
अपनों से अपनी बात-2 - जगज्जननी की पीड़ा को समझें, शक्तिदिवस पर कुछ संकल्प लें
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“अब हमारी भूमिका परोक्ष जगत में अधिक सक्रियता वाली होगी। गुरुसत्ता का आमंत्रण तीव्र पर तीव्र होता चला जाता है तथा एक ही स्वर हर श्वास के साथ मुखरित होता जा रहा है - युगपरिवर्तन के लिए और अधिक-और अधिक समर्पण - “प्रस्तुत पंक्तियाँ अगस्त 1994 की अखण्ड ज्योति के उस विशेष लेख से उद्धृत हैं, जो परमवंदनीया माताजी भावाभिव्यक्ति के रूप में उनके महाप्रयास (१९ सितम्बर १९९४ - महालय भाद्रपद पूर्णिमा) से पूर्व प्रकाशित हुआ था। परमवंदनीया माताजी, जिनके महाप्रयाण को आज चार वर्ष पूरे हुए हैं, सहज ही हमें ममत्व के उस महासागर की याद दिला देती हैं, जिसने इस मिशन को परमपूज्य गुरुदेव के महाप्रयाण के बाद हिमालय की ऊँचाइयों तक पहुँचा दिया। हम कभी भी भूल नहीं सकते उस माँ को, जिसने हमें अभिभावकों से भी बढ़कर उस स्तर का स्नेह दिया, जो जीवन - नौका को सहारा देता चला गया है।
युगनिर्माण योजना, गायत्री परिवार, प्रज्ञा अभियान का गौरवपूर्ण इतिहास इसके दो संस्थापकों - संरक्षकों परमपूज्य गुरुदेव, परमवंदनीया माताजी की जीवनधुरी के चारों ओर घूमता है। परमपूज्य गुरुदेव के दृश्यजीवन की बहुआयामी भूमिका को बहुतों ने देखा या पढ़ा है जीवन में अनुभूति की है। परमपूज्य गुरुदेव द्वारा रचित वांग्मय-विराट साहित्य उनके जीवनदर्शन का एक प्रत्यक्ष प्रमाण है। किन्तु आज जब हम परमवंदनीया माताजी के महाप्रयाण दिवस पर चिंतन करते हैं, तो लगता है कि ‘शिव’ रूप में जन्मी महाकाल की सत्ता यदि हमारे गुरु रूप में हम सबके। बीच आयी तो शक्ति रूप में वहीं परमवंदनीया माताजी के रूप में हम सबको मिली। उनकी बहुआयामी जीवनगाथा समयानुसार एक विशाल ग्रन्थ के रूप में अवश्य प्रकाशित होगी, किन्तु आज जब हम उनकी स्मृति मन−मस्तिष्क में लात है, तो उनका संगठन को सींचने वाला अति अल्प आयु में ‘अखण्ड ज्योति’ जैसी पत्रिका के संपादन के भार को सँभालने वाला नारी जागरण आंदोलन को गति देकर चरम ऊँचाइयों तक पहुँचा देना वाला एवं आश्वमेधिक दिग्विजय अभियान के माध्यम से सारे विश्व में गायत्री व यज्ञ का संदेश फैला देने वाला जगदंबा वाला एक विराट स्वरूप उभरकर आने लगता है। परमपूज्य गुरुदेव को चौबीस महापुरश्चरणों की साधना की मध्यावधि में उनसे आकर जुड़ी माताजी ने कितने ही कष्ट सहकर न केवल अपने आराध्य के तप को चरमलक्ष्य तक पहुँचाने में मदद की स्वयं के जीवन को भी वैसा ही ढालकर एक साधिका स्वयं को बनाया, यह गुरु के प्रति समर्पण की एक ऐसी मिसाल है। जो हम सबके लिए सदैव प्रकाशस्तंभ बनी रहेगी।
अपने इसी लेख (अगस्त १४) में परमवंदनीया माताजी ने लिखा है - “कैसे भुलाऊँ मैं अपने साथ बिताए गए उन क्षणों को जिनमें उन्होंने न केवल मुझे असीम स्नेह दिया, वरन् करोड़ों पुत्रों की माता के सर्वोच्च शिखर पर पदासीन कर दिया।” जब तक अपना एक भी बालक दुखी है उसे दिलासा देने उसकी माँ उसके आस-पास ही कहीं विद्यमान है। उसके इतने बड़े है कि सारी जगती के दुःखीजनों को वह अपनी संरक्षण छाया में रख सकती है।”
उपर्युक्त संदर्भ मात्र कुछ अनुभूतियों की स्मृति दिलाने के लिए दिये गये, ताकि परिजनों को उस समर्पित साधिका के उस स्वरूप का भान हो सके, जो जगज्जननी के रूप में हर परिजन का कष्ट अपने ऊपर लेने को सतत् आतुर रहीं - अनेकानेक शारीरिक - मानसिक कष्ट सहकर भी जो जीवनभर अनुदान लुटाती रहीं। आज जब हम युग संधिकाल की भयावह प्रसवपीड़ा के अंतिम क्षणों से गुजर रहे है तो हमें सहज ही परमवंदनीया माताजी का यह आश्वासन और भी संबल देता है। कि वे सूक्ष्मरूप में गुरुसत्ता के साथ मिलकर हमारी हर वेदना को जानती भी है एवं समर्पण की शर्त पर उसे हरने को कृतसंकल्प भी हैं।
हम भावुक तो हैं, पर भावनाशील नहीं। हम परिजन तो हैं, पर समर्पण में कही कमी है। हम उनसे जुड़े हुए तो हैं, पर उनके बताए राजमार्ग पर चलने के बजाय कभी-कभी डगमगा जाते हैं। परमवंदनीया माताजी का प्यार तो पाया है, पर संभवतः हम उसे नित्य स्मरण नहीं कर पाते। यदि यह महाप्रयाण दिवस हमारी संकल्पशक्ति को प्रचण्ड गति दे - हमें एक विनम्र साधक बना दें, तो हमें समझना चाहिए कि हममें व गुरुसत्ता के बीच आदान-प्रदान के क्रम में कहीं कुछ प्रवाह अवरुद्ध हुआ था, वह अब ठीक होकर जीवनक्रम सही दिशा में चल पड़ा है। यह संदेश सभी के लिए है हर कार्यकर्ता के लिए, पाठक के लिए परिजन के लिए, उनसे अनुदान पा चुके छोटे-बड़े हर व्यक्ति के लिए। परमवंदनीया माताजी के वात्सल्य भाव का पयपान कर उनकी शक्ति को ग्रहण करने वाले हम सभी को आज का शक्तिदिवस संकल्प - साधना दिवस यही एक प्रेरणा दे रहा है कि हम गुरुसत्ता के आदर्शों के प्रति अपने समर्पण को और भी अधिक प्रगाढ़ बनाएँ। इस वर्ष यह महाप्रयाण दिवस है तो छह सितम्बर भाद्रपद पूर्णिमा के दिन, परन्तु मेरे भारतवर्ष व विश्व में इसे भाद्रपद पूर्णिमा से नवरात्रि समापन के बाद विजयादशमी तक शक्तिपर्व के रूप में मानना चाहिए। इस चौबीस दिन की अवधि में जो भी श्रेष्ठ संकल्प मन में पैदा हों, उन्हें साकार करने, खाद-पानी देकर मजबूत बनाने का विचार किया जाना चाहिए। तभी तो मात्र कर्मकाण्ड स्तर पर हमीं अपनी गुरुसत्ता की गरिमा के अनुरूप हम यह शक्ति दिवस चिरस्मरणीय बना सकेंगे।
*समाप्त*