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Magazine - Year 1998 - Version 2

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Language: HINDI
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जरा जगाकर तो देखें, अपने सोए मन को

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तंत्रिकाविज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण शोधों ने यह प्रमाणित कर दिया है कि मस्तिष्क की दो स्तर की भूमिकाएँ हैं- एक वह, जो दिव्यज्ञान तथा अनुभूतियों को जगाने-उभारने से संबंधित है। इसे उसका ‘परा’ पक्ष कह सकते हैं। दूसरा पहलू ‘अपरा’ के नाम से जाना जाता है। इसमें भौतिक स्तर की जानकारियाँ, बुद्धि, स्मृति तर्क, विचार आदि सम्मिलित हैं। अध्यात्म विज्ञान बहुत पहले से इस तथ्य को स्वीकारता रहा है। अब पदार्थ विज्ञान भी उसी निष्कर्ष के निकट पहुँचता जा रहा है।

सर्वविदित है कि मस्तिष्क के, दायें-बायें दो हिस्से-दो गोलार्ध हैं। उसका दांया भाग शरीर के बायें हिस्से को नियंत्रित करता है, जबकि बायाँ खण्ड काया के दाहिने पार्श्व को। अनुसंधानों से यह ज्ञात हुआ है कि मस्तिष्क के दोनों हिस्से स्वतंत्र रूप से चेतना के दो विपरीत, किन्तु एक-दूसरे के पूरक आयामों का संचालन करते हैं। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय के तंत्रिकाशास्त्री रोजरस्पेरी एवं सहयोगियों ने जब मिर्गी के कुछ गंभीर मामलों के अन्तिम उपचार के रूप में अपने रोगियों के मस्तिष्क के दोनों गोलार्धों के सम्बन्ध-सूत्र को विच्छेद कर दिया, तो न सिर्फ रोगी ठीक हुए, वरन् कई चौंकाने वाले तथ्य प्रकाश में आये। इससे मस्तिष्क के कार्य करने संबंधी अनेक महत्वपूर्ण जानकारियाँ मिलीं तथा योग-विज्ञान के दृष्टिकोण की पुष्टि हुई। अध्यात्म-विज्ञान एवं अन्वेषणों के आधार पर इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि मनुष्य की सक्रियता के दो भिन्न माध्यम हैं। मस्तिष्क के परिपथ इड़ा और पिंगला, चेतना या ज्ञान तथा क्रिया अथवा शारीरिक शक्ति पर आधारित है एवं इनका तंत्रिकातंत्र के सभी तीन प्रमुख स्तरों से संबंध है। केन्द्रीय तंत्रिका तंत्र इन सबमें प्रमुख है। इसमें मस्तिष्क तथा मेरुरज्जु सम्मिलित है।

साधना-विज्ञान के आचार्यों का मत है कि नाड़ियों एवं चक्रों का अस्तित्व केन्द्रीय स्नायु संस्थान के अंतर्गत मेरु- रज्जु एवं मस्तिष्क में है। यदि विभिन्न साधना-विधानों द्वारा इनकी शुद्धि करके एवं शक्तिशाली बनाकर इन्हें सही रूप से परस्पर जोड़ा जा सके, तो शरीर एवं मन दोनों का कायाकल्प संभव है। शरीर एवं मन की जटिल क्रिया -प्रणाली इड़ा, पिंगला एवं सुषुम्ना -इन तीन आधारभूत शक्तियों के बल पर क्रियाशील रहती है। यह जानने के बाद अब यह समझना सरल होगा कि अधिकांश साधना- उपचारों में इड़ा, पिंगला के प्रवाह में संतुलन एवं इनके उतार-चढ़ावों के प्रति सजगता-वृद्धि को इतना महत्व क्यों दिया जाता है। साधनाविज्ञानियों के अनुसार शारीरिक स्तर पर मस्तिष्क का दांया हिस्सा इड़ा नाड़ी तथा बायाँ हिस्सा पिंगला नाड़ी से सम्बद्ध है। स्पेरी, माइर्स, गजेनिगा, बोगेन प्रभृति शोधकर्ताओं ने लम्बे काल के अध्ययन-अनुसंधान के उपरान्त यह पता लगाया है कि मस्तिष्क का बायाँ हिस्सा बुद्धि विचार, तर्क, वाणीं, विश्लेषण आदि के लिए जिम्मेदार है, जबकि दायें भाग का संबंध ज्ञान, अनुभूति, पवित्रता, शान्ति जैसे तत्वों से है। योगशास्त्र के ज्ञाता भी पिंगला की प्रकृति स्थूल बुद्धिपरक एवं इड़ा की सूक्ष्मज्ञान और अनुभूतिपरक बताते हैं। इस दृष्टि से विचार करने पर विदित होता है कि ज्ञान और विज्ञान पक्ष अलग-अलग मार्गों से चलकर एक ही बिन्दु पर पहुँचते हैं।

डिपार्टमेण्ट ऑफ बिहेवियरल न्यूरोलॉजी, यूनिस केनेडी सेण्टर फॉर मेण्टल रिटार्डेशन, वाल्थाम, मेसाचुसेटस के न्यूरोबायोलॉजिस्ट तथा न्यूरोसाइकोलॉजिस्ट मार्शल किंसबोर्न ने अपनी शोध (‘सैड हेमिस्फीयर, हैप्पी हेमिस्फीयर’ मई १९८१, साइकोलॉजी टुडे) से प्रमाणित किया है कि मस्तिष्क की भावनात्मक क्रियाशीलता के दो प्रमुख आधार हैं। यह आधार उनके अपने ही दो गोलार्ध है।

उक्त अनुसंधान से विदित हुआ है कि प्रसन्नता एवं सकारात्मक विचारों का संचालन बायें गोलार्ध से होता है। कई मौकों पर देखा गया है कि मस्तिष्क के दायें गोलार्ध के क्षतिग्रस्त हो जाने पर प्रायः रोगी मलिन व्यक्तित्व, असंतुलन, क्रोध, अपराधी- भाव एवं निराशा जैसी मनःस्थिति से ग्रसित हो जाता है। इसके विपरीत बायें गोलार्ध के क्षतिग्रस्त होने पर व्यक्ति प्रसन्न तथा मस्त दीखते हैं। सामान्य अवस्था में मस्तिष्क के गोलार्ध बारी-बारी से क्रियाशील रहते हैं, किन्तु चरम अवस्था में नहीं पहुँच पाते, जैसा कि मस्तिष्क के क्षतिग्रस्त होने पर होता है, पर फिर भी यदि हम संतुलित एवं स्वस्थ नहीं हैं, तो गोलार्ध के कार्यकाल परिवर्तन का प्रभाव दुःखद हो सकता है। किंसबोर्न का विचार है कि मस्तिष्क की ये दो वृत्तियाँ हमारी पसंद (पिंगला) एवं नापसंद (इड़ा) से संबंधित है। हमारी पसंद के कार्य बायें मस्तिष्क द्वारा सम्पन्न होते हैं। वह उन पर विचारता है, तदुपरान्त उस वस्तु अथवा स्थिति विशेष तक पहुँचने का प्रयत्न करता है। हमारे सक्रिय पक्ष अर्थात् बहिर्मुखी पिंगला नाड़ी के बारे में सामान्य धारणा यही है। जो परिस्थितियाँ हमें अच्छी नहीं लगती, उनसे हम बचना चाहते हैं। यह स्थिति हमारे लिए कहीं अधिक कठिन होती है, जिसे दिमाग के उस दायें खण्ड द्वारा सम्पादित किया जाता है। जिसका संबंध हमारी ग्रहणशीलता, अन्तर्मुखता तथा इड़ा से है।

मस्तिष्क की इन दोनों प्रणालियों में संतुलन आवश्यक होता है। यदि ऐसा न हुआ, तो व्यक्तित्व अनगढ़ और अस्त-व्यस्त हो जाएगा। योगमार्ग के मर्मज्ञों का मत है कि सर्वोच्च स्तर पर क्रियाशीलता सुषुम्ना के कार्यरत होने तथा मानव-तत्वों एवं क्षमताओं के अधिकतम विस्तार के लिए नाड़ियों में सामंजस्य नितान्त जरूरी है। दुर्भाग्यवश इस प्रकार के संतुलित व्यक्तित्वों की संख्या वर्तमान समय में एकदम न्यून है। अधिकांश लोग इड़ा के सूक्ष्म अन्तर्ज्ञान एवं अनुभव पक्ष की अपेक्षा पिंगला अर्थात् पूर्णतः बहिर्मुखी भौतिक एवं तकनीकी पक्ष की ही ओर आकर्षित रहते हैं। ऐसी विसंगतियों से सामान्य जीवन पर क्या असर पड़ता हैं, इसका वैज्ञानिक अध्ययन पिछले दिनों किया गया।

हार्वर्डगार्डनर एवं सहयोगियों ने ऐसे व्यक्तियों का अध्ययन किया, जिनका दांया मस्तिष्क (इड़ा पक्ष) गम्भीर रूप से क्षतिग्रस्त था। उनने देख कि ऐसे लोगों में आवश्यक औसत समझ भी नहीं थी। अर्थात् वे किसी यांत्रिक मस्तिष्क युक्त रोबोट की भाँति थे। अध्ययन के दौरान यह भी देखा गया कि दिमाग के दोनों गोलार्धों के सक्रिय रहने पर ही हम किसी वाक्य के भावार्थ को भली-भाँति समझ सकते है, किसी भावना को शब्द प्रदान कर सकते हैं अथवा आमोद-प्रमोद का वास्तविक आनन्द-लाभ ले सकते हैं।

एक उदाहरण द्वारा इसे और अच्छी तरह समझा जा सकता है। यदि कोई कहे कि उस पर आसमान टूटा पड़ा, तो ऐसा व्यक्ति; जिसका दाहिना भाग क्षतिग्रस्त हैं, वाक्य में निहित भाव को न समझकर शब्दार्थ में उलझ जाएगा और प्रश्न करेगा कि आखिर ऐसा क्यों हुआ? कारण कि आसमान टूटने वाली वस्तु तो हैं नहीं। विशेषज्ञ बताते हैं कि यह स्थिति इसलिए उत्पन्न होती हैं, क्योंकि वे प्रत्यक्ष को तो देखते हैं, पर उसका विश्लेषण और व्याख्या नहीं कर पाते। स्पष्ट हैं- दांया मस्तिष्क, जिसे योगियों ने इड़ा अथवा ग्रहणशील मन कहाँ हैं, आपसी सम्बन्धों एवं सम्पूर्ण वस्तुस्थिति के मूल्याँकन तथा समझदारी के लिए जिम्मेदार हैं

यह दाहिने मस्तिष्क का सामान्य और लौकिक पक्ष हुआ। अनुसंधानों से इस तथ्य की भी पुष्टि हुई है कि यह भाग अन्तर्ज्ञान एवं आध्यात्मिक अनुभूतियों का भी केन्द्र हैं। पेन्सिल-वानिया मेडिकल स्कूल यूनिवर्सिटी के मनोचिकित्सा प्रभाग के प्राध्यापक इजिन डी. आकली एवं एम. ब्लैक (ब्रेन फ्लैश- द् फिजियोलॉजी ऑफ इन्सपीरेशन अगस्त १९८२. साइंस डायजेस्ट) के अनुसार क्षतिग्रस्त संबंधी शोध बताती हैं कि मस्तिष्क के इस हिस्से में चेतना को उच्चतर आयामों में ले जाने वाला क्षेत्र मौजूद हैं। अध्यात्म विज्ञान की भी ऐसी ही मान्यता हैं कि मस्तिष्क आत्मचेतना और परमात्मचेतना का समागम स्थल हैं। उन्होंने ईश्वर की अनुभूति व्यक्त करने वाली एक गणितीय व्याख्या दी है, जिसमें व्यक्ति संसार के साथ पूर्ण तादात्म्य का अनुभव करते हुए वास्तविकता को समझ सकता हैं। उसे प्रतीत होता है कि मानो यह मस्तिष्क के दायें सुप्त क्षेत्र ‘पैराइटल आक्सीपिटल’ का उत्पादन हो, जो किसी तरह मस्तिष्क के क्रिया-कलापों पर नियंत्रण करने लगता हैं। समय रुका हुआ प्रतीत होता है। एकत्व तथा अद्वैत की दिव्य अनुभूति होती हैं।

वैज्ञानिक द्वय कहते हैं कि चेतना की उच्च भूमिकाओं में पहुँचना मस्तिष्क की सुषुप्ति को हटाये-मिटाये बिना संभव नहीं। योगियों का भी ऐसा ही मत हैं। इसके लिए वे अचेतन का परिवर्धन-परिष्कार आवश्यक बताते और कहते हैं कि इस हेतु इड़ा-पिंगला अर्थात् मस्तिष्क के दोनों भागों पर नियमन-नियन्त्रण स्थापित करना पड़ेगा। योग-विज्ञान में इसके लिए ‘स्वर योग’ की एक सुनिश्चित प्रक्रिया है अर्थात् श्वसन क्रिया को नियंत्रित कर मस्तिष्क पर नियंत्रण प्राप्त किया जा सकता है। अब इसकी पुष्टि पदार्थ ने भी कर दी हैं। वैज्ञानिक इसे स्वीकारने लगे हैं कि मस्तिष्क और साँस का परस्पर गहरा संबंध है।

डलहौजी यूनिवर्सिटी, नोवास्कोटिया के मनोवैज्ञानिक रेमण्डक्लीन एवं रोजेनआर्मिटेज द्वारा किये गये एक अध्ययन से पता चला है कि बायें तथा दायें मस्तिष्क के कार्यों में ९. से १.. मिनट के अन्दर परिवर्तन होते रहते हैं। जिन व्यक्तियों पर उक्त अध्ययन किया जा रहा था, वे ९. मिनट तक उन कार्यों को कुशलतापूर्वक करते देखे गये, जो दायें दिमाग से संबंधित थे और अगले ९. मिनट तक उन कार्यों को, जो बायें भाग से सम्बद्ध थे। इस अध्ययन की अनेक आवृत्तियों के पश्चात् वे इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि ९. मिनट के इस चक्र का श्वसन से गहरा संबंध है।

शॉक इन्स्टीट्यूट फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज, अमेरिका के वैज्ञानिकों डेविड शनहाफ एवं खालसा ने अपने अध्ययनों में पाया है कि सामान्य श्वसन प्रक्रिया द्वारा भी आवश्यकतानुसार मस्तिष्क के गोलार्ध की क्रियाशीलता परिवर्तित की जा सकती है। वे कहते हैं कि जब हम किसी एक नासिकाछिद्र से साँस ले रहे होते हैं, तो उस समय उसके विपरीत भाग का गोलार्ध सक्रिय होता है। यह एक अतीव महत्वपूर्ण तथ्य है। यही कारण है कि साधना प्रतिक्रियाओं में प्राणायाम के दौरान बायीं नासिका से गहरी साँस लेने और दायीं से छोड़ने का विधान है। ऐसा करने से मस्तिष्क का दांया अथवा आध्यात्मिक भाग जाग्रत होने लगता है और इसके साथ ही बायें अथवा भौतिक जीवन से गहन संबंध रखने वाले मस्तिष्क खण्ड की सक्रियता मन्द पड़ने लगती है। इस प्रकार उक्त अध्ययन से प्राणायाम की उपादेयता और वैज्ञानिकता सिद्ध हो जाती है। इसके अतिरिक्त ई. ई. जी. द्वारा मस्तिष्क से उत्पन्न अल्फा, बीटा, थीटा, और डेल्टा तरंगों में से किसी की भी प्रमुखता की स्थिति में श्वसन एवं मस्तिष्क गोलार्धों के मध्य एक सुनिश्चित संबंध की सूचना मिलती है।

साधना मार्ग के पथिकों के अनुसार अस्वस्थता की दशा में गोलार्धों की सक्रियता में व्यक्तिक्रम पैदा हो जाता है और उसकी लयात्मकता समाप्त हो जाती है। उनके अनुसार जब दुःखी (पिंगला) एवं प्रसन्न (इड़ा) गोलार्धों में एक निश्चित समय तक संतुलन बना रहता है, तो चेतना की एक दिव्य अवस्था का अनुभव होता है। साधना विज्ञान की भाषा में कहें, तो इसे यों भी कह सकते हैं कि जब इड़ा और पिंगला नाड़ी अर्थात् नासिका के दोनों स्वर साथ-साथ क्रियाशील हो उठती है। ऐसे समय में व्यक्ति की प्रकृति अन्तर्मुखी हो जाती है, शुभ कार्यों एवं श्रेष्ठ चिन्तन की ओर रुझान बढ़ जाता है, मन बार-बार ईश्वर की ओर उन्मुख होने लगता है एवं व्यक्ति स्वयं को एक असाधारण, आनन्ददायक तथा उदात्त मनोदशा में अनुभव करता है।

किन्तु सामान्य आदमी के साथ अक्सर ऐसा देखा जाता है कि वह कार्यवश या स्वभाववश अपने किसी एक ही गोलार्ध का प्रयोग कर पाता हैं। उदाहरण के लिए किसी गणित के प्रोफेसर, कम्प्यूटर आपरेटर अथवा नीतिनिर्धारक को लिया जा सकता है। ऐसे सभी कार्यों में बायें मस्तिष्क का ही उपयोग होता है। उसका दांया भाग अनुपयोगी पड़ा रहता है। लम्बे समय तक यह अवस्था यदि बनी रहे, तो अनुपयोगी हिस्से की क्षमता घटने लगती है। यह स्थिति यदि दिमाग के दायें खण्ड के साथ प्रस्तुत हुई हो, तो आदमी का आध्यात्मिक जीवन चौपट हो जाता है, उसकी रुचि और रुझान इस ओर से एकदम हट जाती और वह विशुद्ध भौतिकवादी बन जाता है, जो खतरनाक है।

सहज ज्ञान, इलहाम या अन्तः- स्फुरणा आध्यात्मिक जीवन के कुछ महत्वपूर्ण घटनाक्रम हैं। जिसके अन्तःकरण में यह घटित होते हैं, उसके जीवन की जटिल-से जटिल समस्याओं का समाधान पलक झपकते हो जाता है। कुछ मिली सेकेण्ड से भी कम समय में समाधानकारक ऐसा चित्र अन्तराल में उभरता है, जो उसकी मुश्किलों को तत्काल हल कर देता है। यह तभी संभव है, जब दांया मस्तिष्क क्रियाशील एवं जाग्रत हो तथा व्यक्ति का जीवन पवित्र हो। असंयम, आलस्य, उन्माद, तनाव, व्यग्रता, तामसिक आहार, दृष्टिदोष, छिद्रान्वेषण, भ्रष्ट-चिन्तन एवं दुष्ट-आचरण यह सभी अन्तःस्फुरणा के विकास में बाधक हैं तथा दाहिने गोलार्ध की क्षमता को खुद बनाते हैं।

शरीर-संरचना विज्ञान और शरीर-क्रिया विज्ञान ने अब इस तथ्य को एकदम सुस्पष्ट कर दिया है कि मस्तिष्क का सम्बन्ध केवल नासिका से ही नहीं, वरन् शरीर के सभी अवयवों से है। योगी इसे हजारों वर्षों से जानते थे। वे ध्यानगत अनुभव में शक्ति के प्रवाह को नाड़ियों द्वारा मस्तिष्क तथा सम्पूर्ण शरीर में प्रवाहित होते अनुभव करते एवं अपने अस्तित्व के कहीं अधिक सूक्ष्म स्तरों को ग्रहण करने में समर्थ थे, कारण कि उन्होंने ऐसी विधा विकसित की थी कि उसके माध्यम से संवेदना की शक्ति को अपरिमित रूप से बढ़ाया जा सके। इसके अतिरिक्त इनके द्वारा वे नाड़ियों, मस्तिष्क तथा सभी शारीरिक क्रियाओं पर नियंत्रण रख सकते थे।

साधना-विज्ञान में मुद्राएँ और त्राटक-ध्यान ऐसे साधना उपचार हैं, जो इड़ा और पिंगला को संतुलित करके आज्ञाचक्र का जागरण करते हैं। यदि यह सत्य है और साधना-मार्ग के अन्वेषकों द्वारा बतलाई गई नाड़ियों का मस्तिष्क के भीतर अस्तित्व है, तो इसका मतलब यह हुआ कि उक्त साधनाओं द्वारा मस्तिष्क के भीतर अस्तित्व है, तो इसका मतलब यह हुआ कि उक्त साधनाओं द्वारा मस्तिष्क के दोनों गोलार्धों का संतुलन संभव है। मस्तिष्क के अलग-अलग हिस्सों पर हुए अनुसंधान इस तथ्य को सिद्ध करते हैं। किंसबोर्न अपने ‘सैड-हेमिस्फीयर, हैपी-हेमिस्फीयर’ नामक शोध-निबन्ध में इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि हमारे दृष्टिक्षेत्र की बायीं ओर दीखने वाले दृश्य और बायें कान कान से सुनाई पड़ने वाली ध्वनियाँ - दोनों जब दाहिने मस्तिष्क तक पहुँचते हैं, तो मस्तिष्क उनके प्रति उतना ग्रहण - शील नहीं होता, जिता कि विपरीत अवस्था होने पर। ऐसे ही इस बात की भी पुष्टि शोधों द्वारा हुई है कि जब व्यक्ति उदास होता है, तो उसकी दृष्टि सामान्यतः बायीं ओर रहती हैं और दायीं मस्तिष्क को प्रभावित करती है, जबकि प्रसन्नता की दशा में ठीक इसका उलटा होता है।

यह शोध - निष्कर्ष दृष्टि और मस्तिष्क के मध्य से संबंध को सुस्थापित करता तथा इस बात को प्रमाणित करता है कि मुद्रा (शाँभवी) और त्राटक मस्तिष्क के दोनों भागों की सक्रियता के बीच संतुलन स्थापित करते हैं। इसका स्पष्ट कारण है - शाम्भवी में दृष्टि को भ्रूमध्य में टिकाया जाता है। तथा त्राटक में सामने की ओर। उक्त क्रियाओं के अभ्यास से दौरान मस्तक-मध्य एक दबाव का अनुभव किया जा सकता है। यह दबाव और कुछ नहीं, आज्ञाचक्र की क्रियाशीलता और जागरण का प्रमाण है। ऐसा पाया गया है कि इससे इड़ा - पिंगला दोनों नाड़ियाँ प्रभावित होती हैं।

इस संसार में पदार्थों के दो स्तर- दो पक्ष हैं - एक स्थूल, दूसरा सूक्ष्म। वस्तुओं के दृश्य पहलू सामान्य स्तर की साधारण गतिविधियाँ की सम्पन्न कर पाते हैं, जबकि उनका अदृश्य पक्ष इतना शक्तिशाली और सामर्थ्यवान होता है कि उससे कल्पनातीत संभावनाएँ साकार ही जा सकती है। मानवी मस्तिष्क के संबंध में यही बात है। साधना विज्ञान इस तथ्य का प्रतिपादन लम्बे समय से करता आ रहा है। मस्तिष्कीय शोधों से प्राप्त निष्कर्षों के आधार पर अब शरीरशास्त्र भी इस सच्चाई को स्वीकारने लगा है कि मस्तिष्क बुद्धि, प्रतिभा, ज्ञान कौशल जैसी भौतिक विभूतियों का केन्द्र भर नहीं, इसमें अनेकों गुना क्षमतावान, ऐश्वर्य का उद्गम स्थल भी है।

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