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Magazine - Year 1998 - Version 2

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योगनिद्रा से जगाएँ अपने सुपरचेतन को

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प्रायः लोग योगाभ्यास की शुरुआत इस उद्देश्य से करते हैं कि उन्हें समाधि सुख का लाभ मिलने लगे और सिद्धियाँ-क्षमताएँ करतलगत हो जाएँ। पर देखा यही जाता है कि योग के कठिन नियमोपनियमों का पालन न कर पाने के कारण व्यक्ति को स्वास्थ्यलाभ का यत्किञ्चित् प्रतिफल तो मिलता है, किन्तु शक्तियों, चमत्कारी सिद्धियों के नाम पर निराशा ही हाथ लगती है। ऐसी स्थिति में योगवेत्ता मनीषियों ने एक सर्वोपयोगी एवं सर्वजनीन उपाय खोज निकाला है, जिसे योगनिद्रा कहा जाता है। योगनिद्रा का तात्पर्य है - चेतना का प्रवाह शरीर-निर्वाह की दिशा से हटाकर अन्तःक्षेत्र की ओर मोड़ देना। जिस तरह सूखे खेत में पानी भरने पर उसमें हरियाली उगने और फसल लहलहाने का उपक्रम आरम्भ होता है, उसी प्रकार इसके भी दो लाभ होते हैं - एक तो उच्चस्तरीय क्षमता का आविर्भाव, दूसरे निकृष्ट कुसंस्कारों का निराकरण दोनों कार्य एक साथ चलने लगते हैं।

योगनिद्रा मानसिक एवं आत्मिक विकास का अति उपयोगी प्रयोग है। इस प्रक्रिया में मनःसंस्थान को पूर्णतया शिथिल कर देना पड़ता है। यह एक तथ्य है कि प्रकृति प्रदत्त गहन निद्रा एवं शरीर के पूर्ण शिथिलीकरण के सहारे ही मनुष्य अपनी जीवनचर्या सम्पन्न करता और करता और अगले दिन के लिए कार्यकारी शक्ति प्राप्त करता है। निद्रा में व्यवधान पड़ने पर मनुष्य अशक्त एवं विक्षुब्ध दिखाई पड़ता है। नींद न आने की बीमारी लगातार चलती रही है, तो उसकी परिणति पागलपन में हो सकती है। जिन्हें गहरी निद्रा आती है, उनकी शारीरिक व मानसिक क्षमता भी बढ़ी-चढ़ी रहती है।

मनःसंस्थान की उच्चस्तरीय परतों को जाग्रत करने में योगनिद्रा का अपना विशेष महत्व है। यदि उसे उपलब्ध किया जा सके तो इस दिव्य संस्थान को अधिक स्वस्थ एवं अधिक समर्थ बनने एवं चमत्कारी सिद्धियाँ अर्जित करने का अवसर मिल सकता है।

मन की दो प्रमुख परतें है - एक सचेतन और दूसरी अचेतन। सचेतन मन ही सोच-विचार करता है और वही रात्रि को नींद में सोता है। अचेतन की कार्य-संचालन की समस्त स्वसंचालित गतिविधियों की व्यवस्था बनानी पड़ती है। श्वास-प्रश्वास आकुंचन-प्राकुंचन निमेष-उन्मेष जैसी क्रियाएँ निरन्तर चलती रहती हैं और उन्हीं के आधार पर शरीर का निर्वाह होता है। यह सब अचेतन की गतिविधियों पर निर्भर है। निद्रा के समय सचेतन के सो जाने पर भी अचेतन की गतिविधियों पर निर्भर है। निद्रा के समय सचेतन के सेज पर भी अचेतन मन क्रियाशील रहता है और स्वप्न देखने, करवट बदलने, खुर्राटे भरने, कपड़े ओढ़ने-बदलने जैसे कृत्य कराता रहता है।

प्रयत्नपूर्वक योगनिद्रा के माध्यम से यदि अचेतन को थोड़ा-सा अधिक समय तक हल्का या गहरा विश्राम दिया जा सके तो मानवी चेतना को बहुत राहत मिलती है। इस विश्राम में उसे थोड़ी-सी अवधि में ही नयी स्फूर्ति प्राप्त होती है साथ ही सचेतन के दबाव से दबे रहने वाले अन्तराल में भी अंकुरित - विकसित होने का अवसर भी मिलता है। अन्तराल का विकास ही प्रकारान्तर से आत्मशक्ति का उद्भव - अभिवर्द्धन कहा जा सकता है।

योगनिद्रा के छोटे-बड़े अनेक स्तर हैं। छोटे को ध्यान और बड़े स्तर को समाधि कहते हैं। यह निर्विकल्प संकल्परहित और संकल्पसहित सविकल्प दो स्तर की होती है। सविकल्प का परिणाम भौतिक और निर्विकल्प का आध्यात्मिक उपलब्धियों के रूप में सामने आता है। योगनिद्रा अल्पकालीन होती है ओर समाधि दीर्घकालीन। दोनों ही परिस्थितियों में मन को अधिक शान्त एवं निष्क्रिय बनाने का प्रयत्न किया जाता है।

ध्यानयोग के द्वारा इस स्थिति को प्राप्त किया जाता है। विचार एवं संकल्प पूर्णतया समाप्त तो नहीं हो सकते, पर उन्हें किसी एक केन्द्र पर नियोजित करके बिखराव के दबाव से मनःसंस्थान को मुक्त रखा जा सकता है। इतने से ही मनःक्षेत्र के जागरण एवं विकास में असाधारण योगदान मिलता है।

इस संदर्भ में पाश्चात्य देशों में जो अनुसंधान एवं प्रयोग किये जा रहे हैं, वस्तुतः सम्मोहन प्रक्रिया के अंतर्गत आते हैं। इसमें ऑटोसजेशन अर्थात्-स्वसंकेतों द्वारा आत्मविकास का और सम्मोहन द्वारा दूसरों को मूर्च्छित करके सुधार-उपचार का प्रयत्न किया जाता है। मेडीटेशन अर्थात् ध्यानयोग के नाम से अब यह सर्वसाधारण की जानकारी का विषय बनता जा रहा है। उसका उपयोग प्रायः शारीरिक और मानसिक रोगों के निवारणों में हो रहा है। प्राचीन काल के अध्यात्मवेत्ता उस प्रक्रिया को आत्मबल संवर्द्धन के लिए प्रयुक्त करते थे। उन दिनों चिकित्सा-उपचारों की आवश्यकता बहुत ही स्वल्प मात्रा में पड़ती थी। संयम और संतुलन के परिपालन से उन दिनों रोग कम ही होते थे। जो होते थे वे भी रक्त शुद्ध रहने के कारण सामान्य वनौषधियों के उपचार से ही अच्छे हो जाते थे।

उपर्युक्त वर्णित सचेतन और अचेतन नामक मानसिक परतों के अतिरिक्त इनसे ऊपर एक और दिव्य चेतना स्रोत, जहाँ चित्तशक्ति निवास करती है। मनोवेत्ता इसे अतिचेतन, सुपर चेतन कहते हैं। सुपर ईगो के रूप में इसी की विवेचना की जाती रही है। यह देवलोक, अतीन्द्रिय चेतना का केन्द्र एवं ऋद्धि-सिद्धियों का भण्डार माना गया है। इस क्षेत्र पर अधिकार प्राप्त कर लेने वाला अलौकिक, असाधारण अतिमानव एवं सिद्धपुरुष बन जाता है।

आसन से शरीर और प्राणायाम से प्राणचेतना का परिशोधन-परिष्कार होता है और वे परिपुष्ट - बलिष्ठ बनते हैं। किन्तु प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि की चार स्वाभाविक चंचलता को निग्रहित करके एकाग्रता के केन्द्रबिन्दु पर रोके रखने के लिए हैं। इनमें जितनी सफलता मिलती जाती है, मन - मस्तिष्क शान्त और समाहित होता चला जाता है, साथ ही चित्तशक्ति का जागरण आरम्भ हो जाता है। मानवी संकल्पबल न केवल बाह्य प्रयोजनों में वरन् अपने शरीर की अनिवार्य गतिविधियों को इच्छानुसार नियंत्रित करने में सफल भी हो सकता है। योगनिद्रा द्वारा उपलब्ध समाधि स्थिति से कई प्रकार के लाभ उठाये जा सकते हैं। पहला प्रबुद्ध मस्तिष्क को गहरा विश्राम देकर उसे अधिक स्वस्थ, सक्रिय एवं प्रखर प्रतिभावान बनाया जा सकता है। दूसरा - अचेतन मस्तिष्क को जाग्रत करके उसकी अतीन्द्रिय क्षमता बढ़ाई जा सकती है और चमत्कारी सिद्धपुरुषों को देवभूमिका में पहुँचा जा सकता है। तीसरा-शरीर की गतिविधियाँ रोक सकने में समर्थ संकल्पबल की आग में संसार की कठिनाइयों को गलाया जा सकता है। जो कठिन है, उन्हें सरल बनाया जा सकता है और दूसरों को आध्यात्मिक योगदान देकर सुखी-समुन्नत बनाया जा सकता है। चौथा दीर्घजीवन का उद्देश्य पूरा करने के लिए कायाकल्प एवं परकाया प्रवेश जैसे अमृत को प्राप्त किया जा सकता है। भौतिक विज्ञान ने भी यह स्वीकार कर लिया है। कि यदि मनुष्य को चिर-निद्रा में सुलाया जा सके तो उसे रोगों और थकान के पंजों के छुड़ाकर नवजीवन प्रदान किया जा सकता है। शीतनिद्रा के रूप में समाधि से मिलती-जुलती एक विधि ढूँढ़ भी निकाली गयी है। अनुसंधानकर्ता सुप्रसिद्ध वैज्ञानिक डेल कारेण्टर के अनुसार मनुष्य को ठण्डा - हिमीकृत करके गहरी सुषुप्तावस्था में पहुँचा जा सकता है।

शीतनिद्रा के प्रयोग भौतिक हों या हिप्नोटिक स्तर के, मानसिक हों अथवा समाधि स्तर के आध्यात्मिक हों, हर स्थिति में सर्वतोमुखी विश्राम एवं शांत, एकाग्र समाधान की आवश्यकता अति महत्वपूर्ण समझी जाती रहेगी। उसे प्राप्त करके व्यक्ति अतीन्द्रिय शक्ति-सम्पादन के नये क्षेत्र में प्रवेश कर सकता है।

आपाधापी भरे इस युग में मनुष्य जिस आधि-व्याधि से सर्वाधिक त्रस्त है। वह है मानसिक तनाव। मानसिक तनाव एवं विक्षोभ के कारण व्यक्तित्व की अपार हानि होती है। यह उद्विग्नता और कुछ नहीं, समुचित विश्राम न मिलने की प्रक्रिया है। योगनिद्रा द्वारा यदि इस कुचक्र को तोड़ा जा सके तो मनःक्षेत्र को अभिनव परिपोषण मिल सकता है और उसकी सामान्य तथा असामान्य क्षमताओं का नये सिरे से विस्तार हो सकता है।

मनःक्षेत्र का बिखराव रोकने की प्रक्रिया ही ध्यानयोग है। इसके द्वारा सामर्थ्य की खपत में जो बचत होती है, उसका अधिकांश लाभ मस्तिष्क के उस क्षेत्र को मिलता है - जिसे ब्रह्मचक्र, ब्रह्मरंध्र, सहस्रार आदि नामों से पुकारते हैं। यह इस क्षेत्र में अवस्थित दो अति महत्वपूर्ण अंतःस्रावी ग्रंथियों की समन्वित प्रक्रिया के संबंध में एक रुचिकर वैज्ञानिक तथ्य है कि इस दौरान मस्तिष्क का सक्रिय भाग तुरन्त पीनियल एवं पिट्यूटरी ग्रंथियों से सम्बन्ध स्थापित कर लेता है। ये दोनों ही स्थूल ग्रंथियाँ अध्यात्म की दृष्टि से बड़ी रहस्यमय हैं। दोनों ही ऐसे रस का स्राव करती हैं, जो हमारी चेतना के स्तर को प्रभावित करते हैं।

पीनियल ग्लैण्ड को दार्शनिकों, रहस्यवादियों ने तीसरा नेत्र ‘थर्ड आई’ एवं आत्मा का स्थान कहा है योग-विद्याविशारदों ने इसे ही पिट्यूटरी के साथ द्विदलीय आज्ञाचक्र के नाम से संबोधित किया है। षट्चक्रों में से यह एक है तथा आध्यात्मिक विकास हेतु महत्वपूर्ण ग्रंथि युग्म है। उच्चस्तरीय शक्तियों से सम्बन्ध जोड़ने में यह दोनों ही सहायक है। इनका पूर्ण जागरण हमारी चेतना को भावनात्मक और बौद्धिक स्तर से ऊपर उठाकर और अधिक सूक्ष्मजगत में ले जाता हैं

पिट्यूटरी ग्लैण्ड को तो शरीर का सम्राट कहा जा सकता हैं इस ग्रंथि में स्नायु तंत्र एवं हारमोन तंत्र की परस्पर प्रक्रिया से ही रसस्राव होता है। सारे शरीर की अन्य अंतःस्रावी ग्रंथियों व चयापचयी एवं भावनात्मक प्रतिक्रियाओं को पिट्यूटरी प्रभावित करती है। यह अनन्त विस्तृत परमचेतना का प्रवेशद्वार है। इसे भौतिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्रों का मिलनबिन्दु माना गया है। ध्यान-साधना द्वारा इस ग्रन्थि को नियंत्रित-नियमित कर मनुष्य अपने स्थूल, सूक्ष्म एवं आत्मिक आवरणों का परिमार्जन कर सकता है, पूर्ण मानव बन सकता है।

जब भी कोई योगनिद्रा का अभ्यास करता है, प्रत्येक बार शक्तिप्रवाह ब्रेन सर्किटों के मध्य नये सम्बन्ध स्थापित करता है। मस्तिष्क के अन्धेरे निष्क्रिय क्षेत्र को प्रकाशित एवं सक्रिय करता है। यह हमारी चेतना को बाह्य जगत के, उसके सम्पूर्ण व्यवसाय से अलग करता है तथा उसकी अचेतन क्रियाओं को चेतन के नियंत्रण में लाता है।

योगनिद्रा में पूर्ण-शिथिलीकरण द्वारा शरीर और मन को शाँत एवं निश्चेष्ट कर दिया जाता है और अंतःक्षेत्र में ध्यान को केन्द्रित किया जाता है, जहाँ आत्मचेतना निवास करती हैं नित्य-नियमित अभ्यास द्वारा यह अवस्था थोड़े ही दिनों में आ जाती है कि साधक थोड़े-से प्रयत्न में ही गहरी योगनिद्रा में सो जाता है और उसे प्रकाशवान अंतर्ज्योति के दर्शन होने लगते हैं। इसका उपयोग रोगनिवारण से लेकर मानसिक व आत्मिक उत्कर्ष में किया जा सकता है। आज चिकित्सा क्षेत्र में योगनिद्रा का उपयोग शारीरिक एवं मानसिक रोगों की निवृत्ति के लिए किया जा रहा है। एवं सिद्धियों की कुँजी इस विधा से राहत दी जा रही है। जरा और गहरे जाकर इसका सुनियोजन करें तो सुपर चेतन की गहराइयों में प्रवेश किया जा सकता है।

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