• News
  • Blogs
  • Gurukulam
English हिंदी
×

My Notes


  • TOC
    • आत्मविश्वास की साधना
    • निंदक नियरे राखिए
    • अद्भुत एवं अलौकिक है मानवी-चेतना
    • बचपन भी दिखाता है प्रतिभा के चमत्कार
    • ईमानदारी ही सर्वश्रेष्ठ नीति
    • कम से कम विज्ञान तो रूढ़िवादी न बने
    • संयोगों ने की आश्चर्यजनक आविष्कारों की सृष्टि
    • माँगो तो उस खुदा से
    • जरा जगाकर तो देखें, अपने सोए मन को
    • वह प्रेरक मुसकान
    • परोक्ष जगत की एक घटना जिससे एक योगी जन्मा
    • अपरिमित शक्तियों के भाण्डागार अपने अन्तरंग को जानिए तो
    • बदलें सौंदर्यबोध के मानदण्डों को
    • सिद्धिदात्री गायत्री महाशक्ति की प्राणाकर्षण साधना
    • हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता
    • रंगों का भी है एक निराला मनोविज्ञान
    • आखिरी अरदास
    • तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी
    • सच्ची ईश्वर - भक्ति कैसे?
    • योगनिद्रा से जगाएँ अपने सुपरचेतन को
    • पुनर्जन्म की सत्यता के अनेकानेक प्रमाण
    • नवरात्रि साधना के संदर्भ में विशेष - उपासनाएँ सफल क्यों नहीं होतीं?
    • हृदय - परिवर्तन (Kahani)
    • अब चलचित्रों से चिकित्सा की जाएगी
    • स्वस्थ शरीर के लिए मानसिक संतुलन अनिवार्य
    • सरस्वती साधना है - सार्थक संभाषण
    • परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - दीपक से दीपक को आप जलाएँ - III
    • अंतःकरण की शांति (Kahani)
    • अपनों से अपनी बात - 1 - संधिकाल की अंतिम घड़ी सा पहुँची, साधना के महत्व को समझें
    • अपनों से अपनी बात-2 - जगज्जननी की पीड़ा को समझें, शक्तिदिवस पर कुछ संकल्प लें
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login
  • TOC
    • आत्मविश्वास की साधना
    • निंदक नियरे राखिए
    • अद्भुत एवं अलौकिक है मानवी-चेतना
    • बचपन भी दिखाता है प्रतिभा के चमत्कार
    • ईमानदारी ही सर्वश्रेष्ठ नीति
    • कम से कम विज्ञान तो रूढ़िवादी न बने
    • संयोगों ने की आश्चर्यजनक आविष्कारों की सृष्टि
    • माँगो तो उस खुदा से
    • जरा जगाकर तो देखें, अपने सोए मन को
    • वह प्रेरक मुसकान
    • परोक्ष जगत की एक घटना जिससे एक योगी जन्मा
    • अपरिमित शक्तियों के भाण्डागार अपने अन्तरंग को जानिए तो
    • बदलें सौंदर्यबोध के मानदण्डों को
    • सिद्धिदात्री गायत्री महाशक्ति की प्राणाकर्षण साधना
    • हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता
    • रंगों का भी है एक निराला मनोविज्ञान
    • आखिरी अरदास
    • तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी
    • सच्ची ईश्वर - भक्ति कैसे?
    • योगनिद्रा से जगाएँ अपने सुपरचेतन को
    • पुनर्जन्म की सत्यता के अनेकानेक प्रमाण
    • नवरात्रि साधना के संदर्भ में विशेष - उपासनाएँ सफल क्यों नहीं होतीं?
    • हृदय - परिवर्तन (Kahani)
    • अब चलचित्रों से चिकित्सा की जाएगी
    • स्वस्थ शरीर के लिए मानसिक संतुलन अनिवार्य
    • सरस्वती साधना है - सार्थक संभाषण
    • परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - दीपक से दीपक को आप जलाएँ - III
    • अंतःकरण की शांति (Kahani)
    • अपनों से अपनी बात - 1 - संधिकाल की अंतिम घड़ी सा पहुँची, साधना के महत्व को समझें
    • अपनों से अपनी बात-2 - जगज्जननी की पीड़ा को समझें, शक्तिदिवस पर कुछ संकल्प लें
  • My Note
  • Books
    • SPIRITUALITY
    • Meditation
    • EMOTIONS
    • AMRITVANI
    • PERSONAL TRANSFORMATION
    • SOCIAL IMPROVEMENT
    • SELF HELP
    • INDIAN CULTURE
    • SCIENCE AND SPIRITUALITY
    • GAYATRI
    • LIFE MANAGEMENT
    • PERSONALITY REFINEMENT
    • UPASANA SADHANA
    • CONSTRUCTING ERA
    • STRESS MANAGEMENT
    • HEALTH AND FITNESS
    • FAMILY RELATIONSHIPS
    • TEEN AND STUDENTS
    • ART OF LIVING
    • INDIAN CULTURE PHILOSOPHY
    • THOUGHT REVOLUTION
    • TRANSFORMING ERA
    • PEACE AND HAPPINESS
    • INNER POTENTIALS
    • STUDENT LIFE
    • SCIENTIFIC SPIRITUALITY
    • HUMAN DIGNITY
    • WILL POWER MIND POWER
    • SCIENCE AND RELIGION
    • WOMEN EMPOWERMENT
  • Akhandjyoti
  • Login




Magazine - Year 1998 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
TEXT SCAN


नवरात्रि साधना के संदर्भ में विशेष - उपासनाएँ सफल क्यों नहीं होतीं?

Listen online

View page note

Please go to your device settings and ensure that the Text-to-Speech engine is configured properly. Download the language data for Hindi or any other languages you prefer for the best experience.
×

Add Note


First 21 23 Last
उपासना देवी - देवताओं की की जाती है। स्वयं भगवान अथवा उनके समाज-परिवार के देवी-देवता ही आमतौर से जनसाधारण की उपासना के केन्द्र होते हैं विश्वास यह किया जाता है कि पूजा, अर्चा, जप, स्तुति दर्शन, प्रसाद आदि धर्मकृत्यों के माध्यम से भगवान अथवा देवताओं को प्रसन्न किया जा सकता है और जब वे प्रसन्न हो जाते हैं, तो उनसे इच्छानुसार वरदान प्राप्त करके अभीष्ट सुख-सुविधाओं से लाभान्वित हुआ जा सकता है।

यह मान्यता कई बार सही साबित होती है, कई बार गलत। प्राचीनकाल के इतिहास पुराण देखने से पता चलता है कि कितने ही साधकों और तपस्वियों ने कठिन उपासनाएँ करके अभिभूत शक्तियाँ-विभूतियाँ एवं उपलब्धियाँ प्राप्त कीं। स्वयं भी इतने समर्थ हुए कि दूसरों को अपनी साधना का अंश देकर वरदान-आशीर्वाद से लाभान्वित कर सके। भारत ही नहीं, संसार भर का पुराण-साहित्य ऐसी ही घटनाओं से भरा पड़ा है, जिनमें चर्चा के प्रमुख पात्रों में से अधिकांश की सामर्थ्य और विशेषताएँ देवप्रदत्त थी। ऋषियों, तपस्वियों, सन्तों के जीवन चरित्रों में अधिकांश में ऐसे वर्णन मौजूद हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि उनमें कितनी ही अलौकिक विशेषताएँ थीं और उनने तप-साधना के द्वारा देवताओं से अथवा सीधे भगवान से पाया था। प्रामाणिक इतिहास में भी ऐसे अगणित प्रमाण विद्यमान हैं, जिनसे साधना के फलस्वरूप अनेक व्यक्तियों ने अपने व्यक्तित्वों में ऐसी विशेषताएँ उत्पन्न कीं जो सर्वसाधारण के लिए सम्भव या सुगम नहीं होतीं। अभी भी ऐसे व्यक्ति मौजूद हैं, जो उपर्युक्त तथ्य को अपने अद्भुत व्यक्तित्व या कर्तृत्व के द्वारा सही सिद्ध कर रहे हैं।

साथ-साथ यह भी देखने में आता है कि घर-बार छोड़कर पूरा समय देवाराधन में लगाये हुए व्यक्ति साधना आरम्भ करने के बाद और भी अधिक गई-गुजरी स्थिति में चल गये। न तो उनमें कोई प्रत्यक्ष विशेषता देखी गई, न आत्मिक महत्ता। न उन्हें सुख प्राप्त था, न शान्ति। स्वास्थ्य से लेकर सम्मान तक कोई भी सम्पदा उनके पास नहीं थी और विवेक से लेकर आत्मबल तक कोई प्रतिभा - विशेषता उपलब्ध हुई वरन् जिस स्थिति में उन्होंने वह उपासनात्मक प्रक्रिया अपनाई, पीछे उनकी स्थिति पर प्रकार बिगड़ती ही चली गई। भौतिक सुख-सम्पत्ति न सही, आत्मिक शान्ति और विभूति का प्रकाश मिला होता तो भी सन्तोष किया जा सकता था, पर वैसा भी कुछ वे प्राप्त न कर सके।

यह स्थिति स्वभावतः मन को असमंजस में डालती है। उसी प्रक्रिया का अवलम्बन करने से एक को लाभ एक हो हानि, ऐसा क्यों? एक को सिद्धि दूसरे के हाथ निराशा, यह किसलिए? कैसे? वहीं देवता, वहीं मंत्र, वही विधि, एक की फलित एक की निष्फल, इसका क्या कारण? यदि भगवान या देवता और उनकी उपासना अंध-विश्वास है, तो फिर इससे कितने ही लाभान्वित क्यों होते हैं? यदि सत्य है तो उससे कितनों को ही निराश क्यों होना पड़ता है। जल हर किसी की प्यास बुझाता है, सूरज हर किसी को गर्मी-रोशनी देता है, फिर देवता और उनके उपासना क्रम में परस्पर विरोधी प्रतिक्रियाएँ क्यों?

इस उलझन पर अनेक दृष्टियों से विचार करने के उपरान्त इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ता है कि देवता या मंत्रों में कितनी अलौकिकता दृष्टिगोचर होती है, उससे लाभान्वित हो सकने की पात्रता साधक में होना नितान्त आवश्यक है। मात्र उपासनात्मक कर्मकाण्डों की लकीर पीट लेना इस संदर्भ में सर्वथा अपर्याप्त हैं। तेज धार की तलवार में सिर काटने की क्षमता है, इसमें सन्देह नहीं, पर वह क्षमता सही सिद्ध हो, इसके लिए चलाने वाले का भुजबल, साहस एवं कौशल भी आवश्यक है। बिजली में सामर्थ्य की कमी नहीं, पर उससे लाभान्वित होने के लिए उसी प्रकार के यन्त्र चाहिए। यन्त्र - उपकरणों के अभाव में बिजली का उपयोग व्यर्थ ही नहीं होता, अनर्थ-मूलक भी बन जाता है।

स्वाति के जल से मोती वाली सीपें ही लाभान्वित होती हैं। अमृत उसी को जीवन दे सकता है, जिसका मुँह खुला हुआ हैं। प्रकाश का लाभ आँखों वाले ही उठा सकते हैं। इन पात्रताओं के अभाव में स्वाति का जल, अमृत अथवा प्रकाश कितना ही अधिक क्यों न हो, उससे लाभ नहीं उठाया जा सकता। ठीक वहीं बात देव-उपासना के सम्बन्ध में लागू होती है। घृत-सेवन का लाभ वही उठा सकता है, जिसकी पाचनक्रिया ठीक हो, देवता और मंत्रों का लाभ वे ही उठा पाते हैं, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व को भीतर और बाहर से विचार और आचार से परिष्कृत बनाने की साधना कर ली है। औषधि का लाभ उन्हें ही मिलता है, जो बताये हुए अनुपात और पथ्य का भी ठीक तरह प्रयोग करते हैं। अतः पहले आत्म-उपासना फिर देव - उपासना की शिक्षा ब्रह्मविद्या के विद्यार्थियों को दी जाती रही है। लोग उतावली में मंत्र और देवता के, भगवान और भक्ति के पीछे पड़ जाते हैं, इससे पहले आत्मशोधन की आवश्यकता पर ध्यान ही नहीं देते फलतः उन्हें निराश ही होना पड़ता है। बादल कितना ही जल क्यों न बरसाए, उसमें से जिसके पास जितना बड़ा पात्र है, उसे उतना ही मिलेगा। निरंतर वर्षा होते रहने पर भी आँगन में रखे हुए पात्रों में उतना ही जल रह पाता है, जितनी उनमें जगह होती है। अपने भीतर जगह को बढ़ाये बिना कोई बरतन बादलों से बड़ी मात्रा में जल प्राप्त करने की आशा नहीं कर सकता, देवता और मंत्रों से लाभ उठाने के लिए भी पात्रता नितान्त आवश्यक है।

गुण, कर्म, स्वभाव की दृष्टि से, आचरण और चिंतन की दृष्टि से यदि मनुष्य उत्कृष्टता और आदर्शवादिता से अपने को सुसम्पन्न कर लें तो उनके कषाय-कल्मषों की कालिमा हट सकती है और अन्तःकरण तथा व्यक्तित्व शुद्ध, स्वच्छ, पवित्र एवं निर्मल बन सकता है। ऐसा व्यक्ति मंत्र, उपासना, तपश्चर्या का समुचित लाभ उठा सकता है और देवताओं के अनुग्रह का अधिकारी बन सकता है। जब तक यह पात्रता न हो तब तक उत्कृष्ट वरदान माँगने की दूरदर्शिता ही उत्पन्न होगी और साधना के पुरुषार्थ से कुछ भौतिक लाभ भले ही मिल जाएँ, देवत्व का एक कण भी उसे प्राप्त न होगा और आसुरी भूमिका पर कोई सिद्धि मिल भी जाए, तो अन्ततः उसके लिए घातक ही सिद्ध होगी। असुरों की साधना और उसके आधार पर मिली हुई सिद्धियों से उनका अन्ततः सर्वनाश ही उत्पन्न हुआ। अध्यात्म−विज्ञान का समुचित लाभ लेने के लिए साधक का अन्तःकरण एवं व्यक्तित्व कितना निर्मल होगा, उतनी ही उसकी उपासना सफल होगी। धुले हुए कपड़े पर रंग आसानी से चढ़ता है, मैले पर नहीं। स्वच्छ व्यक्तित्व सम्पन्न साधक किसी भी पूजा उपासना का आशाजनक लाभ सहज ही प्राप्त कर सकता है।

भगवान और देवता कहाँ हैं? किस स्थिति में हैं? उनकी शक्ति कितनी है? इस तथ्य का सही निष्कर्ष यह है कि यह दिव्य चेतनसत्ता निखिल विश्वब्रह्माण्ड में व्याप्त है और पग-पग पर उनके समक्ष जो अणु-गति जैसी व्यस्तता के कार्य प्रस्तुत हैं, उन्हें पुरा करने में संलग्न हैं। उनके समक्ष असंख्य कोटि प्राणियों की, जड़-चेतन की बहुमुखी गतिविधियों को सँभालने का विशाल काय काम पड़ा है, सो वे उसी में लगी रहती हैं एक व्यवस्थित नियम और क्रम उन्हें इन ग्रह-नक्षत्रों की तरह कार्य संलग्नक रखता है। व्यक्तिगत संपर्क में घनिष्ठता रखना और किसी की भावनाओं के उतार-चढ़ाव की बातों पर बहुत ध्यान देना उनके लिए समग्र रूप से सम्भव नहीं। वे ऐसा करती तो हैं, पर अपने एक अंश प्रतिनिधि के द्वारा। दिव्यसत्ताओं ने हर मनुष्य के भीतर उसके स्थूल-सूक्ष्म-कारण-शरीरों में अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश जैसे आवरणों में अपना एक-एक अंश स्थापित किया हुआ है और यह अंश प्रतिनिधि ही उन व्यक्ति की इकाई को देखता-सँभालता है। वरदान आदि की व्यवस्था इसी प्रतिनिधि द्वारा सम्पन्न होती है।

व्यक्ति की अपनी निष्ठा, श्रद्धा, भावना के अनुरूप ही यह देव अंश समर्थ बनते हैं। या दुर्बल रहते हैं। एक साधक की निष्ठा में गहनता और व्यक्तित्व में प्रखरता हो, तो उसका देवता समुचित पोषण पाकर अत्यन्त समर्थ दृष्टिगोचर होगा और साधक ही आशा-जनक सहायता करेगा। दूसरा साधक आत्मिक विशेषताओं से रहित हो तो उसके अंतरंग में अवस्थित देव अंश पोषण के अभाव में भूखा, रोगी, दुर्बल बनकर एक कोने में कराह रहा होगा। पूजा भी नकली दवा की तरह भावना-रहित होने से उस देवता को परिपुष्ट न बना सकेगी और वह विधिपूर्वक मंत्र-जप आदि करते हुए भी समुचित लाभ न उठा सकेगा।

विराट बाह्य कितना ही महान क्यों न हो, व्यक्ति की इकाई में वह उस प्राणी की परिस्थिति में पड़ा हुआ लगभग उससे थोड़ा ही अच्छा बनकर रह रहा होगा। अन्तरात्मा की पुकार निश्चित रूप से ईश्वर की वाणी है, पर वह हर अन्तःकरण में समान रूप में प्रबल नहीं होती। सज्जन के मस्तिष्क में मनोविकारों का एक झोंका घुस जाएँ, तो भी उसकी अन्तरात्मा प्रबल प्रतिकार के लिए उठेगी और उसे ऐसी बुरी तरह धिक्कारेगी कि पश्चाताप ही नहीं प्रायश्चित किये बिना भी चैन न पड़ेगा। इसके विपरीत दूसरा व्यक्ति जो निरन्तर क्रूर-कर्म ही करता रहता है, उनकी अन्तरात्मा यदाकदा बहुत हलका-सा प्रतिवाद ही करेगी और वह व्यक्ति उसे आसानी से उपेक्षित करता रहेगा। ईश्वर दोनों के हृदय में है। दोनों की अन्तरात्मा की प्रकृति एक-सी है दोनों ही अपना कर्तव्य निकालती हैं। पर दोनों की स्थिति सर्वथा भिन्न है। सज्जन ने सत्प्रवृत्तियों को पोषण देकर अपनी अन्तरात्मा को निर्मल बनाया है, उसकी प्रबलता कभी शाप-वरदान के चमत्कार भी प्रस्तुत कर सकती है। पर दूसरे ने अपनी आत्मा को निरन्तर पद-दलित करके, उसे भूखा रखकर दुर्बल बना रखा है, वह न तो प्रबल प्रतिरोध कर सकती है और न कभी उसके द्वारा ईश्वर की पुकार आदि की जाए, तो उसका कुछ प्रतिफल निकल सकता है।

सर्वव्यापी, साक्षी-द्रष्टा नियन्ता, कर्ता, हर्ता, सत-चित-आनन्द आदि विभूतियों से सम्पन्न विराट ब्रह्म है। देव-शक्तियाँ भी अपनी सीमित परिधि के अनुरूप निखिल ब्रह्माण्ड में संव्याप्त और निर्धारित प्रयोजनों में तत्पर हैं। उन विराट सत्ताओं की उपासना सम्भव नहीं। उपासना के लिए प्रत्येक व्यक्ति के भीतर एक छोटा-सा प्रतिनिधि उनका मौजूद है। साधक और तपस्वी अपनी निष्ठा के अनुरूप उसका पोषण करते, समर्थ बनाते और लाभ उठाते हैं। एक ग्वाले की गाय स्वस्थ-सुन्दर और बहुत दूध देती है। दूसरे की ठीक वैसी ही होने पर भी दुबली, रुग्ण है और कम दूध देती है। इसका कारण उन दोनों ग्वालों की गौ-सेवा में न्यूनाधिकता का होना ही है। अपने अंतरंग में अवस्थित देवता को अपनी आत्मनिष्ठा, पवित्रता आदि विशेषताओं के द्वारा समर्थ बनाया जाता है। इसके उपरान्त ही पूजा उपासना रूपी बाल्टी में दूध दुहने की बात बनती है।

रामकृष्ण परमहंस की काली ने विवेकानन्द को आत्मशक्ति से सम्पन्न बनाकर उन्हें महामानवों की पंक्ति में ला खड़ा किया। दूसरे तांत्रिक, अघोरी, कापालिक, ओझा उसी काली देवी से झाड़-फूँक के छुटपुट प्रयोजन ही पूरे कर पाते हैं। विराट महाकाली एक है। पर रामकृष्ण परमहंस के अन्तरंग में परिपोषित काली अंश की क्षमता उनके अनुरूप थी और ओझा - अघोरी लोगों की काली बहुत दुर्बल और ओछे किस्म की होती है। अर्जुन के कृष्ण की सामर्थ्य अलग थी। मीरा सूर के कृष्ण अलग थे और रामलीला करने वालों के पुजारियों के कृष्ण अलग हैं। आकृति - प्रतिमा दोनों की एक-सी हो सकती है, पर सामर्थ्य में असाधारण अन्तर होगा। यह अन्तर उन साधकों की आन्तरिक स्थिति के कारण विनिर्मित होता है।

इस तथ्य को हमें समझना ही होगा। न समझने से हमें असमंजस और भ्रम में पड़ना पड़ेगा, निराशा हाथ लगेगी और सम्भव है तब उपेक्षा ही नहीं नास्तिकता भी सामने आ खड़ी हो। उसी मंत्र और उसी विधान से एक व्यक्ति आश्चर्यजनक प्रतिफल प्राप्त करता है और ठीक उसी रीति-नीति को अपनाकर दूसरा व्यक्ति सर्वथा निराश - असफल रहता है। इसमें न विधि-विधान को दोष दिया जाना चाहिए और न देवता की निष्ठुरता या भाग्य को कोसा जाना चाहिए। तथ्य यही है कि हमने अपने इष्टदेव को इतना परिपुष्ट नहीं बनाया कि वे हमारी प्रार्थना के अनुरूप उठ खड़े होने और सहायता कर सकने में समर्थ होते। द्रौपदी के कृष्ण अलग थे, वे एक पुकार सुनते ही दौड़कर आये। हमारे कृष्ण अलग है वे लगभग लंघन में पड़े रोगी की तरह है। पुकार सुनने और सहायता के लिये खड़े होने की सामर्थ्य उनके हाथ-पैरों में है नहीं, फिर वे प्रार्थना का क्या उत्तर दें?

अध्यात्म विद्या के तत्त्वदर्शियों ने इस तथ्य को छिपाया नहीं है। उन्होंने सदा यह कहा है कि इस विराट ब्रह्म में जो कुछ दिव्य महान, पवित्र, प्रखर है उसका एक अंश हर व्यक्ति के भीतर विद्यमान है। जो चाहे उसे ठीक तरह सँजोने-सँभालने में लग सकता है और उन मणिमुक्तकों से अपने जीवन-भाण्डागार को भरापूरा कर सकता है। उपेक्षा करने अथवा दुर्गति करने से वे निरर्थक ही बनकर रह जाएँगे। हर किसी के मस्तिष्क में गणेश विद्यमान है, जो बुद्धि - विकास की साधना करके अपने गणेश को परिपुष्ट बना लेगा, वह विद्वान बनकर अनेक विभूतियों के वरदान प्राप्त करेगा। जो अपने गणेश की जड़ों में पानी नहीं देगा, उनके विनायक भगवान सूखे मूर्च्छित एक कोने में पड़े होंगे। लड्डू खीर खिलाने स्तोत्र पाठ करने पर भी वे कुछ सहायता न कर सकेंगे बुद्धिमान और विद्वान बन सकता सम्भव ने होगा। हर किसी की भुजाओं में हनुमान का निवास है। व्यायाम करने वाले संयमी, ब्रह्मचारी लोग बजरंगबली के भक्त प्रमाणित हो सकते हैं, पर जिनने अपने असंयमी और भ्रष्ट आचरण से हनुमान जी को पीड़ित - प्रताड़ित करने में कमी नहीं छोड़ी, उनका हनुमान चालीसा पाठ कुछ ज्यादा कारगर नहीं होगा, वे आरोग्य का वरदान अपने रुग्ण हनुमान से कैसे प्राप्त कर सकेंगे?

बालबुद्धि, उतावले और अदूरदर्शी लोग ही उपासना को जादूगरी, बाजीगरी जैसी कोई चीज मानकर चलते हैं। उनकी कल्पना किन्हीं ऐसे देवताओं की होती हैं जो स्तुति, जप, पूजा, प्रसाद के तनिक से प्रलोभन पर ललचाए जा सकते हैं। और उनसे इन नगण्य उपहारों के बदले मनचाहे लाभ उठाये जा सकते हैं। अधिकांश पूजा, उपासना में संलग्न लोगों की मनोभूमि इसी बच्चों जैसे स्तर की होती है। वे विधि-विधानों कर्मकाण्डों या उपहारों का ताना-बाना बुनते रहते हैं और उसी टंट घंट में अपना उल्लू सीधा करने की तरकीबें भिड़ाते रहते हैं तथाकथित भक्तों की मण्डली इसी स्तर की होती है। वे तिलक - छापे लगाकर अपनी शक्ति का प्रमाण भगवान के सामने प्रस्तुत करते हैं या प्रमाण भगवान के सामने प्रस्तुत करते हैं या कुछ और खेल खड़ा करके भगवान की आँखों में धूल झोंककर अपने असली स्वरूप को छिपाते हुए भक्त को मिलने वाले लाभ प्राप्त करना चाहते हैं। वस्तुतः न भगवान इतने भोले हैं न कोई देवता इतना सरल है, न कोई मंत्र ऐसा है जिसे कुछ बार जप-रटकर मनचाहा लाभ उठाया जा सके। उपासना का एक सर्वांगपूर्ण विज्ञान है। अध्यात्म विद्या को एक समग्र साइंस ही कहना चाहिए। उसके नियम और प्रयोजनों को समझ कर तदनुकूल चलने से ही लाभान्वित हुआ जा सकता है। यदि यह तथ्य लोगों ने समझा होता तो अध्यात्म मार्ग की देहरी पर पैर रखते ही पहला प्रयोग अपने अन्तरंग में मूर्छित, पददलित, विभुक्षित, मलिन पड़े हुए इष्टदेव को सँभालने - सँजोने का प्रयत्न किया होता। उन्हें समर्थ और बलवान बनाया होता। इस प्रथम प्रयोजन को पूरा करने के बाद मंत्र, जप, उपासना, पूजा स्तोत्र आदि का चमत्कार देखने का दूसरा कदम उठाया गया होता तो निस्सन्देह हर उपासक को आशाजनक सफलता मिली होती और किसी को भी निराश होने, अविश्वासी बनने या असमंजस में पड़ने का अवसर न आता।

First 21 23 Last


Other Version of this book



Version 2
Type: TEXT
Language: HINDI
...

Version 1
Type: SCAN
Language: HINDI
...


Releted Books


Articles of Books

  • आत्मविश्वास की साधना
  • निंदक नियरे राखिए
  • अद्भुत एवं अलौकिक है मानवी-चेतना
  • बचपन भी दिखाता है प्रतिभा के चमत्कार
  • ईमानदारी ही सर्वश्रेष्ठ नीति
  • कम से कम विज्ञान तो रूढ़िवादी न बने
  • संयोगों ने की आश्चर्यजनक आविष्कारों की सृष्टि
  • माँगो तो उस खुदा से
  • जरा जगाकर तो देखें, अपने सोए मन को
  • वह प्रेरक मुसकान
  • परोक्ष जगत की एक घटना जिससे एक योगी जन्मा
  • अपरिमित शक्तियों के भाण्डागार अपने अन्तरंग को जानिए तो
  • बदलें सौंदर्यबोध के मानदण्डों को
  • सिद्धिदात्री गायत्री महाशक्ति की प्राणाकर्षण साधना
  • हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता
  • रंगों का भी है एक निराला मनोविज्ञान
  • आखिरी अरदास
  • तुल्यनिन्दास्तुतिर्मौनी
  • सच्ची ईश्वर - भक्ति कैसे?
  • योगनिद्रा से जगाएँ अपने सुपरचेतन को
  • पुनर्जन्म की सत्यता के अनेकानेक प्रमाण
  • नवरात्रि साधना के संदर्भ में विशेष - उपासनाएँ सफल क्यों नहीं होतीं?
  • हृदय - परिवर्तन (Kahani)
  • अब चलचित्रों से चिकित्सा की जाएगी
  • स्वस्थ शरीर के लिए मानसिक संतुलन अनिवार्य
  • सरस्वती साधना है - सार्थक संभाषण
  • परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी - दीपक से दीपक को आप जलाएँ - III
  • अंतःकरण की शांति (Kahani)
  • अपनों से अपनी बात - 1 - संधिकाल की अंतिम घड़ी सा पहुँची, साधना के महत्व को समझें
  • अपनों से अपनी बात-2 - जगज्जननी की पीड़ा को समझें, शक्तिदिवस पर कुछ संकल्प लें
Your browser does not support the video tag.
About Shantikunj

Shantikunj has emerged over the years as a unique center and fountain-head of a global movement of Yug Nirman Yojna (Movement for the Reconstruction of the Era) for moral-spiritual regeneration in the light of hoary Indian heritage.

Navigation Links
  • Home
  • Literature
  • News and Activities
  • Quotes and Thoughts
  • Videos and more
  • Audio
  • Join Us
  • Contact
Write to us

Click below and write to us your commenct and input.

Go

Copyright © SRI VEDMATA GAYATRI TRUST (TMD). All rights reserved. | Design by IT Cell Shantikunj