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Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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मानवी काया की विलक्षण संरचना पर एक धारावाहिक लेखमाला- - अड़सठ तीरथ हैं घट भीतर...(2)

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रहस्यों से भरी मानवी काया हर किसी के लिए एक चुनौती आज भी बनी हुई है। उन सभी चिकित्सा विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए भी, जो चीरफाड़ करके उसके बारे में जानना-समझना चाहते हैं, उन गुह्य विज्ञानियों के लिए भी जो साधना की गहराई में जाकर उसी काया को एक प्रयोगशाला बनाकर भाँति-भाँति के प्रयोग करना चाहते हैं, जिनका शास्त्रों में वर्णन है। इस ‘शरीरक्षेत्र’ के बारे में मानवीत्वचा, अस्थिकवच, रक्तवाही वे हृदय-संस्थान तथा श्वाँस-संस्थानों की चर्चा विगत अंक में की जा चुकी है। जिस शरीर को मनुष्य इतने प्रेम से पालता, पोसता, सींचता है, उसके बहिरंग की मल-मल कर धुलाई-सफाई करता है, उसके बारे में वस्तुतः वह कितना जानता है- यह रहस्योद्घाटन उपरोक्त संस्थानों के परिप्रेक्ष्य में विगत अंक में किया जा चुका है। अब कुछ और अंगों-संस्थानों की चर्चा करें।

“शरीरमाद्यम खलु धर्मसाधनम्” की, की जाती रही व्याख्यानुसार इस शरीर को स्वस्थ बनाये रखना मनुष्य मात्र का एक परम कर्तव्य है, एक धर्म है। यह जिस प्रारंभिक अंग या संस्थान के द्वारा सधता है, उसका नाम है- पाचन-संस्थान इसी के लिए व्यक्ति कमाता, अगणित प्रकार के पुरुषार्थ करता देखा जाता है तथा इसी की पूर्ति के लिए नीति-मर्यादा के नियम छोड़कर ऐसे कार्य कर बैठता है, जिस पर शैतान को भी शर्म आने लगती है। आखिर इतना महत्वपूर्ण क्यों है यह। वस्तुतः क्षुधा-भूख एक ऐसी प्रारम्भिक आवश्यकता है जिसकी पूर्ति जन्म लेने वाले शिशु से लेकर अंतिम साँस गिनने वाले बूढ़े तक को करने की आवश्यकता पड़ती है। इतने पर भी बहुत कम जानते हैं कि जितना हम खाते हैं या खाने का जुगाड़ बिठाते हैं, इतने की आवश्यकता इस संस्थान को कभी नहीं रहती। जैसी इस संस्थान की बनावट है वैसा भोजन बहुत कम अनुपात के व्यक्ति स्वयं को दे पाते हैं, जो खाते हैं- विकृत स्थिति में। मात्र छोटी सी ढाई इंच की सवा इंच मोटी जिह्वा पर बैठी 9000 टेस्टबड्स (स्वादेन्द्रियाँ) की खातिर मनुष्य इसी से अपनी कब्र खोदता रहता है। खलील जिब्रान की यह कथनी गलत भी नहीं है, जब आज हम जंक फूड के नाम पर टनों की चापत देखते हैं।

भोजन के मुँह में आते ही प्रायः डेढ़ लीटर की मात्रा में प्रति 24 घंटे अविरल प्रवाहित होने वाले ‘सेलाइवा’ या लार की भूमिका प्रमुख हो जाती है। क्योंकि ठीक से चबाने इससे घुल-मिलकर नीचे जाने पर ही भोजन ठीक से टूटकर पच पाता है। आहार नली जिसे ‘ईसोफेगास’ कहते हैं, प्रति सेकेण्ड दो इंच की गति से इस भोजन को आमाशय में पहुँचाती है। यह नली व इसके अन्दर की माँसपेशियाँ इतनी सशक्त हैं कि यदि मनुष्य शीर्षासन की स्थिति में भी भोजन करे, तो भी ये भोजन आमाशय में ही पहुँचाएँगी, गले से नीचे उतरने के बाद वापस मुँह से बाहर नहीं निकलने देंगे।

आमाशय जिसमें अति तीव्र हाइड्रोक्लोरिक अम्ल होता है, ऊपर से आये भोज्य पदार्थ को तोड़-तोड़कर अच्छी तरह मथता व अंतःस्रावों से सराबोर कर देता है। यही अम्ल यदि त्वचा को छू जाए तो छेद कर दें, किन्तु जब तक सामान्य मात्रा में स्रवित होता रहता है, यह आमाशय की परत को जो कि अत्यधिक नाजुक होती है, प्रभावित नहीं करता। मनुष्य की खान-पान की आदतें जब बिगड़ जाती हैं तो यही अम्ल अपने ही जन्मदाता आमाशय की परत को नष्ट कर ‘पैष्टिक अल्सर’ का कारण बन जाता है। आज जितनी भी जानकारी हमें विज्ञानसम्मत रूप में इस अंग के बारे में मिल पायी है, उसका श्रेय एक कैनेडियन को जाता है। सत्रहवीं शताब्दी में गोली लगने से घायल इस व्यक्ति ने किसी तरह बैण्डेज बाँधकर अपने आमाशय तक हुए छेद को बंद कर अपने को बचाया था। उस छेद के भरने पर भी उसमें से निकलने वाले स्राव का अध्ययन कर 1833 में अपनी जानकारी विश्व को देने वाले एक साथी चिकित्सक के बलबूते आज का चिकित्सक समुदाय जानता है कि पाचन की प्रक्रिया में आमाशय की भूमिका क्या होती है? आज एण्डोस्कोपी, टी.वी., कैमरा आदि द्वारा अन्दर तक की झाँकी देखी जा सकती है, पर जब यह साधन नहीं थे, तब हम इसके बारे में जान पाये थे, मात्र एक जिजीविषा सम्पन्न व्यक्ति के बलबूते, जिसने अपने घाव के साथ जिन्दगी के तीस वर्ष काटे। इस अंग के विषय में एक और विलक्षण तथ्य यह है कि यदि इसे थोड़ा बहुत काटकर या समूचा भी निकाल दिया जाय, तो भी शरीर पर कोई खास असर नहीं पड़ता। यह आये भोजन को सोखता नहीं मात्र तोड़ता व अच्छी तरह मथ देता है। यदि यह काम बाहर से करके भेज दिया जाये, तो बिना आमाशय वाला व्यक्ति भी वर्षों जिन्दा रह सकता है। पेट के कैंसर व बड़े पैष्टिक अल्सर में आज यही किया जाता है एवं बिना एक महत्वपूर्ण अंग के भी शरीर काम करता रहता है। है न कुछ विलक्षण बात। हर कोई यह सोचे कि मेरे बिना काम नहीं चल सकता, तो यह बात तो ठीक नहीं है। शरीर की अनुकूलन क्षमता इतनी अधिक है कि वह अपनी ओर से बहुत कुछ मनुष्य का साथ देने का प्रयास करता है। मनुष्य ही है तो शरीर को यूँ ही नष्ट करता रहता है।

छोटी आँतें तो आमाशय के बाद आरम्भ होती हैं, लम्बाई में प्रायः सप्त गज (21 फीट के बराबर-2.74 मीटर) होती है। इनकी आँतरिक सतह इतनी ज्यादा लहरदार सिकुड़नों की बनी होती है कि इसका परिमणुत्वचा के सम्पूर्ण क्षेत्रफल (18 वर्ग फीट) की तुलना में दस गुना अधिक होता है। यह मात्र अवशोषण प्रक्रिया को एन्ज़ाइम के सम्मिश्रण के बाद बढ़ाने के लिए ताकि खाया हुआ अधिकाधिक उपयोगी भाग रक्तवाही संस्थान में आ जाए। भोजन ग्रहण करने के चार घंटे के बाद आँतों में पहुँचता है। यहाँ वह पाँच घंटे रहता है तब जाकर बड़ी आँत में पहुँचता है, जहाँ से बाहर जाने में उसे 6 से 12 घंटे लगते हैं बड़ी आँत में वही हिस्सा पहुँचता है। जिसकी शरीर को आवश्यकता नहीं है। मात्र पानी व आँतों के रसस्राव यहाँ सोखे जाते हैं। शेष अंदर की मजबूत माँसपेशियों द्वारा धकेल कर बाहर कर दिया जाता है। सारी प्रक्रिया स्वचालित है। शाकाहारी के लिए ही यह आँतों की बनावट बनी है। जितना रेशेदार-सेल्युलोज व रफेड प्रधान भोजन होगा उतना ही यह समग्र संस्थान सही ढंग से चलेगा। जितनी चिकनाई-मसाले आदि की बहुलता होगी, उतनी ही आँतों की कठिनाई बढ़ती जायेगी। मनुष्य को ‘हर्बीवोटस’ माना गया है। इसी के लिए उसके दाँतों की बनावट कुत्तों-चीतों या बिल्लियों के दाँतों से अलग है। उसका जबड़ा चबाने के लिए बना है, हाथों में पंजे नहीं है, आँतों की दीवालों में (अन्दर की सतह में) पाऊच की तरह रास्ते बने हैं जिसमें से रेशेदार शाकाहारी भोजन तो प्रेम से गुजर जाता है, माँस अटक जाता है व सड़ता रहता है। यही नहीं आँतें माँसाहारियों की तुलना में प्रायः तीन गुनी लम्बी हैं, ताकि भोजन अच्छी तरह पीस कर घुल-मिल कर अवशोषित हो, माँस तो इतनी बड़ी आँत में सड़ने लगता है साथ ही आमाशय का अम्ल भी इतना तेज नहीं होता कि माँस को तोड़ सके। इतने सब कारण सामने होते हुए भी लोग पेट को कब्रिस्तान क्यों बना लेते हैं, समझ में नहीं आता-

उपनिषद् कहते हैं।, “अन्नो वै मनः।” अन्न ही मन का निर्माण करता है। जैसा खाए अन्न वैसा बने मन- “आहार शुद्धौ-सत्व शुद्धौ” की उक्तियाँ तभी सार्थक होती हैं जब हम आहार की शुचिता पर, पवित्र साधनों से उसके उपार्जन व उसके सफाई से लेकर आँतरिक ‘कैलोरी प्रधान’ नहीं- शरीर- शुद्धि एवं पुष्टि वाले पक्ष को महत्व देंगे। इस दिशा में लीवर अर्थात् यकृत का महत्व समझना और भी जरूरी है। काव्य में इसका स्िन ‘जिगर’ के नाम से बड़े सम्मान के साथ लिया जाता रहा है, पर इसका अंदरूनी कुब्बत या हिम्मत-जिजीविषा से कोई संबंध नहीं है। अगर इसका महत्व है, तो उन पाँच सौ से भी अधिक महत्वपूर्ण कार्यों के कारण, जिनमें इसकी सबसे प्रधान भूमिका है। आकार में यह शरीर बड़ा वजन में प्रायः डेढ़ किलो का है। पेट में दायीं ओर से बायीं ओर बड़ी दूर तक यह फैला होता है। यकृत को एक प्रकार का शुद्धिकरण यंत्र कहा जा सकता है, जिसमें इसकी भूमिका बड़े खण्डों को छोटों में तोड़कर रक्त में भेजने की रहती है। किसी भी समय देख लिया जाये तो पूरे शरीर का न्यूनतम पन्द्रह प्रतिशत तक यकृत में ही विराजमान् रहता है। यहाँ तक कि आराम के समय भी प्रति मिनट 1200 से 1300 मिलीमीटर रक्त इसमें से सतत प्रवाहित होता रहता है। टूटे भोज्य पदार्थों को शर्करा में बदलकर यह पूरे शरीर में ऊर्जा प्रवाहित करता रहता है। इस अंग का यदि तीन चौथाई हिस्सा काटकर निकाल भी देना पड़े, तो शेष उतनी पुनर्निर्माण की क्षमता होती है कि कुछ ही हफ्तों में पूरा लीवर नया बनकर तैयार हो जाता है। यह इसकी सबसे बड़ी विलक्षणता है। रक्त जो यकृत में प्रवेश करता है। जिन जहरीले तत्वों से भरा होता है, उनकी शुद्धि जिस प्रकार यह अंग करता है उसके लिए इतना ही जटिल संयंत्र यदि बनाना पड़े, तो एक पाँच मंजिल की पूरे ब्लाक की फैक्टरी खड़ी करनी पड़ेगी। इतनी महत्वपूर्ण भूमिका भोजन शुद्धि के क्षेत्र में दस अंग की है कि इसकी महिमा पर ढेरों ग्रन्थ-पाठ्य पुस्तकें लिखी गयी हैं। यकृत का प्रत्यारोपण इसीलिए सर्वाधिक कठिन एवं अत्यधिक महंगा माना जाता है।

यदि हम विटामिन बी समूह अतिरिक्त मात्रा में न लें, तो यकृत के पास इतना रिजर्व स्टॉक है कि यह चार वर्ष तक अपने अंदर से ही उसकी पूर्ति करता रह सकता है। यों विटामिन ए, बी, डी, ई, के का प्रचुर भण्डार लीवर के अन्दर मौजूद होता है व आवश्यकता पड़ने पर उनकी पूर्ति भी होती रहती है फिर भी आहार में उनका अंश बना रहने पर यह रिजर्व स्टॉक सदा भरा रहता है। लीवर बाइलसाल्ट्स व कोलेस्ट्राल का जन्मदाता है। बाइल (पित्त) का काम चिकनाई को वैसे ही साफ कर रक्तवाही संस्थान में सूक्ष्म घटकों व शर्करा रूप में पहुँचाने का है, जैसे किसी ग्रीस जैसी चिकनी प्लेट को सिन्थेटिक डिर्जेन्ट जैसे ‘रिन’ आदि साफ कर देते हैं। कोलेस्टरोल रक्त में बढ़ता तब है जब आहार में चर्बी की मात्रा अधिक होने-सही व्यायाम न होने, आहार से बंधी गलत आदतों के कारण यकृत पर सारा भार आ जाता है। आज सभी इसकी रक्त में मात्रा के विषय में सतर्क बने हुए हैं, क्योंकि यही रक्त वाहिनी नलिकाओं में जमकर थक्का बनाकर हृदय रोग व अन्य घातक-मारक रोगों का जन्मदाता है।

यकृत के बहुत नजदीक के रिश्तेदार हैं- स्प्लीन (प्लीहा), गाल ब्लैडर (पित्ताशय) एवं पैन्क्रियाज (अग्न्याशय)। ये तीनों आँतों से अवशोषित भोज्य पदार्थ पर अपने एन्जाइम्स की प्रतिक्रिया पर ‘पोर्टलवेन’ के द्वारा शुद्धि प्रक्रिया हेतु समग्र रक्त को लीवर भेजते हैं। वहाँ पर इनमें मौजूद बैक्टीरिया, मृतपदार्थ, मृतप्राय रक्तकोष आदि को फिल्टर कर रक्त में विटामिन्स फेट, प्रोटीन व ग्लूकोज मिलाकर मुख्य संस्थान में भेज देता है, जो हृदय द्वारा शरीर के हर जीवकोष में पहुँच जाता है। यह प्रक्रिया एक स्वस्थ लीवर द्वारा भली भाँति हर क्षण सम्पन्न होती रहती है। वायरस (हिप्टोटाइटिस बी. व अन्य इसके साथी) का हमला अथवा भोजन में शराब की अत्यधिकता के कारण जब इस अंग के कोषों में विष तत्व- वसा पदार्थ जमा होने लगते हैं, तो इसकी कार्यक्षमता अत्यधिक प्रभावित हो, पूरे शरीर को अस्वस्थ कर देती है। भोजन में माँसाहार, शराब, चर्बी की अधिकता, खान पान की अत्यधिक अनियमितता, कुपोषण आदि के कारण यही एक अंग ऐसा है, जिसकी हड़ताल सारे शरीर को विजातीय द्रव्यों से युक्त कर सारा कामकाज ठप्प कर देती है। अकेला यही अंग यदि सही ढंग से साथ लिया जाय, आहार-विहार का संतुलन सुनियोजित ढंग से चलता रह सके, तो कोई कारण नहीं कि ‘जीवेम शरदः शतम्’ की उक्ति को सार्थक न किया जा सके। आहार संयम के साथ एक बड़ी व्यापक रेंज वाली अनुकूलन क्षमता वाले अंग जब मनुष्य के पास मौजूद हों, तब भी वह क्यों बीमार पड़ता, त्रास सहता देखा जाता है- यह सोच-सोचकर बार-बार मन कहता है कि अड़सठ तीरथ वाली पंचकोश, षट्चक्रों वाली इस मानवी काया को साधना मनुष्य का सर्वप्रथम पुरुषार्थ होना चाहिये। आध्यात्मिक साधना क्रम इसके बाद ही सफल होते देखे जा सकते हैं। (अगले अंक में जारी)

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