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Magazine - Year 1998 - Version 2

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बदलें सौंदर्यबोध के मानदण्डों को

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सौंदर्य की कसौटी क्या हो? शारीरिक दृष्टि से सौंदर्यसम्पन्न होना ही क्या उसका वास्तविक पैमाना है? यदि हाँ, तो उस रूप का क्या प्रयोजन, जो आकर्षक होकर भी अनाकर्षक कार्य करें? सुन्दर होकर असुन्दर और अवांछनीय उद्देश्यों में निरत रहने वालों को भला रूपवान् कैसे कहा जा सकता है? यथार्थ सौंदर्य आन्तरिक होना चाहिए।

विवेकानन्द कहा करते थे कि व्यक्ति का चिन्तन उसके अन्तःकरण का दर्पण है। उसके द्वारा अभ्यन्तर की झलक-झाँकी प्रस्तुत की जा सकती है- यह शत-प्रतिशत सच है। सौंदर्यबोध वास्तव में और कुछ नहीं, अन्तस् की अभिव्यक्ति है। इससे सामने वाले के उस दृष्टिकोण का पता चलता है, जिससे वह वस्तुओं, व्यक्तियों, स्थानों तथा प्रकृति में सुन्दरता की तलाश करता है। आँखें तो उसे देखने का उपकरण मात्र हैं। यदि हृदय पवित्र और उदात्त हुआ, तो वह असुन्दर वस्तुओं में भी सौंदर्य ढूँढ़ निकालेगा; बुरे लोगों और अपावन वृत्तियों से भी कुछ-न-कुछ अपने उपयुक्त ग्रहण कर लेगा; किन्तु वही यदि हेय स्तर का हुआ, तो सुन्दरता में भी उसे कहीं-न-कहीं कोई-न-कोई खोट अवश्य नजर आएगा। इसको वास्तव में सापेक्ष दृष्टि कहनी चाहिए। वस्तु, व्यक्ति, स्थान चाहे कितने ही पावन क्यों न हों, दृष्टिभेद-के हिसाब से वह पवित्र एवं आकर्षक भी हो सकते हैं तथा अनाकर्षक भी। इसलिए हमें अपने अन्तर का ऐसा विकास करना चाहिए, जिससे हममें गुणग्राहकता की वृत्ति आ सके, अच्छे को अच्छा कह और देख सकें एवं अपनाने का प्रयत्न करें तथा बुरे से परहेज कर सकें। यही है सौंदर्य का यथार्थ पैमाना। इसी आधार पर सुन्दर-असुन्दर व्यक्तियों की परख की जानी चाहिए।

पर विडम्बना यह है कि आज हम मनुष्य की वास्तविक सुन्दरता उसके शील-स्वभाव को न मानकर शारीरिक रूप-विन्यास को मानने लगे हैं। जो बाहर से जितना आकर्षक, उसे उतना ही रूपवान और खराब शक्ल-सूरत वालों को 'कुरूप' कहा जाता है, जबकि यह निर्धारण गुण, कर्म, स्वभाव के आधार पर होना चाहिए, ईमानदारों, कर्तव्यपरायणों को सर्वाधिक सौंदर्य सम्पन्न माना जाना चाहिए, लेकिन आजकल तो इनको प्रतिगामी मानने की परम्परा-सी चल पड़ी है। भौतिक दुनिया में उनका उपहास उड़ाया जाता और कहा जाता है कि प्रगति ऐसे सम्भव नहीं। उन्हें इस बात का आमन्त्रण दिया जाता है कि यदि धनवान बनना हो और सुविधा-साधन जुटाने हों, तो ईमानदारी त्याग कर बेईमान बनना पड़ेगा और कर्तव्यनिष्ठा भी छोड़नी पड़ेगी। यह है आज की तथाकथित उन्नति का मानदण्ड और समाज के चरित्र का आदर्श। जो विनीत और सरल है, जिनकी वाणी मृदुल है उन्हें डरपोक बताया जाता और उद्दण्डों को साहसी कह कर पुकारा जाता है। यह कैसी उलटबाँसी? जो विनयशील और मृदुभाषी हो, वह कायर ही होगा-यह आवश्यक नहीं। कहते हैं, जो जलाशय जितना शान्त और स्थिर होता है, वह उतना ही गहरा होगा। व्यक्ति के संदर्भ में भी यही बात लागू होती है। मृदुभाषी सहिष्णु और धैर्यवान होते हैं। वे बात-बात पर आपा नहीं खोते। इसका अर्थ कदापि नहीं कि वे भयभीत होकर ऐसा कर रहे हैं। सहनशीलता, ईमानदार, मधुवाणी, शिष्ट आचार-यह सब ऐसे सद्गुण हैं, जो व्यक्तित्व में चार चाँद लगाते और उसे आकर्षक बनाते हैं। ऐसे व्यक्ति ही सही अर्थों में सौंदर्य सम्पन्न कहे जाने के वास्तविक अधिकारी हैं। यदि रूप की दृष्टि से वे साधारण या कुरूप भी हों तो भी अपनी इन विभूतियों के कारण वे लोकप्रिय बनते और सम्मान पाते देखे जाते है। दूसरी ओर उन लोगों का समुदाय है, जो बाहरी चमक -दमक बढ़ाने में ऐसे संलग्न रहते हैं, मानों इसके बिना उनका काम चलने वाला ही नहीं। इसमें जितना समय, श्रम और धन खर्चा जाता है, उसे यदि सामूहिक रूप से कहीं अन्यत्र लगाया गया होता, तो उतने से ही एक अच्छा रचनात्मक आन्दोलन चलाया जा सकता था, पर उस मानसिकता को क्या कहा जाय, जो भ्रम को ही सत्य समझ बैठी हों? यह सच है कि कृत्रिम उपचारों से थोड़े समय के लिए अपनी काया को लुभावना बनाया जा सकता है, पर उसे चिरकाल तक स्थिर तो नहीं रखा जा सकता? आयु ढलने के साथ-साथ खूबसूरती मारी जाती है। इसके अतिरिक्त सुन्दरता बढ़ाने वाले उपचारों में खतरे भी कम नहीं है।

पिछले दिनों तक स्त्रियाँ अपने मोटापे को घटाने के लिए शरीर से चर्बी को कृत्रिम उपायों द्वारा खिंचवा लिया करती थीं। ‘लिपोसक्शन’ नामक यह प्रक्रिया इतनी कष्टकारक और खतरनाक होती थी कि कितनी ही महिलाओं की जान तक चली जाती। अब उसी जगह दूसरा उपाय अपनाया जाने लगा है। इन दिनों लड़कियों से लेकर महिलाओं तक ऐसी गोलियों का सहारा ले रही हैं, जिनके बारे में मान्यताएँ हैं कि वे चर्बी घटाती हैं। यद्यपि उनके गम्भीर पासर्व प्रभाव भी उपेक्षणीय नहीं है और चिकित्सक इस बात की बराबर चेतावनी देते हैं कि उन्हें लेना खतरनाक हो सकता है, इसके बावजूद उक्त दवाओं का वे निःसंकोच सेवन करती हैं। नतीजा यह होता है कि थोड़ी ही समय में उनके दुष्परिणाम सामने आने लगते हैं। अध्ययनों से ज्ञात हुआ है कि इनके नियमित सेवन से लड़कियों में जो लक्षण प्रकट होते हैं, अनिद्रा, स्मृति-लोक भूख का न लगना सुस्ती, अकर्मण्यता, एकाग्रता का अभाव आदि प्रमुख हैं; किन्तु इनके अतिरिक्त किन्हीं-किन्हीं में उन्मादग्रस्तता, दायित्वों के प्रति लापरवाही जैसे चिन्ह भी प्रत्यक्ष होते देखे गए हैं। चिकित्सकों का मत है कि यदि इनका प्रयोग कोई गर्भवती महिला प्रारम्भ करे तो विकलाँग सन्तान सुनिश्चित है। वे यह भी बताते हैं कि सेवनकर्ता इससे अवसाद जैसी स्थिति में पहुँच सकती हैं।

इतने खतरे उठाकर शरीर के वजन को कुछ कम कर भी लिया गया, तो इसे समझदारी नहीं कहा जा सकता। इस कीमत पर नयनाभिराम दीखने का प्रयास किस काम का, जो शरीर और मन को बीमार कर दे? इसे बुद्धि-विपर्यय के अतिरिक्त और क्या कहा जाए, कोई साधारण सोच वाला भी इस बात को नहीं स्वीकार कर सकता कि अस्वस्थ होकर भी सुन्दर दिखा जा सकता है। जब चेहरे पर मुर्दनी छायी हो, देह में सक्रियता और तत्परता का अभाव हो, तो उस मनहूसियत को सौंदर्य की संज्ञा भला कौन देगा? अर्थात् दोनों में से कोई भी तरीका निरापद नहीं। एक ओर कुआँ है, तो दूसरी ओर खाई; एक प्रयोक्ता को सचमुच में मुर्दा बना देता है, तो दूसरा उसे ‘जिन्दे मुर्दे’ की-सी दशा में पहुँचा देता है। इसलिए यह धारणा अब हमें बदलनी पड़ेगी कि चेहरे को आकर्षक और शरीर को सुगठित बना लेने भर से व्यक्ति सुन्दर बन जाता है। सुन्दरता की यह परिभाषा एकाँगी और अपूर्ण है।

विगत वर्ष शरीर-सौष्ठव के प्रति लोक धारणा जानने के लिए एक अन्तर्राष्ट्रीय सर्वेक्षण किया गया। इससे जो निष्कर्ष सामने आया, वह चौंकाने वाला था। महिलाओं में ९. प्रतिशत और पुरुषों में ७५ प्रतिशत लोग ऐसे पाये गए, जो अपनी देहयष्टि और रूप-लावण्य से असंतुष्ट थे। ऐसा ही एक अध्ययन साइकोलॉजी टुडे’ पत्रिका के पाठकों के मध्य जून, १९९७ में किया गया। उसके चार हजार पाठकों से इस संबंध में विचार आमंत्रित किये गए कि वे अपनी शरीर-संगठन के बारे में किस प्रकार का मत रखते हैं। इनमें ५६ प्रतिशत नारियों और ४३ प्रतिशत नरों को अपने रूप-रंग और कद-काठी से गहरा असंतोष था। नारियों में इसके अनेक पहलू थे, यथा बढ़े हुए नितम्ब बढ़ा हुआ पेट, मोटापा, पीन पयोधर का अभाव, त्वचा का श्यामल वर्ण, अनाकर्षक मुखमण्डल आदि, जबकि मर्दों में सिर के बाल और बढ़ी हुई तोंद चिन्ता के मुख्य कारण देखे गए।

अमेरिकी मनःशास्त्री मारिया हचिन्सन अपनी कृति ‘ट्रांस्फोर्मिंग बॉडी इमेज’ में मनुष्य की सौंदर्य संबंधी समस्याओं का विश्लेषण करते हुए लिखती हैं कि उनमें से अधिकांश समस्याएँ अत्युक्तिपूर्ण चिन्तन का फल होती हैं। जब इस प्रकार के विचार मानवी मस्तिष्क में घर कर जाते हैं, तो फिर वह मान्यता बनकर काँटे की तरह चुभने और संताप पहुँचाने लगते हैं, जिसकी फलश्रुति मनोवैज्ञानिक परेशानियों के रूप में सामने आती है। मनःशास्त्र की भाषा में उसे ‘बॉडी डिस्मोरफिक डिसआर्डर’ अर्थात् बी. डी. डी. कहते हैं।

अमेरिका के बटलर अस्पताल के देहयष्टि कार्यक्रम की निर्देशिका एवं मूर्धन्य मनोवेत्ता राइट्स कैथरीन ए. फिलिप्स अपनी पुस्तक द् ब्रोकेन मिरर अंडरस्टेंडिंग एण्ड ट्रीटिंग बॉडी डिस्मोरफिक डिसआर्डर’ में लिखती हैं कि उपचार चाहे किसी भी प्रकार का क्यों न किया जाए, देह-लालित्य को बढ़ा पाना संभव नहीं। उलटे इस प्रकार का हर प्रयास और जटिलताएँ पैदा करता है। अस्तु, नारी समुदाय को इस भ्रान्त धारणा से बाहर आना चाहिए और उस शरीर-गठन पर संतोष करना चाहिए, जो प्रकृति-प्रदत्त है।

विशेषज्ञों का कथन है कि जो अपने कायिक भौंड़ेपन को क्षुधा नियमन द्वारा नियंत्रित करना चाहता हैं, वे वास्तव में अपने स्वास्थ्य से खिलवाड़ करती हैं, कारण कि बार-बार वजन के घटने-बढ़ने से अस्थि-संरचना पर उसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है और वे छिद्रयुक्त हो जाती हैं। वैज्ञानिक शब्दावली में इसे ‘आस्ट्रिरयोपोरोसिस’ कहते हैं।

सौंदर्य-शास्त्र के आचार्यों का अभिमत है कि जिस सौंदर्य की तलाश मनुष्य को अपने विकास के आरंभिक दिनों से है, वह वास्तव में कहीं अन्यत्र नहीं, उसके अपने ही अन्दर है। बाहर जो कुछ भी दिखलाई पड़ता है, वह उसी का विस्तार है। शाश्वत और सनातन भी वहीं है। बाह्य सुषमा तो क्षणभंगुर है। इसे दूसरे शब्दों में कहा जाए, तो ऐसा भी कह सकते हैं कि “एकै साधे सब सधे” अर्थात् अपने अन्तराल को यदि समुन्नत-सुसंस्कृत और सौंदर्यशील बना लिया जाए तो बाहरी विद्रूपताएँ उसके आगे टिक नहीं सकेंगी। सम्पूर्ण संसार तब सरस-सुन्दर नजर आएगा और जिस तरह प्रकाश के समक्ष अन्धकार की सत्ता समाप्त हो जाती है, उसी प्रकार दृष्टिकोण के परिवर्तन के साथ सारा जगत हमें परिवर्तित और सुरम्य प्रतीत होगा। इसके लिए केवल प्रयास का स्थान बदलना पड़ेगा। उसे बाहर से भीतर लाना होगा, ताकि जो कुछ अब तक बाहर चलता रहा, वह सब अन्दर सम्पन्न हो सके। जितना समय, साधन और पुरुषार्थ शरीर को शोभावान और कान्तिवान बनाने के लिए नियोजित होता है, उसका एक तिहाई हिस्सा भी यदि अंतरंग को गलाने गढ़ने, सजाने-सँवारने में लग सके, तो मनुष्य न सिर्फ एक अद्वितीय प्राणी बन जाएगा, वरन् अप्रतिम सौंदर्य का स्वामी भी कहलायेगा।

सौंदर्य क्या है? आदमी की अपनी ही अभिव्यक्ति। किसी विद्वान ने ठीक ही कहा है कि अन्दर की अभिव्यंजना बदल जाने से सौंदर्यबोध भी बदल जाता है। मनुष्य की मूलसत्ता इतनी आकर्षक और आनन्ददायक है कि उससे आधिक सुन्दर और सुखद वस्तु की कल्पना की ही नहीं जा सकती फिर क्या कारण है कि हम उसकी खोज न करके उस रूप-रस में उलझे हुए हैं, जो अशाश्वत और नश्वर है? उत्तर एक ही है- संस्कारजन्य अनगढ़ता। इसे मिटाकर ही हम सच्चे अर्थों में सही सौंदर्यवान बन सकते हैं, इससे कम में नहीं।

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