
वह प्रेरक मुसकान
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वह प्राध्यापक थे, प्रफुल्ल नाम था उनका। कभी किसी ने उन्हें दुःखी, निराश अथवा उदास नहीं देखा। एक मधुर मुस्कान हमेशा उनके अधरों पर खिली रहती थी। यही मुसकान उनके नाम को सत्य और सार्थक सिद्ध करती थी। कोई समझ भी नहीं सकता था कि इतने दुःख कोई कैसे हृदय में छुपाए रखता है।
वर्षों पहले जब जगदीश चन्द्र ने उन्हें पहली बार देखा था, तभी से वे उसे अपने प्रेरणास्रोत लगे। वे अपनी माँ के साथ पास वाले मकान में किराए पर रहने लगे थे। प्रेसीडेंसी कॉलेज में प्राध्यापक थे। जगदीश प्राध्यापक प्रफुल्ल राय को ‘प्रफुल्ल दा’ कहकर पुकारता था। उसने उन्हें हर काम में माहिर पाया था। तबला, तानपूरा, वायलिन वे बहुत ही अच्छा बजाते थे। उनके बनाए चित्र बहुत ही सुन्दर और सजीव होते थे। सबसे बड़ी बात- वे कविताएँ बहुत अच्छी लिखते थे, जो अक्सर उन दिनों की बंगला और अंग्रेजी पत्रिकाओं में प्रकाशित होती थी।
उनकी माँ अधिकांशतः बीमार रहती थीं। इसलिए कई बार वे ही खाना पकाते थे। खाना पकाना भी उनके लिए कला-साधना से कम न था। वनस्पतिशास्त्र के प्राध्यापक का यह कलाबोध अतीव उत्कृष्ट था। उनके संगीत की मधुरता, चित्रकारी का सौंदर्य, कविता की कोमल भावनाएँ, जैसे उनके बनाए भोजन में विविध रस बनकर समा जाती।
एक दिन बातों ही बातों में उनकी माँ ने जगदीश चन्द्र को बताया कि प्रफुल्ल दा को कैन्सर है। जगदीश के लिए यह बड़ा दुःखद समाचार था। पहले तो विश्वास ही नहीं हुआ कि हमेशा खिलखिलाते रहने वाले प्रफुल्ल दा और मौत के बीच अन्तर इतना कम है। सब कुछ जानते हुए वे हमेशा प्रसन्न रहते। कभी किसी को दुःखी पाते तो तन-मन-धन से उसका कष्ट दूर करने का प्रयास करते।
कॉलेज के गरीब छात्र जो पढ़ाई की फीस देने में असमर्थ थे, प्रफुल्ल दा अपनी तरफ से उनकी फीस चुका देते। किसी को दुःखी देखना उन्हें सहन नहीं था। रोज शाम को मुहल्ले के सारे बच्चे उनके पास पढ़ने के लिए आ जाते। प्रफुल्ल दा बहुत स्नेह से उन्हें पढ़ाते थे, बिलकुल निःशुल्क। वह बहुत जीवट के आदमी थे। उनका व्यक्तित्व अतिशीघ्र सभी को प्रभावित कर लेता था। कोई उनसे नाराज रह ही नहीं सकता था।
एक दिन की बात है प्रफुल्ल दा कॉलेज जा रहे थे। दो बच्चे गुब्बारे उड़ाते हुए सड़क पार कर रहे थे। सामने से आ रही मोटर पर उनका ध्यान न था। तभी प्रफुल्ल दा का ध्यान अचानक उस ओर गया। लेकिन तब तक कार बहुत पास आ चुकी थी। उन्होंने कलाबाजी खाकर दोनों बच्चों को किनारे कर दिया, पर वे स्वयं पर नियंत्रण नहीं रख सके। कार उनका पाँव कुचलती हुई चली गयी।
कुछ लोगों ने उन्हें अस्पताल पहुँचाया। उनकी जिन्दगी बचाने के लिए उनका एक पैर काटा जाना जरूरी था। अतः डॉक्टरों ने उसे काट दिया।
जगदीश को जब इस घटना की सूचना मिली, जब वह भागा-भागा अस्पताल पहुँचा। उसने देखा प्रफुल्ल दा के मुख पर दुःख के नहीं सन्तोष के चिन्ह थे। उन्हें अपने पाँव काटे जाने का उतना दुःख न था, जितनी दो बच्चों को बचा लेने की खुशी। और जब उनके घाव भर गए तो सभी ने उन्हें बैसाखी से चलते देखा। जगदीश तो यह देखकर रोने लगा, मगर प्रफुल्ल दा ने उसे सीने से लगाकर सान्त्वना दी। जिनके लिए उसका मन दुःखी था वे ही उसे सान्त्वना दे रहे थे। यह देखकर वह हैरत में था।
धीरे-धीरे जगदीश को इसका भी अहसास होने लगा कि प्रफुल्ल दा की बीमारी बढ़ने लगी है। दवाइयाँ अब बेअसर हो रही थीं। जगदीश को भय लगने लगा था। रोग बढ़ रहा था। जब-तब खाँसते-खाँसते खून की उल्टियाँ भी हो जाती थीं।
एक दिन प्रफुल्ल दा ने जगदीश को अपने पास बुलाया। जब वह पहुँचा तो वे उसे अपना वायलिन देने लगे। मना करने पर बोले, रख लो। तुम्हें तो पता ही है मुझे अब इसे बजाने का समय नहीं मिलता और फिर मुझे जल्दी से अपना कविता-संग्रह भी पूरा करना है। खाँसते हुए उन्होंने अपनी बात पूरी की।
जगदीश ने प्रफुल्ल दा से ही वायलिन बजाना सीखा था। उसने कभी भी उनकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं किया, सो वायलिन ले आया। इसके बाद उसने उन्हें हमेशा कविता-संग्रह पूरा करते पाया।
हर वक्त अपने काम में वह लगे रहते। यद्यपि खाँसते-खाँसते उनका दम फूलने लगा था। इन दिनों उनकी माँ प्रफुल्ल दा के सामने कम ही आती थी। उनसे उनकी यह हालत देखी नहीं जाती। इसी बीच घड़ी ने शाम के छह बजा दिए। जगदीश पास बैठा काम कर रहा था। अचानक प्रफुल्ल दा बोले-ए-क-गिला-स-पानी-तो-ला जगदीश भागा-भागा पानी लेने गया, लेकिन जब लौटकर आया, तब तक प्रफुल्ल दा अपनी अंतिम निद्रा में जा चुके थे।
“नहीं............।” जगदीश की चीख घुटकर रह गयी। अब कुछ भी शेष नहीं था। परंतु उनके होठों पर मुसकान थी। एक अपूर्व मुसकान।
जगदीश की नजर उनकी लिखी आखिरी पंक्तियों पर पड़ी। लिखा था-
जीवन के दुःख से घबराकर,
अपने मन को क्यों मुरझाए।
धूप-छाँव तो प्रतिपल-प्रतिक्षण-आओ हम केवल मुसकाएँ।
ये पंक्तियाँ जगदीश के जीवन की अमर प्रेरणा बन गयीं। इन्हीं को आत्मसात् करके वह विश्व के महान वैज्ञानिक डॉ. जगदीश चन्द्र बसु बने।