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Magazine - Year 2001 - Version 2

Media: TEXT
Language: HINDI
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विक्षुब्ध भटकती आत्माओं का एक निराला संसार

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First 16 18 Last
प्रेत वह होते हैं, जिनके पास मन होता है, परंतु इंद्रियों का अभाव होता है। इस तरह इनकी दो श्रेणियाँ होती हैं, वासना शरीरधारी एवं सूक्ष्म शरीरधारी। ये क्रमशः वासना लोक एवं सूक्ष्म लोक में निवास करते हैं। वे दोनों प्रकार के प्रेत अपने−अपने लोक में रहते हुए भी भौतिक जगत् से सतत संपर्क बनाए रहते हैं। मन की तीन अवस्थाएँ होती हैं, चेतन, अचेतन ओर अतिचेतन। जीवित मनुष्य चेतन मन की अवस्था में काम करता है। मरणोपराँत चेतन मन का स्थान अचेतन ले लेता है। सूक्ष्म शरीरधारी एवं वासना शरीर धारी अचेतन मन के दो स्वरूप हैं। अचेतन चेतन से अति शक्तिशाली होता है। वासनाजन्य इच्छाओं के कारण प्रेतों का जीवन अशाँत, व्यथित और विवेकशून्य होता है। परंतु सूक्ष्मशरीर शाँत, स्थिर और सहयोग मनोवृत्ति का होता है। इन्हीं कारणों से प्रेम दूसरों को कष्ट देते एवं परेशान करते हैं, जबकि सूक्ष्म शरीरी आत्मा सहयोग एवं सहायता पहुँचाती हैं।

ये प्रेत देहातीत व्यक्तित्व होते हैं। वासना शरीर या प्रेत शरीर का निर्माण अन्न तत्त्व से होता है। सूक्ष्मशरीर प्राण तत्त्वों से विनिर्मित माना जाता है। सामान्यतया व्यक्ति मरने के बाद वासना शरीर को प्राप्त करता है एवं उसका वेग शाँत होने पर सूक्ष्मशरीर में प्रवेश करता है। कुछ काल पश्चात् सूक्ष्मशरीर स्थूलशरीर के रूप में नवीन देह धारण करता है। इसी चक्र को संसार का भवचक्र कहते हैं। पार्थिव शरीर में इच्छा, वासना, कामना का भाव आँदोलित करता रहता है, जबकि सूक्ष्मशरीर में विचारों की प्रबलता रहती है। विचार शक्ति होने के कारण इसमें अंतः चेतना प्रगाढ़ होती है। स्थूलशरीर में सक्रिय चेतना का दबाव अधिक होता है। अंतः चेतना की प्रबलता की वजह से ही सूक्ष्म शरीर जीव अपनी प्रबल वासना− कामना की पूर्ति हेतु पार्थिव काया को धारण करने के लिए बाध्य होते हैं। श्रेष्ठ एवं निष्काम कर्मयोग ही इस बंधन से मुक्ति का कारण बनता है। परंतु वासना का अनंत दबाव जीव को इन सबसे वंचित करता है और इसकी परिणति भटकती प्रेतात्माओं के रूप में होती है, जो स्वयं विक्षुब्ध होती हैं और दूसरों को परेशान करती हैं।

अपने देश में प्रेतों के किस्से−कहानियों का जखीरा अंतहीन एवं व्यापक है। अनेकों रूपों में इनकी चर्चाएँ होती रहती हैं। ऐसी ही एक घटना आज से पच्चीस साल पूर्व अँग्रेजी साप्ताहिक ‘ब्लिट्ज’ में प्रकाशित हुई थी। इस विवरण के अनुसार उत्तरप्रदेश के खुफिया पुलिस इंस्पेक्टर श्री गुरुशरण लाल श्रीवास्तव की पैंतीस तत्नी श्रीमती शाँति देवी की रहस्यमय ढंग से मृत्यु हो गई थी। इसी घटना का विस्तृत विवरण उस समय के प्रायः सभी समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था। श्रीवास्तव जी अपने लिए एक मकान बनवाना चाहते थे। अतः उन्होंने इसके लिए जमीन खरीदी और अपनी योजना को कार्यरूप में अंजाम दिया। मकान का निर्माण कार्य समाप्त होते ही भूत−प्रेतों का उत्पात प्रारंभ हो गया। वस्तुतः जिस प्लाँट पर मकान बना था, वहाँ कुछ साल पूर्व एक हरिजन व्यक्ति की हत्या हुई थी और तभी से वह प्लाँट भूत−प्रेतों का बसेरा बन गया था। श्रीवास्तव जी इसे कपोल कल्पना मानते थे।

भूत−प्रेतों का उत्पात अक्टूबर 1969 से आरंभ हुआ। अचानक ही उनके घर में ईंट−पत्थरों के साथ धूल की बारिश होने लगती। खिड़की−दरवाजे अपने आप खुलने और बंद होने लगते। यह तमाम उपद्रव तभी होता, जब श्रीवास्तव घर में अनुपस्थित होते। लाख कोशिशें के बावजूद उपद्रवियों का कहीं कोई सुराग नहीं मिल पाया। जून 1970 तक यह अपने उग्र रूप में पहुँच गया। तब फर्श पर रखी कुर्सियां हवा में उछलकर तैरने लगतीं। रसोईघर के बरतन शून्य में ही टकराने लगे। एक दिन श्रीवास्तव जी की तलवार म्यान से निकलकर काफी देर तक अधर में लटकी रही, बात में यह बिस्तर के नीचे दबी मिली। इसके पश्चात् किसी अज्ञात हाथों ने तलवार को खून से लथपथ स्थिति में बाहर आँगन में फेंक दिया। अचानक उनकी डेढ़ साल की कन्या गायब हो गई। बहुत खोजबीन करने पर एक बहुत बड़े बक्से के पीछे बेहोश पड़ी मिली। एक अन्य अवसर पर उस लड़की को एक सूटकेस में बंद पाया गया। परिवार में सदा दहशत और तनाव का वातावरण बना रहा। एक जुलाई 1970 को तो भूतों ने श्रीवास्तव की पत्नी को ही जला डाला बाद में अस्पताल में उसने दम तोड़ दिया।

उपर्युक्त घटना से मिलती−जुलती एक घटना ब्राजील के साओ पाउलों राज्य के इटपिया नगर में रहने वाले काँटों के घर में घटी थी। इसका विवरण ब्राजील के सर्वाधिक प्रतिष्ठित और विश्वसनीय दैनिक पत्र ‘ओ कुजारों’ ने प्रस्तुत किया था। इसके अनुसार अप्रैल 1959 की सुबह काँओ साहब अपने घर में बैठे थे। अचानक उनके घर में पत्थरों की वर्षा होने लगी। यह क्रम दो−तीन दिन तक कुछ अंतराल में बराबर होता रहा। इसके बाद पत्थरों की जगह बरतन, आलू, प्याज, शलजम आदि की बारिश होने लगी। इसका कहीं कोई समाधान नजर नहीं आ रहा था। आखिरकार इसे प्रेतबाधा मानकर उपचार हेतु एक पादरी को बुलाया गया। भूतों ने उन पर भी हमला बोल दिया। इस रहस्यमयी घटना से सभी त्रस्त और हैरान थे। काफी खोजबीन के पश्चात् पता चला कि यह उपद्रव काँटो की नौकरानी फ्रांसिस्को को लक्ष्य करके होती थी। संभवतः भूत फ्रांसिस्को की आड़ में यह ताँडव−लीला कर रहे थे। इस घटना के संदर्भ में ‘ओ कुजारो’ अपने संपादकीय में लिखते हैं, “इन विचित्र घटनाओं के प्रत्यक्षदर्शी काफी समझदार और उच्च प्रतिष्ठित लोग हैं, पर उनके लिए भी यह रहस्य के घेरे में घिरा रहा।”

इंग्लैंड के सी. ई. एम. जोड विश्व के अग्रणी चिंतकों, मनोवैज्ञानिकों, दार्शनिकों और प्रख्यात लेखकों की गणना में आते थे। सन् 1944 में बी. बी. पी. पर आयोजित एक परिसंवाद में भाग लेते हुए उन्होंने कहा था, मैं पहले भूत−प्रेतों में विश्वास नहीं रखता था, परंतु उस दिन से करने लगा, जिस दिन प्रयोगशाला में अज्ञात ढंग से मुझ पर साबुन की टिकिया बरसने लगीं। इंग्लैंड के एक और विश्वविख्यात लेखक, नाटककार तथा अभिनेता तोराल कोवार्ड का भी कहना है कि भूतों को मात्र जादुई कल्पना कहकर टाला नहीं जा सकता। उन्होंने इनके अस्तित्व को स्वीकारा है।

इसी तरह की एक और प्रेतलीला 5 जुलाई 1973 को होशंगाबाद में हुई। होशंगाबाद के वलर्क सुभाषचंद्र जैन का परिवार भी ऐसे ही एक विचित्र हादसे का शिकार हुआ। एक दिन श्री जैन की चारपाई में आग चलने लगी, परंतु, सबसे बड़ी हैरानी की बात थी कि उस आग की लपटों का उनकी माँ के शरीर पर कोई प्रभाव न था। उनके शरीर पर आँच आने या झुलसने का कोई चिह्न नहीं था। श्री जैन के परिवार में आग लगने की यह घटना बराबर चलती रही। उन्होंने इससे परेशान होकर एक नहीं कई−कई मकान बदल डाले, लेकिन हर मकान पर यही दृश्य उपस्थित होता। जिस किसी मकान में गए वहीं कमरे की विभिन्न वस्तुओं में आग लग जाती। इस विचित्र प्रकोप से सुभाष को किराये का मकान मिलना मुश्किल हो गया। अंततः उन्होंने एक जैन मंदिर में शरण ली। वहाँ भी उनका पीछा न छूटा। कई प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार एकाएक अग्नि की लपटें उठतीं और बुझाने पर बुझ भी जाती। अंत में तो गीले कपड़ों, दीवारों, अचार, दाल, चावल के डिब्बों, अटैची आदि इन रहस्यमयी आग से राख बन गए। इसके निराकरण के लिए एक पंडित को आमंत्रित किया गया। पंडित जी ने जैसे ही भागवत् का एक पन्ना पढ़ा कि दूसरे पन्ने में आग लग गई। प्रेतों की यह करतूत अपने में रहस्य ही बनी रही।

प्रेतों का स्वरूप भिन्न−भिन्न होता है। कभी−कभी वे अपने विगत जन्मों के परिचितों पर भी अपना रुख दिखाते हैं। इसके पीछे उनकी अतृप्त इच्छाएँ समाई रहती हैं। पुष्पा सुँदर एवं आकर्षक युवती थी। उसका अपने पड़ोस के एक युवक अरुण से प्यार हो गया। प्रेम विवाह में परिणत होने से पहले ही असफल हो गया। समय के बढ़ते प्रवाह ने उसकी स्मृति पर विस्मृति की मोटी परत जमा दी। बात आई गई हो गई। बीस वर्ष के लंबे अंतराल के बाद अरुण दार्जिलिंग से पुष्पा का हस्तलिखित पत्र प्राप्त कर हर्ष मिश्रित आनंदित हुआ। कुछ दिन बाद पुनः एक पत्र मिला, जिसमें अरुण को दार्जिलिंग आने का प्रेमपूर्ण अनुरोध किया गया था। अरुण इस निवेदन को टाल न सका और उसने बनारस से दार्जिलिंग की ओर प्रस्थान किया। दार्जिलिंग के स्टेशन पर ही एक खाकी वरदीधारी ने उसकी अगवानी की और कहा, मैं पुष्पा जी का ही ड्राइवर हूँ, मेरा नाम बहादुर सिंह है। पुष्पा जी ने आपको लाने के लिए अपनी कार भेजी है। बहादुर उसे एक आलीशान बंगले में पहुँचाकर कहीं गायब हो गया। बंगले की मल्लिका पुष्पा पूरे श्रृंगार के साथ उसके सामने आई और अभिवादन किया।

अजमेर की रहने वाली पुष्पा आज ऐश्वर्य एवं वैभव की स्वामिनी बन बैठी थी। पता नहीं कब उसके भाग्य ने करवट बदली। यह सब देखते ही अरुण हतप्रभ रह गया। विगत स्मृति चलचित्र की भाँति चलने लगी। इसी बीच पुष्पा चाँदी के गिलास में दूध और सोने की तश्तरी में स्वल्पाहार लेकर उपस्थित हुई। उसने बड़े विस्तार के साथ अपनी आपबीती सुनाई। इतने में ही एक भयानक दृश्य दिखाई दिया। कंधे पर बंदूक रखे और कमर में तलवार लटकाए एक आदमी ने उस कमरे में प्रवेश किया तथा आव देखा न ताव, पुष्पा पर गोली चला दी। बचाने को आए बहादुर सिंह को भी उसने गोली मार दी। कमरे में दो मर्मभेदी चीत्कार गूँजने के बार तनावयुक्त उदासी छा गई। आलीशान बंगले का वह कमरा खून से लथपथ दो लाशों से भरा बड़ा ही वीभत्स दिख रहा था। अरुण ने उसे अपने शब्दों में व्यक्त किया, “इस घटना से परेशान मैं भागता हुआ पुलिस स्टेशन पहुँचा और इंस्पेक्टर को बीती रात की सारी घटनाएँ एक साँस में कह सुनाई। इसके विपरीत इंस्पेक्टर ने प्रतिक्रिया हीन मेरी बातों पर कोई ध्यान नहीं दिया। उसने मुझे बताया कि यह कुछ नहीं प्रेतलीला है। इसके एक माह पूर्व भी किसी व्यक्ति ने इसी तरह की रिपोर्ट दर्ज कराई थी। इंस्पेक्टर जब मेरे साथ अटैची लेने साथ गया, तो वहाँ का परिवेश देखकर बड़ी हैरानी हुई। वह एक भुतहा खंडहर था, जहाँ लाल रेशमी कपड़े में लिपटा एक पैकेट मिला। इसे खेलने पर सिंदूर की डिबिया और काँच की लाल चूड़ियाँ मिलीं। बीती रात इसी पैकेट को पुष्पा मेरी ओर बढ़ा रही थी कि हत्या की वारदात घट गई।” आज वह भुतहा मकान कलकत्ता के किसी सेठ का आलीशान होटल है।

अरुण शर्मा ने अपने परलोक विज्ञान में अपनी आप−बीती प्रेतलीला का इस तरह वर्णन किया है। उन्होंने लिखा है, जब मैं कमरे में बैठा था, उस रात एक अजनबी लड़की आई। उसने अपना परिचय जवा नाम से दिया। मुझे याद आया, जवा हरिमोहन चतुर्वेदी की भाँजी थी और ये लोग बनारस में मेरे पड़ोसी थे। जब मैंने अपने अतीत के भूले−बिसरे पन्नों को पलटा, तो याद आया जवा पढ़ने−लिखने में बहुत कमजोर थी। किसी तरह बी.ए. पास कर वह अपने घर चली गई। तीन−चार साल बाद चतुर्वेदी जी रिटायर हुए और वे इंदौर चले गए। बाद में पता चला कि जवा की शादी हो गई, परंतु इतने लंबे समय के अंतराल में जवा यहाँ कैसे आ पहुँची? मैंने सोचा हो सकता है कि यहीं किसी रिश्तेदार के पास आई होगी। इतने वर्षों के बाद अप्रत्याशित भेंट से स्वाभाविक है उसके प्रति जानने की जिज्ञासा जागना।

जवा कश्मीरी थी। अगली मुलाकात में उसने बताया कि वह उसकी सहेली रूपा के यहाँ ठहरी है। बोली कि आज व्यस्तता कुछ ज्यादा होने के कारण अगली रात आएगी। दूसरी रात को वह आई। वह अत्यंत स्वाभाविक स्थिति में तथा प्रसन्नचित्त थी। मेरे पड़ोस में रहने के कारण मैं उसके स्वभाव से परिचित था। वह वहाँ बैठ गई तथा ढेर सारी बातें करने लगी। उसने अपनी फोटो खींचने का आग्रह किया। इसके पूर्व भी मैँने उसके कई फोटो खींचे थे। बातों−बातों में उसने प्रेत विद्या का जिक्र किया। उसने इससे संबंधित सूक्ष्म से सूक्ष्मतम तथ्यों तक को स्पष्ट करके रख दिया। मैं जवा की इन गंभीर बातों पर हैरान था। बल्कि मेरा ज्ञान भी जवा के समान सूक्ष्म और गंभीर नहीं था। अंतिम रात जवा की बातों से मैं सिहर उठा। वह बोल उठी, परिमल क्राँति घोष की प्रेत विद्या के कारण मैं तुम्हारे पास आकर्षित होकर चली आई हूँ। यह सुनते ही लगा, मानो में किसी भयंकर इंद्रजाल में फँस गया हूँ। किसी अज्ञात भय से मेरा सारा शरीर काँप उठा। फिर न जाने कब तक अचेत पड़ा रहा। जब उठा तो सुबह हो गई थी। दूसरे दिन परिमल घोष को विगत घटना की जानकारी दी, तो उन्होंने बताया कि जवा ने शादी के पश्चात् आत्महत्या कर ली थी और वह तुम्हें प्रेम करती थी। इसलिए भटकती हुई वह तुम्हारे पास खिंचती चली आई। जब मैंने जवा की खिंची तस्वीर देखी, तो और भी हैरानी हुई। फोटो में कमरे का सारा दृश्य यथावत् था, परंतु उस फोटो में जवा नहीं थी।

हसन नियाज अलीगढ़ विश्वविद्यालय में अरबी भाषा और साहित्य के प्राध्यापक थे। नियाज साहब के पिता अपने जमाने के मशहूर लेखक और अरबी व फारसी के उच्चकोटि के विद्वान् थे। उनकी स्वयं की लाइब्रेरी थी, जिसमें हजारों की संख्या में विभिन्न विषयों की पुस्तकें व्यवस्थित थीं। जिस मकान में लाइब्रेरी थी, वह अलीगढ़ शहर के बाहर बड़े ही सुनसान जगह पर था। नियाज साहब की मौत के बाद लाइब्रेरी अक्सर खाली पड़ती रहती थी। एक रिसर्च स्कॉलर नियाज साहब से अनुमति लेकर वहीं पढ़ने आया। युवक वहीं पास के एक मकान में रहने लगा। मकान के बगल में ही संगमरमर की कब्र थी। वहाँ हमेशा एक चिराग जलता रहता था, लेकिन जलाने वाले का कोई पता−ठिकाना नहीं मिल पाया।

उस स्कॉलर ने बताया, मैं एक दिन खिड़की के पास बैठकर पुस्तक पढ़ रहा था। अचानक एक लड़की आई और जलते हुए चिराग को रख गई। मैंने समय नोट कर लिया और देखा कि वह ठीक नियत समय में चिराग रखकर चली जाती है। नित्यप्रति की इस घटना को सामान्य समझकर मैंने टाल दिया। कुछ दिन से कड़ाके की सरदी पड़ रही थी। उसी दौरान बारिश भी जमकर हो रही थी। संयोगवश मैं वहीं खिड़की के सामने अपनी रिसर्च के नोट्स तैयार कर रहा था। विषय की गंभीरता एवं भारीपन से मन भी बोझिल−सा हो रहा था। एकाएक मुझे याद आई चिराग वाली बात। सोच वह लड़की आज चिराग जलाने कैसे आएगी? परंतु वह भीगती हुई आई और चिराग रखकर खड़की हो गई। तब तक मेरा मन शाँत हो चुका था एवं मैं पुनः अपने कार्य में व्यस्त हो गया। एक आवाज ने मुझे चौंका दिया। वही चिराग वाली युवती मेरे सामने खड़ी थी। वह नाजिमा थी और वह बोली कि मैदान के उस पार लाल कोठी में उसका घर है। उस दिन के बाद नाजिमा नित्य मेरे कमरे में आती और घंटों अपने बारे में बताती रहती थी।

नाजिमा को भी पढ़ने का शौक था। वह गंभीर से गंभीरता विषयों को बड़े सरल एवं सहज ढंग से प्रतिपादित कर देती। उसकी भाषा परिष्कृत एवं प्रतिपादन शैली बड़ी सुँदर थी। बरबस मैं नाजिमा की ओर आकर्षित होने लगा। इसके पीछे एक और कारण भी था। वह मुझे कठिन वक्त पर आर्थिक सहयोग भी करती थी। उसने कई बार मुझे सौ−सौ के नए नोट निकालकर दिए। भला कैसे उसके एहसान को भूला जा सकता है। एक दिन वह आई और चली गई। कई दिन हो गए, वह नहीं आई, तो मैं उसके बताए पते पर लाल कोठी की ओर चल पड़ा। लाल बंगले पर एक बुढ़िया बैठी हुई थीञ नाजिमा का पता पूछने पर उसने एक कब्र की ओर इशारा कर दिया। कब्र के ऊपर लाल पत्थर पर उर्दू में साफ−साफ लिखा था, “नाजिमा, मेरी प्यारी नाजिमा, मैं तुम्हारा इंतजार करूंगा।” मैं सन्न रह गया। इसका मतलब नाजिमा की आत्मा ही मेरे पास आई एवं सहयोग देकर अदृश्य हो गई।

प्रेतयोनि इच्छाओं एवं वासनाओं की अतृप्त योनि है। इस तरह हर भटकती आत्मा का वह विचित्र संसार है। जहाँ दमित, दूषित और अतृप्त भोगों की कल्पना करने वाला हर प्राणी पहुंचता है। इसके विपरीत श्रेष्ठ, कर्म, सद्चिंतन एवं निष्काम सेवापरायण मनुष्य स्वर्ग एवं उच्चतर लोकों को प्राप्त करता है, भगवत्प्राप्ति की लक्ष्य−सिद्धि तक पहुँचता है। अतः हर मनुष्य को इस दुर्लभ मानव शरीर से सतत श्रेष्ठ कर्म में लगे रहना चाहिए।

एक बालक मिठाई बहुत खाता था, उसकी यह आदत उसके स्वास्थ्य को बिगाड़ रही थी। बालक मानता नहीं था। निदान के लिए उसकी माता उसे रामकृष्ण परमहंस की शिक्षा का अधिक प्रभाव पड़ने की आशा से उनके पास ले गई और प्रार्थना की कि आप इसे उपदेश देकर मिठाई खाना छुड़ा दें। परमहंस ने उसे एक सप्ताह बाद आने को कहा। महिला चली गई। एक सप्ताह बाद आई, तब उन्होंने बालक को उपदेश दिया और उसने मिठाई छोड़ भी दी।

महिला ने एक सप्ताह विलंब लगाने का कारण पूछा, तो परमहंस ने कहा, तब तो मैं मिठाई स्वयं खाता था। जब बालक को उपदेश देना आवश्यक प्रतीत हुआ, तो पहले मैंने स्वयं मिठाई छोड़ी, तब बालक को कहा। जो करता है, उसी की शिक्षा का प्रभाव भी पड़ता है।

यह प्राथमिक आवश्यकता है कि व्यक्ति पहले अपने चिंतन को देखे। लोकसेवी व सत्साहस संघर्ष करने के लिए आगे आने वाले के लिए तो यह एक अनिवार्य प्रक्रिया हैं।

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