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Magazine - Year 1998 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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हरि अनन्त हरिकथा अनन्ता

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अध्यात्मशास्त्र कहते हैं कि जीव जिस ब्रह्म से परमात्मचेतना से प्रादुर्भूत हुआ है, वह उसी के पास लौट जाने के लिए प्रयत्न कर रहा है और देर - सबेर में अपने उद्गम तक जा पहुँचने का लक्ष्य प्राप्त कर लेगा। अध्यात्म का यही सिद्धान्त विश्व-ब्रह्माण्ड में संव्याप्त सम्पूर्ण ग्रह-गोलकों पर पूर्णतया लागू होता है। विज्ञान कहता है कि सभी ग्रह-नक्षत्र एक महाअणु के विस्फोट के बिखराव मात्र है। जड़ कहे जाने वाले पदार्थ की मूल सत्ता परमाणुओं के रूप में अपनी धुरी पर - कक्षा में तथा अग्रगामी क्रम से निरन्तर आगे ही बढ़ने का प्रयत्न कर रही है। ग्रह-नक्षत्र अपने केन्द्रीय तारकों, की तारक-महातारकों की परिक्रमा कर रहे हैं। इतना ही नहीं वे सब इस निखिल आकाश में फैलते भी जा रहे हैं। भौतिक शास्त्री कहते है कि यह फैलाव गोलाई का परिभ्रमण कर अपने स्थान में लौट आने के सिद्धान्त का अनुगमन करेगा और जहाँ से चला था, वहाँ जाकर सुस्तायेगा, चाहे इसमें कितना ही समय क्यों न लगे।

यही तथ्य जीवात्मा के साथ भी जुड़ा हुआ है। जीवात्मा चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता रहता है। इस परिभ्रमण - परिचय को पूरा करने के उपरान्त वह फिर मनुष्य योनि को प्राप्त करता है। मनुष्य को यह विशेष अवसर मिला हुआ है कि वह चाहे तो साधना-पुरुषार्थ के बल पर इस परिक्रमापथ के कुचक्र को तोड़कर अपने उद्गम केन्द्र परमात्मा में लीन-लय हो सकता है।

एक ही परमात्मसत्ता के एक से अनेक बनने, एक ही ब्रह्माण्ड से अनेक पिण्ड-अण्डों की, ग्रह-नक्षत्रों से लेकर अणु-परमाणुओं की उत्पत्ति को न केवल अध्यात्म मानता है, वरन् विज्ञान भी उसी बात को स्वीकार करता है।

अनुसंधानकर्ता, अन्तरिक्ष विद्या-विशारदों ने निहारिकाओं, तारामंडलों और ग्रह-उपग्रहों के बारे में कई प्रकार के निष्कर्ष और प्रतिपादन प्रस्तुत किये हैं। दार्शनिक काण्ट, वैज्ञानिक न्यूटन, चैम्बरलिन, मोल्टन, जेम्सजीन्स जैफरे, हाॅएल आदि के सिद्धान्तों का थोड़ा हेर-फेर के साथ निष्कर्ष यह है कि सृष्टि के आदि में एक तारे से दो तारे हुए। उन दो तारकों की आपसी खींचतान एवं लड़-झगड़ के कारण उनके खण्ड-उपखण्ड होते चले गये। वे घूमे, सिकुड़े, सघन हुए, हलचलों में उतरे और ग्रह-उपग्रहों का विशाल ग्रह - परिवार बनकर खड़ा हो गया।

सौरमण्डल के ग्रहों का आकार, सूर्य से उनका अन्तर एवं उनके सूर्य का परिभ्रमण में लगने वाले समय का विवरण प्रस्तुत करते हुए कहा गया है कि अपने सूर्य जैसे लगभग पाँच सौ करोड़ ताराओं, सौरमण्डल तथा अकल्पनीय विस्तार वाले धूल तथा गैस वर्तुलों के मेघ मिलकर एक ‘आकाश गंगा’ बनती है। ऐसी दस करोड़ से अधिक आकाशगंगाओं तथा उनके मध्य के अकल्पनीय आकाश को एक 'ब्रह्माण्ड' कहा जाता है। यह ब्रह्माण्ड कितने हैं? इस प्रश्न के उत्तर में यही प्रश्न पूछा जा सकता है कि किसी रेगिस्तान में रेत के कण कितने है? मनुष्य की बुद्धि एवं कल्पना इस स्थान पर थक जाती है। इसलिए विज्ञान ने उसे अनन्त कहा है। अध्यात्मवाद ने इस समस्त रचना को ही नहीं, उसके स्वामी, नियन्ता, रक्षक को भी ‘अनन्त’ नाम से संबोधित किया है।

अनन्त अन्तरिक्ष में स्थित ग्रह-गोलकों की विशालता और उनकी परिभ्रमण कक्षा के विस्तार की कल्पना करने से पूर्व हमें अपने सौरमण्डल के प्रमुख अधिपति सूर्य पर दृष्टि डालनी चाहिए और देखना चाहिए कि असंख्य सौरमण्डलों में से छोटा-सा तारा अपना सूर्य-आदित्य कितना विशाल है और अपने साथ किन-किन बाल-परिवारों को लिए दिन-रात फिरता है।

मोटी दृष्टि से देखने में सूर्य, हैं, पर उनका यथार्थ स्वरूप एवं विस्तार विदित होने पर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। पृथ्वी पर खड़े होकर देखने पर दिन में सूर्य और रात में चन्द्रमा दोनों ही लगभग एक से गोलाई के लगते हैं, पर इनमें अन्तर बहुत है। चन्द्रमा का व्यासमान २१६. मील है, जबकि सूर्य का घेरा ८,६४... मील का है। इस सूर्य के इर्द-गिर्द भी पीले गुलाबी रंग का एक वलय-सा दिखाई पड़ता है। १.-१५ हजार किलोमीटर की इस पट्टी को सूर्य का ‘क्रोमोस्फियर अर्थात् वर्णमण्डल कहते हैं। लगभग दस हजार डिग्री तापमान के इस क्षेत्र में कभी-कभी भयंकर और - ज्वालाएँ उछलती रहती हैं। इनकी ऊँचाई दस हजार किलोमीटर तक उभारती देखी गयी है।

अपनी धरती से १४.१८ करोड़ किलोमीटर की दूरी पर स्थित १३,८४... कि. मी. व्यास वाले सूर्य की पूर्ण दृश्यमान सीमा ८७.५ लाख कि. मी. है। मंदाकिनी के केन्द्र से इसकी दूरी लगभग ३२... प्रकाशवर्ष है। प्रकाशवर्ष वह दूरी है जिसे प्रकाश शून्य में २९९,७९,२.५ कि. मी. प्रति सेकेण्ड अथवा १,८६,२६२ मील प्रति सेकेण्ड की गति के आधार पर सूर्य और पृथ्वी के बीच की औसत दूरी को तय करती है। यह वह दूरी है जो आजकल विज्ञानजगत में सौरमण्डल की दूरियों को सुनिश्चित करने के लिए स्थिर मुख्य इकाई के रूप में प्रयुक्त होती है। सूर्य और उसके पारिवारिक सदस्य-तारे सामान्यतया एक गोलाकार कक्ष में २५. - कि. मी. प्रति सेकेण्ड की औसत से मंदाकिनी के केन्द्र के चारों ओर परिभ्रमण करते हैं इन गति से केन्द्र के चारों ओर एक चक्कर पूरा करने में सूर्य को २५ करोड़ वर्ष लगते हैं। यह कालावधि ‘ब्रह्माण्ड वर्ष’ कहलाती है।

इस तरह सूर्य विराट की परिक्रमा ढाई सौ कि. मी. प्रति सेकेण्ड की दर से पच्चीस करोड़ वर्ष में पूरी करता है। वह स्वयं भी अपनी परिक्रमा कर अपने स्वत्व की रक्षा करता है, साथ ही विराट परमात्मा के प्रति अपनी निष्ठा की अभिव्यक्ति के लिए वह अपने समस्त सौरपरिवार के साथ दण्डवती परिक्रमा के लिए निकला हुआ है। वह अपनी धुरी का चक्कर २५ दिन ७ घण्टे और ४८ मिनट में लगाता चल रहा है। सौरमण्डल महासूर्य की परिक्रमा करते हुए ४,३२,... वर्ष पश्चात उसी स्थान पर लौटकर आता है। यदि उस पुराने समय की ग्रह गणना किसी के पास सही हो तो द्वितीय आवृत्ति में भी वह ज्यों की त्यों मिलेगी। इसमें तनिक-सा भी अन्तर नहीं होगा। वर्ष गणना का अभी पूर्णतया सही हिसाब नहीं बन सकता है। वर्ष और दिन की पूर्ण संगति न बैठने से कोई पंचाँग सर्वांगपूर्ण नहीं बन सकता। जो अन्तर पड़ता है, उसे सुधारने के लिए बार-बार घट-बढ़ करनी पड़ती है। फिर भी वह कमी पूरी नहीं होती और जितना समय बीतता जाता है, उतना ही पूर्व निर्मित ग्रह-गणित पिछड़ जाता है और नये सिरे से उसकी गणना ग्रहों की स्थिति देखकर सही करनी पड़ती है। सही खाँचा ४,३२,... वर्ष बाद ही बैठता है। इसलिए इस अवधि को एक युग माना गया है। वर्तमान युग की गणना भी इतने ही वर्ष के आधार पर कही गई है।

मनुष्य की सत्ता और महत्ता सूर्य के समान ही असीम है और जब तक पूर्णता को नहीं प्राप्त कर लेता है, तब तक वह चौरासी लाख योनियों में भटकता रहता है। फिर इस भटकाव में उसे युग-युगान्तर ही क्यों न लग लाएँ। जीवात्मा का वास्तविक विस्तार विश्व-ब्रह्माण्ड के ही समकक्ष है। व्यक्ति का काय-कलेवर सीमित हो सकता है, पर उसका प्रभाव-परिणाम असीम क्षेत्र को आच्छादित करता है। संपर्क में आने वाले प्राणी तथा पदार्थ तो प्रखर व्यक्तित्व की ऊर्जा से प्रभावित होते ही हैं, उनकी संकल्प-शक्ति एवं विचारधारा आकाश में प्रवाहित होकर असीम क्षेत्र पर अपना प्रभाव डालती है। इस तरह सूर्य की क्रिया-कलाप भी आत्म-सत्ता के समान ही है।

सूर्य के प्रकाश का हम बहुत छोटा अंश ही देख और समझ पाते हैं। अपनी पृथ्वी की ओर उसकी न्यूनतम किरणें ही आती हैं। वे बहुत अधिक मात्रा में तो अन्य दिशाओं में ही प्रवाहित होती रहती हैं। साम्बपुराण ६-५७-५८ में कहा गया है-

यथा प्रभाकरो दिपो गृहमध्ये व्यवस्थितः। पार्श्वेनोर्ध्वमधश्चैव तमो नाषयते समम्॥

तद्वत्सहस्त्रकिरणो ग्रहराजो जगत्पतिः। त्रीणि रश्मिशतान्यस्य भूर्लोकं द्योतयन्तिः॥

अर्थात् जिस प्रकार गृह के मध्य में जलता हुआ दीपक चारों ओर सम्पूर्ण घर को प्रकाशित करता रहता है, उसी प्रकार अखिल जगत के अधिपति सूर्य अपनी हजारों किरणों से ब्रह्माण्ड के ऊपर - नीचे के भागों को प्रकाशित करते हैं। सूर्य की ये सहस्र रश्मियाँ स्थायी प्रभाव वाली होती है। इन्हें तीनों भागों में बाँटा गया है ‘- (१) अमृता या वृद्धि सर्जना की चार सौ - इनके भी चार खण्ड चन्दना, साध्या, कतूना, अकूतना है। यह किरणें वर्षाकाल की हैं। (२) हिम सर्जना या चन्द्रा की तीन सौ किरणें जिनके भी दृश्या, मेध्या, बाह्या और ह्दिन्यः- यह चार भाग हैं। (३) तीसरी प्रकार की तीन सौर रश्मियाँ धर्म सर्जना या शुक्ला की हैं। इनके भी शुक्ला, कुहका, गावः, विश्वभृतः चार भाग हैं। इनमें पहली ४.. किरणें वर्षाकाल की, दूसरी ३.. किरणें शीतकाल की है। तीसरे प्रकार की ३.. किरणें ग्रीष्मोत्पादक हैं। इस तरह सूर्य की सब किरणें बारह महीनों से बँटी हुई एक वर्ष में ऋतुओं और जलवायु को बदलती हुई पृथ्वी और उसके निवासियों को प्रभावित करती रहती हैं।

सूर्य की उक्त हजार रश्मियों में सात मुख्य हैं। ये हैं (१) सुषुम्ना (२) सुरादना (३) उदन्वसु - संयद्वसु (४) विश्वकर्मा (५) उदावसु (६) विश्वरुचा - अखराट (७) हरिकेश। यह सातों रश्मियाँ ही समस्त ग्रह - नक्षत्र मण्डल की प्रतिष्ठापिका मानी गयी हैं। इनमें एक से छह तक क्रमशः चन्द्रमा, मंगल बुध, बृहस्पति, शुक्र और शनि का निर्माण व उनसे जुड़े हुए प्राणि अभ्युदय का कार्य सँभालती हैं। सातवीं ‘हरिकेश’ नाम सूर्य-रश्मि से आकाश के सम्पूर्ण नक्षत्र मण्डल का उद्भव माना गया है। शंकरभाष्य के अनुसार यह सूर्य-रश्मियाँ ही सम्पूर्ण प्राणियों की प्राणशक्ति का स्रोत हैं। वह दिव्य अमृत-रस से प्राणियों को जीवन प्रदान करती हैं। गायत्री त्रिष्टुप, जगती, अनुष्टुप, बृहती, पंक्ति, उष्णिक ये सप्त व्याहृतियाँ सूर्य की सात किरणों से उत्पन्न हुई हैं। इन्हीं के द्वारा ज्ञानचेतना उपलब्ध होती हैं।

जिस प्रकार धरती पर सूर्य के समस्त प्रकाश का एक बटा दस लाखवाँ भाग ही आता है। शेष जो भाग दूसरी दिशाओं में बिखरता रहता है, उसकी सीमा का हमें ज्ञान तक नहीं। उसी प्रकार परमात्मा का एक स्वल्प सामर्थ्य-अंश ही मनुष्य को - अपने भूलोक को मिला है। उसकी समग्र सत्ता जो अगणित ब्रह्माण्डों में बिखरी पड़ी है, वह इतनी असीम है कि उसे ठीक प्रकार सोच सकना भी अपने लघुकाय मस्तिष्क के लिए संभव नहीं। फिर भी अपनी सत्ता को जाना-समझा ही जा सकता है। अपने आत्मस्वरूप का यदि बोध हो सके तो प्रतीत होगा कि परमचेतना की एक छोटी किरण होते हुए भी मानवी सत्ता कितनी प्रचण्ड शक्तिसम्पन्न है। इस प्रचण्डता का स्वरूप और उपयोग यदि समझा जा सके तो पुरुष से पुरुषोत्तम, नर से नारायण बनने की संभावना मूर्तिमान् होकर सामने आ सकती है।

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