• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • सद्गुरु को बना लें अपना नाविक
    • एक संकल्प ने बदली जीवन धारा
    • आस्था-चिकित्सा अंधविश्वास नहीं, एक वैज्ञानिक तथ्य
    • बना लोकोत्तर प्रेम का आदर्श लोक
    • मानवी काया की विलक्षण संरचना पर एक धारावाहिक लेखमाला- - अड़सठ तीरथ हैं घट भीतर...(2)
    • पतन के कगार पर खड़ी पश्चिम की तथाकथित सभ्यता
    • “भूत होते हैं” क्या इसमें अब भी कोई संदेह है?
    • या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थता
    • भविष्य की दुनिया महिलाओं की होगी
    • संकल्प-शक्ति में है असाध्य रोगों से मुक्ति दिलाने की सामर्थ्य
    • काया की तिजोरी में बन्द एक अनमोल खजाना
    • बड़ा निराला है प्रतीकों का मनोविज्ञान
    • ईश्वराधना हो तो ऐसी हो
    • कब होगा संवेदना का स्वर्णिम सूर्योदय?
    • प्रगति की होड़ में हलाहल से भर रहे हैं हमारे सागर
    • वह, जो ज्वालामुखी के गर्भ में जाकर भी लौट आया
    • Quotation
    • देश के हर गाँव को विकास का तीर्थ बनाना होगा
    • आइये! इस शीतऋतु में अपना स्वास्थ्य ऐसे सँवारें
    • विशिष्ट समय को समझे, अपनी रीति-नीति बदलें - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
    • अब दवाइयाँ खेत-खलिहानों में पैदा होंगी
    • सावधान! कहीं आप ‘फास्टफूड’ के रूप में जहर तो नहीं खा रहे?
    • साँस्कृतिक क्रान्ति, जो सुनिश्चित रूप से होकर रहेगी
    • यह कौतुक किस काम का?
    • केन्द्र के समाचार-महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ, विश्वव्यापी हलचलें
    • अपनों से अपनी बात- - प्राणचेतना का यह प्रवाह अवरुद्ध न होने पाए
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • सद्गुरु को बना लें अपना नाविक
    • एक संकल्प ने बदली जीवन धारा
    • आस्था-चिकित्सा अंधविश्वास नहीं, एक वैज्ञानिक तथ्य
    • बना लोकोत्तर प्रेम का आदर्श लोक
    • मानवी काया की विलक्षण संरचना पर एक धारावाहिक लेखमाला- - अड़सठ तीरथ हैं घट भीतर...(2)
    • पतन के कगार पर खड़ी पश्चिम की तथाकथित सभ्यता
    • “भूत होते हैं” क्या इसमें अब भी कोई संदेह है?
    • या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थता
    • भविष्य की दुनिया महिलाओं की होगी
    • संकल्प-शक्ति में है असाध्य रोगों से मुक्ति दिलाने की सामर्थ्य
    • काया की तिजोरी में बन्द एक अनमोल खजाना
    • बड़ा निराला है प्रतीकों का मनोविज्ञान
    • ईश्वराधना हो तो ऐसी हो
    • कब होगा संवेदना का स्वर्णिम सूर्योदय?
    • प्रगति की होड़ में हलाहल से भर रहे हैं हमारे सागर
    • वह, जो ज्वालामुखी के गर्भ में जाकर भी लौट आया
    • Quotation
    • देश के हर गाँव को विकास का तीर्थ बनाना होगा
    • आइये! इस शीतऋतु में अपना स्वास्थ्य ऐसे सँवारें
    • विशिष्ट समय को समझे, अपनी रीति-नीति बदलें - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
    • अब दवाइयाँ खेत-खलिहानों में पैदा होंगी
    • सावधान! कहीं आप ‘फास्टफूड’ के रूप में जहर तो नहीं खा रहे?
    • साँस्कृतिक क्रान्ति, जो सुनिश्चित रूप से होकर रहेगी
    • यह कौतुक किस काम का?
    • केन्द्र के समाचार-महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ, विश्वव्यापी हलचलें
    • अपनों से अपनी बात- - प्राणचेतना का यह प्रवाह अवरुद्ध न होने पाए
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1997 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


कब होगा संवेदना का स्वर्णिम सूर्योदय?

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 13 15 Last
निशा के सितारों जड़े आँचल से झाँकते हुए प्रातः के सुनहले प्रभाव में सारा नगर नयनोन्मीलन कर रहा था। भुवन भास्कर की अरुणिमा आभा अभी भी रात्रि की निविड़ यवनिकाओं से मुक्ति पाने के लिये संघर्ष कर रही थी। रात्रि की नीरवता के पश्चात् प्रातः का यह कोलाहल स्वाभाविक होते हुए भी कुछ अटपटा-सा लग रहा था। कदम्ब पुष्पों से सुवासित स्वच्छ समीर समूचे वातावरण को स्निग्ध सुगन्धित प्रदान करते हुए इस प्रभात का मधुर आलिंगन कर रहा था। दूर तक सपाट जमीन पर नागिन की तरह बल खाती सड़क जहाँ अपनी आधुनिकता पर गर्व से इठलाती चली जा रही थी, तो वहीं उसके दोनों किनारों पर अपना उन्नत भाल उठाये सफेदे के वृक्षमानव के उस कमाल को प्राकृतिक छटा प्रदान कर रहे थे। शिमला के राजभवन के एक विशाल एवं आकर्षक कमरे में ये दोनों पिता-पुत्री भी अपने- अपने लिहाफों में लिपटे हुए उस शीत का आनन्द ले रहे थे। पुत्री अपनी पितृभक्ति के लिए लोक विख्यात थी, तो पिता अपनी देशभक्ति के लिए। पिता ने जहाँ अपने समूचे जीवन को देश-सेवा के लिए अर्पित किया था, वहीं पुत्री ने स्वयं को अपने को उस गौरवशाली पिता की सेवा हेतु समर्पित कर दिया था। इन दिनों भी वे पिता के स्वास्थ्य के चलते चिकित्सकों की सलाह पर यहाँ आयी थीं।

प्रातः के उस मनोरम वातावरण में उन दोनों ने बाहर घूमने के लिए राजभवन से पाँव बाहर निकाले ही थे कि शीत से काँपती हुई एक करुण पुकार उनके कानों से टकराई । “बा...बू.... मैं.... भू.... ख....से.... म.... रा... जा... रहा हूँ। आवाज सुनकर पहले तो यही लगा कि यह भी कोई प्रकृति की प्रवंचना होगी, पर क्षण-प्रतिक्षण की वह पुकार अद्भुत रूप से दैन्य व करुणा से उन दोनों के ही हृदय को कचोटने लगी। सोचा-आखिर कौन होगा, इतनी सुबह। लाखों ही घूमते हैं इन सड़कों पर। पर आवाज में कुछ ऐसा चुम्बकत्व था कि उनके करुणा से छलकते अन्तःकरण ने बरबस ही पाँवों की दशा को मोड़ दिया।

प्रातः की उस शीत में खादी का गरम शाल लपेटे होने के बावजूद सर्दी की वजह से दाँत बज रहे थे। कल्पना ही नहीं की जा सकती थी कि उस सर्दी की भयावह शीत में कौन है- जो इतना शोर मचाने का साहस कर रहा है, कुछ और नीचे उतरने पर देखा- पेड़ के नीचे एक क्षीणकाय भिखारी अपनी जीर्ण-शीर्ण गुदड़ी में सिकुड़ा पड़ा कराह रहा था। पास ही सड़क पर एक कुत्ते का मृतक शरीर पड़ा था। शायद अभी-अभी कोई कार उसे कुचल गयी थी। परन्तु अभी चीखा कौन था? चीख तो निश्चित ही किसी मानव कण्ठ की मालूम होती थी। उन दिनों पिता-पुत्री को इस पर कुछ अचरज हुआ। अपनी जिज्ञासा के समाधान के लिए वे दोनों भिखारी के पास जा पहुँचे और उससे धीमे स्वर में जानना चाहा-बाबा अभी चीखा कौन था? उत्तर मिला- मैं! वे हैरान होकर बोले, पर कुचला तो एक कुत्ता गया है। कुत्ता मर गया, भिखारी उपहासपूर्ण ढंग से हंस पड़ा- हा....हा...हा...!!! अच्छा ही हुआ वह मर गया- भूखे भटकने से तो कुत्ते की मौत मरना ही अच्छा है, पर मैं तो सोच रहा था कोई इनसान ही मर गया।

मानव के दुख की कल्पना मात्र से ही मानव का हृदय पसीज उठा था। कुछ क्षण रुककर वह बोला- तब तो मुझे और जोर से चीखना चाहिये। कुत्ता मरा है न- इनसान से उत्तम प्राणी मरा है। इनसान तो कुत्तों से भी गया- बीता है।

मानव के मुख से मानव जाति की निन्दा सुनकर उन दोनों पिता-पुत्री को थोड़ा क्रोध भी आया और थोड़ा आश्चर्य भी हुआ। देखा- वह अन्धा था,

सोचा शायद पागल भी हो। जेब से एक चार आने का सिक्का निकाल कर उसके आगे डाल दिया। इसी के साथ उनके पाँव वापस राजभवन की दिशा में लौट चले, पर राजभवन के शान्त एवं सुविधापूर्ण वातावरण में भी उसकी वही करुणापूर्ण पुकार उसके मनों में गूँजने लगी। वे विचार करने लगे- मानव से घृणा करने वाला मानव, मानव से ही घृणा-याचना भी करता है। वाह रे विधाता! विधि की इस विडम्बना का भला कौन पार पर सका है। उसके पागलपन में उनका दृढ़ विश्वास हो गया।

वे दोनों रोज ही सुबह-शाम स्वास्थ्य की दृष्टि से घूमने जाते और नित्य-प्रति ही, प्रायः- शाम उसी भिखारी को उसी स्थान पर बैठा पाते। अन्यमनस्क मन से भी गुजरते हुए वह बरबस ध्यान आकर्षित कर लिया करता था। वह उनके कुतूहल का विषय बन चुका था। अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए उन देशभक्त का बृद्धमन उसकी अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहता था। उनकी उत्सुकता बढ़ती ही गयी। एक दिन वह उसे किसी तरह से कह-सुनकर जैसे-तैसे राजभवन ले आये। वहाँ पहुँचते ही वह बोला-बाबू क्या करोगे मेरी कहानी सुनकर! दिल के दर्द को लोग गाकर व्यक्त कर सकते हैं, हँसकर बता सकते हैं, परन्तु न तो मेरे पास गाने की क्षमता है और न ही हँसने की और रोऊँ तो कहाँ तक?

एक जमाना था बाबू, जब शिमला की इन्हीं सड़कों पर मैं अपने घोड़े और इक्के को सरपट दौड़ाया करता था। मेरा इक्का-घोड़ा नगर का सम्मान था। मालूम है बाबू, बड़े-बड़े नेता, पंडित जवाहरलाल नेहरू, सरोजिनी नायडू और न जाने कौन-कौन सफेद झक खादी पहनने वाले लोग मेरे इक्के में बैठा करते थे। अंग्रेज साहब भी हमारे इक्के की तारीफ करते थे। सफेद खादी वाले स्वराजी लोग तब बड़ी-बड़ी बातें कहा करते थे। स्वराज आने पर सबको खुशियाँ मिलेंगी, पर कहाँ, मेरा तो सब कुछ चल गया। मेरी एक औरत थी, एक फूल-सा नन्हा बच्चा था। बोलते- बोलते उसका गला रुंध गया। आवाज साफ करते हुए बोला- चाँद भी छिप जाता है, फूल भी तो दो दिन में धूल में ही मिल जाता है। शहर में बीमारी फैली, मेरी बीबी और बच्चा भी उसके शिकार हो गये। घोड़ा और इक्का बेचना पड़ा। शहर में डाक्टर मिलना कठिन हो गया था, अपना सब कुछ मैंने दाँव पर लगा दिया, परन्तु अपनी बीबी को नहीं बचा सका। बीमारी के आखिरी दिन थे। डाक्टर को सारी पूँजी दे चुका था और पैसा पास में था नहीं। मैं डाक्टर के पास जाकर गिड़गिड़ाया, प्रार्थना की, मिन्नतें कीं, उसके पाँवों पर अपनी पगड़ी रख दी, परन्तु वह टस से मस नहीं हुआ।

मैं उससे पूछ ही बैठा- डाक्टर! क्या पैसा ही सब कुछ है? और किसी चीज का कोई मूल्य नहीं है। अपनी सारी पूँजी मैं तुम्हें दे चुका हूँ, क्या इससे तुम्हारा पेट नहीं भरा? इसके जवाब में उसने मुझे जो फटकार लगायी, वह आज भी भुलाये नहीं भूलती।

ओह! वह बड़े ही आर्द्र स्वर में बोला- बाबू! निर्धनता भी पाप है, धोखा है, एक छल है, प्रवंचना है। इसी कारण एक दिन मेरा बेटा भी मुझे छोड़कर चला गया। मैं उसका भी इलाज न करा सका। इतनी बड़ी दुनिया में मैं बिलकुल अकेला। सर्वथा निस्सहाय, निर्बल और निष्प्राण- बस दिन-रात रोना ही जैसे मेरा नसीब हो गया। आखिर सोचा इस संसार में जो आया है उसे जाना है, फिर दुख या शोक कैसा, संसार का तो मतलब ही यही है- ‘संसरति इति संसारः’ का तात्पर्य भी तो यही होता है। मन में आया- क्यों ने कुछ काम करूँ । मेरे बीबी -बच्चे नहीं तो दूसरों के तो हैं- क्यों न उनकी सेवा करूँ । माँ-बच्चों का मिलना मेरे दुखते घावों पर मरहम बन जायेगा। मन तो ममता का प्यासा है, दिल तो प्यार का भूखा है। जहाँ बच्चों का स्निग्ध प्यार मिलेगा, जहाँ स्वामी की शरण मिलेगी, जहाँ बहिन का स्नेह मिलेगा, जहाँ ममतामयी माँ मिलेगी, वहीं जीवन काट लूँगा।

आखिर नौकरी मिल ही तो गयी। उस सामने की कोठी की ओर देखो, उसी में मेरे सपनों का संसार बसा और उजड़ा है। वहीं सपना मैंने संजोया था, प्यार से, लगन से परन्तु भाग्य भी कितना निष्ठुर है। मेरे स्वप्नों का महल धूल में मिल गया और मैं देखता रह गया। आह! की पीड़ा भरी कराह के साथ उसकी अंधी आँखों में खून उतर आया। उन क्षणों में पिता-पुत्री दोनों ही स्वयं को बड़ा दुर्बल एवं अशक्त महसूस कर रहे थे।

शायद उसकी पहेलियों का उत्तर भी वही जानता था। उनकी जिज्ञासा ने कुतूहल का रूप ले लिया और फिर आश्चर्य का। वह सोच रहे थे- मनुष्य क्या-क्या नहीं करता, समय-समय उसके दिल में अरमानों के सागर उमड़ा हैं, उमंगें करवटें लिया करती हैं, सोये भाव जागते हैं, मानव उन्हें संजोता है, संवारता है और न जाने क्या-क्या करता है, केवल इसी आशा में शायद सुनहरा प्रभात अपनी अरुणिमा आभा से अतीत की संध्या की कालिख धो दे। वाह रे मानव! प्रभात आता है एक नया तेज लिये, स्वर्णिम आभा लिये, एक नया संदेश लिये, पर मानव अतीत की गहराइयों में बैठकर ऊपर नहीं उठना चाहता, उस प्रभात का आलिंगन नहीं करना चाहता, भविष्य की देदीप्यमान उज्ज्वलता का अभिनन्दन करना नहीं चाहता। अपने मन के अंधियारे में वह प्रकाश ढूँढ़ता है, परन्तु मिलती है उसे केवल निराशा की कालिख। उस अथाह सागर में वह विकल-बेबस हो जाता है। बार-बार प्रयास करता है, परन्तु थमने वाले, उबारने वाले हाथों की संवेदना के अभाव में वह हर बार फिसल जाता है।

बाबू! वह पुनः बोल उठा, मैं बहुत भाग्यशाली था। नौकरी के संसार में अपना अस्तित्व बनाये बैठा था। मेरा कोई न था और मेरा सब कोई था। जी-जान से मैं सबकी सेवा करता था। एक दिन मेरे छोटे बाबू को तपेदिक हो गयी। मैं दिन-रात उनकी सेवा किया करता, उन्हें कहानियाँ सुनाया करता। उन्हें प्रसन्न रखने की कोशिश करता और निरन्तर ईश्वर से प्रार्थना करता। वाह रे मालिक! मेरा बाबू ठीक हो गया। वह फिर हँसने-खेलने लगा ठीक पहले की तरह। मैंने प्रभु को धन्यवाद दिया, मेरा कर्तव्य पूरा हुआ, परन्तु रोगी के दिन-रात सम्पर्क में रहने से महीने के पश्चात् मुझे तपेदिक ने आ घेरा। पहली बार महसूस हुआ, कितनी गन्दी होती है यह बीमारी, पर बाबू मेरे पास कोई नहीं आया, सबकी संवेदना जैसे कुन्द हो गयी थी।

मेरा एकमात्र साथी कुत्ता था, एक नन्हा-सा प्यारा-सा कुत्ता। मुसीबत में वही मेरा साथी था, उसी के मस्तक पर हाथ फेरा करता था, उसे ही पुचकारा करता था और वह यूँ दुम हिलाता था, मानो मेरा अपना ही कोई सगा हो। ईश्वर ने उसे मानव की बोली नहीं सिखायी थी, पर मानव से वह बेहतर था। बाबू, मुझे कोई पानी तक को भी नहीं पूछता था।

मेरे स्वाभिमान को चोट लगी, मेरी आत्मा कराह उठी, ओह! मैंने इन्हें सब कुछ दिया, अपना सर्वस्व लुटा दिया और मेरी यह कदर? वह सब जो मुझे असम्भव लगता था, वह सम्भव में बदला और एक दिन बाबू मेरे कुत्ते को भी मुझसे अलग कर दिया गया और कुछ दिनों पश्चात् मुझे नौकरी से निकाल दिया गया। यह कहते हुए उसने गहरी साँस ली और कहने लगा- बड़ा सज्जन था मैं, पर आवश्यकता मनुष्य को असहाय कर देती है। मैं दर-दर की ठोकरें खाने लगा। मुझ रोगी को कोई काम देना नहीं चाहता था। मैंने अपने पैरों पर खड़े होने के लिए क्या नहीं किया? जिसे मैंने सब कुछ दिया था, उसी ने मुझे धोखा दिया।

मेरे लिये चारों ओर अँधेरा ही अँधेरा था। आत्महत्या करना चाहता था, पर इतना साहस नहीं जुटा पाया वरन् हताश होकर रास्ते का भिखारी बन गया। उस बीमारी में मेरी आँखें भी चली गयीं। मेरी दुनिया अँधेरी हो गयी। मेरे अरमानों के दीप बुझ चुके थे। मेरी आत्मा मर चुकी थी। मेरी आशाओं पर तुषारापात हुआ था। मेरे लिये इस संसार में सब कुछ विराना था। एक दिन सुना था कि देश स्वतंत्र हो गया है। मेरे पास से कुछ लोग आपस में बतियाते हुए गुजर रहे थे- अब यह होगा- वह होगा! पर मैं पूछता हूँ- क्या इनसान की संवेदना स्वतंत्र हो सकी है। क्या इनसानी भावनाएँ पैसों की गुलामी से आजाद हो सकी हैं? क्या देश स्वतंत्र होने से मेरे जैसे लोगों को- आप जैसों की संवेदना- सहानुभूति मुक्त रूप में मिल सकेगी? नहीं न..... कहते हुए वह हँसा- फिर जैसे कोई बड़ी गहरी बात बता रहा हो, ऐसे रहस्यपूर्ण स्वर में बोला- सच कहता हूँ, बाबू- मनुष्य से तो अच्छे जानवर हैं- जिनकी संवेदना न तो धन की बन्दी है और न ही प्रतिष्ठा की। आप लोगों से अच्छा तो मेरा कुत्ता था, कितने प्यार से बैठता था मेरे पास। लगता था उसके मन में अभी भी अपने कुत्ते के मारे जाने का दर्द था।

उसकी अटपटी बातों से वे सज्जन गहरे सोच में पड़ गये। अपनी पुत्री को सम्बोधित करते हुए बोले- मणि! ठीक ही तो कहता है, अगर देशवासियों की भावनाएँ स्वतंत्र न हो सकीं, तो देश की स्वतंत्रता भी पूर्ण नहीं है। हाँ बाबू, पुत्री ने अपने पिता से सहमति जतायी। जिनके व्यक्तित्व ने कभी सारे अंग्रेजी राज्य को दहशत में डाल रखा था, देशवासी जिन्हें लौह पुरुष कहते थे। वे स्वतंत्र भारत के प्रथम गृहमंत्री वल्लभभाई पटेल सोच में थे कि देशवासियों की संवेदनाओं को धन, पद, कुल, जाति और अहं की बेड़ियों से कैसे मुक्त किया जाये।

संध्या का समय था। आकाश में रजनी के स्वागत में नन्हें- नन्हें दीप टिमटिमा रहे थे पंछी लौटकर अपने नीड़ों की ओर जा रहे थे। बादलों की आँख -मिचौली में तारों की झिलमिल नीचे की झील को एक अद्भुत छटा प्रदान कर रही थी, परन्तु वे शून्य में निहारते हुए इनसानी जीवन की इस निष्ठुर प्रवंचना का कारण पूछ रहे थे। रात हो गयी थी, चारों ओर दीप जल उठे थे, परन्तु उन सबके प्रकाश में भी वे अन्यमनस्क मन से सोच रहे थे- काश! अपने देशवासियों की भावनाएँ भी इसी तरह से प्रकाशित हो उठें। सभी उजाला फैला सकें। भावनाओं का प्रकाश हो तो फिर समस्याओं का अँधेरा कहाँ टिकेगा?

परन्तु अभी तो निशा चुपके से अपना आँचल पसार रही थी, शायद देश को अभी प्रतीक्षा करनी थी- इक्कीसवीं सदी के नव-प्रभात के लिए। संवेदनाओं के अरुणिमा सूर्योदय के लिए। जब इनसान, इनसान की गरिमा में प्रतिष्ठित होकर औरों के दुख-दर्द को समझ सकेगा। उसका जीवनमंत्र होगा- सुख बांटो-दुख बंटाओ।

First 13 15 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • सद्गुरु को बना लें अपना नाविक
  • एक संकल्प ने बदली जीवन धारा
  • आस्था-चिकित्सा अंधविश्वास नहीं, एक वैज्ञानिक तथ्य
  • बना लोकोत्तर प्रेम का आदर्श लोक
  • मानवी काया की विलक्षण संरचना पर एक धारावाहिक लेखमाला- - अड़सठ तीरथ हैं घट भीतर...(2)
  • पतन के कगार पर खड़ी पश्चिम की तथाकथित सभ्यता
  • “भूत होते हैं” क्या इसमें अब भी कोई संदेह है?
  • या देवी सर्वभूतेषु मातृरूपेण संस्थता
  • भविष्य की दुनिया महिलाओं की होगी
  • संकल्प-शक्ति में है असाध्य रोगों से मुक्ति दिलाने की सामर्थ्य
  • काया की तिजोरी में बन्द एक अनमोल खजाना
  • बड़ा निराला है प्रतीकों का मनोविज्ञान
  • ईश्वराधना हो तो ऐसी हो
  • कब होगा संवेदना का स्वर्णिम सूर्योदय?
  • प्रगति की होड़ में हलाहल से भर रहे हैं हमारे सागर
  • वह, जो ज्वालामुखी के गर्भ में जाकर भी लौट आया
  • Quotation
  • देश के हर गाँव को विकास का तीर्थ बनाना होगा
  • आइये! इस शीतऋतु में अपना स्वास्थ्य ऐसे सँवारें
  • विशिष्ट समय को समझे, अपनी रीति-नीति बदलें - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी
  • अब दवाइयाँ खेत-खलिहानों में पैदा होंगी
  • सावधान! कहीं आप ‘फास्टफूड’ के रूप में जहर तो नहीं खा रहे?
  • साँस्कृतिक क्रान्ति, जो सुनिश्चित रूप से होकर रहेगी
  • यह कौतुक किस काम का?
  • केन्द्र के समाचार-महत्त्वपूर्ण उपलब्धियाँ, विश्वव्यापी हलचलें
  • अपनों से अपनी बात- - प्राणचेतना का यह प्रवाह अवरुद्ध न होने पाए
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj