहाँ के समुद्र से तेल निकाला जाता है, जिससे लगभग नियमित रूप से छोटे-बड़े स्रोतों से वहाँ पर तेल का रिसाव होता रहता है। अभी पिछले दिनों मुम्बई हाई की एक पाइप से बड़े पैमाने पर यह रिसाव हुआ था, जिससे जलीय क्षेत्र के एक बड़े हिस्से को नुकसान पहुँचाया था। गोवा में भी निर्यात किये जाने वाले अयस्कों और तेल के टैंकरों से वहाँ का समुद्र प्रदूषित होता रहता है। इस दिशा में पर्यटकों और तटवर्ती होटलों की भी कोई कम बड़ी भूमिका नहीं है।

कर्नाटक राज्य में समुद्री किनारे पर कुल 12 शहर बसे हैं। ये करीब 300 किलोमीटर का इलाका घेरते हैं। इनमें अगणित छोटे-बड़े उद्योग हैं। इनका सम्पूर्ण कचरा समुद्र में छोड़ा जाता है। एक अनुमान के अनुसार, प्रतिदिन यहाँ के जल में 20 हजार घन मीटर प्रदूषणकारक तत्व डाले जाते हैं, जिनमें 25 टन के करीब कार्बनिक पदार्थ होते हैं। कुद्रमुख खदानों से निकाले गये और अयस्कों के निर्यात के लिये बनाया गया न्यू मैंगलोर पोर्ट तथा कारवार का नौसैनिक अड्डा भी दो ऐसे स्रोत हैं, जो प्रदूषण फैलाते हैं।

पांडिचेरी और तमिलनाडु के लगभग एक हजार किलोमीटर लम्बे समुद्रतटीय क्षेत्र में सैकड़ों की संख्या में उद्योग हैं। उनमें दवाई, कागज, उर्वरक, सीमेंट, वस्त्र, चीनी, खनन और अयस्क-संवर्द्धन उद्योग प्रमुख हैं। इनका अर्द्ध उपचारित तथा अनुपचारित कचरा समुद्र में ही डाल दिया जाता है। इनमें स्थित बड़े और सघन आबादी वाले शहरों का कूड़ा भी नदी-नालों के माध्यम से यहीं आ मिलता है। पर्यटन स्थल के रूप में समुद्री किनारों का विकास भी प्रदूषण को बढ़ावा ही देता है। मद्रास का इन्नोर ताप बिजलीघर समुद्री जल को जिस ढंग से विषैला बना रहा है, वह गम्भीर चिन्ता का विषय है। संयंत्र का सम्पूर्ण राख समुद्र में डाल दिया जाता है। वर्षों से चले आ रहे इस प्रदूषण के कारण पानी का स्वाभाविक रंग एकदम बदल गया है तथा वह जल क्षेत्र जीवन विहीन बन गया है। यदि जल्द ही कोई उपाय नहीं किया गया, तो निकटवर्ती गहरे जल की जीवों पर इसका घातक प्रभाव पड़ने की आशंका पर्यावरणविद् व्यक्त कर रहे हैं।

केरल तट भी शहरीकरण की मार की कहानी कह रहा है। यहाँ के शहरों की एक दर्जन नगरपालिकाएं अपनी गन्दगी समुद्र में प्रवाहित करती हैं। उद्योग भी उन्हीं का अनुकरण कर रहे हैं। वहाँ करीब 2500 छोटे-बड़े उद्योग हैं। इनमें प्रतिदिन 3 लाख घनमीटर औद्योगिक कचरा समुद्र में जा मिलता है। मत्स्य पकड़ने वाला जहाज, नौसैनिक अड्डे और पर्यटन- यह सब भी इस विभीषिका को बढ़ा ही रहे हैं। कुल मिलाकर यहाँ का भी दृश्य अन्य तटीय इलाकों की तरह ही होता जा रहा है।

आन्ध्रप्रदेश के साथ-साथ पश्चिम बंगाल और उड़ीसा की भी मिलती-जुलती कहानी है। हल्दिया, पाराद्वीप, विशाखापट्टनम, काकीनाड़ा- यह सब बड़े बन्दरगाह हैं। बन्दरगाहों का जल क्षेत्र वैसे भी प्रदूषित होता है, जिस पर यदि आस-पास बड़े औद्योगिक शहर हों, तो स्थिति और गंभीर बन जाती है। हल्दिया और विशाखापट्टनम घनी जनसंख्या वाले बड़े शहर हैं। यहाँ कितने ही प्रकार के उद्योग स्थापित हैं। विशाखापट्टनम के समुद्री जल में तेल और ग्रीस की एक पतली पर्त स्पष्ट देखी जा सकती है। इसके कारण वहाँ का पानी काला दिखाई पड़ता है और उस क्षेत्र की मछलियों की संख्या घटी है। यदि मछलियों की संख्या कम हुई है, तो निश्चय ही अन्य जलजीवों पर भी इसका बुरा असर पड़ा होगा। कलकत्ते का अधिकाँश कचरा, चाहे वह घरेलू हो अथवा औद्योगिक- सब हुगली नदी के माध्यम से बंगाल की खाड़ी में जा मिलता है।

प्रदूषण की गंभीरता का अनुमान लगाने के लिए जब विशेषज्ञों ने कुछ प्रमुख तटवर्ती क्षेत्रों के जल-नमूनों का अध्ययन किया, तो वहाँ की विषाक्तता अप्रत्याशित रूप से बढ़ी-चढ़ी पायी गयी। ठाणे के जल-विश्लेषण से वहाँ लेड और कैडमियम की मात्रा अत्यधिक पायी गयी। लेड 830 माइक्रोग्राम और कैडमियम 330 माइक्रोग्राम प्रतिलीटर देखा गया। पारा प्रतिलीटर 780 माइक्रोग्राम था। कोचीन में पेट्रोलियम पदार्थ 150 माइक्रोग्राम प्रतिलीटर मौजूद था। पश्चिम बंगाल और उड़ीसा के समुद्री जलों में आक्सीजन की कमी सुस्पष्ट थी। यही कारण है कि पहले की तुलना में अब वहाँ जलीय जीवों की संख्या घटी है।

“जल ही जीवन है”- इस कथन में सच्चाई का बहुत कुछ अंश है। निराहार मनुष्य कई दिनों तक जिन्दा रह सकता है, पर प्यास की अकुलाहट को वह ज्यादा समय बर्दाश्त नहीं कर सकता। वर्तमान में पेय जल की आवश्यकता हम कुएँ, तालाबों, झरनों से पूरी करते हैं, किन्तु जमीन के नीचे का जल-स्तर तेजी से गिरता चला जा रहा है। अपने वाले वर्षों में एकदम न्यून हो जाये अथवा सूख जाये, तो कोई आश्चर्य नहीं। ऐसी स्थिति में पेय जल के लिए हमें समुद्रों पर ही आश्रित रहना पड़ेगा। समुद्र यदि विषैले हो गये, तो फिर मनुष्य के पास दो ही विकल्प शेष रहेंगे- या तो वह प्यासा मर जाये अथवा पानी के नाम पर हलाहल पीकर मरे, दोनों स्थितियों उसे मरना ही पड़ेगा। समय रहते समस्या का हल ढूँढ़ लेने वाले को समझदार कहते हैं। मनुष्य के पास अभी भी वक्त है। वह इस दिशा में सोचे और निर्णय करे कि उसे क्या करना चाहिये?

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